________________ 446] [व्यवहारसूत्र कोई धर्मभाव का परित्याग कर देते हैं अर्थात् संयमाचरण और कषायों की उपशांति को छोड़ देते है, किन्तु साधुवेष नहीं छोड़ते हैं। कई साधक परिस्थिति आने पर दोनों ही छोड़ बैठते हैं। ये तीनों भंग वाले मार्गच्युत होते हैं / फिर भी दूसरे भंग वाला धर्म का आराधक हो सकता है / इस चौभंगी में चौथे भंग वाला साधक सर्वश्रेष्ठ है। द्वितीय चौभंगी के चौथे भंग में बताया है कि कई साधक किसी भी परिस्थिति में प्रागमसमाचारी और गच्छसमाचारी किसी का भी भंग नहीं करते किन्तु दृढता एवं विवेक के साथ सम्पूर्ण समाचारी का पालन करते हैं, वे श्रेष्ठ साधक हैं / शेष तीन भंग में कहे गये साधक अल्प सफलता वाले हैं / वे परिस्थितिवश किसी न किसी समाचारी से च्युत हो जाते हैं। उन भंगों की संयोजना पूर्व चौभंगी के समान समझ लेना चाहिए। तीसरी चौभंगी में धर्माचरणों की दृढता और धर्म के प्रति अन्तरंग प्रेम, इन दो गुणों का कथन है। धर्मदढता स्थिरचित्तता एवं गम्भीरता की सूचक है और धर्मप्रेम प्रगाढ श्रद्धा या भक्ति से सम्बन्धित है। किसी साधक में ये दोनों गुण होते हैं, किसी में कोई एक गुण होता है और किसी में दोनों ही गुणों की मंदता या अभाव होता है। सारांश-प्रथम चौभंगी में चौथा भंग उत्तम है, द्वितीय चौभंगी में भी चौथा भंग उत्तम है और तीसरी चौभंगी में तीसरा भंग उत्तम है। आचार्य एवं शिष्यों के प्रकार 12. चत्तारि आयरिया पण्णता, तं जहा 1. पवावणायरिए नामेगे, नो उवट्ठावणायरिए, 2. उवढावणायरिए नामेगे, नो पवावणायरिए, 3. एगे पव्वावणायरिए वि, उवट्ठावणायरिए वि, 4. एगे नो पन्धावणायरिए, नो उवट्ठावणायरिए-धम्यायरिए। 13. चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, तं जहा 1. उद्देसणायरिए नामेगे, नो वायणायरिए, 2. वायणायरिए नामेगे, नो उद्देसणायरिए। 3. एगे उद्देसणायरिए वि, वायणायरिए वि, 4. एगे नो उद्देसणायरिए, नो वायणायरिए–धम्मायरिए। 14. चत्तारि अंतेवासी पण्णत्ता, तं जहा 1. पम्वावणंतेवासी नामेगे नो उवट्ठावणंतेवासी, 2. उबट्ठावणंतेवासी नामेगे, नो पव्वावणंतेवासी, 3. एगे पव्वावणंतेवासी वि उवट्ठावणंतेवासी वि, 4. एगे नो पन्वावणंतेवासी, नो उवट्ठावणंतेवासी-धम्मंतेवासी। 15. चत्तारि अंतेवासी पण्णता, तं जहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org