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भावोपक्रम
मंत्री ने किस प्रकार राजा भद्रबाहु के अभिप्राय को समझा और किस अनूठे ढंग से उसे कार्यान्वित किया, यह उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट है। अमात्य (मंत्री) द्वारा जाने गए राजा के उक्त अभिप्राय को शास्त्रकारों ने नो-आगमतः अप्रशस्त भावोपक्रम बताया है। यह अप्रशस्त भावोपक्रम इसलिए है कि परमार्थ एवं आत्म-कल्याण के साथ इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। ___ अप्रशस्त भावोपक्रम के अन्य उदाहरण - प्रस्तुत सूत्र में 'अमच्चाईणं' पद है, यहाँ का 'आदि' शब्द ब्राह्मणी, गणिका और अमात्य की भांति दूसरों के अभिप्रायों को समझने वाले अन्य व्यक्तियों का सूचक है। जैसे, दो भाई हैं। बड़े भाई ने छोटे भाई पर अकारण ही रोष करके उसे पीटा। उसका रुदन सुनकर माता बड़े पुत्र को सजा देने के लिए हाथ में डंडा लेकर आती दिखाई दी। माता के हाथ में डंडा देखकर लड़का माता के अभिप्राय को भाँप गया और वह तत्काल वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गया। यहाँ बड़े लड़के के द्वारा माता के अभिप्राय को समझना, नो-आगमतः अप्रशस्त भावोपक्रम है। ऐसे ही अन्य उदाहरणों की कल्पना की जा सकती है। . से किं तं पसत्थे णोआगमओ भावोवक्कमे?
पसत्थे० गुरुमाईणं। सेत्तं णोआगमओ भावोवक्कमे। सेत्तं भावोवक्कमे। सेत्तं उवक्कमे।
शब्दार्थ - गुरुमाईणं - गुरु आदि के। भावार्थ - प्रशस्त भावोपक्रम का क्या स्वरूप है?
गुरु आदि के भाव या अभिप्राय को यथार्थ रूप में जानना प्रशस्त नोआगमतः भावोपक्रम है। यह नोआगमतः भावोपक्रम का स्वरूप है। इस प्रकार भावोपक्रम का वर्णन समाप्त होता है। यह उपक्रम का विवेचन है। ..
विवेचन - भावोपक्रम के प्रशस्त और अप्रशस्त जो दो भेद किए गए हैं, वहाँ प्रशस्तता और अप्रशस्तता का संबंध लौकिकता तथा धार्मिकता या आध्यात्मिकता के साथ जुड़ा है। सांसारिक जनों के भावों को जानना अप्रशस्त इसलिए है कि वे मात्र लौकिक या व्यावहारिक होते हैं, जिनमें पुण्यात्मकता, पापात्मकता आदि आशंकित है। गुरु आदि के अभिप्राय को जानना प्रशस्त इसलिए है कि वह धार्मिक, आध्यात्मिक या सर्वथा पुण्यात्मक होता है। गुरु से अभिप्राय यहाँ धार्मिक गुरु या संयति मुनि से है।
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