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अनुयोगद्वार सूत्र
१. धर्मास्तिकाय रूप पश्चानुपूर्वी है २. अधर्मास्तिकाय ३. आकाशास्तिकाय ४. जीवास्तिकाय ५. पुद्गलास्तिकाय तथा ६. काल रूप पश्चानुपूर्वी है।
यह पश्चानुपूर्वी का स्वरूप है।
विवेचन - अंतिम से लेकर प्रथम तक - विपरीत क्रम से प्रतिपादन करना पश्चानुपूर्वी है। पश्चात् का तात्पर्य आखिरी है।
३. अनानुपूर्वी से किंतं अणाणुपुव्वी?
अणाणुपुव्वी-एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए छगच्छगयाए सेढीएं अण्णमण्णब्भासो दुरूवूणो। सेत्तं अणाणुपुव्वी।
शब्दार्थ - एगाइयाए - एक से प्रारम्भ कर, एगुत्तरियाए - एक-एक की वृद्धि करने से, छगच्छगयाए - छह पर्यन्त निष्पन्न, सेढीए - श्रेणी के, अण्णमण्णब्भासो - अन्योन्याभ्यास्त - परस्पर गुणन से प्राप्त राशि, दुरूवूणो - दो कम - आदि और अन्त को छोड़ कर।
भावार्थ - अनानुपूर्वी का कैसा स्वरूप है?
एक से प्रारम्भ कर, एक-एक की वृद्धि करते हुए छह पर्यन्त निष्पादित श्रेणी के अंकों का परस्पर गुणन करने से प्राप्त राशि में से आदि और अन्त के दो भंगों को कम करने पर, जो भंग विद्यमान रहते हैं, उसे अनानुपूर्वी (औपनिधिकी) कहते हैं। यह अनानुपूर्वी का स्वरूप है।
विवेचन - अनानुपूर्वी में १, २, ३, ४, ५, ६ - यों एक से प्रारम्भ कर छह पर्यन्त के अंकों में परस्पर गुणन से (१४२४३४४४५४६-७२०) जो भंग राशि प्राप्त होती है, उसमें से (७२० में से) आदि और अंत के दो भंगों (प्रथम और ७२० वें भंग) को कम करने से ७१८ भंग शेष रहते हैं। यह अनानुपूर्वी का क्रमविन्यास है।
षड् द्रव्यों का क्रमविन्यास - धर्म पद मांगलिक होने से सर्वप्रथम धर्मास्तिकाय का और तत्पश्चात् उसके प्रतिपक्षी अधर्मास्तिकाय का उपन्यास किया गया है। इनका आधार आकाश है, अतः इन दोनों के अनन्तर आकाशास्तिकाय का उल्लेख किया है, तत्पश्चात् आकाश की तरह अमूर्तिक होने से जीवास्तिकाय का न्यास किया है। जीव के भोगोपभोग में आने वाला होने से जीव के अनन्तर पुद्गलास्तिकाय का विन्यास किया है तथा जीव और अजीव का पर्याय रूप होने से सबसे अंत में अद्धासमय का उपन्यास किया है।
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