Book Title: Agam 26 Chhed 03 Vyavahara Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003494/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति में आयोजित संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मा एकर मान त्रीणि चेदसत्राणि. [ दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र] (मूल अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-पाटीटाट युक्त) neration international Pe Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क ३२-आ {परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्री जोरावरमलजी महाराज को पुण्यस्मृति में प्रायोजित त्रीणि छेदसूत्राणि दशाश्रुतस्कन्ध - बृहत्कल्प व्यवहारसूत्र [मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, टिप्पण युक्त] प्रेरणा (स्व.) उपप्रवर्तक शासनसेवी स्वामी श्री बजलालजी महाराज संयोजक तथा प्राद्य सम्पादक (स्व०) युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' अनुवादक --- विवेचक---सम्पादक अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' गीतार्य श्री तिलोकमुनिजी म० प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ ३२-आ / निर्देशन ___ साध्वी श्री उमरावकुवर 'अर्चना' / सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री रतनमुनि 0 सम्प्रेरक मुनि श्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्रमुनि 'दिनकर' [प्रथम संस्करण वीर निर्वाण सं०२५१७ विक्रम सं० 2048 जनवरी 1992 ई. / प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति श्री ब्रज-मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) पिन-३०५९०१ ] मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ D मूल्य 160) रुपाने : . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publisbed at the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Shri Joravarmalji Maharaj TREENI CHHEDSUTRANI Dashashrutskandha Brihatkalpa Vyavhar Sutras ( Original Text with Variant Readings, Hindi Version, Notes and Annotations etc. ] Inspiring Soul (Late) Up-pravartaka Shasansevi Rev. Swami Shri Brijlalji Maharaj Convener & Founder Editor (Late) Yuvacharya Shri Mishrimalji Maharaj 'Madhukar' Trabslator-Annotator-Editor Anuyoga Pravartaka Muni Shri Kanbaiyalalji 'Kamal' Geetarth Shri Tilokmuniji Publishers Shri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj.) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publicatios No. 32-B O Direction Sadhwi Shri Umravkunwar 'Archana' Board of Editors Anuyogapravartaka Muni Shri Kanbaiyalalji 'Kamal' Upacharya Shri Devendra Muni Shastri Shri Ratan Muni O Promotor Muni Shri Vinayakumar 'Bhima' Sri Mahendra Muni 'Dinakar' First Edition Vir-Nirvana Samvat 2517 Vikram Samvat 2048, January 1992. O Publisher Shri Agam Prakashan Samiti, Shri Brij-Madhukar Smriti Bhawan, Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) Pin 305 901 O Printer Satish Chandra Shukla Vedic Yantralaya Kesarganj, Ajmer Price Rs Gtd +75| Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण निरतिचार संयमसाधना में सतत संलग्न रहने वाले अतीत, अनागत और वर्तमान के सभी श्रुतधर स्थविरों के करकमलों में। समर्पक अनुयोगप्रवर्तक मुनि कन्हैयालाल 'कमल' गीतार्थ तिलोकमुनि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय "त्रीणि छेदमुत्राणि' शीर्षक के अन्तर्गत दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार ये तीन छेदमूत्र प्रकाशित है। पृष्ठ मर्यादा अधिक होने से निशीथमुत्र को पृथक ग्रन्थांक के रूप में प्रकाशित किया है / इन चारों छेदसूत्रों का अनुवाद. विवेचन, संपादन अादि का कार्य मुख्य रूप से अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' के सान्निध्य में गीतार्थ मुनि श्री तिलोकमुनिजी ने वहुत परिश्रम. लगन और मनोयोगपूर्वक किया है। अताव पाठकगण छेदम्त्रों सम्बन्धी अपनी जिज्ञासानों के समाधान के लिए मुनि श्री तिलोकमुनिजी से संपर्क बनायें। आगमबत्तीमी के अंतिम वर्ग में छदसूत्रों का समावेश है। इनके प्रकाशन के साथ सभी आगमों का प्रकाशन कार्य संपन्न हो गया है / अताव उपमहार के रूप में ममिति अपना निवेदन प्रस्तुत करती है-- श्रमणमंध के युवाचार्यश्री स्व. श्रद्धय मधुकरमुनिजी म. सा. जब अपने महामहिम गुरुदेवश्री जोरावरमलजी म. सा. में प्रागमों का अध्ययन करते थे तब गुरुदेवश्री ने अनेक बार अपने उद्गार व्यक्त किये थे कि प्रागमों को उनकी टीकानों का मारांश लेकर सरल सुबोध भाषा, शैली में उपलब्ध कराया जाये तो पठन-पाठन के लिये विशेष उपयोगी होगा। गुरुदेवश्री के इन उदगारों में बवाचार्यश्री जी को प्रेरणा मिली। अपने ज्येष्ठ गहम्राता स्वामीजी श्री हजारीमलजी म., स्वामीजी श्री ब्रजलालजी म. से चर्चा करते, योजना बनाते और जब अपनी ओर मे योजना को पूर्ण पद दिया तब विद्वद्वर्य मुनिराजों, विदुषी साध्वियों को भी अपने विचारों में अवगत कराया। सद्गृहस्थों से परामर्श किया / इम प्रकार मभी और में योजना का अनुमोदन हो गया तब वि. सं. 2036 वैशाख शुक्ला 10 श्रमणभगवान महावीर के कैवल्यदिवस पर भगवान की देशना रूप पागमबत्तीसी के संपादन, प्रकाशन को प्रारम्भ करने की घोषणा कर दी गई और निर्धारित रीति-नीति के अनुसार कार्य प्रारम्भ हो गया। युवाचार्य चादर-प्रदान महात्मव दिवस पर ग्राचारांगम्त्र को जिनागम ग्रन्थमाला ग्रन्यांक 1 के रूप में पाठकों के अध्ययनार्थ प्रस्तुत किया। यह प्रकाशन-परम्पग प्रवाध गति में चल रही थी कि दारुणप्रसंग उपस्थित हो गया. अवसाद की गहरी घटायें घिर ग्राई। योजनाकार युवाचार्यश्री दिवंगत हो गये। यह मामिक ग्राघात था। किन्तु साहम और स्व. युवाचार्यश्री के वरद पाशीर्वादों का संबल लेकर समिति अपने कार्य में तत्पर रही। इसी का सुफल है कि ग्रागमवतीसी के प्रकाशन के जिस महान कार्य को प्रारम्भ किया था, वह यथाविधि सम्पन्न कर सकी है। ममिति अध्यात्मयोगिनी विदुषी महामती श्री उमरावकूवरजी म. सा. "अर्चना" की कृतज्ञ है। अपने मार्ग-दर्शन और युवाचार्यश्री के रिक्त स्थान की पुति कर कार्य को पूर्ण करने की प्रेरणा दी। पद्मश्री मोहनमलजी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा. चोरडिया, श्री चिम्मतसिंहजी लोढ़ा, श्री पुखराजजी शिशोदिया, श्री चांदमलजी बिनायकिया, पण्डित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल अादि व अन्यान्य अजात कर्मठ महयोगीयों का जो अब हमारे बीच नहीं हैं, स्मरण कर श्रद्धांजलि समर्पित करती है। अंत में समिति अपने सहयोगी परिवार के प्रत्येक सदस्य को धन्यवाद देती है। इनके सहकार में जैन वाङमय की चतुर्दिक-चतुर्गणित श्रीवृद्धि कर मकी है। हम तो इनके मार्गदर्शन में मामान्य कार्यवाहक की भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। रतनचन्द मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष अमरचन्द मोदी सायरमल चोरडिया महामंत्री श्री आगम प्रकाशन समिति, पीपलिया बाजार, ब्यावर-३०५९०१ अमरचन्द मोदी मंत्री Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय छेद-सूत्र : समीक्षात्मक विवेचन पागमों की संख्या स्थानकवासी जैन परंपरा जिन आगमों को वीतराग-वाणी के रूप में मानती है, उनकी संख्या 32 है। वह इस प्रकार है-ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल, चार छेद और एक आवश्यक / श्वेताम्बर मूर्ति-पूजक परंपरा के अनुसार पैंतालीस आगम हैं। अंग, उपांग आदि की संख्या तो समान है। किन्तु प्रकीर्णकों और छेदसूत्रों में निशीथ, दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प व व्यवहारसूत्र के साथ महानिशीथ और पंचकल्प को अधिक माना है। अंग, उपांग आदि आगमों में धर्म, दर्शन, आचार, संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, कला आदि साहित्य के सभी अंगों का समावेश है / परन्तु मुख्य रूप से जैन दर्शन और धर्म के सिद्धान्तों और आचारों का विस्तार से वर्णन किया गया है। अंग, उपांग, मूलवर्ग में प्रायः सैद्धान्तिक विचारों की मुख्यता है। आचारांग, उपासक दशांग और प्रावश्यक सूत्रों में प्राचार का विस्तार से वर्णन किया है। छेदसूत्र आचारशुद्धि के नियमोपनियमों के प्ररूपक हैं। प्रस्तुत में छेदसूत्रों सम्बंधी कुछ संकेत करते हैं। छेदसूत्र नाम क्यों? छेद शब्द जैन परम्परा के लिये नवीन नहीं है। चारित्र के पांच भेदों में दूसरे का नाम छेदोपस्थापनाचारित्र है / कान, नाक प्रादि अवयवों का भेदन तो छेद शब्द का सामान्य अर्थ है, किन्तु धर्म-सम्बन्धी छेद का लक्षण इस प्रकार है वज्झाणुटाणेणं जेण ण बाहिज्जए तये णियया। संभवइ य परिसुद्ध' सो पुण धम्मम्मि छेउत्ति / जिन बाह्यक्रियाओं से धर्म में बाधा न आती हो और जिससे निर्मलता की वद्धि हो, उसे छेद कहते हैं। अतएव छेदोपस्थापना का लक्षण यह हुआ-पुरानी सावध पर्याय को छोड़कर अहिंसा प्रादि पांच प्रकार के यमरूप धर्म में आत्मा को स्थापित करना छेदोपस्थापनासंयम है। अथवा जहाँ हिंसा, चोरी इत्यादि के भेद पूर्वक सावध क्रियाओं का त्याग किया जाता है और व्रतभंग हो जाने पर इसकी प्रायश्चित्त आदि से शुद्धि की जाती है, उसको छेदोपस्थापना संयम कहते हैं। यह निरतिचार और सातिचार के भेद से दो प्रकार का है। निरतिचार छेदोपस्थापना में पूर्व के सर्वसावद्यत्याग रूप सामायिक चारित्र के पृथक-पृथक अहिंसा आदि पंच महाव्रत रूप भेद करके साधक को स्थापित किया जाता है। सातिचार छेदोपस्थापनाचारित्र में उपस्थापित (पून: स्थापित) करने के लिये आलोचना के साथ प्रायश्चित्त भी आवश्यक है। यह प्रायश्चित्तविधान स्खलनाओं की गंभीरता को देखकर किया जाता है। प्रायश्चित्त दस प्रकार के हैं। इनमें छेदप्रायश्चित्त सातवां है। आलोचनाई प्रायश्चित्त से छेदाह प्रायश्चित्त पर्यन्त सात प्रायश्चित्त होते हैं। ये वेषयुक्त श्रमण को दिये जाते हैं। अंतिम तीन वेषमुक्त श्रमण को दिये जाते हैं। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेषमुक्त श्रमण को दिये जाने वाले प्रायश्चित्तों में छेदप्रायश्चित्त अंतिम प्रायश्चित्त है। इसके साथ पूर्व के छह प्रायश्चित्त ग्रहण कर लिये जाते हैं। मूलाह, अनवस्थाप्याई और पारिञ्चिकाई प्रायश्चित्त वाले अल्प होते हैं। आलोचनाह से छेदाह पर्यन्त प्रायश्चित्त वाले अधिक होते हैं। इसलिये उनकी अधिकता से सहस्राम्रवन नाम के समान दशाश्रुतस्कन्ध (आचारदसा) बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ आगमों को छेदसूत्र कहा जाता है। छेदसूत्रों का सामान्य वर्ण्य-विषय उपर्युक्त कथन से यह ज्ञात हो जाता है कि साधनामय जीवन में यदि साधक के द्वारा कोई दोष हो जाये कैसे बचा जाये, उसका परिमार्जन कैसे किया जाये, यह छेदसूत्रों का सामान्य वर्ण्य-विषय है। इस दृष्टि से छेदसूत्रों के विषयों को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है - 1. उत्सर्गमार्ग, 2. अपवादमार्ग, 3. दोषसेवन, 4 प्रायश्चित्तविधान / 1. जिन नियमों का पालन करना साधु-साध्वीवर्ग के लिये अनिवार्य है। बिना किसी होनाधिकता, परिवर्तन के समान रूप से जिस समाचारी का पालन करना अवश्यंभावी है और इसका प्रामाणिकता से पालन करना उत्सर्गमार्ग है। निर्दोष चारित्र की प्राराधना करना इस मार्ग की विशेषता है। इसके पालन करने से साधक में अप्रमत्तता बनी रहती है तथा इस मार्ग का अनुसरण करने वाला साधक प्रशंसनीय एवं श्रद्धेय बनता है। 2. अपवाद का अर्थ है विशेषविधि / वह दो प्रकार की है--(१) निर्दोष विशेषविधि और (2) सदोष विशेषविधि / सामान्यविधि से विशेषविधि बलवान होती है। आपवादिक विधि सकारण होती है। उत्तरगुणप्रत्याख्यान में जो प्रागार रखे जाते हैं, वे सब निर्दोष अपवाद हैं। जिस क्रिया, प्रवत्ति से प्राज्ञा का अतिक्रमण न होता हो, वह निर्दोष है, परन्तु प्रबलता के कारण मन न होते हुए भी विवश होकर जिस दोष का सेवन करना पड़ता है या किया जाये, वह सदोष अपवाद है / प्रायश्चित्त से उसकी शुद्धि हो जाती है। यह मार्ग साधक को प्रार्त-रौद्र ध्यान से बचाता है। यह मार्ग प्रशंसनीय तो नहीं है किन्तु इतना निन्दनीय भी नहीं कि लोकापवाद का कारण बन जाये। अनाचार तो किसी भी रूप में अपवादविधि का अंग नहीं बनाया या माना जा सकता है। स्वेच्छा और स्वच्छन्दता से स्वैराचार में प्रवृत होना, मर्यादा का अतिक्रमण करते हुए अपने स्वार्थ, मान-अभिमान को सर्वोपरि स्थापित करना, संघ की अवहेलना करना, उद्दण्डता का प्रदर्शन करना, अनुशासन भंग करना अनाचार है। यह अकल्पनीय है, किन्तु अनाचारी कल्पनीय बनाने की युक्ति-प्रयुक्तियों का सहारा लेता है। ऐसा व्यक्ति, साधक किसी भी प्रकार की विधि से शुद्ध नहीं हो सकता है और न शुद्धि के योग्य पात्र है। 3, ४-दोष का अर्थ है उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का भंग करना और उस भंग के शुद्धिकरण के लिये की जाने वाली विधि, प्रायश्चित कहलाती है। प्रबलकारण के होने पर अनिच्छा से, विस्मृति और प्रमादवश जो दोष सेवन हो जाता है, उसकी शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त से शुद्ध होना, यही छेदसूत्रों के वर्णन की सामान्य रूपरेखा है। प्रायश्चित को अनिवार्यता दोषशुद्धि के लिये प्रायश्चित्त का विधान है, उपर्युक्त कथन से यह ज्ञात हो जाता है। इसी संदर्भ में यहाँ कुछ विशेष संकेत करते हैं। [10] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्म के पांच प्राचारों के बीचोंबीच चारित्राचार को स्थान देने का यह हेतु है कि ज्ञानाचारदर्शनाचार तथा तपाचार-वीर्याचार की समन्वित साधना निर्विघ्न सम्पन्न हो, इसका एक मात्र साधन चारित्राचार है / चारित्राचार के आठ विभाग हैं--पांच समिति, तीन गुप्ति / पाँच समितियां संयमी जीवन में निवृत्तिमूलक प्रवृत्तिरूपा हैं और तीन गुप्तियां तो निवृत्तिरूपा ही हैं। इनकी भूमिका पर अनगार की साधना में एक अपूर्व उल्लास, उत्साह के दर्शन होते हैं। किन्तु विषय-कषायवश, राग-द्वेषादि के कारण यदि समिति, गुप्ति और महाव्रतों की मर्यादाओं का अतिक्रम, व्यतिक्रम या अतिचार यदा-कदा हो जाये तो सुरक्षा के लिये प्रायश्चित्त प्राकार (परकोटा) रूप है। फलितार्थ यह है कि मूलगुणों, उत्तरगुणों में प्रतिसेवना का धुन लग जाये तो उसके परिहार के लिये प्रायश्चित्त अनिवार्य है। छेदप्रायश्चित्त की मुख्यता का कारण प्रायश्चित्त के दस प्रकार हैं। इनमें प्रारंभ के छह प्रायश्चित्त सामान्य दोषों की शुद्धि के लिये हैं और अंतिम चार प्रायश्चित्त प्रबल दोषों को शुद्धि के लिये हैं। छेदार्ह प्रायश्चित्त में अंतिम चार प्रायश्चित्तों में प्रथम प्रायश्चित्त है। व्याख्याकारों ने इसकी व्याख्या करते हए आयुर्वेद का एक रूपक प्रस्तुत किया है। उसका भाव यह है--किसी व्यक्ति का अंग-उपांग रोग या विष से इतना अधिक दूषित हो जाये कि उपचार से उसके स्वस्थ होने की संभावना ही न रहे तो शल्यक्रिया से उस अंग-उपांग का छेदन करना उचित है, पर रोग या विष को शरीर में व्याप्त नहीं होने देना चाहिये। क्योंकि ऐसा न करने पर अकालमृत्यु अवश्यंभावी है। किन्तु अंगछेदन के पूर्व वैद्य का कर्तव्य है कि रुग्ण व्यक्ति और उसके निकट संबंधियों को समझाये कि अंग-उपांग रोग से इतना दूषित हो गया है कि अब पोषधोपचार से स्वस्थ होने की संभावना नहीं है। जीवन की सुरक्षा और वेदना की मुक्ति चाहें तो शल्यक्रिया से अंग-उपांग का छेदन करवा लें। यद्यपि शल्यक्रिया से अंग-उपांग का छेदन करते समय तीव्र वेदना होगी पर होगी थोड़ी देर, किन्तु शेष जीबन वर्तमान जैसी वेदना से मुक्त रहेगा। इस प्रकार समझाने पर वह रुग्ण व्यक्ति और उसके अभिभावक अंग-छेदन के लिये सहमत हो जाये तो चिकित्सक का कर्तव्य है कि अंग-उपांग का छेदन कर शरीर और जीवन को व्याधि से बचावे / __ इस रूपक की तरह प्राचार्य आदि अनगार को समझायें कि दोष प्रतिसेवना से आपके उत्तरगुण इतने अधिक दूषित हो गये हैं कि अब उनकी शुद्धि आलोचनादि सामान्य प्रायश्चित्तों से संभव नहीं है। अब आप चाहें तो प्रतिसेवनाकाल के दिनों का छेदन कर शेष संयमी जीवन को सुरक्षित किया जाये। अन्यथा न समाधिमरण होगा और न भवभ्रमण से मुक्ति होगी। इस प्रकार समझाने पर वह अनगार यदि प्रतिसेवना का परित्याग कर छेदप्रायश्चित्त स्वीकार करे तो प्राचार्य उसे छेदप्रायश्चित्त देकर शुद्ध करें। यहाँ यह विशेष जानना चाहिये कि छेदप्रायश्चित्त से केवल उत्तरगुणों में लगे दोषों की शुद्धि होती है। मूलगुणों में लगे दोषों की शुद्धि मूलाह आदि तीन प्रायश्चित्तों से होती है। छेदसूत्रों की वर्णनशैली __ छेदसूत्रों में तीन प्रकार के चारित्राचार प्रतिपादित हैं--(१) हेयाचार, (2) ज्ञेयाचार, (3) उपादेयाचार / इनका विस्तृत विचार करने पर यह रूप फलित होता है (1) विधिकल्प, (2) निषेधकल्प, (3) विधिनिषेधकल्प, (4) प्रायश्चित्तकल्प, (5) प्रकीर्णकः / इनमें से प्रायश्चित्तकल्प के अतिरिक्त अन्य विधि-कल्पादिक के चार विभाग होंगे [11] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) निर्ग्रन्थों के विधिकल्प, (2) निग्रंथियों के विधिकल्प, (3) निग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के विधिकल्प, (4) सामान्य विधिकल्प / इसी प्रकार निषेधकल्प आदि भी समझना चाहिये / जिन सूत्रों में 'कप्पई' शब्द का प्रयोग है, वे विधिकल्प के सूत्र हैं। जिनमें 'नो कप्पई' शब्द प्रयोग है, वे निषेधकल्प के सूत्र हैं। जिनमें 'कप्पई' और 'नो कप्पई' दोनों का प्रयोग है वे विधि-निषेधकल्प के सुत्र हैं और जिनमें 'कप्पई' और 'नोकप्पई' दोनों का प्रयोग नहीं है वे विधानसुत्र हैं। प्रायश्चित्तविधान के लिये सूत्रों में यथास्थान स्पष्ट उल्लेख है। छेदसूत्रों में सामान्य से विधि-निषेधकल्पों का उल्लेख करने के बाद निर्ग्रन्थों के लिये विधिकल्प और निषेधकल्प का स्पष्ट संकेत किया गया है। इसी प्रकार निर्ग्रन्थी के विधि-निषेधकल्प का कथन है। दोनों के लिये क्या और कौन विधि-निषेधकल्प रूप है और प्रतिसेवना होने पर किसका कितना प्रायश्चित्त विधान है, उसकी यहां विस्तृत सूची देना संभव नहीं है। ग्रन्थावलोकन से पाठकगण स्वयं ज्ञात कर लें। प्रायश्चित्तविधान के दाता-आदाता की योग्यता दोष के परिमार्जन के लिये प्रायश्चित्त विधान है। इसके लेने और देने वाले की पात्रता के सम्बन्ध में छेदसूत्रों में विस्तृत वर्णन है। जिसके संक्षिप्त सार का यहां