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उपक्रम का शास्त्रीय विवेचन
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दव्वाणुपुव्वी दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - आगमओ य १ णोआगमओ य । भावार्थ - द्रव्यानुपूर्वी किस प्रकार की है? . द्रव्यानुपूर्वी आगमतः एवं नोआगमतः के रूप में दो प्रकार की कही गई है। से किं तं आगमओ दव्वाणुपुव्वी?
आगमओ दव्वाणुपुव्वी-जस्स णं आणुपुवि' त्ति पयं सिक्खियं, ठियं, जियं, मियं, परिजियं जाव णो अणुप्पेहाए। कम्हा? 'अणुवओगो' दव्वमिति कह।
भावार्थ - आगमतः द्रव्यानुपूर्वी किस प्रकार की है?
जिसने आनुपूर्वी के पद को सीखा है, स्थित, जित, मित और परिजित किया है यावत् अनुप्रेक्षा, अर्थानुचिन्तन न होने से वह आगमतः द्रव्यानुपूर्वी है, क्योंकि "अनुपयोगो द्रव्यम्" जो उपयोग रहित होता है, वह द्रव्य है, इस सिद्धान्त वाक्य के अनुसार इसको आगमतः द्रव्यानुपूर्वी कहा गया है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में आए शिक्षित आदि पदों का विश्लेषण इस प्रकार है - शिक्षित (सिक्खियं) - सामान्य रूप से सीख लेना, गुरु से स्वायत कर लेना। स्थित (ठियं) - सीखे हुए को अपने मस्तिष्क में, स्मृति में टिकाना, स्थिर बनाना।
जित (जियं) - जिसे सीख लिया है, मस्तिष्क में स्थिर कर लिया है, उसका अनुक्रम पूर्वक पाठ करना, जित है।
- मितं (मियं). - शिक्षित पदार्थ - पाठगत अक्षर आदि की मर्यादा, नियमबद्धता, संयोजना आदि का ज्ञान करना।
परिजित (परिजियं) - यहाँ जित के पहले परि उपसर्ग लगा है। परि उपसर्ग पूर्णतः का द्योतक है। अधीत पर पूर्णतः अधिकार कर लेना इसके अन्तर्गत है।
णेगमस्स णं एगो अणुवउत्तो आगमओ एगा दव्वाणुपुव्वी जाव जाणए अणुवउत्ते अवत्थु। कम्हा? - जइ जाणए, अणुवउत्ते ण भवइ, जइ अणुवउत्ते, जाणए ण भवइ, तम्हा णत्थि आगमओ दव्वाणुपुव्वी। सेत्तं आगमओ दव्वाणुपुव्वी।।
भावार्थ - नैगमनय की अपेक्षा से एक उपयोग रहित आत्मा एक आगम द्रव्यानुपूर्वी है
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