________________ दसवां उद्देशक ] [ 453 32. सोलह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को तेजोनिसर्ग नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। 33. सत्तरह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को आसीविषभावना नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। 34. अठारह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को दृष्टि विषभावना नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। 35. उन्नीस वर्ष को दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को दृष्टिवाद नामक बारहवां अंग पढ़ाना कल्पता है। 36. बीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाला श्रमण-निग्रन्थ सर्वश्रुत को धारण करने वाला हो जाता है। विवेचन-इन पन्द्रह सूत्रों में क्रमशः आगमों के अध्ययन का कथन दीक्षापर्याय की अपेक्षा से किया गया है। जिसमें तीन वर्ष से लेकर बीस वर्ष तक का कथन है।। यह अध्ययनक्रम इस सूत्र के रचयिता श्री भद्रबाहुस्वामी के समय उपलब्ध श्रुतों के अनुसार है / उसके बाद में रचित एवं नियूंढ सूत्रों का इस अध्ययनक्रम में उल्लेख नहीं है / अतः उववाई आदि 12 उपांगसत्र एवं मलसत्रों के अध्ययनक्रम की यहां विवक्षा नहीं की गई है। फिर भी प्राचारशास्त्र के अध्ययन कर लेने पर अर्थात् छेदसूत्रों के अध्ययन के बाद और ठाणांग, समवायांग तथा भगवतीसूत्र के अध्ययन के पहले या पीछे कभी भी उन शेष सूत्रों का अध्ययन करना समझ लेना चाहिए। आवश्यकसूत्र का अध्ययन तो उपस्थापना के पूर्व ही किया जाता है तथा भाष्य में प्राचारांग व निशीथ के पूर्व दशवकालिक और उत्तराध्ययनसूत्र के अध्ययन करने का निर्देश किया गया है। उससे सम्बन्धित उद्धरण तीसरे उद्देशक में दे दिये गये हैं तथा निशी. उ. 19 में इस विषय में विनेचन किया है। 1. दशवकालिकसूत्र के विषय में ऐसी धारणा प्रचलित है कि भद्रबाहुस्वामी से पूर्व शय्यंभवस्वामी ने अपने पुत्र "मनक" के लिए इस सूत्र की रचना की थी। फिर संघ के आग्रह से इसे पुनः पूर्वो में विलीन नहीं किया और स्वतंत्र रूप में रहने दिया / 2. उत्तराध्ययनसूत्र के लिए भी ऐसी परम्परा प्रचलित है कि ये 36 अध्ययन भ. महावीर स्वामी ने अंतिम देशना में फरमाये थे / उस समय देशना सुनकर किसी स्थविर ने उनका सूत्र रूप में गुथन किया। किन्तु प्रस्तुत आगमअध्ययनक्रम में भद्रबाहुस्वामी द्वारा इन दोनों सूत्रों को स्थान नहीं दिए जाने के कारण एवं उन ऐतिहासिक कथनों का सूक्ष्मबुद्धि से परिशीलन करने पर सहज ही यह निष्कर्ष निकलता है कि ये दोनों सूत्रों से संबंधित धारणाएं काल्पनिक हैं / वास्तव में ये सूत्र भद्रबाहुस्वामी के बाद में और देवद्धिगणी के समय तक किसी भी काल में संकलित किए गए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org