कुछ संकेत करते हैं। अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार दोष सेवन के कारण हैं / किन्तु जो वक्रता और जड़ता के कारण दोषों की आलोचना सहजभाव से नहीं करते हैं, वे तो कभी भी शुद्धि के पात्र नहीं बन सकते हैं / यदि कोई मायापूर्वक आलोचना करता है तब भी उसकी आलोचना फलप्रद नहीं होती है। उसकी मनोभूमिका अालोचना करने के लिये तत्पर नहीं होती तो प्रायश्चित्त करना आकाशकुसुमबत् है। उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि आलोचक ऋजु, छलकपट से रहित मनस्थितिवाला होना चाहिये। उसके अंतर् में पश्चात्ताप की भावना हो, तभी दोषपरिमार्जन के लिये तत्पर हो सकेगा। इसी प्रकार प्रालोचना करने वाले की आलोचना सुनने वाला और उसकी शुद्धि में सहायक होने का अधिकारी वही हो सकेगा जो प्रायश्चित्तविधान का मर्मज्ञ हो, तटस्थ हो, दूसरे के भावों का वेत्ता हो, परिस्थिति का परिज्ञान करने में सक्षम हो, स्वयं निर्दोष हो, पक्षपात रहित हो, प्रादेय वचन वाला हो। ऐसा वरिष्ठ साधक दोषी को निर्दोष बना सकता है। संघ को अनुशासित एवं लोकापवाद, भ्रांत धारणाओं का शमन कर सकता है। इस संक्षिप्त भूमिका के आधार पर अब इस ग्रन्थ में संकलित-१. दशाश्रुतस्कन्ध, 2. बृहत्कल्प और 3. व्यवहार, इन तीन छेदसूत्रों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करते हैं। (1) दशाश्रुतस्कन्ध अथवा प्राचारदशा समवायांग, उत्तराध्ययन और आवश्यकसूत्र में कल्प और व्यवहारसूत्र के पूर्व आयारदसा (आचारदशा) या नाम कहा गया है। अतः छेदसूत्रों में यह प्रथम छेदसूत्र है। स्थानांगसूत्र के दसवें स्थान में इसके दस अध्ययनों का उल्लेख होने से 'दशाश्रुतस्कन्ध' यह नाम अधिक प्रचलित हो गया है। दस अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं१. असमाधिस्थान, 2, सबलदोष, 3. अाशातना, 4. गणिसम्पदा, 5. चित्तसमाधिस्थान, 6. उपासकप्रतिमा, 7. भिक्षप्रतिमा, 8. पर्युषणाकल्प 9. मोहनीयस्थान और 10. आयतिस्थान / इन दस अध्ययनों में असमाधिस्थान, [12] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तसमाधिस्थान, मोहनीयस्थान और आयतिस्थान में जिन तत्त्वों का संकलन किया गया है, वे वस्तुतः योगविद्या से संबद्ध हैं। योगशास्त्र से उनकी तुलना की जाये तो ज्ञात होगा कि चित्त को एकाग्र तथा समाहित करने के लिए प्राचारदशा के दस अध्ययनों में ये चार अध्ययन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है / उपासकप्रतिमा और भिक्षुप्रतिमा श्राबक व श्रमण की कठोरतम साधना के उच्चतम नियमों का परिज्ञान कराते हैं / पर्युषणाकल्प में पर्युषण रब करना चाहिये, कैसे मनाना चाहिये...? कब मनाना चाहिये, इस विषय पर विस्तार से विचार किया गया है। सबलदोष और आशातना इन दो दशानों में साधुजीवन के दैनिक नियमों का विवेचन किया गया है और कहा गया है कि इन नियमों का परिपालन होना ही चाहिये। इनमें जो त्याज्य हैं, उनका दृढ़ता से त्याग करना चाहिये और जो उपादेय हैं, उनका पालन करना चाहिये। चतुर्थ दशागणिसंपदा में आचार्यपद पर विराजित व्यक्ति के व्यक्तित्व, प्रभाव तथा उसके शारीरिक प्रभाव का अत्यन्त उपयोगी वर्णन किया गया है। प्राचार्यपद की लिप्सा में संलग्न व्यक्तियों को प्राचार्यपद ग्रहण करने के पूर्व इनका अध्ययन करना आवश्यक है। इस प्रकार यह दशाश्रुतस्कन्ध (आचारदशा) सत्र श्रमणजीवन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रकारान्तर से दशाश्रतस्कन्ध की दशाओं के प्रतिपाद्य का उल्लेख इस रूप में भी हो सकता हैप्रथम तीन दशानों और अंतिम दो दशाओं में साधक के हेयाचार का प्रतिपादन है। चौथी दशा में अगीतार्थ अनगार के ज्ञेयाचार का और गीतार्थ अनगार के लिये उपादेयाचार का कथन है। पांचवी दशा में उपादेयाचार का निरूपण है। छठी दशा में अनगार के लिये जयाचार और सागार (श्रमणोपासक) के लिये उपादेयाचार का कथन है। सातवी दशा में अनगार के लिये उपादेयाचार और सागार के लिये ज्ञेयाचार का कथन किया है। आठवीं दशा में अनगार के लिये कुछ ज्ञेयाचार, कुछ हेयाचार और कुछ उपादेयाचार है। इस प्रकार यह आचारदशा-दशाश्रुतस्कंध अनगार और सागार दोनों के लिये उपयोगी है। कल्प, व्यवहार आदि छेदसूत्रों में भी हेय, ज्ञेय और उपादेय प्राचार का कथन किया गया है। (2) बृहत्कल्पसूत्र कल्प शब्द अनेक अर्थों का बोधक है, इस शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में उपलब्ध होता है। वेद के छहः अंग हैं उनमें एक वह अंग है जिसमें यज्ञ प्रादि कर्मकाण्डों का विधान है, वह अंग कल्प कहलाता है। कालमान के लिये भी कल्प शब्द का प्रयोग मिलता है। चौदह मन्वन्तरों का कालमान कल्प शब्द से जाना जाता है। उसमें चार अरब, बत्तीस करोड़ वर्ष बीत जाते हैं। इतने लम्बे काल की संज्ञा को कल्प कहा है। सदृश अर्थ में भी कल्प शब्द का प्रयोग किया जाता है, जैसे कि श्रमणकल्प, ऋषिकल्प इत्यादि / कल्प शब्द उस वृक्ष के लिए भी प्रयुक्त होता है जो वृक्ष मनोवांछित फल देने वाला है, वह कल्पवृक्ष कहलाता है। राज्यमर्यादा के लिए भी कल्प शब्द का प्रयोग किया जाता है। बारहवें देवलोक तक राजनीति की मर्यादा है। इसी कारण उन देवलोकों को 'कल्प देवलोक' कहा जाता है। मर्यादा वैधानिकरीति से जो भी कोई जीवन चलाता है, वह अवश्य ही सुख और सम्पत्ति से समृद्ध बन जाता है। प्रस्तुत शास्त्र का नाम जिस कल्प शब्द से चरितार्थ किया है, वह उपर्युक्त अर्थों से बिल्कुल भिन्न है। [13] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत प्रसंग में कल्प शब्द का अर्थ धर्म-मर्यादा है। साधु आचार ही धर्म-मर्यादा है। जिस शास्त्र में धर्ममर्यादा का वर्णन हो बह कल्प है, नाम विषयानुरूप ही है। जिस शास्त्र का जैसा विषय हो वैसा नाम रखना यथार्थ नाम कहलाता है। साधुधर्म के आन्तरिक और बाह्य-आचार का निर्देश एवं मर्यादा बताने वाला शास्त्र कल्प कहलाता है। जिस सूत्र में भगवान महावीर, पार्श्वनाथ, अरिष्टनेमि और ऋषभदेव का जीवनवृत्त है, उस शास्त्र के अंतिम प्रकरण में साधु समाचारी का वर्णन है। वह पर्युषणाकल्प होने से लघुकल्प है। उसकी अपेक्षा से जिसमें साधु-मर्यादा का वर्णन विस्तृत हो, वह वहत्वल्प कहलाता है। इसमें सामायिक, छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धि इन तीनों चारित्रों के विधि विधानों का सामान्य रूप से वर्णन है / बृहत्कल्प शास्त्र में जो भी वर्णन है उन सबका पालन करना उक्त चारित्रशीलों के लिये अवश्यंभावी है / विविध सूत्रों द्वारा साधु साध्वी की विविध मर्यादाओं का जिसमें वर्णन किया गया है, उसे बहत्कल्पसूत्र कहते है / प्राकृत भाषा में बिहक्कप्पसुत्तं रूप बनता है। प्रस्तुत "कप्पसुत्तं" (कल्पसूत्र) और “कप्पसुय" (कल्पश्रुत) एक हैं या भिन्न हैं ? यह आशंका अप्रासंगिक है, क्योंकि "कप्पसुत्तं" कालिक आगम है। अाचारदशा अर्थात् दशाश्रुतस्कन्ध का आठवां अध्ययन "पर्युषणाकल्प" है, इसमें केवल वर्षावास की समाचारी है। कुछ शताब्दियों पहले इस “पर्युषणाकल्प" को तीर्थंकरों के जीवनचरित्र तथा स्थविरावली से संयुक्त कर दिया गया था। यह शनैः-शनै: कल्पसूत्र के नाम से जनसाधरण में प्रसिद्ध हो गया। इस कल्पसूत्र से प्रस्तुत कल्पसूत्र का नाम भिन्न दिखाने के लिए प्रस्तुत कल्पसूत्र का नाम बहत्कल्पसूत्र दिया गया है। वास्तव में बृहत्कल्पसूत्र नाम के आगम का किसी आगम में उल्लेख नहीं है। नन्दीसत्र में इसका नाम "कप्पो" है / कप्पसुयं के दो विभाग हैं "चुल्लकप्पसुयं" और "महाकप्पसुर्य" / इसी प्रकार "कप्पियाकप्पियं" भी उत्कालिक आगम है। ये सब प्रायश्चित्त-विधायक आगम हैं, पर ये विच्छिन्न हो गये हैं ऐसा जैनसाहित्य के इतिहासज्ञों का अभिमत है। कल्प वर्गीकरण प्रस्तुत "कल्पसुत्तं" का मूल पाठ गद्य में है और 473 अनुष्टुप श्लोक प्रमाण है / इसमें 81 विधि-निषेधकल्प हैं / ये सभी कल्प पांच समिति और पांच महाव्रतों से सम्बन्धित हैं / अतः इनका वर्गीकरण यहाँ किया गया है। जिन सूत्रों का एक से अधिक समितियों या एक से अधिक महाव्रतों से सम्बन्ध है, उनका स्थान समिति और महाव्रत के संयुक्त विधि-निषेध और महाव्रतकल्प शीर्षक के अन्तर्गत है। उत्तराध्ययन अ० 24 के अनुसार ईर्यासमिति का विषय बहुत व्यापक है, इसलिए जो सूत्र सामान्यतया ज्ञान, दर्शन या चारित्र आदि से सम्बन्धित प्रतीत हुए हैं उनको "ईर्यासमिति के विधि-निषेधकल्प" शीर्षक के नीचे स्थान दिया है। वर्गीकरणदर्शक प्रारूप इस प्रकार है (1) ईर्यासमिति के विधि-निषेध कल्प—१. चारसूत्र, 2. अध्वगमनसूत्र, 3. आर्यक्षेत्रसूत्र, 4. महानदीसूत्र, 5. बैराज्य–विरुद्धराज्यसूत्र, 6. अन्तगृहस्था, 7. वाचनासूत्र, 8. संज्ञाप्यसूत्र, 9. गणान्तरोपसम्पत्सूत्र, 10. कल्पस्थितिसूत्र / 1. अभिधान राजेन्द्र : भाग तृतीय पृष्ठ 239 पर "कप्पसुयं" शब्द का विवेचन / [14] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) ईर्यासमिति और परिष्ठापनिकासमिति के संयुक्त विधि-निषेधकल्प---११. विचारभूमिविहारभूमिसूत्र / (3) भाषा-समिति के विधि-निषेधकल्प-१२. वचनसूत्र, 13. प्रस्तारसूत्र, 14. अन्तरगृहस्थानादिसूत्र, (4) एषणासमिति के विधि-निषेधकल्प [आहारषणा] -- 15. प्रलम्बसूत्र, 16. रात्रि भक्तसूत्र, 17. संखतिसूत्र, 18. सागारिक-पारिहारिकसूत्र, 19. आहुतिका-निहति कासूत्र, 20. अंशिकासूत्र, २१.कालक्षेत्रातिक्रान्तसूत्र, 22. कल्पस्थिताकल्पस्थितसूत्र, 23. संस्तृत-निविचिकित्ससूत्र, 24. उद्गारसूत्र, 25. ग्राहारविधिसूत्र, 26. परिवासितसूत्र, 27. पुलाकभक्तसूत्र, 28. क्षेत्रावग्रहप्रमाणसूत्र, 29. रोधक (सेना) सूत्र (पाणषणा) 30. पानकविधिसूत्र, 31. अनेषणीयसूत्र, 32. मोकसूत्र, (वस्त्रंषणा) 33. चिलिमिलिका सूत्र 34. रात्रिवस्त्रादिग्रहणसत्र, 35. हताहतासूत्र, 36, उपधिसूत्र, 37. वस्त्रसुत्र, 38. निश्रासूत्र, 39. त्रिकृत्स्नचतुःकृत्स्नसूत्र, 40. समवसरणसूत्र, 41. यथारत्नाधिक वस्त्रपरिभाजकसूत्र, (वस्त्र-पाषणा) 42. प्रवग्रहसूत्र, (पाषणा) 43. घटीमात्रक सूत्र , (रजोहरणैषणा) 44. रजोहरणसूत्र, (चमैषणा) 45. चर्मसूत्र, (शय्या-संस्तारकेषणा) 46. शय्या-संस्तारकसूत्र, 47. यथारत्नाधिक शय्या-संस्तारक-परिभाजनसूत्र, (स्थानेषणा) 48. अवग्रहसूत्र, (उपाश्रयैषणा) 49. आपणगृह-रथ्यामुखसूत्र, 50. चित्रकर्मसूत्र, 51. सागारिक निधासूत्र, 52. सागारिक उपाश्रयसूत्र, 53. प्रतिबद्ध शय्यासूत्र, 54. गाथापतिकुलमध्यवाससूत्र, 55. उपाश्रयसूत्र, 56. उपाश्रयविधिसूत्र, (वसतिनिवास) 57. मासकल्पसूत्र, 58. वगडासूत्र, महावतों के अनधिकारी 59. प्रव्राजनासूत्र (महाव्रत प्ररूपण) 60. महावतसूत्र, प्रथम महावत के विधिनिषेधकल्प 61. अधिकरणसूत्र, 62. व्यवशमनसूत्र, प्रथम और तृतीय महावत के विधिनिषेधकल्प 63. आवस्थाप्पसूत्र, प्रथम-चतुर्थ महावत के विधिनिषेधकल्प 64. दकतीरसूत्र, 65. अनुद्घातिकसूत्र, चतुर्थमहावत के विधिनिषेधकल्प 66. उपाश्रय-प्रवेशसूत्र, 67. अपावृतद्वार उपाश्रयसूत्र, 68. अवग्रहानन्तक-प्रवग्रहपट्टकसूत्र, 69. ब्रह्मापायसूत्र, 70. ब्रह्मरक्षासूत्र, 71. पाराञ्चिकसुत्र, 72. कण्टकादि-उद्धरणसूत्र, 73. दुर्गसूत्र, 74. क्षिप्तचित्तादिसूत्र, तपकल्प' 75. कृतिकर्मसूत्र 76. ग्लानसूत्र, 77. पारिहारिकसूत्र 78. व्यवहारसूत्र, मरणोत्तरविधि 79. विश्वम्भवनसूत्र, महावत और समिति के संयुक्तकल्प 80. परिमन्थसत्र इस वर्गीकरण से प्रत्येक विज्ञपाठक इस आगम की उपादेयता समझ सकते हैं। श्रामण्य जीवन के लिए ये विधि-निषेधकल्प कितने महत्त्वपूर्ण हैं। इनके स्वाध्याय एवं चिन्तन-मनन से ही पंचाचार का यथार्थ पालन सम्भव है। यह पागमज्ञों का अभिमत है तथा इन विधि-निषेधकल्पों के ज्ञाता ही कल्प विपरीत पाचरण के निवारण करने में समर्थ हो सकेंगे, यह स्वतः सिद्ध है। (3) व्यवहारसूत्र प्रस्तुत व्यवहारसूत्र तृतीय छेदसूत्र है / इसके दस उद्देशक हैं। दसवें उद्देशक के अंतिम (पांचवें) सूत्र में पांच व्यवहारों के नाम है / इस सूत्र का नामकरण भी पाँच व्यवहारों को प्रमुख मानकर ही किया गया है। 1. उपाश्रय विधि-निषेध-कल्प के जितने सूत्र हैं वे प्रायः चतुर्थ महावत के विधि-निषेध-कल्प भी हैं। 2. विनय यावत्य और प्रायश्चित्त प्रादि ग्राभ्यन्तर तपों का विधान करने वाले ये सत्र हैं। 3. प्रथम छेदसूत्र दशा, (आयारदशा दशाश्रुतस्कन्ध), द्वितीय छेदसूत्र कल्प (बृहत्कल्प) और तृतीय छेदसूत्र व्यवहार / देखिए सम० 26 सूत्र--२ / अथवा उत्त० अ० 31, गा० 17 / भाष्यकार का मन्तव्य है-व्यवहारसूत्र के दसवें उद्देशक का पांचवां सूत्र ही अन्तिम सूत्र है। पुरुषप्रकार से दसविधवैयावत्य पर्यन्त जितने सूत्र हैं, वे सब परिवधित हैं या चूलिकारूप है। [ 15 ] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार-शब्दरचना वि+व+ह-+धा / 'वि' और 'अव' ये दो उपसर्ग हैं। हज-हरणे धातु है / 'ह' धातु से 'पा' प्रत्यय करने पर हार बनता है। वि+व+हार---इन तीनों से व्यवहार शब्द की रचना हुई है। 'वि'--विविधता या विधि का सूचक है। 'प्रव'--संदेह का सूचक है। 'हार'-हरण क्रिया का सूचक है। फलितार्थ यह है कि विवाद विषयक नाना प्रकार के संशयों का जिससे हरण होता है वह 'व्यवहार' है। यह व्यवहार शब्द का विशेषार्थ है। व्यवहारसूत्र के प्रमुख विषय 1. व्यवहार, 2. व्यवहारी और 3. व्यवहर्तव्य-ये तीन इस सूत्र के प्रमुख विषय हैं। ___ दसवें उद्देशक के अन्तिम सूत्र में प्रतिपादित पांच व्यवहार करण (साधन) हैं, गण की शुद्धि करने वाले गीतार्थ (प्राचार्यादि) व्यवहारी (व्यवहार क्रिया प्रवर्तय) कर्ता हैं, और श्रमण श्रमणियां व्यवहर्तव्य (व्यवहार करने योग्य) हैं / अर्थात् इनकी अतिचार शुद्धिरूप क्रिया का सम्पादन व्यवहारज्ञ व्यवहार द्वारा करता है। जिस प्रकार कुम्भकार (कर्ता), चक्र, दण्ड मृत्तिका सूत्र आदि करणों द्वारा कुम्भ (कर्म) का सम्पादन करता है-इसी प्रकार व्यवहारज्ञ व्यवहारों द्वारा व्यवहर्तव्यों (गण) की अतिचार शुद्धि का सम्पादन करता है। व्यवहार-व्याख्या व्यवहार की प्रमुख व्याख्यायें दो हैं / एक लौकिक व्याख्या और दूसरी लोकोत्तर व्याख्या / लौकिका व्याख्या दो प्रकार की है--१. सामान्य और 2. विशेष / सामान्य व्याख्या है-दूसरे के साथ किया जाने वाला आचरण अथवा रुपये-पैसों का लेन-देन / विशेष व्याख्या है-अभियोग की समस्त प्रक्रिया अर्थात न्याय / इस विशिष्ट व्याख्या से सम्बन्धित कुछ शब्द प्रचलित हैं। जिनका प्रयोग वैदिक परम्परा की श्रुतियों एवं स्मृतियों में चिरन्तन काल से चला मा रहा है। यथा-- 1. व्यवहारशास्त्र-(दण्डसंहिता) जिसमें राज्य-शासन द्वारा किसी विशेष विषय में सामूहिक रूप से बनाये गये नियमों के निर्णय और नियमों का भंग करने पर दिये जाने वाले दण्डों का विधान व विवेचन होता है। 1. 'वि' नानार्थे 'ऽव' संदेहे, 'हरणं' हार उच्यते / नाना संदेहहरणाद, व्यवहार इति स्थितिः 1-कात्यायन / नाना विवाद विषयः संशयो हियतेऽनेन इति व्यवहारः / 2. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहागणसोहिकरे नाम एगे नो माणकरे।.... ----व्यव० पुरुषप्रकार सूत्र 3. गाहा-वहारी खलु कत्ता, ववहारो होई करणभूतो उ। वहरियव्वं कज्ज, कुभादि तियस्स जह सिद्धी / / --व्य० भाध्यपीठिका गाथा 2 4. न कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचिद् रिपुः / व्यवहारेण जायन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा / / -हितो० मि० 72 5. परस्परं मनुष्याणां, स्वार्थविप्रतिपत्तिषु / वाक्यानयायाद् व्यवस्थान, व्यवहार उदाहृतः / / मिताक्षरा। [16] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. व्यवहारज्ञ--(न्यायाधीश) जो व्यवहारशास्त्र का ज्ञाता होता है वही किसी अभियोग आदि पर विवेकपूर्वक विचार करने वाला एवं दण्डनिर्णायक होता है। ____ लोकोत्तर व्याख्या भी दो प्रकार की है.-१ सामान्य और 2 विशेष / सामान्य व्याख्या है—एक गण का दूसरे गण के साथ किया जाने वाला आचरण / अथवा एक श्रमण का दूसरे श्रमण के साथ, एक आचार्य, उपाध्याय आदि का दूसरे आचार्य , उपाध्याय आदि के साथ किया जाने वाला आचरण / विशेष व्याख्या है –सर्वज्ञोक्त विधि से तप प्रभृति अनुष्ठानों का “वपन" याने बोना और उससे अतिचारजन्य पाप का हरण करना व्यवहार है'। 'विवाप' शब्द के स्थान में 'व्यव' आदेश करके 'हार' शब्द के साथ संयुक्त करने पर व्यवहार शब्द की सृष्टि होती है यह भाष्यकार का निर्देश है। व्यवहार के भेद-प्रभेद व्यवहार दो प्रकार का है—१ बिधि व्यवहार और 2 अविधि व्यवहार / अविधि व्यवहार मोक्ष-विरोधी है, इसलिए इस सूत्र का विषय नहीं है, अपितु विधि व्यवहार ही इसका विषय है। व्यवहार चार प्रकार के हैं-१ नामव्यवहार 2 स्थापनाव्यवहार 3 द्रव्यव्यवहार और 4 भावव्यवहार। 1. नामव्यवहार—किसी व्यक्ति विशेष का 'व्यवहार' नाम होना / 2. स्थापनाव्यवहार-व्यवहार नाम वाले व्यक्ति की सत् या असत् प्रतिकृति / 3. द्रव्यव्यवहार के दो भेद हैं—आगम से और नोआगम से। आगम से अनुपयुक्त (उपयोगरहित) व्यवहार पद का ज्ञाता / नोआगम से—द्रव्यव्यवहार तीन प्रकार का है-१ ज्ञशरीर 2 भव्यशरीर और 3 तद्व्यतिरिक्त / ज्ञशरीर–व्यवहार पद के ज्ञाता का मृतशरीर / भव्यशरीर–व्यवहार पद के ज्ञाता का भावीशरीर / तव्यतिरिक्त द्रव्यव्यवहार-व्यवहार श्रुत या पुस्तक / यह तीन प्रकार का है-१ लौकिक, 2 लोकोत्तर और कुप्रावनिक। लौकिक द्रव्यव्यवहार का विकासक्रम मानव का विकास भोगभूमि से प्रारम्भ हुआ था। उस आदिकाल में भी पुरुष पति रूप में और स्त्री पत्नी रूप में ही रहते थे, किन्तु दोनों में काम-वासना अत्यन्त सीमित थी। सारे जीवन में उनके केवल दो सन्ताने (एक साथ) होती थीं। उनमें भी एक बालक और एक बालिका ही। "हम दो हमारे दो" उनके सांसारिक जीवन का यही सूत्र था। वे भाई-बहिन ही युवावस्था में पति-पत्नी रूप में रहने लगते थे। 