________________ बसवां उद्देशक [445 किसी भी पुरुषार्थ का अच्छा परिणाम नहीं है, अपितु दुष्परिणाम है। इसलिए इसका विवेक रखना आवश्यक है। धर्मदृढता की चौभंगियां 9. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा–१. रूवं नाममेगे जहइ, नो धम्म, 2. धम्म नाममेगे जहइ, नो रूवं, 3. एगे रूवं वि जहइ, धम्म वि जहइ, 4. एगे नो रूवं जहइ, नो धम्मं जहइ / 10. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—१. धम्मं नाममेगे जहइ, नो गणसंठिइं, 2. गणसंठिइं नाममेगे जहइ, नो धम्मं, 3. एगे गणसंठिई वि जहइ, धम्म वि जहइ, 4. एगे नो गणसंठिइं जहइ, नो धम्मं जहइ। 11. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-१. पियधम्मे नाममेगे, नो ढधम्मे, 2. दढधम्मे नाममेगे, नो पियधम्मे, 3. एगे पियधम्मे वि, दढधम्मे वि, 4. एगे नो पियधम्मे, नो दढधम्मे / 9. चार जाति के पुरुष कहे गये हैं, जैसे-१. कोई रूप (साधुवेष) को छोड़ देता है, पर धर्म को नहीं छोड़ता है / 2. कोई धर्म को छोड़ देता है पर रूप को नहीं छोड़ता है। 3. कोई रूप भी छोड़ देता है और धर्म भी छोड़ देता है / 4. कोई न रूप को छोड़ता है और न धर्म को छोड़ता है। 10. पुन: चार जाति के पुरुष कहे गये हैं / जैसे-१. कोई धर्म को छोड़ता है, पर गण की संस्थिति अर्थात् गणमर्यादा नहीं छोड़ता है / 2. कोई गण की मर्यादा भी छोड़ देता है, पर धर्म को नही छोड़ता है। 3. कोई गण की मर्यादा भी छोड़ देता है और धर्म भी छोड़ देता है। 4. कोई न गण की मर्यादा ही छोड़ता है और न धर्म ही छोड़ता है। 11. पुनः चार जाति के पुरुष कहे गये हैं, जैसे 1. कोई प्रियधर्मा है पर दृढधर्मा नहीं है / 2. कोई दृढधर्मा है, पर प्रियधर्मा नहीं है। 3. कोई प्रियधर्मा भी है और दृढधर्मा भी है। 4. कोई न प्रियधर्मा ही है और न दृढधर्मा ही है। विवेचन--इन चौभंगियों में साधक की धर्मदृढता आदि का कथन किया गया है / जिसमें निम्न विषयों की चर्चा है---- 1. साधुवेश और धर्मभाव, 2. धर्मभाव और गणसमाचारी की परम्परा, 3. धर्मप्रेम और धर्मदृढता / प्रथम चौभंगी में यह बताया गया है कि कई व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में अपने धर्मभाव और साधुवेश दोनों को नहीं छोड़ते और गम्भीरता के साथ विकट परिस्थिति को पार कर लेते हैं। यह साधक आत्माओं की श्रेष्ठ अवस्था है। शेष भंगवर्ती कोई साधक घबराकर बाह्यवेषभूषा का और संयम-प्राचार का परित्याग कर देता है, किन्तु धर्मभावना या सम्यश्रद्धा को कायम रखता है। ऐसा साधक आत्मोन्नति से वंचित रहता है, किन्तु दुर्गति का भागी नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org