________________ व्यवहारसूत्र प्रतिपादित पांच व्यवहारों से संयमी प्रात्माओं का व्यवहारपक्ष शुद्ध (अतिचारजन्य पापमल-रहित) होता है। ग्रन्थ में प्रकाशित छेदसूत्रों के लिये कतिपय विचार व्यक्त किये हैं। इस लेखन में मेरे द्वारा पूर्व में सम्पादित अायारदसा, कप्पसुत्तं छेदसूत्रों में पण्डितरत्न मुनि श्री विजयमुनिजी शास्त्री के "प्राचारदशा: एक अनुशीलन" और उपाध्याय मुनि श्री फूलचन्दजी 'श्रमण के "बृहत्कल्पसूत्र की उत्थानिका" के प्रावश्यक लेखांशों का समावेश किया है। एतदर्थ मुनिद्वय का सधन्यवाद आभार मानता हूँ। विस्तृत विवेचन आदि लिखने का कार्य श्री तिलोकमुनिजी म. ने किया है। अतएव पाठकगण अपनी जिज्ञासानों के समाधान के लिये मुनिश्री से संपर्क करने की कृपा करें। ----मुनि कन्हैयालाल "कमल" [ 34 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org