1. व्यव० भाष्य० पीठिका गा० 4 / 2. व्यव० भाष्य० पीठिका गा० 4 / 3. व्यय० भाष्य० पीठिका गाथा-६ / [ 17 ] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके जीवन-निर्वाह के साधन थे कल्पवृक्ष / सोना-बैठना उनकी छाया में, खाना फल, पीना वृक्षों का मदजल / पहनते थे वल्कल और सुनते थे वृक्षवाद्य प्रतिपल / न वे काम-धन्धा करते थे, न उन्हें किसी प्रकार की कोई चिन्ता थी, अतः वे दीर्घजीवी एवं अत्यन्त सुखी थे। न वे करते थे धर्म, न वे करते थे पापकर्म, न था कोई वक्ता, न था कोई श्रोता, न थे वे उद्दण्ड, न उन्हें कोई देता था दण्ड, न था कोई शासक, न थे वे शासित। ऐसा था युगलजन-जीवन / कालचक्र चल रहा था। भोगभूमि कर्मभूमि में परिणत होने लगी थी। जीवन-यापन के साधन कल्पवृक्ष विलीन होने लगे थे। खाने-पीने और सोने-बैठने की समस्यायें सताने लगी थीं। क्या खायें-पीयें ? कहाँ रहें, कहाँ सोयें ? ऊपर आकाश था, नीचे धरती थी। सर्दी, गर्मी और वर्षा से बचें तो कैसे बचें? --इत्यादि अनेक चिन्ताओं ने मानव को घेर लिया था। खाने-पीने के लिए छीना-झपटी चलने लगी। अकाल मृत्युएँ होने लगी और जोड़े (पति-पत्नी) का जीवन बेजोड़ होने लगा। प्रथम सुषम-सुषमाकाल और द्वितीय सुषमाकाल समाप्त हो गया था। तृतीय सुषमा-दुषमाकाल के दो विभाग भी समाप्त हो गये थे। तृतीय विभाग का दुश्चक्र चल रहा था / वह था संक्रमण-काल / सुख, शान्ति एवं व्यवस्था के लिए सर्वप्रथम प्रथम पांच कुलकरों ने अपराधियों को 'हत्'--इस वाग्दण्ड से प्रताड़ित किया, पर कुछ समय बाद यह दण्ड प्रभावहीन हो गया। दण्ड की दमन नीति का यह प्रथम सूत्र था। मानव हृदय में हिंसा के प्रत्यारोपण का युग यहीं से प्रारम्भ हुआ। द्वितीय पांच कुलकरों ने आततायियों को "मत" इस वाग्दण्ड से प्रताड़ित कर प्रभावित किया, किन्तु यह दण्ड भी समय के सोपान पार करता हुआ प्रभावहीन हो गया / तृतीय पांच कुलकरों ने अशान्ति फैलाने वालों को “धिक" इस वाग्दण्ड से शासित कर निग्रह किया। यद्यपि दण्डनीय के ये तीनों दण्ड वाग्दण्ड मात्र थे, पर हिंसा के पर्यायवाची दण्ड ने मानव को कोमल न बनाकर क्रूर बनाया, दयालु न बनाकर दुष्ट बनाया। प्रथम कुलकर का नाम यद्यपि "सुमति" था। मानव की सुख-समृद्धि के लिए उसे "शमन" का उपयोग करना था पर काल के कुटिल कुचक्रों से प्रभावित होकर उसने भी "दमन" का दुश्चक्र चलाया। अन्तिम कुलकर श्री ऋषभदेव थे। धिक्कार की दण्डनीति भी असफल होने लगी तो भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) के श्रीमुख से कर्म त्रिपदी "1 असि, 2 मसि, 3 कृषि' प्रस्फुरित हुई। मानव के सामाजिक जीवन का सूर्योदय हुआ / मानव समाज दो वर्गों में विभक्त हो गया / एक वर्ग शासकों का और एक वर्ग शासितों का। अल्पसंख्यक शासक वर्ग बहुसंख्यक शासित वर्ग पर अनुशासन करने लगा। भगवान आदिनाथ के सुपुत्र भरत चक्रवर्ती बने / पूर्वजों से विरासत में मिली दमननीति का प्रयोग वे अपने भाइयों पर भी करने लगे। उपशमरस के आदिश्रोत भ० आदिनाथ (ऋषभदेव) ने बाहबली आदि को शाश्वत (आध्यात्मिक) साम्राज्य के लिए प्रोत्साहित किया तो वे मान गये। क्योंकि उस युग के मानव 'ऋजुजड़ प्रकृति के थे। अहिंसा की अमोघ अमीधारा से भाइयों के हृदय में प्रज्वलित राज्यलिप्सा की लोभाग्नि सर्वथा शान्त हो गई। [18] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० अजितनाथ से लेकर भ. पार्श्वनाथ पर्यन्त 'ऋजप्राज्ञ' मानवों का युग रहा / ग्यारह चक्रवर्ती, नो बलदेव, नो वासुदेव और नौ प्रतिवासुदेवों के शासन में दण्डनीति का इतना दमनचक्र चला कि सौम्य शमननीति को लोग प्रायः भूल गये। दाम- --प्रलोभन, दण्ड और भेद - इन तीन नीतियों का ही सर्व साधारण में अधिकाधिक प्रचार-प्रमार होता रहा / अब आया "वक्रजड़" मानवों का युग / मानव के हृदयपटल पर वक्रता और जड़ता का साम्राज्य छा गया। सामाजिक व्यवस्था के लिए दण्ड (दमन) अनिवार्य मान लिया गया। अंग-भंग और प्राणदण्ड सामान्य हो गये। दण्डसंहितायें बनी, दण्ड-यन्त्र बने / दण्डन्यायालय और दण्डविज्ञान भी विकसित हआ। आग्नेयास्त्र आदि अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों ने अतीत में और वर्तमान में अणुबम आदि अनेक अस्त्रों द्वारा नृशंस दण्ड से दमन का प्रयोग होता रहा है। पौराणिक साहित्य में एक दण्डपाणि (यमराज) का वर्णन है पर आज तो यत्र-तत्र-सर्वत्र अनेकानेक दण्डपाणि ही चलते फिरते दिखाई देते हैं / यह लौकिक द्रव्यव्यवहार है। लोकोत्तर द्रव्यव्यवहार---प्राचार्यादि की उपेक्षा करनेवाले स्वच्छन्द श्रमणों का अन्य स्वच्छन्द श्रमणों के साथ अशनादि आदान-प्रदान का पारस्परिक व्यवहार / लोकोत्तर भावव्यवहार-१ यह दो प्रकार का है ? पागम से और 2 नोमागम से / आगम से--- उपयोगयुक्त व्यवहार पद के अर्थ का ज्ञाता' / नोग्रागम से पांच प्रकार के व्यवहार हैं 1. आगम, 2. श्रुत, 3. आज्ञा, 4. धारणा, 5. जीत / 1. जहाँ पागम हो वहाँ पागम से व्यवहार की प्रस्थापना करें। 2. जहाँ आगम न हो, श्रुत हो, वहाँ श्रुत से व्यवहार की प्रस्थापना करें। 3. जहाँ श्रुत न हो, प्राज्ञा हो, वहाँ प्राज्ञा से व्यवहार की प्रस्थापना करें। 4. जहाँ प्राज्ञा न हो, धारणा हो, वहाँ धारणा से व्यवहार की प्रस्थापना करें / 5. जहाँ धारणा न हो, जीत हो, वहाँ जीत से व्यवहार की प्रस्थापना करें। इन पांचों से व्यवहार की प्रस्थापना करें:-१. पागम, 2. श्रुत, 3. प्राज्ञा, 4. धारणा और 5. जीत से। इनमें से जहाँ-जहाँ जो हो वहाँ-वहाँ उसी से व्यवहार की प्रस्थापना करें। प्र० भंते ! पागमबलिक श्रमण निर्ग्रन्थों ने (इन पांच व्यवहारों के सम्बन्ध में) क्या कहा है? उ०—(आयुष्मन श्रमणो) इन पांचों व्यवहारों में से जब-जब जिस-जिस विषय में जो व्यवहार हो तब-तब उस उस विषय में अनिश्रितोपाश्रित ...-- (मध्यस्थ) रहकर सम्यक् व्यवहार करता हुआ श्रमण-निर्ग्रन्थ आज्ञा का पाराधक होता है ! 1. प्रागमतो व्यवहारपदार्थज्ञाता तत्र चोपयुक्त 'उपयोगो भाव निक्षेप' इति वचनात् / -व्यव० भा० पीठिका गाथा 6 1. टाणं-५. उ० 2 0 ४२१/तथा भग० श० 8. उ० 8. सू० 8, 9 / [19] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमव्यवहार केवलज्ञानियों, मनःपर्यवज्ञानियों और अवधिज्ञानियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेध आगमव्यवहार है। नव पूर्व, दश पूर्व और चौदह पूर्वधारियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेध भी आगमव्यवहार ही है। श्रुतव्यवहार आठ पूर्व पूर्ण और नवम पूर्व अपूर्णधारी द्वारा आचरित या प्रतिपादित विधि-निषेध भी श्रुतव्यवहार है। दशा (आयारदशा-दशाश्रुतस्कन्ध), कल्प (बृहत्कल्प), व्यवहार, आचारप्रकल्प (निशीथ) आदि छेदश्रत (शास्त्र) द्वारा निर्दिष्ट विधि-निषेध भी श्रुतव्यवहार है / आज्ञाव्यवहार दो गीतार्थ श्रमण एक दूसरे से अलम दूर देशों में विहार कर रहे हों और निकट भविष्य में मिलने की सम्भावना न हो। उनमें से किसी एक को कल्पिका प्रतिसेवना का प्रायश्चित्त लेना हो तो अपने अतिचार दोष कहकर गीतार्थ शिष्य को भेजे / यदि गीतार्थ शिष्य न हो तो धारणाकुशल अगीतार्थ शिष्य को सांकेतिक भाषा में अपने अतिचार कहकर दूरस्थ गीतार्थ मूनि के पास भेजे और उस शिष्य के द्वारा कही गई आलोचना सनकर वह गीतार्थ मुनि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, संहनन, धैर्य, बल आदि का विचार कर स्वयं वहाँ आवे और प्रायश्चित्त दे। अथवा गीतार्थ शिष्य को समझाकर भेजे। यदि गीतार्थ शिष्य न हो तो आलोचना का सन्देश लाने वाले के साथ ही सांकेतिक भाषाओं में अतिचार-शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का संदेश भेजे-यह प्राज्ञाव्यवहार है / 2 धारणाव्यवहार किसी गीतार्थ श्रमण ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से जिस अतिचार का जो प्रायश्चित्त दिया है, उसकी धारणा करके जो श्रमण उसी प्रकार के अतिचार सेवन करने वाले को धारणानुसार प्रायश्चित्त आगमव्यवहार की कल्पना से तीन भेद किये जा सकते है उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य / 1. केवलज्ञानियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेधपूर्ण उत्कृष्ट आगमव्यवहार है, क्योंकि केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। 2. मनःपर्यवज्ञान और अवधिज्ञान यद्यपि विकल (देश) प्रत्यक्ष हैं फिर भी ये दोनों ज्ञान आत्म-सापेक्ष हैं, इसलिये मन:पर्यवज्ञानियों या अवधिज्ञानियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेध (मध्यम) आगमव्यवहार है। 3. चौदह पूर्व, दश पूर्व और नव पूर्व (सम्पूर्ण) यद्यपि विशिष्ट श्रुत हैं, फिर भी परोक्ष हैं, अतः इनके धारक द्वारा प्ररूपित या आचरित विधि-निषेध भी आगमव्यवहार है, किन्तु यह जघन्य आयमव्यवहार है। 2. सो ववहार विहण्णू, अणुमज्जित्ता सुत्तोवएसेण / सीसस्स देइ अप्पं, तस्स इमं देहि पच्छित्तं / / —व्यव० भा० उ० 10 गा०६६१ / [20] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देता है, वह धारणाव्यवहार है। अथवा -वैयावत्य अर्थात सेवाकार्यों से जिस श्रमण ने गण का उपकार किया है वह यदि छेदश्रुत न सीख सके तो गुरु महाराज उसे कतिपय प्रायश्चित्त पदों की धारणा कराते हैं यह भी धारणाव्यवहार है। जीतव्यवहार स्थिति, कल्प, मर्यादा और व्यवस्था--ये 'जीत' के पर्यायवाची हैं / गीतार्थ द्वारा प्रवर्तित शुद्ध व्यवहार जीतव्यवहार है। श्रुतोक्त प्रायश्चित्त से हीन या अधिक किन्तु परम्परा से आचरित प्रायश्चित्त देना जीतव्यवहार है। सूत्रोक्त कारणों के अतिरिक्त कारण उपस्थित होने पर जो अतिचार लगे हैं उनका प्रवर्तित प्रायश्चित्त अनेक गीतार्थों द्वारा आचरित हो तो वह भी जीतव्यवहार है। अनेक गीतार्थों द्वारा निर्धारित एवं सर्वसम्मत विधि-निषेध भी जीतव्यवहार है।' व्यवहारपंचक के क्रमभंग का प्रायश्चित्त आगमव्यवहार के होते हुये यदि कोई श्रुतव्यवहार का प्रयोग करता है तो चार गुरु के प्रायश्चित्त का पात्र होता है। इसी प्रकार श्रतव्यवहार के होते हुये प्राज्ञाव्यवहार का प्रयोगकर्ता, याज्ञाव्यवहार के होते हये धारणाव्यवहार का प्रयोगकर्ता तथा धारणाव्यवहार के होते हुये जीतव्यवहार का प्रयोगकर्ता चार गुरु के प्रायश्चित्त का पात्र होता है। व्यवहारपंचक का प्रयोग पूर्वानुपूर्वीक्रम से अर्थात् अनुक्रम से ही हो सकता है किन्तु पश्चानुपूर्वीक्रम से अर्थात् विपरीतक्रम से प्रयोग करना सर्वथा निषिद्ध है। आगमव्यवहारी आगमव्यवहार से ही व्यवहार करते है; अन्य श्रुतादि व्यवहारों से नहीं क्योंकि जिस समय सूर्य का प्रकाश हो उस समय दीपक के प्रकाश की आवश्यकता नहीं रहती। कि पुण गुणोवएसो, ववहारस्स उ चिउ पसत्थस्म / एसो भे परिकहियो, दुवालसंगस्स गवणीयं / __-व्यव० उ० 10 भाष्य गाथा 724 / जं जीतं सावज्ज, न तेण जीएण होइ बवहारो। जं जीयमसावज्जं, तेण उ जीएण ववहारो॥ –व्यव० उ० 10 भाष्य गाथा 715 / ज जस्स पच्छित्तं, पायरियपरंपराए अविरुद्ध / जोगा य बहु विगप्पा, एमो खलु जीतकप्पो / / -व्यव० भाष्य पीबिका गाथा 12 / जं जीयमसोहिकरं, पासत्थ-पमत्त-संजयाईण्णं / जइ वि महाजणाइन्न, न तेण जीएण बवहारो॥ जं जीयं सोहिकर, संवेगपरायणेन दत्तेण / एगेण वि पाइण्णं, तेण उ जीएण बवहारो॥ .-व्यव० उ० 10 भाष्य गाथा 720, 721 / [21] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतव्यवहार तीर्थ (जहाँ तक चतुर्विध संघ रहता है वहाँ तक) पर्यन्त रहता है / अन्य व्यवहार विच्छिन्न हो जाते हैं।' कुप्रावनिकव्यवहार अनाज में, रस में, फल में और फल में होने वाले जीवों की हिंसा हो जावे तो घी चाटने से शुद्धि हो जाती है। कपास, रेशम, ऊन, एकखुर और दोखुर वाले पशु, पक्षी, सुगन्धित पदार्थ, औषधियों और रज्जु आदि की चोरी करे तो तीन दिन दूध पीने से शुद्धि हो जाती है। ऋग्वेद धारण करने वाला विप्र तीनों लोक को मारे या कहीं भी भोजन करे तो उसे किसी प्रकार का पाप नहीं लगता है। ग्रीष्मऋतु में पंचाग्नि तप करना, वर्षाऋतु में वर्षा बरसते समय बिता छाया के बैठना और शरदऋतु में मीले वस्त्र पहने रहना-इस प्रकार क्रमशः तप बढ़ाना चाहिये / " व्यवहारी व्यवहारज्ञ, व्यवहारी, व्यवहर्ता-ये समानार्थक हैं। जो प्रियधर्मी हो, दृढ़धर्मी हो, वैराग्यवान हो, पापभीरु हो, सूत्रार्थ का ज्ञाता हो और राग-द्वेषरहित (पक्षपातरहित) हो वह व्यवहारी होता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, अतिचारसेवी पुरुष और प्रतिसेवना का चिन्तन करके यदि किसी को अतिचार के अनुरूप प्रागमविहित प्रायश्चित्त देता है तो व्यवहारज्ञ (प्रायश्चित्तदाता) अाराधक होता है। 1. गाहा-सुत्तमणागयविसयं, खेत्तं कालं च पप्प ववहारो। होहिति न आइल्ला, जा तित्थं ताव जीतो उ / / ---व्यव० 10 भाष्य गाथा 55 / अन्नाद्यजानां सत्त्वानां, रसजानां च सर्वशः / फलपुष्पोद्भवानां च, घृतप्राशो विशोधनम् // ---मनु० अ० 11/143 / कासकीटजीर्णानां, द्विशफैकशफस्य च / पक्षिगन्धौषधीनां च, रज्ज्वाश्चैव त्यहं पयः / / -मनु० अ० 11/16 / 4. हत्वा लोकानपीमांस्त्री, नश्यन्नपि यतस्ततः / ऋग्वेदं धारयन्विप्रो, नैनः प्राप्नोति किञ्चन // .-मनु० अ० 11/261 / ग्रीष्मे पञ्चतपास्तुस्याद्वर्षा स्वभ्रावकाशिकः / आर्द्रवासास्तु हेमन्ते, क्रमशो वर्धयस्तपः॥ -मनु० अ० 6/23 / 6. क-पियधम्मा दढधम्मा, संविग्गा चेव दज्जभीरू अ। सुत्तत्थ तदुभयविऊ, अणिस्सिय ववहारकारी य / / --व्य० भाष्य पीठिका गाथा 14 / ख–१ प्राचारवान्, 2 अाधारवान्, 3 व्यवहारवान्, 4 अपनीडक, 5 प्रकारी, 6 अपरिश्रावी, 7 निर्यापक, 8 अपायदर्शी, 9 प्रियधर्मी, 10 दृढ़धर्मी। ठाणं० 10, सू० 733 / ग-व्यव० उ०१० भाष्य गाथा 243 / 245 / 246 / 247 / 298 / 300 / [ 22 ] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य, क्षेत्र प्रादि का चिन्तन किये बिना राग-द्वेषपूर्वक हीनाधिक प्रायश्चित्त देता है वह व्यवहारज्ञ (प्रायश्चित्तदाता) विराधक होता है।' व्यवहर्तव्य व्यवहर्तव्य व्यवहार करने योग्य निर्ग्रन्थ हैं। ये अनेक प्रकार के हैं। निर्ग्रन्थ चार प्रकार के हैं१. एकरानिक होता है किन्तु भारीकर्मा होता है, अत: वह धर्म का अनाराधक होता है। 2. एकरानिक होता है और हलुकर्मा होता है, अतः वह धर्म का पाराधक होता है।। 3. एक अवमरात्निक होता है और भारीकर्मा होता है, अतः वह धर्म का अनाराधक होता है / 4. एक अवमरानिक होता है किन्तु हलुकर्मा होता है, अत: वह धर्म का आराधक होता हैं। इसी प्रकार निर्ग्रन्थियाँ भी चार प्रकार की होती हैं। 4 निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के हैं--. 1. पुलाक—जिसका संयमी जीवन भूसे के समान साररहित होता है। यद्यपि तत्त्व में श्रद्धा रखता है, क्रियानुष्ठान भी करता है, किन्तु तपानुष्ठान से प्राप्त लब्धि का उपयोग भी करता है और ज्ञानातिचार लगेऐसा बर्तन-व्यवहार रखता है। 2. बकुश-ये दो प्रकार के होते हैं--उपकरणबकुश और शरीरबकुश / जो उपकरणों को एवं शरीर को सजाने में लगा रहता है और ऋद्धि तथा यश का इच्छुक रहता है / छेदप्रायश्चित्त योग्य अतिचारों का सेवन करता है। 3. कुशील- यह दो प्रकार का है-१ प्रतिसेवनाकुशील और 2 कषायकुशील / प्रतिसेवनाकुशील जो पिण्डशुद्धि आदि उत्तरगुणों में अतिचार लगाते हैं / कषायकुशील-जो यदा कदा संज्वलन कषाय के उदय से स्वभावदशा में स्थिर नहीं रह पाता / 4. निम्रन्थ-उपशान्तमोह निर्ग्रन्थ / 5. स्नातक--सयोगीकेवली और अयोगीकेवली। इन पांच निर्ग्रन्थों के अनेक भेद-प्रभेद हैं। ये सब व्यवहार्य हैं। जब तक प्रथम संहनन और चौदह पूर्व का ज्ञान रहा तब तक पूर्वोक्त दस प्रायश्चित्त दिये जाते थे। इनके 1. गाहा--जो सुयमहिज्जइ, बहं सुत्तत्थं च निउणं विजाणाइ / कप्पे ववहारंमि य, सो उ पमाणं सुयहराणं / / कप्पस्स य निज्जुत्ति ववहारस्स व परमनिउणस्स / जो अत्थतो वियाणइ, बवहारी सो अणुण्णातो।। 2. जो दीक्षापर्याय में बड़ा हो / 3. जो दीक्षापर्याय में छोटा हो / ठाणं०४, उ० 3, सूत्र 320 / -व्यव० उ०१० भाष्य गाथा 605, 607 >> [ 23 ] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विच्छन्न होने पर अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त भी विच्छन्न हो गये -अर्थात् ये दोनों प्रायश्चित्त अव नहीं दिये जाते हैं। शेष आठ प्रायश्चित्त तीर्थ (चतुर्विधसंघ) पर्यन्त दिये जायेंगे। पुलाक को व्युत्सर्मपर्यन्त छह प्रायश्चित्त दिए जाते थे। प्रतिसेवकबकुश और प्रतिसेवनाकुशील को दसों प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। स्थविरों को अनबस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त नहीं दिये जाते; शेष आठ प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। निर्ग्रन्थ को केवल दो प्रायश्चित्त दिये जा सकते हैं-१ आलोचना, 2 विवेक / स्नातक केवल एक प्रायश्चित्त लेता है-विवेक / उन्हें कोई प्रायश्चित्त देता नहीं है।' 1 सामायिकचारित्र वाले को छेद और मूल रहित आठ प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। 2 छेदोपस्थापनीयचारित्र वाले को दसों प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। 3 परिहारविशुद्धिचारित्र वाले को मूलपर्यन्त पाठ प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। 4 सूक्ष्मसंपरायचारित्र वाले को तथा 5 यथाख्यातचारित्र वाले को केवल दो प्रायश्चित दिये जाते हैं१ अालोचना और 2 विवेक / ये सब व्यवहार्य हैं / 2 व्यवहार के प्रयोग व्यवहारज्ञ जब उक्त व्यवहारपंचक में से किसी एक व्यवहार का किसी एक व्यवहर्तव्य (व्यवहार करने योग्य श्रमण या श्रमणी) के साथ प्रयोग करता है तो विधि के निषेधक को या निषेध के विधायक को प्रायश्चित्त देता है तब व्यवहार शब्द प्रायश्चित्त रूप तप का पर्यायवाची हो जाता है। अतः यहाँ प्रायश्चित्त रूप तप का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। 1 गुरुकः, 2 लघुक, 3 लघुस्वक / गुरुक के तीन भेद 1 गुरुक, 2 गुरुतरक और 3 यथागुरुक / गाहा---पालोयणपडिक्कमणे, मीस-विवेगे तहेव विउस्सग्गे / एएछ पच्छित्ता, पूलागनियंठाय बोधव्वा / / बउसपडिसेवगाणं, पायच्छिन्ना हवं ति सव्वे वि / भवे कप्पे, जिणकप्पे अहा होति / / पालोयणा विवेगो य, नियंठस्स दुवे भवे / विवेगो य सिणायस्स, एमेया पडिवत्तितो॥ -व्यव० 10 भाष्य गाथा 357, 58, 59 सामाइयसंजयाणं, पायच्छित्ता, छेद-मूलरहियट्ठा / थेराणं जिणाणं पुण, मूलत अव्हा होई॥ परिहारविसुद्धीए, मूलं ता अट्टाति पच्छित्ता। थेराणं जिणाणं पुण, जविहं छेयादिवज्ज वा / / पालोयणा-विवेगो य तइयं तु न विज्जती। सुहुमेय संपराए, अहक्खाए तहेव य // -व्यव० उ०१० भाष्य गाथा 361-62-63-64 / [ 24 ] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघु के तीन भेद 1. लघुक, 2. लघुतरक और 3. यथालघुक / लघुस्वक के तीन भेद 1. लघुस्वक, 2. लघुस्वतरक और 3. यथालघुस्वक / गुरु प्रायश्चित्त महा प्रायश्चित्त होता है उसकी अनदधातिक संज्ञा है। इस प्रायश्चित्त के जितने दिन निश्चित हैं और जितना तप निर्धारित है वह तप उतने ही दिनों में पूरा होता है। यह तप पिकाप्रतिसेवना वालों को ही दिया जाता है। गुरुक व्यवहार : प्रायश्चित तप 1. गुरु प्रायश्चित्त-एक मास पर्यन्त अट्ठम तेला (तीन दिन उपवास) 2. गुरुतर प्रायश्चित्त- चार मास पर्यन्त दशम '.