________________
चतुर्नाम
१६७
इसी प्रकार पटोऽत्र, घटोऽत्र में मूल पद क्रमशः पटः, घटः हैं, जो “अतोऽत्युः" (सारस्वत व्याकरण, १०६/६) सूत्रानुसार पटो, घटो में परिवर्तित हो जाते हैं। इन पदों के अन्त में ओकार है। यहाँ भी पूर्वानुसार ‘एदोतोऽतः' सूत्रानुसार 'अ' का लोप हो जाता है।
३. प्रकृतिनिष्पन्न - प्रकृतिनिष्पन्न नाम का तात्पर्य पंचसंधि के अन्तर्गत प्रकृतिभाव संज्ञक संधि से है। इसका तात्पर्य यह है कि जहाँ संधि नियम तो लागू हों किन्तु उनका स्वरूप परिवर्तित न हो। क्योंकि व्याकरण की पद्धति है, जो नियम पहले आये हैं, यदि उनका बाधक नियम बाद में आ जाय तो पूर्व नियम कार्यकर नहीं होता - यथा - "परेण पूर्व बाधोहि प्रायशो दृश्यतामिह"।
यहाँ प्रकृतिनिष्पन्न नामों के अग्नीएतौ, पटूइमो, शाले एते, माले इमे - ये चार उदाहरण दिए हैं। .. अग्नी एतौ में - 'अग्नी' - अग्नि के प्रथमा द्विवचन का रूप है। एतौ - एतत् सर्वनाम के पुल्लिङ्ग द्विवचन का रूप है।
पटू इमौ में - ‘पटू' शब्द पटु के प्रथमा द्विवचन का रूप है। इमौ (इदम् शब्द) पुल्लिंग (अयम्) के प्रथमा द्विवचन का रूप है।
शाले एते - यहाँ 'शाले' आकारान्त 'शाला' शब्द के प्रथमा द्विवचन का रूप है। ‘एते' एतत् शब्द के प्रथमा द्विवचन का रूप है। . इसी प्रकार माले एते में भी ज्ञातव्य है।
यहाँ "टवे द्विव्वे" (सारस्वत व्याकरण, ६६/२) सूत्रानुसार पद के अन्त में आने वाले ई, ऊ और ए के साथ आगे आने वाले अक्षरों की संधि नहीं होती। इन उदाहरणों में 'टवे द्विव्वे' सूत्र पूर्वोक्त संधि नियमों को बाधित करता है, अतः ये अपने मूल रूप में ही विद्यमान रहते हैं।
४. विकारनिष्पन्न - किसी वर्ण का रूप परिवर्तन विकार कहा जाता है। "सर्वेर्णे दीर्घः सह" (सारस्वत व्याकरण, २/५२) इस सूत्र के अनुसार एक समान स्वर वर्ण के आगे तत्सदृश स्वर वर्ण आ जाय तो पहला दीर्घ हो जाता है। अ+अ=आ, इ+इ=ई इत्यादि।
यहाँ दण्डस्य+अग्रं-दण्डाग्रम, सा+आगता=साऽऽगता, दधि+इदं दधीदं, नदी+ईहते-नदीहते, मधु+उदकंमधूदकं, बहु+ऊहते-बहूहते।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org