Book Title: Agam 26 Chhed 03 Vyavahara Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 259
________________ बसवां उद्देशक] [439 (1) शारीरिक ममत्व का त्याग करना अर्थात् नियमित परिमित आहार के अतिरिक्त औषधभेषज के सेवन का और सभी प्रकार के शरीरपरिकर्म का त्याग करना। (2) देव, मनुष्य या तिर्यंच द्वारा किए गए उपसर्गों का प्रतिकार न करना और न उनसे बचने का प्रयत्न करना / (3) किसी के वन्दना या आदर-सत्कार किये जाने पर प्रसन्न न होना, अपितु समभाव में लीन रहना। (4) जिस मार्ग में या जिस घर के बाहर पशु या पक्षी हों तो पशुओं के चारा चर लेने के बाद और पक्षियों के चुग्गा चुग लेने के बाद पडिमाधारी को आहार लेने के लिए घर में प्रवेश करना। (5) पडिमाधारी के आने की सूचना या जानकारी न हो या उनकी कोई प्रतीक्षा करता न हो, ऐसे अज्ञात घरों से आहार ग्रहण करना। (6) उंछ-विगयरहित रूक्ष पाहार ग्रहण करना / (7) शुद्धोपहृत-लेप रहित आहारादि ग्रहण करना / (8) अन्य भिक्ष श्रमणादि जहां पर खडे हों, वहां भिक्षा के लिये न जाना। (9) एक व्यक्ति का आहार हो उसमें से लेना, अधिक व्यक्तियों के आहार में से नहीं लेना। (10) किसी भी गर्भवती स्त्री से भिक्षा न लेना। (11) जो छोटे बच्चे को लिए हुए हो, उससे भिक्षा न लेना। (12) जो स्त्री बच्चे को दूध पिला रही हो, उससे भिक्षा न लेना। (13) घर की देहली के अतिरिक्त अन्य कहीं पर भी खड़े हुए से भिक्षा नहीं लेना। (14) देहली के भी एक पांव अन्दर और एक पांव बाहर रख कर बैठे हुए या खड़े हुए दाता से भिक्षा ग्रहण करना। एषणा के 42 दोष एवं अन्य भागमोक्त विधियों का पालन करना तो इन प्रतिमाधारी के लिए भी आवश्यक ही समझना चाहिए। इन दोनों चन्द्रप्रतिमाओं की आराधना एक-एक मास में की जाती है। इन उक्त नियमों के अनुसार यदि अाहार मिले तो ग्रहण करे और न मिले तो ग्रहण न करे अर्थात् उस दिन उपवास करे। प्रतिमाधारी भिक्षु भिक्षा का समय या घर की संख्या निर्धारित कर लेता है और उतने समय तक या उतने ही घरों में भिक्षार्थ भ्रमण करता है / आहारादि के न मिलने पर उत्कृष्ट एक मास की तपश्चर्या भी हो जाती है। किन्तु किसी भी प्रकार का अपवाद सेवन वह नहीं करता है। __ भाष्य में बताया है कि ये दोनों प्रतिमाएं बीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाला, तीन संहनन वाला और नव पूर्व के ज्ञान वाला भिक्षु ही धारण कर सकता है। भाष्य के अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि "सब्वेहि दुप्पय-चउप्पय-माइएहिं आहार कंखीहिं सत्तेहि पडिणियहि" इतना पाठ भाष्यकार के सामने नहीं था / उन्होंने क्रमशः शब्दों की एवं वाक्यों की व्याख्या की है। किन्तु इस वाक्य की व्याख्या नहीं की है और इस वाक्य के भावार्थ को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287