---चोला (चार दिन का उपवास) 3. गुरुतर प्रायश्चित--छह मास पर्यन्त द्वादशम3-पचोला (पांच दिन का उपवास)। लघुक व्यवहार/प्रायश्चित तप 1. लघु प्रायश्चित्त--तीस दिन पर्यन्त छद्र--बेला (दो उपवास) 2. लघुतर प्रायश्चित्त-पचीस दिन पर्यन्त चउत्थ' - उपवास / 3. यथालघु प्रायश्चित—बीस दिन पर्यन्त आचाम्ल / ' 1. लघुस्वक प्रायश्चित्त-पन्द्रह दिन पर्यन्त एक स्थानक --(एगलठाणो) 2. लघुस्वतरक प्रायश्चित्त-दस दिन पर्यन्त-पूर्वार्ध (दो पोरसी) 3. यथालघुस्वक प्रायश्चित्त-पांच दिन पर्यन्त--निविकृतिक (विकृतिरहित आहार) / 1. एक मास में पाठ अद्रम होते हैं--- इनमें चौवीस दिन तपश्चर्या के और आठ दिन पारणा के। अन्तिम पारणे का दिन यदि छोड़ दें तो एक माम (इकतीस दिन) गुरु प्रायश्चित्त का होता है। में छह दसम होते हैं इनमें चौबीस दिन तपश्चर्या के और छह दिन पारणे के इस प्रकार एक मास (तीस दिन) गुरु प्रायश्चित्त का होता है / 3. एक मास में पाँच द्वादशम होते हैं-इनमें पचीस दिन तपश्चर्या के और पाँच दिन पारणे के इस प्रकार एक मास (तीस दिन) गुरु प्रायश्चित्त का होता है। 4. तीस दिन में दस छुट्ट होते हैं- इनमें बीस दिन तपश्चर्या के और दस दिन पारणे के होते हैं। में तेरह उपवास होते हैं. इनमें तेरह दिन तपश्चर्या के और बारह दिन पारणे के / अन्तिम पारणे का दिन यहाँ नहीं गिना है। 6. बीस दिन में दस आचाम्ल होते हैं-इनमें दस दिन तपश्चर्या के और दस दिन पारणे के होते हैं / 7. पन्द्रह दिन एक स्थानक निरन्तर किये जाते हैं। 8. दस दिन पूर्वार्ध निरन्तर किये जाते हैं। 9. पांच दिन निर्विकृतिक आहार निरन्तर किया जाता है। 10. वह० उद्दे० 5 भाष्य गाथा 6039-6044 / [25] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु प्रायश्चित तप के तीन विभाग१. जघन्य, 2. मध्यम और 3. उत्कृष्ट / 1. जघन्य गुरु प्रायश्चित्त-एक मासिक और द्वैमासिक / 2. मध्यम गुरु प्रायश्चित्त--त्रैमासिक और चातुर्मासिक / 3. उत्कृष्ट गुरु प्रायश्चित्त-पांचमासिक और पाण्मासिक / जघन्य गुरु प्रायश्चित्त तप है--एक मास या दो मास पर्यन्त निरन्तर अट्टम तप करना। मध्यम गुरु प्रायश्चित्त तप है—तीन मास या चार मास पर्यन्त निरन्तर दशम तप करना। उत्कृष्ट गुरु प्रायश्चित्त तप है-पाँच मास या छह मास पर्यन्त निरन्तर द्वादशम तप करना। इसी प्रकार लघ प्रायश्चित्त तप के और लघस्वक तप के भी तीन-तीन विभाग हैं। तथा तप की आराधना भी पूर्वोक्त मास क्रम से ही की जाती है। उत्कृष्ट गुरु प्रायश्चित्त के तीन विभाग-- 1. उत्कृष्ट-उत्कृष्ट, 2. उत्कृष्ट-मध्यम, 3. उत्कृष्ट-जघन्य / 1. उत्कृष्ट-उत्कृष्ट गुरु प्रायश्चित-पाँच मास या छह मास पर्यन्त निरन्तर द्वादशम तप करना / 2. उत्कृष्ट-मध्यम गुरु प्रायश्चित्त–तीन मास या चार मास पर्यन्त निरन्तर द्वादशम तप करना / 3. उत्कृष्ट-जघन्य गुरु प्रायश्चित्त-एक मास या दो मास पर्यन्त निरन्तर द्वादशम तप करना / इसी प्रकार मध्यम गुरु प्रायश्चित्त के तीन विभाग और जघन्य गुरु प्रायश्चित्त के भी तीन विभाग हैं। तपाराधना भी पूर्वोक्त क्रम से ही की जाती है। उत्कृष्ट लघ प्रायश्चित्त, मध्यम लघ प्रायश्चित्त, जघन्य लघ प्रायश्चित्त के तीन, तीन विभाग तथा उत्कृष्ट लघुस्वक प्रायश्चित्त, मध्यम लधुस्वक प्रायश्चित्त और जघन्य लघुस्वक प्रायश्चित्त के भी तीन, तीन विभाग हैं। तपाराधना भी पूर्वोक्त मासक्रम से है। विशेष जानने के लिये व्यवहार भाष्य का अध्ययन करना चाहिये। व्यवहार (प्रायश्चित्त) को उपादेयता प्र०-भगवन ! प्रायश्चित्त से जीव को क्या लाभ होता है ? उ०—प्रायश्चित्त से पापकर्म की विशुद्धि होती है और चारित्र निरतिचार होता है। सम्यक् प्रकार से प्रायश्चित्त करने पर मार्ग (सम्यग्दर्शन) और मार्गफल (ज्ञान) की विशुद्धि होती है। प्राचार और प्राचारफल (मुक्तिमार्ग) की शुद्धि होती है।' 1. (क) उत्त० अ० 29 (ख) पावं छिदइ जम्हा, पायच्छित्तं तु भन्नए तेणं / पाएण वा विचित्तं, विसोहए तेण पच्छित्तं // -व्यव. भाष्य पीठिका, गाथा 35 (ग) प्रायः पापं समुद्दिष्टं, चित्तं तस्य विशोधनम् / यदा प्रायस्य तपस: चित्तम् निश्चय इति स्मृती। (घ) प्रायस्य पापस्य चित्तं विशोधनम् प्रायश्चित्तम् / [ 26 ] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त के भेद-प्रभेद 1. ज्ञान-प्रायश्चित्त-ज्ञान के अतिचारों की शुद्धि के लिये आलोचना आदि प्रायश्चित्त करना।' 2. दर्शन-प्रायश्चित्त-दर्शन के अतिचारों की शुद्धि के लिये आलोचना आदि प्रायश्चित्त करना। 3. चारित्र प्रायश्चित्त-चारित्र के अतिचारों की शुद्धि के लिये आलोचना आदि प्रायश्चित्त करना / 3 4. वियत्त किच्चपायच्छित्ते---इस चतुर्थ प्रायश्चित के दो पाठान्तर हैं 1. वियत्तकिच्चपायच्छित्ते-व्यक्तकृत्य प्रायश्चित / 2. चियत्तकिच्चपायच्छित्ते-त्यक्तकृत्य प्रायश्चित / क---व्यक्तकृत्य प्रायश्चित्त के दो अर्थ हैं--(१) व्यक्त---अर्थात आचार्य उनके द्वारा निर्दिष्ट प्रायश्चित्त कृत्य पाप का परिहारक होता है। तात्पर्य यह है कि आचार्य यदा-कदा किसी को प्रायश्चित्त देते हैं तो वे अतिचारसेवी के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि देखकर देते हैं। प्राचार्य द्वारा दिये गये प्रायश्चित्त का उल्लेख दशाकल्प-व्यवहार आदि में हो या न हो फिर भी उस प्रायश्चित्त से आत्मशुद्धि अवश्य होती है। ___ख----व्यक्त अर्थात् स्पष्ट छेद सूत्र निर्दिष्ट प्रायश्चित्त कृत्य / भिन्न भिन्न अतिचारों के भिन्न-भिन्न (मालोचनादि कृत्य) प्रायश्चित्त / क-त्यक्त कृत्यप्रायश्चित्त ---जो कृत्य त्यक्त हैं उनका प्रायश्चित्त / ख—चियत्त—का एक अर्थ 'प्रीतिकर' भी होता है। प्राचार्य के प्रीतिकर कृत्य वैयावृत्य आदि भी प्रायश्चित्त रूप हैं। दस प्रकार के प्रायश्चित्त(१) पालोचना योग्य-जिन अतिचारों की शूद्धि प्रालोचना से हो सकती है ऐसे अतिचारों की आलोचना (ङ) जिस प्रकार लौकिक व्यवहार में सामाजिक या राजनैतिक अपराधियों को दण्ड देने का विधान है—इसौ प्रकार मूलगुण या उत्तरगुण सम्बन्धी (1) अतिक्रम, (2) व्यतिक्रम, (3) अतिचार और (4) अनाचारसेवियों को प्रायश्चित्त देने का विधान है। सामान्यतया दण्ड और प्रायश्चित्त समान प्रतीत होते हैं, किन्तु दण्ड क्रूर होता है और प्रायश्चित्त अपेक्षाकृत कोमल होता है। दण्ड अनिच्छापूर्वक स्वीकार किया जाता है और प्रायश्चित्त स्वेच्छापूर्वक स्वीकार किया जाता है / दण्ड से बासनाओं का दमन होता है और प्रायश्चित्त से शमन होता है। 1. ज्ञान के चौदह अतिचार / 2. दर्शन के पाँच अतिचार / 3. चारित्र के एकसौ छह (106) अतिचार पांच महाव्रत से पच्चीस अतिचार / रात्रिभोजन त्याग के दो अतिचार। इर्यासमिति के चार अतिचार / भाषासमिति के दो अतिचार। एषणा समिति के सेंतालीस अतिचार। आदान निक्षेपणा समिति के दो अति चार / परिष्ठापना समिति के दस प्रतिचार / तीन गुप्ति के 9 अतिचार। संलेखना के 5 अतिचार 4. 'चियत्त' का 'प्रीतिकर' अर्थसूचक संस्कृत रूपान्तर मिलता नहीं है। -अर्धमागधीकोश भाग 2 चियत्तशब्द पृ० 628 [ 27 ] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना आलोचना योग्य प्रायश्चित्त है। एषणा समिति और परिष्ठापना समिति के अतिचार प्रायः आलोचना योग्य हैं। (2) प्रतिक्रमणयोंग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि प्रतिक्रमण से हो सकती है, ऐसे अतिचारों का प्रतिक्रमण करना—प्रतिक्रमण योग्य है। समितियों एवं गुप्तियों के अतिचार प्रायः प्रतिक्रमण योग्य हैं। (3) उभययोग्य----जिन अतिचारों की शुद्धि आलोचना और प्रतिक्रमण-दोनों से ही हो सकती है ऐसे अतिचारों की आलोचना तथा उनका प्रतिक्रमण करना-उभय योग्य प्रायश्चित्त है। एकेन्द्रियादि जीवों का अभिधान करने से यावत स्थानान्तरण करने से जो अतिचार होते हैं वे उभय प्रायश्चि योग्यत्त हैं। (4) विवेकयोग्य-जिन अतिचारों को शुद्धि विवेक अर्थात् परित्याग से होती है ऐसे अतिचारों का परित्याग करना विवेक (त्याग) योग्य प्रायश्चित्त है। आधाकर्म आहार यदि आ जाय तो उसका परित्याग करना ही विवेकयोग्य प्रायश्चित्त है।। (5) व्युत्सर्ग योग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि कायिक क्रियाओं का अवरोध करके ध्येय में उपयोग स्थिर करने से होती है ऐसे अतिचार व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त योग्य हैं। नदी पार करने के बाद किया जाने वाला कायोत्सर्ग व्युत्सर्ग योग्य प्रायश्चित्त है। (6) तपयोग्य-जिन अतिचारों की शूद्धि तप से ही हो सकती है--ऐसे अतिचार तप प्रायश्चित्त योग्य हैं। निशीथसूत्र निर्दिष्ट अतिचार प्रायः तप (मुरुमास, लघुमास) प्रायश्चित्त योग्य हैं। (7) छेदयोग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि दीक्षा छेद से हो सकती है वे अतिचार छेद प्रायश्चित्त योग्य हैं। पाँच महाव्रतों के कतिपय अतिचार छेद प्रायश्चित्त योग्य हैं। (8) मूलयोग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि महाव्रतों के पुन: आरोपण करने से ही हो सकती है, ऐसे अनाचार मूल प्रायश्चित्त के योग्य होते हैं / एक या एक से अधिक महाव्रतों का होने वाला मूल प्रायश्चित्त योग्य है / (9) अनवस्थाप्ययोग्य-जिन अनाचारों की शुद्धि व्रत एवं वेष रहित करने पर ही हो सकती है-ऐसे अनाचार अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त योग्य होते हैं / अकारण अपवाद मार्ग सेवन में आसक्त, एक अतिचार का अनेक बार आचरणकर्ता, तथा एक साथ अनेक अतिचार सेवनकर्ता छेद प्रायश्चित्त योग्य होता है। जिस प्रकार शेष अंग की रक्षा के लिये व्याधिविकृत अंग का छेदन अत्यावश्यक है-इसी प्रकार शेष व्रत पर्याय की रक्षा के लिये दूषित व्रत पर्याय का छेदन भी अत्यावश्यक है। 2. एक बार या अनेक बार पंचेन्द्रिय प्राणियों का वध करने वाला, शील भंग करने वाला, संक्लिष्ट संकल्पपूर्वक मृषावाद बोलने वाला, अदत्तादान करने वाला, परिग्रह रखने वाला, पर-लिंग (परिव्राजकादि का वेष) धारण करने वाला तथा गृहस्थलिंग धारण करने वाला मूल प्रायश्चित्त योग्य होता है। 3. अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त योग्य तीन हैं-- 1. साधमिक की चोरी करने वाला, 2. अन्यर्मियों की चोरी करने वाला, 3. दण्ड, लाठी या मुक्के आदि से प्रहार करने वाला। -ठाणं० 3, उ०४ सू० 201 [28] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10) पारांचिक योग्य-जिन अनाचारों की शुद्धि गृहस्थ का वेष धारण कराने पर और बहुत लम्बे समय तक निर्धारित तप का अनुष्ठान कराने पर ही हो सकती है ऐसे अनाचार पारांचिकप्रायश्चित्त योग्य होते हैं। इस प्रायश्चित्त वाला व्यक्ति उपाश्रय, ग्राम और देश से बहिष्कृत किया जाता है। प्रायश्चित्त के प्रमुख कारण 1. अतिक्रम-दोषसेवन का संकल्प / 2. व्यतिक्रम-दोषसेवन के साधनों का संग्रह करना / 3. अतिचार-दोषसेवन प्रारम्भ करना। 4. अनाचार-~-दोषसेवन कर लेना। अतिक्रम के तीन भेद१. ज्ञान का अतिक्रम, 2. दर्शन का अतिक्रम, 3. चारित्र का अतिक्रम। इसी प्रकार ज्ञान का व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार हैं / दर्शन और चारित्र के भी तीन-तीन भेद हैं। ज्ञान का अतिक्रम तीन प्रकार का है ---- 1. जघन्य, 2. मध्यम, 3. उत्कृष्ट / इसी प्रकार ज्ञान का व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार हैं। दर्शन और चारित्र के भी तीन-तीन भेद हैं। ज्ञानादि का अतिक्रम हो गया हो तो गुरु के समक्ष आलोचना करना, प्रतिक्रमण करना तथा निन्दा, गहरे आदि करके शुद्धि करना, पुनः दोषसेवन न करने का दृढ़ संकल्प करना तथा प्रायश्चित्त रूप तप करना / इसी प्रकार के ज्ञान के व्यतिक्रमादि तथा दर्शन-चारित्र के अतिक्रमादि की शुद्धि करनी चाहिए।' 1. ठाणं० 6, सू० 489 / ठाणं० 8, सू० 605 / ठाणं० 9, सू० 688 / ठाणं० 10, सू० 733 / पारांचिक प्रायश्चित्त योग्य पाँच हैं१. जो कुल (गच्छ) में रहकर परस्पर कलह कराता हो। 2. जो गण में रहकर परस्पर कलह कराता हो। 3. जो हिंसाप्रेक्षी हो, 4. जो छिद्रप्रेमी हो, 5. प्रश्नशास्त्र का बारम्बार प्रयोग करता हो। -ठागं 5, उ०१ सू० 398 / पारांचिक प्रायश्चित्त योग्य तीन हैं१. दुष्ट पारांचिक 2. प्रमत्त पारांचिक 3. अन्योऽन्य मैथनसेवी पारांचिक / अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में विशेष जानने के लिये व्यवहारभाश्य देखना चाहिये। 2. (क) ठाणं 3 उ०४ सू० 195 / (ख) अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करने का संकल्प करना ज्ञान का अतिक्रम है / पुस्तक लेने जाना- ज्ञान का व्यतिक्रम है / स्वाध्याय प्रारम्भ करना ज्ञान का अतिचार है। पूर्ण स्वाध्याय करना ज्ञान का अनाचार है। इसी प्रकार दर्शन तथा चारित्र के अतिक्रमादि समझने चाहिए। [29] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिसेवना के दस प्रकार 1. दर्पप्रतिसेवना-अहंकारपूर्वक अकृत्य सेवन / 2. प्रमादप्रतिसेवना-निद्रादि पांच प्रकार के प्रमादवश अकृत्य सेवन / 3. अनाभोग प्रतिसेवना--विस्मृतिपूर्वक अनिच्छा से प्रकृत्य सेवन / 4. प्रातुरप्रतिसेवना-रुग्णावस्था में अकृत्य सेवन / 5. आपत्तिप्रतिसेवना-दुभिक्षादि कारणों से अकृत्य सेवन / 6. शंकित प्रतिसेवना-आशंका से प्रकृत्य सेवन / 7. सहसाकार प्रतिसेवना-अकस्मात् या बलात्कार से प्रकृत्य सेवन / 8. भयप्रतिमेवना-भय से अकृत्य सेवन / 9. प्रवषप्रतिसेवना-द्वेषभाव से अकृत्य सेवन / 10. विमर्शप्रतिसेवना-शिष्य की परीक्षा के निमित्त प्रकृत्य सेवन / ये प्रतिसेवनायें संक्षेप में दो प्रकार की हैं-दपिका और कल्पिका / राग-द्वेष पूर्वक जो अकृत्य सेवन किया जाता है वह दपिका प्रतिसेवना है। इस प्रतिसेवना से प्रतिसेवक विराधक होता है। राग-द्वेष रहित परिणामों से जो प्रतिसेवना हो जाती है या की जाती है वह कल्पिका प्रतिसेवना है। इसका प्रतिसेवक आराधक होता है। पाठ प्रकार के ज्ञानातिचार१. कालातिचार-अकाल में स्वाध्याय करना / 2. विनयातिचार-श्रुत का अध्ययन करते समय जाति और कुल मद से गुरु का विनय न करना। 3. बहुमानातिचार-श्रुत और गुरु का सन्मान न करना। 4. उपधानातिचार-श्रुत की वाचना लेते समय प्राचाम्लादि तपन करना। 5. निह्नवनाभिधानातिचार-गुरु का नाम छिपाना। 6. व्यंजनातिचार-हीनाधिक अक्षरों का उच्चारण करना। 7. अर्थातिचार-प्रसंग संगत अर्थ न करना / अर्थात विपरीत अर्थ करना। 8. उभयातिचार-हस्व की जगह दीर्घ उच्चारण करना, दीर्घ की जगह ह्रस्व उच्चारण करना / उदात्त __ के स्थान में अनुदात्त का और अनुदात्त के स्थान में उदात्त का उच्चारण करना / अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार ये तीन संज्वलन कषाय के उदय से होते हैं-इनकी शुद्धि आलोचनाह से लेकर तपोऽहंपर्यन्त प्रायश्चित्तों से होती है / छेद, मूला, अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त योग्य अतिचार और अनाचार शेष बारह कषायों (अनन्तानुबन्धी 4, अप्रत्याख्यानी 4, प्रत्याख्यानी 4) के उदय से होते हैं। 1. गाहा--रागद्दोसाणुगया, तु दप्पिया कप्पिया तु तदभावा। प्राराधणा उ कप्पे, विराधणा होति दप्पेण // -बृह० उ०४ भाष्य माथा 4943 / 2. सव्वे वि अइयारा संजलणाणं उदयओ होंति // -अभि० कोष---'अइयार' शब्द / [30] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकट और प्रच्छन्न दोष सेवन अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार-इन चार प्रकार के दोषों का सेवन करने वाले श्रमणश्रमणियां चार प्रकार के हैं 1. कुछ श्रमण-धमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन प्रकट करते हैं अर्थात् प्रच्छन्न नहीं करते हैं। 2. कुछ श्रमण-श्रमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन प्रच्छन्न करते हैं अर्थात् प्रकट नहीं करते हैं। 3. कुछ श्रमण-श्रमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन प्रकट भी करते हैं और प्रच्छन्न भी करते हैं। 4. कुछ श्रमण-श्रमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन न प्रकट करते हैं और न प्रच्छन्न करते हैं।' प्रथम भंग वाले—श्रमण-श्रमणियाँ अनुशासन में नहीं रहने वाले अविनीत, स्वच्छन्द, प्रपंची एवं निर्लज्ज होते हैं और वे पापभीरू नहीं होते हैं अतः दोषों का सेवन प्रकट करते हैं। द्वितीय भंग वाले-श्रमण-श्रमणियाँ दो प्रकार के होते हैं-अत: दोष का सेवन प्रकट करते हैं / यथा प्रशस्त भावना वाले-श्रमण-श्रमणियाँ यदि यदा-कदा उक्त दोषों का सेवन करते हैं तो प्रच्छन्न करते हैं, क्योंकि वे स्वयं परिस्थितिवश आत्मिक' दुर्बलता के कारण दोषों का सेवन करते हैं इसलिए ऐसा सोचते हैं कि मुझे दोष-सेवन करते हये देखकर अन्य श्रमण-श्रमणियाँ दोष-सेवन न करें अतः वे दोषों का सेवन प्रच्छन्न करते हैं। अप्रशस्त भावना वाले...मायावी श्रमण-श्रमणियाँ लोक-लज्जा के भय से या श्रद्धालुजनों की श्रद्धा मेरे पर बनी रहे इस संकल्प से उक्त दोषों का सेवन प्रकट नहीं करते हैं अपितु छिपकर करते हैं। तृतीय भंग वाले-श्रमण-श्रमणियाँ वंचक प्रकृति के होते हैं वे सामान्य दोषों का सेवन तो प्रकट करते हैं किन्तु सशक्त (प्रबल) दोषों का सेवन प्रच्छन्न करते हैं / ___यदि उन्हें कोई सामान्य दोष सेवन करते हुये देखता है तो वे कहते हैं-'सामान्य दोष तो इस पंचमकाल में सभी को लगते हैं। अत: इन दोषों से बचना असम्भव है।' चतुर्थ भंग बाले---श्रमण-श्रमणियां सच्चे वैराग्य वाले होते हैं, मुमुक्षु और स्वाध्यायशील भी होते हैं प्रतः वे उक्त दोषों का सेवन न प्रकट करते हैं, न प्रच्छन्न करते हैं / प्रथम तीन भंग वाले श्रमण-श्रमणियों द्वारा सेवित दोषों की शूद्धि के लिए ही व्यवहारसुत्र निर्दिष्ट प्रायश्चित्त-विधान है। अंतिम चतुर्थ भंग वाले श्रमण-श्रमणियाँ निरतिचार चारित्र के पालक होते हैं अतः उनके लिए किसी भी प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान नहीं है। व्यवहारशुद्धि कठिन भी, सरल भी प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव आदिनाथ के धर्मशासन में श्रमण-श्रमणियाँ प्रायः ऋजु-सरल होते थे पर जड (अल्पबौद्धिक विकास वाले) होते थे। अतः वे सूत्र सिद्धान्त निर्दिष्ट समाचारी का परिपूर्ण ज्ञान तथा परिपूर्ण पालन नहीं कर पाते थे। उनकी व्यवहार शुद्धि दुःसाध्य होने का एकमात्र यही कारण था। 1. ठाणं-४, उ. 1, सू. 272 [31] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावीस तीर्थंकरों (भगवान् अजितनाथ से भ० पार्श्वनाथ पर्यन्त) के श्रमण-श्रमणी प्रायः ऋजु-प्राज्ञ (सरल और प्रबुद्ध) होते थे। वे सूत्र सिद्धान्त प्रतिपादित समाचारी का परिपूर्ण ज्ञान तथा परिपूर्ण पालन करने में सदा प्रयत्नशील रहते थे अतः उनकी व्यवहार शूद्धि अति सरल थी। अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर की परम्परा के श्रमण-श्रमणी प्रायः वक्रजड हैं। दशा, कल्प, व्यवहार प्रादि में विशद श्रुत समाचारी के होते हुये भी प्रत्येक गच्छ भिन्न-भिन्न समाचारी की प्ररूपणा करता है। पर्युषणपर्व तथा संवत्सरी पर्व जैसे महान धार्मिक पर्वो की आराधना, पक्खी, चौमासी आलोचना भी विभिन्न दिनों में की जाती है। वक्रता और जड़ता के कारण मूलगुण तथा उत्तरगणों में लगने वाले अतिचारों की आलोचना भी वे सरल हृदय से नहीं करते अतः उनकी व्यवहार शुद्धि अति कठिन है।' पालोचना और आलोचक आलोचना-अज्ञान, अहंकार, प्रमाद या परिस्थितिवश जो उत्सर्ग मार्ग से स्खलन अर्थात अतिचार होता है—उसे गुरु के समक्ष प्रकट करना आलोचना है और आलोचक वह है जो पूर्वोक्त कारणों से लगे हुये अतिचारों को गुरु के समक्ष प्रकट करता है / ___ यदि आलोचक मायावी हो और मायापूर्वक पालोचना करता हो तो उसको आलोचना का उसे अच्छा फल नहीं मिलता है। यदि पालोचक मायावी नहीं है और मायारहित आलोचना करता है तो उसकी आलोचना का उसे अच्छा फल मिलता है। व्यवहारशुद्धि के लिये तथा निश्चय (आत्म) शुद्धि के लिये लगे हये अतिचारों की आलोचना करना अनिवार्य है किन्तु साधकों के विभिन्न वर्ग हैं। उनमें एक वर्ग ऐसा है जो अतिचारों की पालोचना करता ही नहीं है। उनका कहना है-हमने अतिचार (अकृत्य) सेवन किये हैं, करते हैं और करते रहेंगे। क्योंकि देश, काल और शारीरिक-मानसिक स्थितियां ऐसी हैं कि हमारा संयमी जीवन निरतिचार रहे.-ऐसा हमें संभव नहीं लगता है अत: आलोचना से क्या लाभ है यह तो हस्तिस्नान जैसी प्रक्रिया है। अतिचार लगे आलोचना की और फिर अतिचार लगे--यह चक्र चलता ही रहता है। उनका यह चिन्तन अविवेकपूर्ण है क्योंकि वस्त्र पहने हैं, पहनते हैं और पहनते रहेंगे तो पहने गये वस्त्र मलिन हुये हैं, होते हैं और होते रहेंगे--'फिर वस्त्र शुद्धि से क्या लाभ है !'---यह कहना कहाँ तक उचित है ? ब तक वस्त्र पहनना है तब तक उन्हें शुद्ध रखना भी एक कर्तव्य है. क्योंकि वस्त्रशुद्धि के भी कई लाभ हैं-प्रतिदिन शुद्ध किये जाने वाले वस्त्र प्रति मलिन नहीं होते हैं और स्वच्छ वस्त्रों से स्वास्थ्य भी समृद्ध रहता है / इसी प्रकार जब तक योगों के व्यापार हैं और कषाय तीव्र या मन्द है तब तक अतिचार जन्य कर्ममल लगना निश्चित है। 1. गाहा-पुरिमाणं दुब्बिसोझो उ, चरिमाणं दुरणुपालो। कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसोझो सुपालो / --उत्त. अ. 23, गाथा --27 / [ 32] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिदिन अतिचारों की अालोचना करते रहने से आस्मा कर्ममल से प्रतिमलिन नहीं होता है और भावप्रारोग्य रहता है। ज्यों ज्यों योगों का व्यापार अवरुद्ध होता है और कषाय मन्दतम होते जाते हैं, त्यों त्यों अतिचारों का लगना प्रल्प होता जाता है। द्वितीय वर्ग ऐसा है जो अयश-अकीति, अवर्ण (निन्दा) या अवज्ञा के भय से अयवा यश-कीर्ति या पूजा-सत्कार कम हो जाने के भय से अतिचारों की आलोचना ही नहीं करते। तृतीय वर्ग ऐसा है जो आलोचना तो करता है पर मायापूर्वक करता है / वह सोचता है मैं यदि पालोचना नहीं करूगा तो मेरा वर्तमान जीवन गहित हो जायगा और भावी जीवन भी विक्रत हो जाय करूंगा तो मेरा वर्तमान एवं भावी जीवन प्रशस्त हो जायगा अथवा पालोचना कर लूगा तो ज्ञान दर्शन एवं चारित्र की प्राप्ति हो जायगी। मायावी आलोचक को दुगुना प्रायश्चित्त देने का विधान प्रारम्भ के सूत्रों में है। चौथा वर्ग ऐसा है जो मायारहित आलोचना करता है, वह 1. जातिसम्पन्न, 2. कुलसम्पन्न, 3. विनयसम्पन्न, 4. ज्ञानसम्पन्न, 5. दर्शनसम्पन्न, 6. चारित्रसम्पन्न, 7. क्षमाशील, 8. निग्रहशील, 9, अमायी, 10. अपश्चात्तापी / ऐसे साधकों का यह वर्ग है / इनका व्यवहार और निश्चय दोनों शुद्ध होते हैं / __ पालोचक गीतार्थ हो या अगीतार्थ, उन्हें आलोचना सदा गीतार्थ के सामने ही करनी चाहिये / गीतार्थ के अभाव में किन के सामने करना चाहिये।' उनका एक क्रम है--जो छेदसूत्रों के स्वाध्याय से जाना जा सकता है। व्यवहारसूत्र का सम्पादन क्यों संयमी आत्माओं के जीवन का चरम लक्ष्य है -"निश्चयशुद्धि' अर्थात् आत्मा की (कर्म-मल से) सर्वथा मुक्ति और इसके लिये व्यवहारसूत्र प्रतिपादित व्यवहारशुद्धि अनिवार्य है। जिसप्रकार शारीरिक स्वास्थ्यलाभ के लिये उदरशुद्धि आवश्यक है और उदरशुद्धि के लिये आहारशुद्धि अत्यावश्यक है-इसी प्रकार प्राध्यात्मिक आरोग्यलाभ के लिए निश्चयशुद्धि आवश्यक है और निश्चयशुद्धि के लिये व्यवहारशुद्धि आवश्यक है। क्योंकि व्यवहारशुद्धि के बिना निश्चयशुद्धि सर्वथा असंभव है। सांसारिक जीवन में व्यवहारशुद्धि वाले (रुपये-पैसों के देने लेने में प्रामाणिक) के साथ ही लेन-देन का व्यवहार किया जाता है। आध्यात्मिक जीवन में भी व्यवहारशुद्ध साधक के साथ ही कृतिकर्मादि (वन्दन-पूजनादि) व्यवहार किये जाते हैं। 1. गाहा–पायरियपायमूलं, गंतूर्ण सइ परक्कमे / ताहे सव्वेण अत्तसोही, कायव्वा एस उवएसो।। जह सकुसलो वि वेज्जो, अन्नस्स कहेइ अत्तणो वाहि / वेज्जस्स य सो सोउतो, पडिकम्म समारभते // जायांतेण वि एवं, पायच्छित्तविहिमप्पणो निउणं / तह वि य पागडतरयं, पालोएदव्वयं होइ / जह बालो जप्पंतो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ / तं तह पालोइज्जा मायामय विप्पमुक्को उ / .-व्यव० उ० 10 भाष्य गाथा 460-471 / [ 33 ] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारसूत्र प्रतिपादित पांच व्यवहारों से संयमी प्रात्माओं का व्यवहारपक्ष शुद्ध (अतिचारजन्य पापमल-रहित) होता है। ग्रन्थ में प्रकाशित छेदसूत्रों के लिये कतिपय विचार व्यक्त किये हैं। इस लेखन में मेरे द्वारा पूर्व में सम्पादित अायारदसा, कप्पसुत्तं छेदसूत्रों में पण्डितरत्न मुनि श्री विजयमुनिजी शास्त्री के "प्राचारदशा: एक अनुशीलन" और उपाध्याय मुनि श्री फूलचन्दजी 'श्रमण के "बृहत्कल्पसूत्र की उत्थानिका" के प्रावश्यक लेखांशों का समावेश किया है। एतदर्थ मुनिद्वय का सधन्यवाद आभार मानता हूँ। विस्तृत विवेचन आदि लिखने का कार्य श्री तिलोकमुनिजी म. ने किया है। अतएव पाठकगण अपनी जिज्ञासानों के समाधान के लिये मुनिश्री से संपर्क करने की कृपा करें। ----मुनि कन्हैयालाल "कमल" [ 34 ] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना त्रीणि छेदसूत्राणि : एक समीक्षात्मक अध्ययन वैदिक परम्परा में जो स्थान वेद का है, बौद्ध परम्परा में जो स्थान त्रिपिटक का है, ईसाई धर्म में जो स्थान बाईबिल का है, इस्लाम धर्म में जो स्थान कुरान का है, वही स्थान जैनपरम्परा में आगम-साहित्य का है। वेद तथा बौद्ध और जैन आगम-साहित्य में महत्त्वपूर्ण भेद यह रहा है कि वैदिक परम्परा के ऋषियों ने शब्दों की सुरक्षा पर अधिक बल दिया जबकि जैन और बौद्ध परम्परा में अर्थ पर अधिक बल दिया गया है। यही कारण है कि वेदों के शब्द प्राय: सुरक्षित रहे हैं और अर्थ की दृष्टि से वे एक मत स्थिर नहीं कर सके हैं। जैन और बौद्ध परम्परा में इससे बिल्कुल ही विपरीत रहा है। वहाँ अर्थ की सुरक्षा पर अधिक बल दिया गया है, शब्दों की अपेक्षा अर्थ अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। यही कारण है कि आगमों के पाठभेद मिलते हैं, पर उनमें प्रायः अर्थभेद नहीं है। वेद के शब्दों में मंत्रों का प्रारोपण किया गया है जिससे शब्द तो सुरक्षित रहे, पर उसके अर्थ नष्ट हो गए / जैन आगम-साहित्य में मंत्र-शक्ति का आरोप न होने से अर्थ पूर्ण रूप से सुरक्षित रहा है। वेद किसी एक ऋषि विशेष के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते, जब कि जैन गणिपिटक एवं बौद्ध त्रिपिटक क्रमश: भगवान महावीर और तथागत बुद्ध की वाणी का प्रतिनिधित्व करते हैं। जैन आगमों के अर्थ के प्ररूपक तीर्थकर रहे हैं और सूत्र के रचयिता गणधर हैं। जैन और वैदिक परम्परा की संस्कृति पृथक-पृथक रही है। जनसंस्कृति अध्यात्म प्रधान है। जैन आगमों में अध्यात्म का स्वर प्रधान रूप से झंकृत रहा है, वेदों में लौकिकता का स्वर मुखरित रहा है। यहाँ पर यह बात भी विस्मरण नहीं होनी चाहिए कि आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व अण-विज्ञान, जीव-विज्ञान, बनस्पति-विज्ञान आदि के सम्बन्ध में जो बातें जैन आगमों में बताई गई हैं, उन्हें पढ़कर आज का वैज्ञानिक भी विस्मित है। जैन आगम... साहित्य का इन अनेक दृष्टियों से भी महत्त्व रहा है। कुछ समय पूर्व पाश्चात्य और पौर्वात्य विज्ञों की यह धारणा थी कि वेद ही आगम और त्रिपिटक के मूल स्रोत हैं, पर मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त ध्वंसावशेषों ने विज्ञों की धारणा में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया है कि आर्यों के आगमन से पूर्व भारत में जो संस्कृति थी वह पूर्ण रूप से विकसित थी और वह श्रमणसंस्कृति थी। निष्पक्ष विचारकों ने यह सत्य-तथ्य एक मत से स्वीकार किया है कि श्रमणसंस्कृति के प्रभाव से ही वैदिक परम्परा ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रतों को स्वीकार किया है। आज जो वैदिक { 35 ] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परा में अहिंसादि का वर्णन है वह जैनसंस्कृति की देन है / ' आगम शब्द के अनेक अर्थ हैं। उस पर मैंने विस्तार से चर्चा की है। आचाराङ्ग में जानने के अर्थ में पागम शब्द का प्रयोग हमा है। "आगमेत्ता-आणवेज्जा"२ जानकर प्राज्ञा करे। लाघवं आगममाणे लघुता को जानने वाला / व्यवहारभाष्य में संघदासगणी ने प्रागम-व्यवहार का वर्णन करते हुए उसके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद किये हैं। प्रत्यक्ष में अवधि, मनापर्यव और केवल ज्ञान है और परोक्ष में चतुर्दश पूर्व और उनसे न्यून श्रुतज्ञान का समावेश है। इससे भी स्पष्ट है कि जो ज्ञान है वह प्रागम है। सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकरों के द्वारा दिया गया उपदेश भी ज्ञान होने के कारण प्रागम है। भगवती, अनुयोगद्वार और स्थानाङ्ग में प्रागम शब्द शास्त्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वहाँ पर प्रमाण के चार भेद किये गये हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और प्रागम / प्रागम के भी लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद किए गए हैं। लौकिक पागम भारत, रामायण प्रादि हैं और लोकोत्तर पागम आचार, सूत्रकृत प्रादि हैं। लोकोत्तर आगम के सुत्तागम, अत्थागम और तदुभयागम ये तीन भेद भी किए गए हैं। एक अन्य दष्टि से आगम के तीन प्रकार और मिलते हैं-प्रात्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम / अागम के अर्थरूप और सत्ररूप ये दो प्रकार हैं। तीर्थंकर प्रभु अर्थरूप प्रागम: का उपदेश करते हैं अत: अर्थरूप ग्रामम तीर्थंकरों का प्रात्मागम कहलाता है, क्योंकि वह अर्थागम उनका स्वयं का है, दूसरों से उन्होंने नहीं लिया है, किन्तु वही अर्थागम गणधरों ने तीर्थंकरों से प्राप्त किया है / गणधर और तीर्थंकर के बीच किसी तीसरे व्यक्ति का व्यवधान नहीं है एतदर्थ गणधरों के लिए वह अर्थागम अनन्तरागम कहलाता है, किन्तु उस अर्थागम के आधार से स्वयं गणधर सूत्ररूप रचना करते हैं। इसलिए सूत्रागम गणधरों के लिए प्रात्मागम कहलाता है। गणधरों के साक्षात् शिष्यों को गणधरों से सूत्रागम सीधा ही प्राप्त होता है, उनके मध्य में कोई भी व्यवधान नहीं होता। इसलिए उन शिष्यों के लिए सूत्रागम अनन्तरागम है, किन्तु अर्थागम तो परम्परागम ही है। क्योंकि वह उन्होंने अपने धर्मगुरु गणधरों से प्राप्त किया है। किन्तु यह गणधरों को भी प्रात्मागम नहीं था। उन्होंने तीर्थंकरों से प्राप्त किया था। गजधरों के प्रशिष्य और 1. संस्कृति के चार अध्याय : पृ. 125 -रामधारीसिंह "दिनकर" 2. प्राचारांग 124 ज्ञात्वा प्राज्ञापयेत् 3. आचारांग 116 / 3 लाघवं आगमयन् अवबुध्यमानः 4. व्यवहारभाष्य गा. 201 5. भगवती 5 / 3 / 192 6. अनुयोगद्वार 7. स्थानाङ्ग 338, 228, 8. अनुयोगद्वार 49-50 पृ. 68, पुण्यविजयजी सम्पादित, महावीर विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित 9. अहवा आगमे तिबिहे पण्णत्ते, तं जहा-सुत्तागमे य अत्थागमे य तदुभयागमे य / -~अनुयोगद्वारसूत्र 470, पृ. 179 10. अहवा प्रागमे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा--अत्तागमे, अणंतरागमे परंपरागमे य / --अनुयोगद्वारसूत्र 470, पृ. 179 11. (क) श्रीचन्द्रीया संग्रहणी गा. 112 (ख) आवश्यकनियुक्ति गा. 92 [ 36 ] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी परम्परा में होने वाले अन्य शिष्य और प्रशिष्यों के लिए सूत्र और अर्थ परम्परागम हैं / 2 श्रमण भगवान महावीर के पावन प्रवचनों का सूत्र रूप में संकलन-प्राकलन गणधरों ने किया, वह अंगसाहित्य के नाम से विश्रुत हुप्रा / उसके आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, भगवती, ज्ञाता, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाक और दृष्टिबाद ये बारह विभाग हैं। दृष्टिबाद का एक विभाग पूर्व साहित्य है। आवश्यकनियुक्ति के अनुसार गणधरों ने अर्हद्भाषित मातृकापदों के आधार से चतुर्दश शास्त्रों का निर्माण किया, जिसमें सम्पूर्ण श्रुत की अवतारणा की गई। ये चतुर्दश शास्त्र चतुर्दश पूर्व के नाम से विश्रुत हुए / इन पूर्वो की विश्लेषण-पद्धति अत्यधिक क्लिष्ट यी अतः जो महान् प्रतिभासम्पन्न साधक थे उन्हीं के लिए वह पूर्व साहित्य ग्राहय था / जो साधारण प्रतिभासम्पन्न साधक थे उनके लिए एवं स्त्रियों के उपकारार्थ द्वादशांगी की रचना की गई। आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने लिखा है कि दष्टिबाद का अध्ययन-पठन स्त्रियों के लिए बज्य था। क्योंकि स्त्रियां तुच्छ स्वभाव की होती हैं, उन्हें शीघ्र हो गर्व प्राता है। उनकी इन्द्रियां चंचल होती हैं। उनकी मेधा-शक्ति पुरुषों की अपेक्षा दुर्बल होती है एतदर्थ उत्थान-समुत्थान प्रभृति अतिशय या चमत्कार युक्त अध्ययन और दृष्टिवाद का ज्ञान उनके लिए नहीं है।१४ मलधारी प्राचार्य हेमचन्द्र ने प्रस्तुत विषय का स्पष्टीकरण करते हए लिखा है कि स्त्रियों को यदि किसी तरह दृष्टिवाद का अध्ययन करा दिया जाए तो तुच्छ प्रकृति के कारण "मैं दृष्टिवाद की अध्येता हूं" इस प्रकार मन में अहंकार आकर पुरुष के परिभव-तिरस्कार प्रभृति में प्रवृत्त हो जाये जिससे उसकी दुर्गति हो सकती है एतदर्थ दया के अवतार महान् परोपकारी तीर्थंकरों ने उत्थान, समुत्थान आदि अतिशय चमत्कार युक्त अध्ययन एवं दृष्टिवाद के अध्ययन का स्त्रियों के लिए निषेध किया। 5 बृहत्कल्पनियुक्ति में भी यही बात आई है / जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने और मलधारी हेमचन्द्र ने स्त्रियों की प्रवृत्ति की विकृति व मेधा की दुर्बलता के सम्बन्ध में जो लिखा है वह पूर्ण संगत नहीं लगता है / वे बातें पुरुष में भी सम्भव हैं। अनेक स्त्रियां पुरुषों से भी अधिक प्रतिभासम्पन्न व गम्भीर होती हैं। यह शास्त्र में पाये हए वर्णनों से भी स्पष्ट है / / 12. तित्थगराणं अत्थस्स अत्तागमे, गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे, अत्थस्स अणंतरागमे, गणहरसीसाणं सुत्तस्स अणंतरागमे अत्थस्स परंपरागमे तेणं परं सुत्तस्स वि अत्थस्स वि णो अत्तागमे णो अणंतरागमे, परम्परागमे -अनुयोगद्वार 470, पृ० 179 13. धम्मोवाओ पवयणमहबा पुब्वाई देसया तस्स / सब्बंजिणा | गणहरा, चोदसपुव्वा उ ते तस्स / / सामाइयाइयावा वयजीवनिकाय भावणा पढमं / एसो धम्मोवादो जिणेहि सव्वेहि उबइलो / / -~-आवश्यकनियुक्ति गा० 292-293 14. तुच्छा गारबबहुला चलिदिया दुब्बला धिईए य / इति पाइसेसज्झयणा भूयावायो य नो स्थीणं // ..."इह बिचित्रा जगति प्राणिनः तत्र ये दुर्मेधसः ते पूर्वाणि नाध्येतुमीशते, पूर्वाणामतिगम्भीरार्थत्वात तेषां च दुर्मेधत्वात् स्त्रीणां पूर्वाध्ययनानाधिकार एव तासां तुच्छत्वादि दोषबहुलत्वात् / -विशेषावश्यकभाष्य गाथा 55 की व्याख्या पृ० 48 प्रकाशक-प्रागमोदय समिति बम्बई [ 37 ] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब स्त्री अध्यात्म-साधना का सर्वोच्चपद तीर्थंकर नामकर्म का अनुबन्ध कर सकती है, केवलज्ञान प्राप्त कर सकती है तब दृष्टिवाद के अध्ययनार्थ जिन दुर्बलताओं की ओर संकेत किया गया है और जिन दुर्बलताओं के कारण स्त्रियों को दष्टिवाद की अधिकारिणी नहीं माना गया है उन पर विज्ञों को तटस्थ दष्टि से गम्भीर चिन्तन करना चाहिए। मेरी दृष्टि से पूर्व-साहित्य का ज्ञान लब्ध्यात्मक था / उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए केवल अध्ययन और पढ़ना ही पर्याप्त नहीं था, कुछ विशिष्ट साधनाएं भी साधक को अनिवार्य रूप से करनी पड़ती थीं। उन साधनाओं के लिए उस साधक को कुछ समय तक एकान्त-शान्त स्थान में एकाकी भी रहना आवश्यक होता था। स्त्रियों का शारीरिक संस्थान इस प्रकार का नहीं है कि वे एकान्त में एकाकी रह कर दीर्घ साधना कर सकें। इस दृष्टि से स्त्रियों के लिए दृष्टिवाद का अध्ययन निषेध किया गया हो। यह अधिक तर्कसंगत व युक्ति-युक्त है / मेरी दृष्टि से यही कारण स्त्रियों के आहारकशरीर की अनुपलब्धि प्रादि का भी है। गणधरों द्वारा संकलित अंग ग्रन्थों के आधार से अन्य स्थविरों ने बाद में ग्रन्थों की रचना की, वे अंगबाह्य कहलाये। अंग और अंगबाह्य ये आगम ग्रन्थ ही भगवान् महावीर के शासन के आधारभूत स्तम्भ हैं। जैन प्राचार की कुञ्जी हैं, जैन विचार की अद्वितीय निधि हैं, जनसंस्कृति की गरिमा हैं और जैन साहित्य की महिमा हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि अंगबाह्य ग्रन्थों को आगम में सम्मिलित करने की प्रक्रिया श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में एक समान नहीं रही है। दिगम्बर परंपरा में अंगबाह्य आगमों की संख्या बहुत ही स्वल्प है किन्तु श्वेताम्बरों में यह परम्परा लम्बे समय तक चलती रही जिससे अंगबाह्य ग्रन्थों की संख्या अधिक है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है कि प्रावश्यक के विविध अध्ययन, दशवकालिक, उत्तराध्ययन और निशीथ प्रादि दोनों ही परम्पराओं में समान रूप से मान्य रहे हैं। ___ श्वेताम्बर विद्वानों की यह मान्यता है कि आगम-साहित्य का मौलिक स्वरूप बहुत बड़े परिमाण में लुप्त हो गया है पर पूर्ण नहीं, अब भी वह शेष है। अंगों और अंगबाह्य भागमों की जो तीन बार संकलना हुई उसमें उसके मौलिक रूप में कुछ अवश्य ही परिवर्तन हुआ है। उत्तरवर्ती घटनाओं और विचारणामों का समावेश भी किया गया है। जैसे स्थानांग में सात निह्नव और नवगणों का वर्णन / प्रश्नव्याकरण में जिस विषय का संकेत किया गया है वह बर्तमान में उपलब्ध नहीं है, तथापि आगमों का अधिकांश भाग मौलिक है, सर्वथा मौलिक है। भाषा व रचना शैली की दृष्टि से बहुत ही प्राचीन है। वर्तमान भाषाशास्त्री आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को और सुत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को ढाई हजार वर्ष प्राचीन बतलाते हैं / स्थानांग, भगवती, उत्तराध्ययन, दशवकालिक, निशीथ और कल्प को भी वे प्राचीन मानते हैं। इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है कि प्रागम का मूल प्राज भी सुरक्षित है। दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से अंग साहित्य लुप्त हो चुका है। अत: उन्होंने नवीन ग्रन्थों का सृजन किया और उन्हें आगमों की तरह प्रमाणभूत माना / श्वेताम्बरों के प्रागम-साहित्य को दिगम्बर परम्परा प्रमाणभूत नहीं मानती है तो दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों को श्वेताम्बर परम्परा मान्य नहीं करती है, पर जब मैं तटस्थ दृष्टि से चिन्तन करता तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि दोनों ही परम्पराओं के प्रागम ग्रन्थों में मौलिक दृष्टि से कोई विशेष अन्तर नहीं है। दोनों के पागम ग्रन्थों में तत्त्वविचार, जीवविचार, कर्मविचार, लोकविचार, ज्ञानविचार समान है। दार्शनिक दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। प्राचार परम्परा की दृष्टि से भी चिन्तन करें तो वस्त्र के उपयोग के सम्बन्ध में कुछ मतभेद होने पर भी विशेष अन्तर नहीं रहा। दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में नग्नत्व पर अत्यधिक बल दिया गया, किन्तु व्यवहार में नग्न मुनियों की संख्या बहुत ही कम रही और दिगम्बर भट्टारक आदि की संख्या Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनसे बहत अधिक रही। श्वेताम्बर पागम साहित्य में जिनकल्प को स्थविरकल्प से अधिक महत्त्व दिया गया किन्त व्यवहारिक दृष्टि से आर्य जम्बू के पश्चात् जिनकल्प का निषेध कर दिया गया। दिगम्बर परम्परा में स्त्री के निर्वाण का निषेध किया है किन्तु दिगम्बर परम्परा मान्य षखण्डागम में मनुष्य-स्त्रियां सम्यगमिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यगदष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होती हैं / 16 इसमें "संजद" शब्द को सम्पादकों ने टिप्पण में दिया है, जिसका सारांश यह है कि मनुष्य-स्त्री को "संयत" गुणस्थान न हो सकता है और संयत गुणस्थान होने पर स्त्री मोक्ष में जा सकती है। प्रस्तुत प्रश्न को लेकर दिगम्बर समाज में प्रबल विरोध का बातावरण समुत्पन्न हुआ तब ग्रन्थ के सम्पादक पं.हीरलालजी जैन आदि ने पूनः उसका स्पष्टीकरण "पखण्डागम के तृतीय भाग की प्रस्तावना" में किया किन्तु जब विज्ञों ने मूडबिद्री (कर्णाटक) में पटखण्डागम की मूल प्रति देखी तो उसमें भी "संजद" शब्द मिला है। वदकरस्वामी विरचित मूलाचार में प्रायिकामों के प्राचार का विश्लेषण करते हुए कहा है जो साधु अथवा धार्यिका इस प्रकार आचरण करते हैं वे जगत् में पूजा, यश व सुख को पाकर मोक्ष को पाते हैं। इसमें भी प्रायिकाओं के मोक्ष में जाने का उल्लेख है / किन्तु बाद में टीकाकारों ने अपनी टीकाओं में स्त्री निर्वाण का निषेध किया है। प्राचार के जितने भी नियम हैं उनमें महत्त्वपूर्ण नियम उद्दिष्ट त्याग का है, जिसका दोनों ही परम्परामों में समान रूप से महत्त्व रहा है। श्वेताम्बर प्रागम-साहित्य में और उसके व्याख्या साहित्य में प्राचार सम्बन्धी अपवाद मार्ग का विशेष वर्णन मिलता है किन्तु दिगम्बर परम्परा के अन्यों में अपवाद का वर्णन नहीं है, पर गहराई से चिन्तन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि दिगम्बर परम्परा में भी अपवाद रहे होंगे, यदि प्रारम्भ से ही अपवाद नहीं होते तो अंगवाह्य सूची में निशीथ का नाम कैसे आता ? श्वेताम्बर परम्परा में 'अपवादों को सूत्रबद्ध करके भी उसका अध्ययन प्रत्येक व्यक्ति के लिए निषिद्ध कर दिया गया। विशेष योग्यता वाला श्रमण ही उसके पढ़ने का अधिकारी माना गया / श्वेताम्बर श्रमणों की संख्या प्रारम्भ से ही अत्यधिक रही जिससे समाज की सुव्यवस्था हेतु छेदसूत्रों का निर्माण हआ। छेदसूत्रों में श्रमणाचार के निगूढ़ रहस्य और सूक्ष्म क्रिया-कलाप को समझाया गया है। श्रमण के जीवन में अनेकानेक अनुकूल और प्रतिकूल प्रसंग समुपस्थित होते हैं, ऐसी विषम परिस्थिति में किस प्रकार निर्णय लेना चाहिए यह बात छेदसूत्रों में बताई गई है। प्राचार सम्बन्धी जैसा नियम और उपनियमों का वर्णन जैन परम्परा में छेदसूत्रों में उपलब्ध होता है वैसा ही वर्णन बौद्ध परम्परा में विनयपिटक में मिलता है और वैदिक परम्परा में के कल्पसूत्र, श्रोतसूत्र और गृहसूत्रों में मिलता है। दिगम्बर परम्परा में भी छेत्रसूत्र बने थे पर आज वे उपलब्ध नहीं हैं। छेदसूत्र का नामोल्लेख मन्दीसूत्र में नहीं हुआ है। "छेद सूत्र" का सबसे प्रथम प्रयोग प्रावश्यकनियुक्ति 16. सम्मामिच्छाइट्ठि असंजदसम्माइट्ठि संजदासंजद (अत्र संजद इति पाठशेषः प्रतिभाति) ट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ। -षट्खण्डागम, भाग 1 सूत्र 93 पृ. 332, प्रका..-सेठ लक्ष्मीचंद शिताबराय जैन साहित्योद्धारक फण्ड कार्यालय अमरावती (बरार) सन् 1939 17. एवं विधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जायो / ते जगपुज्ज कित्ति सुहं च लण सिझति / / -मूलाचार 4/196, पृ. 168 [ 39] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में हरा है।१८ उसके पश्चात् विशेषावश्यकभाष्य और निशीथभाष्य' मादि में भी यह शब्द व्यवहृत हुआ है। तात्पर्य यह है कि हम अावश्यकनियुक्ति को यदि ज्योतिर्विद वराहमिहिर के भ्राता द्वितीय भद्रबाह की कृति मानते हैं तो वे विक्रम की छठी शताब्दी में हुए हैं। उन्होंने इसका प्रयोग किया है। स्पष्ट है कि "छेदसुत्त" शब्द का प्रयोग "मूलसुत्त" से पहले हुआ है। अमुक प्रागमों को "छेदसूत्र" यह अभिधा क्यों दी गई ? इस प्रश्न का उत्तर प्राचीन ग्रन्थों में सीधा और स्पष्ट प्राप्त नहीं है। हाँ यह स्पष्ट है कि जिन सूत्रों को "छेदसुत्त" कहा गया है वे प्रायश्चित्तसूत्र हैं। स्थानाङ्ग में श्रमणों के लिए पांच चारित्रों का उल्लेख है (1) सामायिक, (2) छेदोपस्थापनीय, (3) परिहारविशुद्धि, (4) सूक्ष्मसंपराय, (5) ययाख्यात / 22 इनमें से वर्तमान में तीन अन्तिम चारित्र विच्छिन्न हो गये हैं। सामायिक चारित्र स्वल्पकालीन होता है, छेदोपस्थापनिक चारित्र ही जीवन पर्यन्त रहता है। प्रायश्चित्त का सम्बन्ध भी इसी चारित्र से है। संभवत: इसी चारित्र को लक्ष्य में रखकर प्रायश्चित्तसूत्रों को छेदसूत्र की संज्ञा दी गई हो। मलयगिरि की आवश्यकवृत्ति 23 में छेदसूत्रों के लिए पद-विभाग, समाचारी शब्द का प्रयोग हमा है। पद-विभाग और छेद ये दोनों शब्द रखे गये हों। क्योंकि छेदसूत्रों में एक सूत्र का दूसरे सूत्र से सम्बन्ध नहीं है। सभी सूत्र स्वतंत्र हैं। उनकी व्याख्या भी छेद-दष्टि से या विभाग-दष्टि से की जाती है। दशाश्रुतस्कन्ध, निशीथ, व्यवहार और बृहत्कल्प ये सूत्र नौवें प्रत्याख्यान पूर्व से उद्धृत किये गये हैं,२४ उससे छिन्न अर्थात् पृथक् करने से उन्हें छेदसूत्र की संज्ञा दी गई हो, यह भी सम्भव है / 25 छेदसूत्रों को उत्तम श्रुत माना गया है। भाष्यकार भी इस कथन का समर्थन करते हैं।२६ चणिकार जिनदास महत्तर स्वयं यह प्रश्न उपस्थित करते हैं कि छेदसूत्र उत्तम क्यों हैं ? फिर स्वयं ही उसका समाधान देते किदसत्र में प्रायश्चित्तविधि का निरूपण है, उससे चारित्र की विशुद्धि होती है, एतदर्थ यह श्रत उत्तम माना 18. जं च महाकप्पसुयं, जाणि असेसाणि छेअसुत्ताणि / चरणकरणाणुप्रोगो ति कालियत्थे उवमयाणि / / -आवश्यकनियुक्ति 777 ---विशेषावश्यकभाष्य 2265 20. (क) छेदसुत्तणिसीहादी, अत्यो य गतो य छेदसुत्तादी / मंतनिमित्तोसहिपाहूडे, य गाति अण्णात्थ / / ----निशीथभाप्य 5947 (ख) केनोनिकल लिटरेचर पृ. 36 भी देखिए। 21. जैनागमधर और प्राकृत वाङ्मय -लेखक पुण्यविजयजी, —-मुनि हजारीमल स्मृतिग्रन्थ, पृ. 718 22. (क) स्थानांगसूत्र 5, उद्देशक 2, सूत्र 428 (ख) विशेषावश्यकभाष्य गा. 1260-1270 23. पदविभाग, समाचारी छेदसूत्राणि / -आवश्यकनियुक्ति 665, मलयगिरिवृत्ति 24. कतरं सुत्तं ? दसाउकप्पो वबहारो य / कतरातो उद्धृतं ? उच्यते पच्चक्खाण-पुठवाओ। -दशाश्रुतस्कंघचूणि, पत्र 2 25. निशीध 19 / 17 26. छेयसुयमुत्तमसुयं / -निशीथभाष्य, 6148 [40] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है। श्रमण-जीवन की साधना का सर्वाङ्गीण विवेचन छेदसूत्रों में ही उपलब्ध होता है। साधक की क्या मर्यादा है, उसका क्या कर्त्तव्य है ? इत्यादि प्रश्नों पर उनमें चिन्तन किया गया है। जीवन में से असंयम के अंश को काटकर पृथक करना, साधना में से दोषजन्य मलिनता को निकालकर साफ करना, भूलों से बचने के लिए पूर्ण सावधान रहना, भूल हो जाने पर प्रायश्चित्त ग्रहण कर उसका परिमार्जन करना, यह सब छेदसूत्रों का कार्य है / समाचारीशतक में समयसुन्दरगणी ने छेदसूत्रों की संख्या छह बतलाई है:(१) महानिशीथ, (2) दशाश्रुतस्कंध, (3) व्यवहार, (4) बृहत्कल्प, (5) निशीथ, (6) जीतकल्प / जीतकल्प को छोड़कर शेष पाच सूत्रों के नाम नन्दीसूत्र में भी पाये हैं। जीतकल्प जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण की कृति है, एतदर्थ उसे आगम की कोटि में स्थान नहीं दिया जा सकता / महानिशीथ का जो वर्तमान संस्करण है, वह आचार्य हरिभद्र (वि. 8 वीं शताब्दी) के द्वारा पुनरुद्धार किया हुआ है। उसका उसके पूर्व ही दीमकों ने उदरस्थ कर लिया गया था। अतः वर्तमान में उपलब्ध महानिशीथ भी आगम की कोटि में नहीं पाता। इस प्रकार मौलिक छेदसूत्र चार ही हैं-(१) दशाश्रुतस्कन्ध, (2) व्यवहार, (3) बृहत्कल्प और (4) निशीथ / निए हित आगम जैन आगमों की रचनाएं दो प्रकार से हुई है--(१) कृत, (2) नि! हित / जिन आगमों का निर्माण स्वतंत्र रूप से हुआ है वे आगम कृत कहलाते हैं। जैसे गणधरों के द्वारा द्वादशांगी की रचना की गई है और भिन्न-भिन्न स्थविरों के द्वारा उपांग साहित्य का निर्माण किया गया है, वे सब कृत पागम हैं। नि! हित आगम ये माने गये हैं - (1) आचारचूला (2) दशवकालिक (3) निशीथ (4) दशाश्रुतस्कन्ध (5) बृहत्कल्प (6) व्यवहार (7) उत्तराध्ययन का परीषह अध्ययन। प्राचारचुला यह चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु के द्वारा निर्वृहण की गई है, यह बात अाज अन्वेषणा के द्वारा स्पष्ट हो चुकी है। प्राचारांग से प्राचारचूला की रचना-शैली सर्वथा पृथक् है। उसकी रचना आचारांग के बाद हुई है। आचारांग-नियुक्तिकार ने उसको स्थविरकृत माना है।' स्थविर का अर्थ चर्णिकार ने गणधर किया है। 1. छेयसुयं कम्हा उत्तमसुत्तं ? भण्णामि जम्हा एत्थं सपायच्छित्तो विधी भण्णति, जम्हा एतेगच्चरणविशुद्धं करेति, तम्हा तं उत्तमसुत्तं / --निशीथभाष्य 6184 की चूणि 2. समाचारीशतक, आगम स्थापनाधिकार। 3. कालियं अणेगविहं पण्णत्तं, तं जहा--दसाओ, कप्पो, ववहारो, निसीह, महानिसीह / -नन्दीसूत्र 77 4. आगमयुग का जैनदर्शन, पृ० 21-22, पं० दलसुखभाई मालवणिया -प्रकाशक सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा 5. थरेहिऽणुग्गहट्ठा, सीसहि होउ पागउत्थं च / आयाराओ अत्थो, पायारंगेसु पविभत्तो // -आचारांगनियुक्ति गा० 287 6. थेरे गणधरा। --आचारांगचूणि, पृ० 326 [ 41 ] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और वृत्तिकार ने चतुर्दशपूर्वी किया है किन्तु उनमें स्थविर का नाम नहीं आया है। विज्ञों का अभिमत है कि यहाँ पर स्थविर शब्द का प्रयोग चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु के लिए ही हुआ है। आचारांग के गम्भीर अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिए "आचारचूला" का निर्माण हुआ है / नियुक्तिकार ने पांचों चूलाओं के निर्यहूणस्थलों का संकेत किया है। दशवकालिक चतुर्दशपूर्वी शय्यंभव के द्वारा विभिन्न पूर्वो से नि!हण किया गया है / जैसे-चतुर्थ अध्ययन आत्मप्रवाद पूर्व से, पंचम अध्ययन कर्मप्रवाद पूर्व से, सप्तम अध्ययन सत्यप्रवाद पूर्व से और शेष अध्ययन प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु से उद्धत किये गये हैं।' द्वितीय अभिमतानुसार दशवकालिक गणिपिटक द्वादशांगी से उद्धृत है। निशीथ का नि! हण प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व से हुआ है। प्रत्याख्यान पूर्व के बीस वस्तु अर्थात् अर्थाधिकार हैं। तृतीय वस्तु का नाम आचार है। उसके भी बीस प्राभृतच्छेद अर्थात् उपविभाग हैं। बीसवें प्राभूतच्छेद से निशीथ का नि' हण किया गया है। पंचकल्पचूणि के अनुसार निशीथ के निर्यु हक भद्रबाहुस्वामी है। इस मत का समर्थन प्रागमप्रभावक मुनिश्री पुण्यविजयजी ने भी किया है। 1. "स्थविरैः" श्रुतवृद्धश्चतुर्दशपूर्वविद्भिः / 2. बिमस्स य पंचमए, अट्ठमगस्स बिइयंमि उद्देसे / भणिओ पिडो सिज्जा, वत्थं पाउग्गहो चेव / / पंचमगस्स चउत्थे इरिया, वणिज्जई समासेणं / छुट्ठस्स य पंचमए, भासज्जायं वियाणाहि / सत्तिक्कगाणि सत्तवि, निज्जढाई महापरिन्नाओ। सत्थपरिन्ना भावण, निज्जूढानो धुयविमुत्ती / / आयारपकप्पो पुण, पच्चक्खाणस्स तइयवत्थूप्रो। आयारनामधिज्जा, वीसइमा पाहुडच्छेया // -प्राचारांगनियुक्ति गा० 288-291 3. पायप्पवाय पुब्वा निज्जूढा होइ धम्मपन्नती। कम्पप्पवाय पुब्बा पिंडस्स उ एसणा तिविधा / / सच्चय्पवाय पुव्वा निज्जूढा होइ बक्कसुद्धी उ / अवसेसा निज्जढा नवमस्स उ तइयवत्थूयो। -दशवकालिकनियुक्ति गा० 16-17 बीमोऽवि अ आएसो, गणिपिडगाओ दुवालसंगायो। एअं किर णिज्जूढं मणगस्स अणुगाहटाए / - दशवकालिकनियुक्ति गा. 18 णिसीहं णवमा पुब्वा पच्चक्खाणस्स ततियवत्थूओ। आयार नामधेज्जा, वीसतिमा पाहुडच्छेदा / —निशीथभाष्य 6500 6. लेण भगवता आयारपकप्प-दसा-कप्प-ववहारा य नवमपुबनीसंदभूता निज्जूढा / --पंचकल्पचूणि, पत्र 1 (लिखित) 7. बृहत्कल्पसूत्र, भाग 6, प्रस्तावना पृ. 3 [42] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार, ये तीनों पागम चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहुस्वामी के द्वारा प्रत्याख्यानपूर्व से नियूंढ हैं।' दशाश्रुतस्कन्ध की नियुक्ति के मन्तव्यानुसार वर्तमान में उपलब्ध दशाश्रुतस्कंध अंगप्रविष्ट आगमों में जो दशाएं प्राप्त हैं, उनसे लघु हैं। इनका नियूहण शिष्यों के अनुग्रहार्थ स्थविरों ने किया था। चूर्णि के अनुसार स्थविर का नाम भद्रबाहु है। ___ उत्तराध्ययन का दूसरा अध्ययन भी अंग-प्रभव माना जाता है / नियुक्तिकार भद्रबाहु के मतानुसार वह कर्मप्रवादपूर्व के सत्रहवें प्राभृत से उद्धृत है। इनके अतिरिक्त आगमेतर साहित्य में विशेषतः कर्मसाहित्य का बहुत-सा भाग पूर्वोद्धृत माना जाता है। नियू हित कृतियों के सम्बन्ध में यह स्पष्टीकरण करना आवश्यक है कि उसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर हैं, सूत्र के रचयिता गणधर हैं और जो संक्षेप में उसका वर्तमान रूप उपलब्ध है उसके कर्ता वही हैं जिन पर जिनका नाम अंकित या प्रसिद्ध है। जैसे दशवकालिक के शय्यंभव; कल्प, व्यवहार, निशीथ और दशाश्रुतस्कंध के रचयिता भद्रबाहु हैं। जैन अंग-साहित्य की संख्या के सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर सभी एकमत हैं। सभी अंगों को बारह स्वीकार करते हैं। परन्तु अंगबाह्य आगमों की संख्या के सम्बन्ध में यह बात नहीं है, उनके विभिन्न मत है / यही कारण है कि आगमों की संख्या कितने ही 84 मानते हैं, कोई-कोई 45 मानते हैं और कितने ही 32 मानते हैं / नन्दीसूत्र में आगमों की जो सूची दी गई है, वे सभी आगम वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज मूल प्रागमों के साथ कुछ नियुक्तियों को मिलाकर 45 आगम मानता है और कोई 84 मानते हैं। स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा बत्तीस को ही प्रमाणभूत मानती है। दिगम्बर समाज की मान्यता है कि सभी प्रागम विच्छिन्न हो गये हैं। 1. वंदामि भद्दबाहुं, पाईणं चरिय सयलसुयणाणि / सो सुत्तस्स कारगमिसं (णं) दसासु कप्पे य ववहारे / --दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति गा.१, पत्र 1 2. डहरीओ उ इमानो, अज्झयणेसु महईओ अंगेसु / छसु नायादीएसु, वत्थविभूसावसाणमिव // डहरीयो उ इमाओ, निज्जूढायो अणुग्गहट्टाए। थरेहिं तु दसानो, जो दसा जाणओ जीवो / —दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति 5-6 दशाश्रुतस्कंधचूणि / कम्पप्पवायपुब्वे सत्तरसे पाहुडंमि जं सुत्तं / सणयं सोदाहरणं तं चेव इहंपि गायब्वं / / -उत्तराध्ययननियूक्ति गा.६९ 5. (क) तत्त्वार्थसूत्र 1-20, श्रुतसागरीय वृत्ति। (ख) षट्खण्डागम (धवला टीका) खण्ड 1, पृ. 6 बारह अंगविज्झा / Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कन्ध दशाश्रुतस्कंध छेदसूत्र है / छेदसूत्र के दो कार्य हैं-दोषों से बचाना और प्रमादवश लगे हए दोषों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान करना। इसमें दोषों से बचने का विधान है / ठाणांग में इसका अपरनाम प्राचारदशा प्राप्त होता है। दशाश्रुतस्कंध में दश अध्ययन हैं, इसलिए इसका नाम दशाश्रुतस्कंध है। दशाश्रुतस्कंघ का 1830 अनुष्टुप श्लोक प्रमाण उपलब्ध पाठ है / 216 गद्यसूत्र हैं / 52 पद्यसूत्र हैं। प्रथम उद्देशक में 20 असमाधिस्थानों का वर्णन है। जिस सत्कार्य के करने से चित्त में शांति हो, प्रात्मा ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप मोक्षमार्ग में रहे, वह समाधि है और जिस कार्य से चित्त में अप्रशस्त एवं अशांत भाव हों, ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि मोक्षमार्ग से आत्मा भ्रष्ट हो, वह असमाधि है। असमाधि के बीस प्रकार हैं। जैसेजल्दी-जल्दी चलना, बिना पूजे रात्रि में चलना, बिना उपयोग सब दैहिक कार्य करना, गुरुजनों का अपमान, निन्दा आदि करना। इन कार्यों के आचरण से स्वयं व अन्य जीवों को असमाधिभाव उत्पन्न होता है। साधक की आत्मा दूषित होती है / उसका पवित्र चारित्र मलिन होता है। अतः उसे असमाधिस्थान कहा है। द्वितीय उद्देशक में 21 शबल दोषों का वर्णन किया गया है, जिन कार्यों के करने से चारित्र की निर्मलता नष्ट हो जाती है। चारित्र मलक्लिन्न होने से वह कर्बुर हो जाता है। इसलिए उन्हें शबलदोष कहते हैं / 2 “शबलं कर्बुरं चित्रम्" शबल का अर्थ चित्रवर्णा है। हस्तमैथुन, स्त्री-स्पर्श आदि, रात्रि में भोजन लेना और करना, प्राधाकर्मी, औद्देशिक पाहार का लेना, प्रत्याख्यानभंग, मायास्थान का सेवन करना आदि-आदि ये शबल दोष हैं। उत्तरगुणों में अतिक्रमादि चार दोषों का एवं मूलगुणों में अनाचार के अतिरिक्त तीन दोषों का सेवन करने से चारित्र शबल होता है। तीसरे उद्देशक में 33 प्रकार की आशातनाओं का वर्णन है। जैनाचार्यों ने आशातना शब्द की निरुक्ति अत्यन्त सुन्दर की है। सम्यग्दर्शनादि आध्यात्मिक गुणों की प्राप्ति को आय कहते हैं और शातना का अर्थ खण्डन है। सदगुरुदेव आदि महान् पुरुषों का अपमान करने से सम्यग्दर्शनादि सद्गुणों की आशातना-खण्डना होती है।3। शिष्य का मुरु के आगे, समश्रेणी में, अत्यन्त समीप में गमन करना, खड़ा होना, बैठना आदि, गुरु, से पूर्व किसी से सम्भाषण करना, गुरु के वचनों को जानकर अवहेलना करना, भिक्षा से लौटने पर आलोचना न करना, प्रादि-आदि पाशातना के तेतीस प्रकार हैं। चतुर्थ उद्देशक में प्रकार की गणिसम्पदाओं का वर्णन है। श्रमणों के समुदाय को गण कहते हैं। गण का अधिपति गणी होता है। गणिसम्पदा के आठ प्रकार हैं--प्राचारसम्पदा, श्रुतसम्पदा, शरीरसम्पदा, वचनसम्पदा, वाचनासम्पदा, मतिसम्पदा, प्रयोगमतिसम्पदा और संग्रहपरिज्ञानसम्पदा / प्राचारसम्पदा के संयम में ध्र वयोगयुक्त होना, अहंकाररहित होना, अनियतवृत्ति होना, वृद्धस्वभावी (अचंचलस्वभावी)-ये चार प्रकार हैं। समाधानं समाधि:-चेतसः स्वास्थ्य, मोक्षमार्गेऽवस्थितिरित्यर्थ: न समाधिरसमाधिस्तस्य स्थानानि आश्रया भेदाः पर्याया असमाधि-स्थानानि / -आचार्य हरिभद्र शबलं-कबुरं चारित्रं यः क्रियाविशेषैर्भवति ते शबलास्तद्योगात्साधवो पि। -अभयदेवकृत समवायांगटीका 3. आय:– सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणस्तस्य शातना-खण्डना निरुक्तादाशातना / .—प्राचार्य अभयदेवकृत समवायांगटीका Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतसम्पदा के बहुश्रुतता, परिचितश्रुतता, विचित्रश्रुतता, घोषविशुद्धिकारकता-ये चार प्रकार हैं। शरीरसम्पदा के शरीर की लम्बाई व चौड़ाई का सम्यक अनुपात, अलज्जास्पद शरीर, स्थिर संगठन, प्रतिपूर्ण इन्द्रियता---ये चार भेद हैं। वचनसम्पदा के प्रादेयवचन- ग्रहण करने योग्य वाणी, मधुर वचन, अनिश्रित- प्रतिबन्धरहित, असंदिग्ध वचन-ये चार प्रकार हैं। वाचनासम्पदा के विचारपूर्वक वाच्यविषय का उद्देश्य निर्देश करना, विचारपूर्वक वाचन करना, उपयुक्त विषय का ही विवेचन करना, अर्थ का सुनिश्चित रूप से निरूपण करता-ये चार भेद हैं। मतिसम्पदा के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये चार प्रकार हैं / अवग्रह मतिसम्पदा के क्षिप्रग्रहण, बहुग्रहण, बहुविधग्रहण, ध्र वग्रहण, अनिश्रितग्रहण और असंदिग्धग्रहणये छह भेद हैं। इसी प्रकार ईहा और अवाय के भी छह-छह प्रकार हैं / धारणा मतिसम्पदा के बहुधारण, बहुबिधधारण, पुरातनधारण, दुर्द्धरधारण, अनिधितधारण और असंदिग्धधारण-....ये छह प्रकार हैं। प्रयोगमतिसम्पदा के स्वयं की शक्ति के अनुसार वाद-विवाद करना, परिषद को देखकर वाद-विवाद करना, क्षेत्र को देखकर वाद-विवाद करना, काल को देखकर वाद-विवाद करना—ये चार प्रकार हैं। संग्रहपरिज्ञासम्पदा के वर्षाकाल में सभी मुनियों के निवास के लिए योग्यस्थान की परीक्षा करना, सभी श्रमणों के लिए प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक की व्यवस्था करना, नियमित समय पर प्रत्येक कार्य करना, अपने से ज्येष्ठ श्रमणों का सत्कार-सम्मान करना-ये भेद हैं। गणिसम्पदाओं के वर्णन के पश्चात् तत्सम्बन्धी चतुर्विध विनय-प्रतिपत्ति पर चिंतन करते हुए आचारविनय, श्रुतविनय, विक्षेपणाविनय और दोषनिर्घातविनय बताये हैं। यह चतुविध विनयप्रतिपत्ति है जो गुरुसम्बन्धी विनयप्रतिपत्ति कहलाती है। इसी प्रकार शिष्य सम्बन्धी विनय प्रतिपत्ति भी उपकरणोत्पादनता, सहायता, वर्णसंज्वलनता (गुणानुवादिता), भारप्रत्यवरोहणता है / इन प्रत्येक के पुनः चार-चार प्रकार हैं। इस प्रकार प्रस्तुत उद्देशक में कुल 32 प्रकार की विनय-प्रतिपत्ति का विश्लेषण है। पांचवें उद्देशक में दश प्रकार की चित्तसमाधि का वर्णन है। धर्मभावना, स्वप्नदर्शन, जातिस्मरणज्ञान, देवदर्शन, अवधिज्ञान, अवधिदर्शन, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलमरण (निर्वाण) इन दश स्थानों के वर्णन के साथ मोहनीयकर्म की विशिष्टता पर प्रकाश डाला है। छठे उद्देशक में ग्यारह प्रकार की उपासक प्रतिमानों का वर्णन है। प्रतिमाओं के वर्णन के पूर्व मिथ्यादृष्टि के स्वभाव का चित्रण करते हुए बताया है कि वह न्याय का या अन्याय का किचिनमात्र भी बिना ख्याल किये दंड प्रदान करता है। जैसे सम्पत्तिहरण, मुडन, तर्जन, ताड़न, अंदुकबन्धन (सांकल से बांधना), निगडबन्धन, काष्ठबन्धन, चारकबन्धन (कारागृह में डालना), निगडयुगल संकुटन (अंगों को मोड़कर बांधना), हस्त, पाद, कर्ण, नासिका, अष्ठ, शीर्ष, मुख, वेद आदि का छेदन करना, हृदय-उत्पाटन, नयनादि उत्पाटन, उल्लंबन (वृक्षादि पर लटकाना), घर्षण, घोलन, शूलायन (शूली पर लटकाना), शूलाभेदन, क्षारवर्तन (जख्मों आदि पर नमकादि छिड़कना), दर्भवर्तन (घासादि से पीड़ा पहुंचाना), सिंहपुछन, वृषभपुछन, दावाग्निदग्धन, भक्तपाननिरोध प्रभृति दंड देकर आनन्द का अनुभव करता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि प्रास्तिक होता है व उपासक बन एकादश प्रतिमाओं की साधना करता है। इन ग्यारह उपासक प्रतिमाओं का वर्णन उपासकदशांग में भी आ चुका है। [ 45 ] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमाधारक श्रावक प्रतिमा की पूर्ति के पश्चात् संयम ग्रहण कर लेता है ऐसा कुछ प्राचार्यों का अभिमत है। कार्तिक सेठ ने 100 बार प्रतिमा ग्रहण की थी ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है। सातवें उद्देशक में श्रमण की प्रतिमाओं का वर्णन है। ये भिक्षुप्रतिमाएं 12 हैं। प्रथम प्रतिमाधारी भिक्ष को एक दत्ति अन्न की और एक दत्ति पानी की लेना कल्पता है। श्रमण के पात्र में दाता द्वारा दिये जाने वाले अन्न और जल की धारा जब तक अखण्ड बनी रहती है, उसे दत्ति कहते हैं। जहाँ एक व्यक्ति के लिए भोजन बना हो वहाँ से लेना कल्पता है। जहां दो, तीन या अधिक व्यक्तियों के लिए बना हो वहाँ से नहीं ले सकता। इसका समय एक मास का है। दूसरी प्रतिमा भी एक मास की है। उसमें दो दत्ति प्राहार की और दो दत्ति पानी की ली जाती हैं / इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी और सातवी प्रतिमानों में क्रमशः तीन, चार, पांच, छह और सात दत्ति अन्न की और उतनी ही दत्ति पानी की ग्रहण की जाती हैं। प्रत्येक प्रतिमा का समय एक-एक मास है। केवल दत्तियों की वृद्धि के कारण ही त्रिमासिक से सातमासिक क्रमश: कहलाती हैं। आठवी प्रतिमा सात दिन-रात की होती है। इसमें एकान्तर चौविहार उपवास करना होता है। गांव के बाहर आकाश की ओर मुह करके सीधा देखना, एक करवट से लेटना और विषद्यासन (पैरों को बराबर करके) बैठना, उपसर्ग आने पर शान्तचित्त से सहन करना होता है। नौवी प्रतिमा भी सात रात्रि की होती है। इसमें चौविहार बेले-बेले पारणा किया जाता है। गांव के बाहर एकान्त स्थान में दण्डासन, लगुडासन या उत्कटकासन करके ध्यान किया जाता है। . दसबी प्रतिमा भी सात रात्रि की होती है। इसमें चौविहार तेले-तेले पारणा किया जाता है। गांव के बाहर गोदोहासन, वीरासन और आम्रकुब्जासन से ध्यान किया जाता है। ग्यारहवीं प्रतिमा एक अहोरात्रि की होती है। पाठ प्रहर तक इसकी साधना की जाती है। चौबिहार बेला इसमें किया जाता है / नगर के बाहर दोनों हाथों को घुटनों की ओर लम्बा करके दण्ड की तरह खड़े रहकर कायोत्सर्ग किया जाता है। बारहवीं प्रतिमा केवल एक रात्रि की है। इसका अाराधन तेले से किया जाता है। गांव के बाहर श्मशान में खड़े होकर मस्तक को थोड़ा झुकाकर किसी एक पुदगल पर दृष्टि रखकर निनिमेष नेत्रों से निश्चितता पूर्वक कायोत्सर्ग किया जाता है। उपसर्ग आने पर समभाव से सहन किया जाता है। इन प्रतिमाओं में स्थित श्रमण के लिए अनेक विधान भी किये हैं। जैसे---कोई व्यक्ति प्रतिमाधारी निर्ग्रन्थ है तो उसे भिक्षाकाल को तीन विभाग में विभाजित करके भिक्षा लेनी चाहिये—आदि, मध्य और चरम / आदि भाग में भिक्षा के लिए जाने पर मध्य और चरम भाग में नहीं जाना चाहिये / मासिकी प्रतिमा में स्थित श्रमण जहाँ कोई जानता हो वहाँ एक रात रह सकता है। जहां उसे कोई भी नहीं जानता वहाँ वह दो रात रह सकता है। इससे अधिक रहने पर उतने ही दिन का छेद अथवा तप प्रायश्चित्त लगता है। इसी प्रकार और भी कठोर अनुशासन का विधान लगाया जा सकता है। जैसे कोई उपाश्रय में आग लगा दे तो भी उसे नहीं जाना चाहिए। यदि कोई पकड़कर उसे बाहर खींचने का प्रयत्न करे तो उसे हठ न करते हुए सावधानीपूर्वक बाहर निकल जाना चाहिए / इसी तरह सामने यदि मदोन्मत्त हाथी, घोड़ा, बैल, कुत्ता, व्याघ्र प्रादि आ जाएं तो भी उसे उनसे डरकर एक कदम भी पीछे नहीं हटना चाहिये। शीतलता तथा उष्णता के परीषह को धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिये। आठवें उद्देशक (दशा) में पर्युषणा कल्प का वर्णन है / पर्युषण शब्द “परि" उपसर्ग पूर्वक वस् धातु से [46 ] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अनः" प्रत्यय लगकर बना है। इसका अर्थ है, प्रात्ममज्जन, आत्मरमण या आत्मस्थ होना / पर्युषणकल्प का दूसरा अर्थ है एक स्थान पर निवास करना। वह सालंबन या निरावलंबन रूप दो प्रकार का है। सालंबन का अर्थ है सकारण और निरावलंबन का अर्थ है कारणरहित / निरावलंबन के जघन्य और उत्कृष्ट दो भेद हैं। पर्युषणा के पर्यायवाची शब्द इस प्रकार हैं-(१) परियाय वत्थवणा, (2) पज्जोसमणा, (3) पागइया, (4) परिवसना, (5) पज्जुसणा, (6) वासावास, (7) पढमसमोसरण, (8) ठवणा और (9) जेट्टोग्गह। ये सभी नाम एकार्थक हैं, तथापि व्युत्पत्ति-भेद के आधार पर किंचित् अर्थभेद भी है और यह अर्थभेद पर्युषणा से सम्बन्धित विविध परम्पराओं एवं उस नियत काल में की जाने वाली क्रियाओं का महत्त्वपूर्ण निदर्शन कराता है / इन अर्थों से कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी व्यक्त होते हैं / पर्युषणा काल के आधार से कालगणना करके दीक्षापर्याय की ज्येष्ठता व कनिष्ठता गिनी जाती है। पर्युषणाकाल एक प्रकार का वर्षमान गिना जाता है। अत: पर्युषणा को दीक्षापर्याय की अवस्था का कारण माना है / वर्षावास में भिन्न-भिन्न प्रकार के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव सम्बन्धी कुछ विशेष क्रियाओं का आचरण किया जाता है अत: पर्युषणा का दूसरा नाम पज्जोसमणा है। तीसरा, गृहस्थ आदि के लिए समानभावेन आराधनीय होने से यह “पागइया" यानि प्राकृतिक कहलाता है। इस नियत अवधि में साधक आत्मा के अधिक निकट रहने का प्रयत्न करता है अतः वह परिवसना भी कहा जाता है। पर्युषणा का अर्थ सेवा भी है। इस काल में साधक आत्मा के ज्ञानदर्शनादि गुणों की सेवा उपासना करता है अतः उसे पज्जुसणा कहते हैं। इस कल्प में श्रमण एक स्थान पर चार मास तक निवास करता है अतएव इसे वासावास--वर्षावास कहा गया है। कोई विशेष कारण न हो तो प्रावृट् (वर्षा) काल में ही चातुर्मास करने योग्य क्षेत्र में प्रवेश किया जाता है अतः इसे प्रथमसमवसरण कहते हैं / ऋतुबद्धकाल की अपेक्षा से इसकी मर्यादाएं भिन्न-भिन्न होती हैं। अतएव यह ठवणा (स्थापना) है / ऋतुबद्धकाल में एक-एक मास का क्षेत्रावग्रह होता है किन्तु वर्षाकाल में चार मास का होता है अतएव इसे जेट्ठोग्गह (ज्येष्ठावग्रह) कहा है। अगर साधु आषाढ़ी पूर्णिमा तक नियत स्थान पर आ पहुंचा हो और वर्षावास की घोषणा कर दी हो तो श्रावण कृष्णा पंचमी से ही वर्षावास प्रारम्भ हो जाता है। उपर्युक्त क्षेत्र न मिलने पर श्रावण कृष्णा दशमी को, फिर भी योग्य क्षेत्र की प्राप्ति न हो तो श्रावण कृष्णा पंचदशमी- अमावस्या को वर्षावास प्रारम्भ करना चाहिए / इतने पर भी योग्य क्षेत्र न मिले तो पांच-पांच दिन बढ़ाते हुए अन्ततः भाद्रपद शुक्ला पंचमी तक तो वर्षावास प्रारम्भ कर देना अनिवार्य माना गया है। इस समय तक भी उपयुक्त क्षेत्र प्राप्त न हो तो वृक्ष के नीचे ही पयूषणाकल्प करना चाहिए / पर इस तिथि का किसी भी परिस्थिति में उल्लंघन नहीं करना चाहिए। वर्तमान में जो पर्युषणा कल्पसूत्र है, वह दशाश्रुतस्कन्ध का ही आठवां अध्ययन है। दशाश्रुतस्कन्ध की प्राचीनतम प्रतियां, जो चौदहवीं शताब्दी से पूर्व की हैं, उनमें आठवें अध्ययन में पूर्ण कल्पसूत्र आया है। जो यह स्पष्ट प्रमाणित करता है कि कल्पसूत्र स्वतन्त्र रचना नहीं किन्तु दशाश्रुतस्कन्ध का ही आठवां अध्ययन है / [47 ] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी बात दशाश्रुतस्कन्ध पर जो द्वितीय भद्रबाह की नियुक्ति है, जिनका समय विक्रम की छठी शताब्दी है, उसमें और उस नियुक्ति के आधार से निर्मित प्रचलित है, उसके पदों की व्याख्या मिलती है। मुनि श्री पुण्यविजयजी का अभिमत है कि दशाश्रुतस्कन्ध की चूणि लगभग सोलह सौ वर्ष पुरानी है। कल्पसूत्र के पहले सूत्र में "तेणं कालेणं तेणं समएणं समणो भगवं महावीरे.............."और अंतिम सूत्र में .............."भुज्जो भुज्जो उवदंसेइ" पाठ है। वही पाठ दशाश्रुतस्कन्ध के आठवें उद्देशक [दशा] में है। यहां पर शेष पाठ को “जाव" शब्द के अन्तर्गत संक्षेप कर दिया है। वर्तमान में जो पाठ उपलब्ध है उसमें केवल पंचकल्याणक का ही निरूपण है, जिसका पर्युषणाकल्प के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः स्पष्ट है कि पर्युषणाकल्प इस अध्ययन में पूर्ण कल्पसूत्र था। कल्पसूत्र और दशाश्रुतस्कन्ध इन दोनों के रचयिता भद्रबाह हैं। इसलिए दोनों एक ही रचनाकार की रचना होने से यह कहा जा सकता है कि कल्पसूत्र दशाश्रुतस्कन्ध का पाठवा अध्ययन ही है / वृत्ति, चूणि, पृथ्वीचंदटिप्पण और अन्य कल्पसूत्र को टीकाओं से यह स्पष्ट प्रमाणित है। नौवें उद्देशक में 30 महामोहनीय स्थानों का वर्णन है। आत्मा को प्रावत करने वाले पुदगल कर्म कहलाते हैं। मोहनीयकर्म उन सब में प्रमुख है। मोहनीयकर्मबंध के कारणों की कोई मर्यादा नहीं है, तथापि शास्त्रकार ने मोहनीय कर्मबंध के हेतुभूत कारणों के तीस भेदों का उल्लेख किया है। उनमें दुरध्यवसाय की तीव्रता और क्रूरता इतनी मात्रा में होती है कि कभी कभी महामोहनीयकर्म का बन्ध हो जाता है जिससे आत्मा 70 कोटा-कोटि सागरोपम तक संसार में परिभ्रमण करता है। आचार्य हरिभद्र तथा जिनदासगणी महत्तर केवल मोहनीय शब्द का प्रयोग करते है। उत्तराध्ययन, समवायांग और दशाश्रुतस्कन्ध में भी मोहनीथस्थान कहा है।' किन्तु भेदों के उल्लेख में "महामोहं पकुव्वइ" शब्द का प्रयोग हुआ है। वे स्थान जैसे कि त्रस जीवों को पानी में डबाकर मारना, उनको श्वास आदि रोक कर मारना, मस्तक पर गीला चमड़ा आदि वाँधकर मारना, गुप्तरीति से अनाचार का सेवन करना, मिथ्या कलंक लगाना, बालब्रह्मचारी न होते हुए भी बालब्रह्मचारी कहलाना, केवलज्ञानी की निन्दा करना, बहुश्रुत न होते हुए भी बहुश्रुत कहलाना, जादू-टोना आदि करना, कामोत्पादक विकथाओं का बार-बार प्रयोग करना आदि हैं। दशवें उद्देशक दिशा का नाम "आयतिस्थान" है। इसमें विभिन्न निदानों का वर्णन है। निदान का अर्थ है-मोह के प्रभाव से कामादि इच्छाओं की उत्पत्ति के कारण होने वाला इच्छापूर्तिमूलक संकल्प / जब मानव के अन्तर्मानस में मोह के प्रबल प्रभाव से वासनाएं उदभूत होती हैं तब वह उनकी पूर्ति के लिए दृढ़ संकल्प करता है। यह संकल्पविशेष ही निदान है। निदान के कारण मानव की इच्छाएं भविष्य में भी निरन्तर बनी रहती हैं जिससे वह जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त नहीं हो पाता। भविष्यकालीन जन्म-मरण की दृष्टि से प्रस्तुत उद्देशक का नाम प्रायतिस्थान रखा गया है। प्रायति का अर्थ जन्म या जाति है। निदान का कारण होने से आयतिस्थान माना गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो आयति में से "ति" पृथक कर लेने पर 'पाय" अवशिष्ट रहता है। प्राय का अर्थ लाभ है। जिस निदान से जन्म-मरण का लाभ होता है उसका नाम आयति है। इस दशा में वर्णन है कि भगवान् महावीर राजगह पधारे। राजा श्रेणिक व महारानी चेलना भगवान के वन्दन हेतु पहुंचे। राजा श्रेणिक के दिव्य व भव्य रूप और महान् समृद्धि को निहार कर श्रमण सोचने लगेश्रेणिक तो साक्षात् देवतुल्य प्रतीत हो रहा है। यदि हमारे तप, नियम और संयम आदि का फल हो तो हम भी 1. तीसं मोह-ठणाई-अभिक्खणं-अभिक्खणं आयारेमाणे वा समायारेमाणे वा मोहणिज्जताए कम्मं पकरेई / --दशाश्रुतस्कन्ध, पृ. ३२१-उपा. आत्मारामजी महाराज [48 ] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस जैसे बनें। महारानी चेलना के सुन्दर सलौने रूप व ऐश्वर्य को देखकर श्रमणियों के अन्तर्मानस में यह संकल्प हुआ कि हमारी साधना का फल हो तो हम आगामी जन्म में चलना जैसी बनें / अन्तर्यामी महावीर ने उनके संकल्प को जान लिया और श्रमण-श्रमणियों से पूछा कि क्या तुम्हारे मन में इस प्रकार का संकल्प हुआ है? उन्होंने स्वीकृति सूचक उत्तर दिया--"हां, भगवन् ! यह बात सत्य है।" भगवान् ने कहा-"निर्ग्रन्थ-प्रवचन सर्वोत्तम है, परिपूर्ण है, सम्पूर्ण कर्मों को क्षीण करने वाला है। जो श्रमण या श्रमणियां इस प्रकार धर्म से विमुख होकर ऐश्वर्य आदि को देखकर लुभा जाते हैं और निदान करते हैं वे यदि बिना प्रायश्चित्त किए आयु पूर्ण करते हैं तो देवलोक में उत्पन्न होते हैं और वहां से वे मानवलोक में पुनः जन्म लेते हैं। निदान के कारण उन्हें केवली धर्म की प्राप्ति नहीं होती। वे सदा सांसारिक विषयों में ही मुग्ध बने रहते हैं।" शास्त्रकार ने 9 प्रकार के निदानों का वर्णन कर यह बताया कि निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सब कर्मों से मुक्ति दिलाने वाला एकमात्र साधन है / अतः निदान नहीं करना चाहिए और किया हो तो आलोचना-प्रायश्चित्त करके मुक्त हो जाना चाहिए। उपसंहार इस प्रकार प्रस्तुत प्रागम में भगवान महावीर की जीवनी विस्तार से पाठवी दशा में मिलती है। चित्तसमाधि एवं धर्मचिन्ता का सुन्दर वर्णन है / उपासकप्रतिमाओं व भिक्षुप्रतिमाओं के भेद-प्रभेदों का भी वर्णन है। बृहत्कल्प बृहत्कल्प का छेदसूत्रों में गौरवपूर्ण स्थान है / अन्य छेदसूत्रों की तरह इस सूत्र में भी श्रमणों के आचारविषयक विधि-निषेध, उत्सर्ग-अपबाद, तप, प्रायश्चित्त आदि पर चिन्तन किया गया है। इसमें छह उद्देशक हैं, 81 अधिकार हैं, 473 श्लोकप्रमाण उपलब्ध मूलपाठ है / 206 सूत्रसंख्या है। प्रथम उद्देशक में 50 सूत्र हैं / पहले के पांच सूत्र तालप्रलंब विषयक है। निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के लिए ताल एवं प्रलंब ग्रहण करने का निषेध है। इसमें अखण्ड एवं अपक्व तालफल व तालमूल ग्रहण नहीं करना चाहिए किन्तु विदारित, पक्व ताल प्रलंब लेना कल्प्य है, ऐसा प्रतिपादित किया गया है, आदि-आदि / मासकल्प विषयक नियम में श्रमणों के ऋतुबद्धकाल–हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु के 8 महिनों में एक स्थान पर रहने के अधिकतम समय का विधान किया है। श्रमणों को सपरिक्षेप अर्थात् सप्राचीर एवं प्राचीर से बाहर निम्नोक्त 16 प्रकार के स्थानों में वर्षाऋतु के अतिरिक्त अन्य समय में एक साथ एक मास से अधिक ठहरना नहीं कल्पता। 1. ग्राम [जहां राज्य की अोर से 18 प्रकार के कर लिये जाते हों] 2. मगर [जहां 18 प्रकार के कर न लिए जाते हों 3. खेट [जिसके चारों ओर मिट्टी की दीवार हो] 4. कर्बट [जहां कम लोग रहते हों] 5. मडम्ब [जिसके बाद ढाई कोस तक कोई गाँव न हो] [ 49 ] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. पत्तन [जहां सब वस्तुएं उपलब्ध हों] 7. आकर [जहां सब वस्तुएं उपलब्ध हों] 8. द्रोणमुख [जहाँ जल और स्थल को मिलाने वाला मार्ग हो, जहां समुद्री माल प्राकर उतरता हो] 9. निगम [जहां व्यापारियों की वसति हो] 10. राजधानी [जहां राजा के रहने के महल आदि हों] 11. प्राश्रम [जहां तपस्वी आदि रहते हों] 12. निवेश सन्निवेश [जहां सार्थवाह पाकर उतरते हों] 13. सम्बाध-संबाह [जहां कृषक रहते हों अथवा अन्य गांव के लोग अपने गांव से धन आदि की रक्षा के निमित्त पर्वत, गुफा आदि में आकर ठहरे हुए हों] 14. घोष [जहां गाय आदि चराने वाले गूजर लोग-ग्वाले रहते हों] 15. अंशिका [गांव का अर्ध, तृतीय अथवा चतुर्थ भाग] 16. पुटभेदन [जहां पर गांव के व्यापारी अपनी चीजें बेचने आते हों] नगर की प्राचीर के अन्दर और बाहर एक-एक मास तक रह सकते हैं। अन्दर रहते समय भिक्षा अन्दर से लेनी चाहिए और बाहर रहते समय बाहर से। श्रमणियां दो मास अन्दर और दो मास बाहर रह सकती हैं। जिस प्राचीर का एक ही द्वार हो वहां निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को एक साथ रहने का निषेध किया है, पर अनेक द्वार हों तो रह सकते हैं। जिस उपाश्रय के चारों ओर अनेक दुकानें हों, अनेक द्वार हों वहां साध्वियों को नहीं रहना चाहिए किन्तु साधु यतनापूर्वक रह सकता है / जो स्थान पूर्ण रूप से खुला हो, द्वार न हों वहां पर साध्वियों को रहना नहीं कल्पता। यदि अपवादरूप में उपाश्रय-स्थान न मिले तो परदा लगाकर रह सकती हैं। निर्ग्रन्थों के लिए खुले स्थान पर भी रहना कल्पता है। निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को कपड़े की मच्छरदानी [चिलिमिलिका रखने व उपयोग करने की अनुमति प्रदान की गई है। निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थियों को जलाशय के सन्निकट खड़े रहना, बैठना, लेटना, सोना, खाना-पीना, स्वाध्याय आदि करना नहीं कल्पता / जहां पर विकारोत्पादक चित्र हों वहां पर श्रमण-श्रमणियों को रहना नहीं कल्पता। मकान मालिक की बिना अनुमति के रहना नहीं कल्पता। जिस मकान के मध्य में होकर रास्ता हो--- जहां गृहस्थ रहते हों, वहां श्रमण-श्रमणियों को नहीं रहना चाहिए / किसी श्रमण का आचार्य, उपाध्याय, श्रमण या श्रमणी से परस्पर कलह हो गया हो, परस्पर क्षमायाचना करनी चाहिए। जो शांत होता है वह आराधक है। श्रमणधर्म का सार उपशम है-"उवसमसारं सामण्णं"। वर्षावास में विहार का निषेध है किन्तु हेमन्त व ग्रीष्म ऋतु में विहार का विधान है। जो प्रतिकूल क्षेत्र हों वहाँ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को बार-बार विचरना निषिद्ध है। क्योंकि संयम की विराधना होने की सम्भावना है। इसलिए प्रायश्चित्त का विधान है। [ 50 ] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गहस्थ के यहां भिक्षा के लिए या शौचादि के लिए श्रमण बाहर जाय उस समय यदि कोई गृहस्थ वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि देना चाहे तो आचार्य की अनुमति प्राप्त होने पर उसे लेना रखना चाहिए। वैसे ही धमणी के लिए प्रवर्तिनी की आज्ञा आवश्यक है। श्रमण-श्रमणियों के लिए रात्रि के समय या असमय में आहारादि ग्रहण करने का निषेध किया गया है। इसी तरह वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण ग्रहण का निषेध है। अपवादरूप में यदि तस्कर श्रमण-श्रमणियों के वस्त्र चुराकर ले गया हो और वे पुनः प्राप्त हो गये हों तो रात्रि में ले सकते हैं। यदि वे वस्त्र तस्करों ने पहने हों, स्वच्छ किये हों, रंगे हों या धूपादि सुगन्धित पदार्थों से वासित किये हों तो भी ग्रहण कर सकते हैं। निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थियों को रात्रि के समय या विकाल में विहार का निषेध किया गया है। यदि उच्चारभूमि आदि के लिए अपवाद रूप में जाना ही पड़े तो अकेला न जाय किन्तु साधुओं को साथ लेकर जाय / निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थियों के विहार क्षेत्र की मर्यादा पर चिन्तन किया गया है / पूर्व में अंगदेश एवं मगधदेश तक, दक्षिण में कौसाम्बी तक, पश्चिम में स्थूणा तक व उत्तर में कुणाला तक-ये आर्यक्षेत्र हैं। प्रार्यक्षेत्र में विचरने से ज्ञान-दर्शन की वृद्धि होती है। यदि अनार्यक्षेत्र में जाने पर रत्नत्रय की हानि की सम्भावना न हो तो जा सकते हैं। द्वितीय उद्देशक में उपाश्रय विषयक 12 सूत्रों में बताया है कि जिस उपाश्रय में शाली, वीहि, मूग, उड़द आदि बिखरे पड़े हों वहां पर श्रमण-श्रमणियों को किंचित् समय भी न रहना चाहिए किन्तु एक स्थान पर ढेर रूप में पड़े हुए हों तो वहां हेमन्त व ग्रीष्म ऋतु में रहना कल्पता है। यदि कोष्ठागार आदि में सुरक्षित रखे हुए हों तो वर्षावास में भी रहना कल्पता है। जिस स्थान पर सुराविकट, सौवीरविकट आदि रखे हों वहाँ किंचित् समय भी साधु-साध्वियों को नहीं रहना चाहिए।' यदि कारणवशात् अन्वेषणा करने पर भी अन्य स्थान उपलब्ध न हो तो श्रमण दो रात्रि रह सकता है, अधिक नहीं। अधिक रहने पर छेद या परिहार का प्रायश्चित्त आता है / 2 / इसी तरह शीतोदकविकटकुभ, उष्णोदकविकटकुभ, ज्योति, दीपक अादि से युक्त उपाश्रय में नहीं रहना चाहिए। इसी तरह एक या अनेक मकान के अधिपति से आहारादि नहीं लेना चाहिए। यदि एक मुख्य हो तो उसके अतिरिक्त शेष के यहां से ले सकते हैं। यहां पर शय्यातर मुख्य है जिसकी प्राज्ञा ग्रहण की है। शय्यातर के विविध पहलुओं पर चिन्तन किया गया है। निम्रन्थ-निर्गन्थियों को जांगिक, भाँगिक, सानक, पोतक और तिरिटपट्टक ये पाँच प्रकार से वस्त्र लेना 1. सुराविकटं पिष्टनिष्पन्नम् सौवीरविकटं तु पिष्टवअँगुंडादिद्रव्य निष्पन्नम् / --क्षेमकीर्तिकृत वृति, पृष्ठ 10952 2. "छेदो वा" पंचरात्रिन्दिवादिः “परिहारो वा" मासलघुकादिस्तपोविशेषो भवतीति सूत्रार्थः / / -वही 3. जंगमाः त्रसाः तदवयवनिष्पन्नं जांगमिकम्, भगा अतसी तन्मयं भांगिकम्, सनसूत्रमयं सानकम्, पोतक कार्यासिकम् तिरीट: वृक्षविशेषस्तस्य यः पट्टो वल्कल क्षणस्तनिष्पन्न तिरीटपट्टकं ना पंचमम् / ~-उ०२, सू०२४ [ 51 ] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पता है और औणिक, प्रौष्ट्रिक, सानक, वच्चकचिप्पक, मूजचिप्पक ये पांच प्रकार के' रजोहरण रखना कल्पता है। तृतीय उद्देशक में निर्ग्रन्थों को निर्ग्रन्थियों के उपाश्रय में बैठना, सोना, खाना, पीना, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग करना नहीं कल्पता / इसी प्रकार निर्ग्रन्थियों को निर्ग्रन्थों के उपाश्रय प्रादि में बैठना, खाना, पीना आदि नहीं कल्पता / प्रागे के चार सूत्रों में चर्म विषयक, उपभोग आदि के सम्बन्ध में कल्पाकल्प की चर्चा है। वस्त्र के सम्बन्ध में कहा है कि वे रंगीन न हों, किन्तु श्वेत होने चाहिए। कौनसी-कौनसी वस्तुएं धारण करना या न करना-इसका विधान किया गया है। दीक्षा लेते समय वस्त्रों की मर्यादा का भी वर्णन किया गया है। वर्षावास में वस्त्र लेने का निषेध है किन्तु हेमन्त व ग्रीष्म ऋतू में आवश्यकता होने पर वस्त्र लेने में बाधा नहीं है और वस्त्र के विभाजन का इस सम्बन्ध में भी चिन्तन किया है। निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को प्रातिहारिक वस्तुएं उसके मालिक को बिना दिये अन्यत्र विहार करना नहीं कल्पता। यदि किसी वस्तु को कोई चुरा ले तो उसकी अन्वेषणा करनी चाहिये और मिलने पर शय्यातर को दे देनी चाहिए / यदि आवश्यकता हो तो उसकी आज्ञा होने पर उपयोग कर सकता है / चतुर्थ उद्देशक में अब्रह्मसेवन तथा रात्रि-भोजन आदि व्रतों के सम्बन्ध में दोष लगने पर प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। पंडक, नपुसक एवं वातिक प्रव्रज्या के लिए अयोग्य है। यहां तक कि उनके साथ संभोग एक साथ भोजन-पानादि करना भी निषिद्ध है। अविनीत, रसलोलुपी व क्रोधी को शास्त्र पढ़ाना अनुचित है। दुष्ट, मूढ और दुविदग्ध ये तीन प्रव्रज्या और उपदेश के अनधिकारी हैं। निग्रंन्थी रुग्ण अवस्था में या अन्य किसी कारण से अपने पिता, भाई, पुत्र आदि का सहारा लेकर उठती या बैठती हो और साधु के सहारे की इच्छा करे तो चातुर्मासिक प्रायश्चित पाता है। इसी तरह निर्ग्रन्थ माता, श्री आदि का सहारा लेते हुए तथा साध्वी के सहारे की इच्छा करे तो उसे भी चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। इसमें चतुर्थ व्रत के खंडन की सम्भावना होने से प्रायश्चित्त का विधान किया है। निर्ग्रन्थ व निर्गन्थियों को कालातिक्रान्त, क्षेत्रातिक्रान्त प्रशनादि ग्रहण करना नहीं कल्पता। प्रथम पौरुषी का लाया हुआ आहार चतुर्थ पौरुषी तक रखना नहीं कल्पता। यदि भूल से रह जाय तो परठ देना चाहिए। उपयोग करने पर प्रायश्चित्त का विधान है। यदि भूल से अनेषणीय, स्निग्ध प्रशनादि भिक्षा में आ गया हो तो अनपस्थापित श्रमण- जिनमें महाव्रतों की स्थापना नहीं की है उन्हें दे देना चाहिए। यदि वह न हो तो निर्दोष स्थान पर परठ देना चाहिए। आचेलक्य प्रादि कल्प में स्थित श्रमणों के लिए निर्मित आहारादि अकल्पस्थित श्रमणों के लिए कल्पनीय है। जो आहारादि अकल्पस्थित श्रमणों के लिए निर्मित हो वह करूपस्थित श्रमणों के लिए अकल्प्य होता है। यहां पर कल्पस्थित का तात्पर्य है "पंचयामधर्मप्रतिपन्न" और अकल्पस्थित धर्म का अर्थ है "चातुर्यामधर्मप्रतिपन्न"। 1. "ौणिक" ऊरणिकानामूर्णाभिनिवृत्तम्, "पौष्ट्रिक" उष्ट्रोमभिनिवृत्तम्, “सानक" सनवृक्षवल्काद् जातम् "वाचकः" तृणविशेषस्तस्य "चिप्पकः'' कुट्टितः त्वगूपः तेन निष्पन्न वच्चकचिप्पकम् “मुजः" शरस्तम्बस्तस्य चिप्पकाद् जातं मुजचिप्पक नाम पंचममिति / -----उ० 2, सू० 25 [ 52 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी निग्रन्थ को ज्ञान आदि के कारण अन्य गण में उपसम्पदा लेनी हो तो आचार्य की अनुमति प्रावश्यक है। इसी प्रकार प्राचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक आदि को भी यदि अन्य गण में उपसम्पदा लेनी हो तो अपने समुदाय की योग्य व्यवस्था करके ही अन्य गण में सम्मिलित होना चाहिए। संध्या के समय या रात्रि में कोई श्रमण या श्रमणी कालधर्म को प्राप्त हो जाय तो दूसरे श्रमण-श्रमणियों को उस मृत शरीर को रात्रि भर सावधानी से रखना चाहिए। प्रातः गृहस्थ के घर से बांस आदि लाकर मृतक को उससे बांधकर दूर जंगल में निर्दोष भूमि पर प्रस्थापित कर देना चाहिए और पुन: बांस आदि गहस्थ को दे देना चाहिए। श्रमण ने किसी गहस्थ के साथ यदि कलह किया हो तो उसे शांत किये बिना भिक्षाचर्या करमा नहीं कल्पता। परिहारविशुद्धचारित्र ग्रहण करने की इच्छा वाले श्रमण को विधि समझाने हेतु पारणे के दिन स्वयं चार्य, उपाध्याय उसके पास जाकर आहार दिलाते हैं और स्वस्थान पर आकर परिहारविशुद्धचारित्र का पालन करने की विधि बतलाते हैं। श्रमण-श्रमणियों को गंगा, यमुना, सरयू, कोशिका, मही इन पांच महानदियों में से महीने में एक से अधिक बार एक नदी पार नहीं करनी चाहिए। ऐरावती आदि छिछली नदियां महीने में दो-तीन बार पार की जा सकती हैं। श्रमण-श्रमणियों को घास की ऐसी निर्दोष झोपड़ी में, जहां पर अच्छी तरह से खड़ा नहीं रहा जा सके, हेमन्त व ग्रीष्म ऋतु में रहना बय॑ है। यदि निर्दोष तृणादि से बनी हुई दो हाथ से कम ऊंची झोपड़ी है तो वर्षाऋतु में वहां नहीं रह सकते / यदि दो हाथ से अधिक ऊंची है तो वहां वर्षाऋतु में रह सकते हैं। पंचम उद्देशक में बताया है कि यदि कोई देव स्त्री का रूप बनाकर साधु का हाथ पकड़े और वह साधु उसके कोमल स्पर्श को सुखरूप माने तो उसे मैथुन प्रतिसेवन दोष लगता है और उसे चातुर्मासिक गुरु-प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार साध्वी को भी उसके विपरीत पुरुष स्पर्श का अनुभव होता है और उसे सुखरूप माने तो चातुर्मासिक गुरु-प्रायश्चित्त आता है। कोई श्रमण बिना क्लेश को शांत किए अन्य गण में जाकर मिल जाय और उस गण के प्राचार्य को ज्ञात हो जाय कि यह श्रमण बहां से कलह करके आया है तो उसे पांच रातदिन का छेद देना चाहिए और उसे शान्त कर अपने गण में पुनः भेज देना चाहिए। सशक्त या अशक्त श्रमण सूर्योदय हो चुका है या अभी अस्त नहीं हुया है ऐसा समझकर यदि आहारादि करता है और फिर यदि उसे यह ज्ञात हो जाय कि अभी तो सूर्योदय हुआ ही नहीं है या अस्त हो गया है तो उसे आहारादि तत्क्षण त्याग देना चाहिए। उसे रात्रिभोजन का दोष नहीं लगता। सूर्योदय और सूर्यास्त के प्रति शंकाशील होकर आहारादि करने वाले को रात्रिभोजन का दोष लगता है। श्रमण-श्रमणियों को रात्रि में डकारादि के द्वारा मुह में अन्न आदि आ जाय तो उसे बाहर थूक देना चाहिए / यदि पाहारादि में द्वीन्द्रियादि जीव गिर जाय तो यतनापूर्वक निकाल कर आहारादि करना चाहिए। यदि निकलने की स्थिति में न हो तो एकान्त निर्दोष स्थान में परिस्थापन कर दे। अाहारादि लेते समय सचित्त पानी की बूदें आहारादि में गिर जाएं और वह आहार गरम हो तो उसे खाने में किचित मात्र भी दोष नहीं है। [53 ] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि उसमें पड़ी हुई बूंदें अचित्त हो जाती हैं / यदि आहार शीतल है तो न स्वयं खाना चाहिए और न दूसरों को खिलाना चाहिए अपितु एकान्त स्थान पर परिस्थापन कर देना चाहिए। निर्ग्रन्थी को एकाकी रहना, नग्न रहना, पावरहित रहना, ग्रामादि के बाहर आतापना लेना, उत्कटुकासन, वीरासन, दण्डासन, लगुडशायी आदि आसन पर बैठकर कायोत्सर्ग करना वयं है। - निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को परस्पर मोक (पेशाब या थूक) का आचमन करना अकल्प्य है किन्तु रोगादि कारणों से ग्रहण किया जा सकता है / परिहारकरूप में स्थिति भिक्ष को स्थविर आदि के आदेश से अन्यत्र जाना पड़े तो शीघ्र जाना चाहिए और कार्य करके पुनः लौट आना चाहिए। यदि चारित्र में किसी प्रकार का दोष लगे तो प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध कर लेना चाहिए। छठे उद्देशक में यह बताया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को अलीक (झूठ) वचन, हीलितवचन, खिसितवचन, परुषवचन, गार्हस्थिकवचन, व्यवशमितोदीरणवचन (शांत हुए कलह को उभारनेवाला वचन), ये छह प्रकार के वचन नहीं बोलना चाहिए। प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, अविरति-अब्रह्म, नपुसक, दास आदि का आरोप लगाने वाले को प्रायश्चित्त पाता है। निर्गन्थ के पैर में कांटा लग गया हो और वह निकालने में असमर्थ हो तो उसे अपवादरूप में निर्ग्रन्थी निकाल सकती है। इसी प्रकार नदी आदि में डूबने, गिरने, फिसलने आदि का प्रसंग आये तो साधु साध्वी का हाथ पकड़कर बचाये / इसी प्रकार विक्षिप्तचित्त निर्ग्रन्थी को अपने हाथ से पकड़कर उसके स्थान पर पहुंचा दे, वैसे ही भी साध्वी हाथ पकड़कर पहुंचा सकती है। यह स्मरण रखना चाहिए कि ये आपवादिक सूत्र हैं। इसमें विकारभावना नहीं किन्तु परस्पर के संयम की सुरक्षा की भावना है। साधु की मर्यादा का नाम कल्पस्थिति है / यह छह प्रकार की है—सामायिक-संयतकल्पस्थिति, छेदोपस्थापनीय संयतकल्पस्थिति, निर्विशमानकल्पस्थिति, निविष्टकायिककल्पस्थिति, जिनकल्पस्थिति और स्थविरकल्पस्थिति। ___इस प्रकार बृहत्कल्प में श्रमण-श्रमणियों के जीवन और व्यवहार से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर प्रकाश डाला है। यही इस शास्त्र की विशेषता है। व्यवहारसूत्र बृहत्कल्प और व्यवहार ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं / व्यवहार भी छेदसूत्र है जो चरणानुयोगमय है। इसमें दश उद्देशक हैं / 373 अनुष्टुप श्लोक प्रमाण उपलब्ध मूल पाठ है / 267 सूत्र संख्या है। प्रथम उद्देशक में मासिक प्रायश्चित्त के योग्य दोष का सेवन कर उस दोष की प्राचार्य आदि के पास कपटरहित आलोचना करने वाले श्रमण को एकमासिक प्रायश्चित्त पाता है जबकि कपटसहित करने पर द्विमासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। द्विमासिक प्रायश्चित्त के योग्य दोष की साधक निष्कपट आलोचना करता है तो उसे द्विमासिक प्रायश्चित्त पाता है और कपटसहित करने से तीन मास का / इस प्रकार तीन, चार, पांच और छह मास के [ 54 ] Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त का विधान है। अधिक से अधिक छह मास के प्रायश्चित्त का विधान है। जिसने अनेक दोषों का सेवन किया हो उसे क्रमशः पालोचना करनी चाहिए और फिर सभी का साथ में प्रायश्चित्त लेना चाहिए। प्रायश्चित्त करते हुए भी यदि पुनः दोष लग जाय तो उसका पुनःप्रायश्चित्त करना चाहिए। प्रायश्चित्त का सेवन करने वाले श्रमण को स्थविर आदि की अनुज्ञा लेकर ही अन्य साधुओं के साथ उठनाबैठना चाहिए। आज्ञा की अवहेलना कर किसी के साथ यदि वह बैठता है तो उतने दिन की उसकी दीक्षापर्याय कम होती है जिसे आगमिक भाषा में छेद कहा गया है। परिहारकल्प का परित्याग कर स्थविर आदि की सेवा के लिए दूसरे स्थान पर जा सकता है / कोई श्रमण गण का परित्याग कर एकाकी विचरण करता है और यदि वह अपने को शुद्ध प्राचार के पालन करने में असमर्थ अनुभव करता है तो उसे आलोचना कर छेद या नवीन दीक्षा ग्रहण करवानी चाहिए / जो नियम सामान्य रूप से एकलविहारी श्रमण के लिए है वही नियम एकलविहारी गणावच्छेदक, आचार्य व शिथिलाचारी श्रमण के लिए है। आलोचना प्राचार्य, उपाध्याय के समक्ष कर प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होना चाहिए। यदि वे अनुपस्थित हों तो अपने संभोगी, सार्मिक, बहुश्रुत आदि के समक्ष आलोचना करनी चाहिए। यदि वे पास में न हों तो अन्य समुदाय के संभोगी, बहुश्रुत आदि श्रमण जहाँ हों वहाँ जाकर आलोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए। यदि वह भी न हों तो सारूपिक (सदोषी) किन्तु बहुश्रुत साधु हों तो वहाँ जाकर प्रायश्चित्त लेना चाहिए। यदि वह भी न हों तो बहुश्रुत श्रमणोपासक के पास और उसका भी अभाव हो तो सम्यग्दष्टि गहस्थ के पास जाकर प्रायश्चित्त करना चाहिए / इन सबके अभाव में गाँव या नगर के बाहर जाकर पूर्व या उत्तर दिशा के सम्मुख खड़े होकर दोनों हाथ जोड़कर अपने अपराध की पालोचना करे / द्वितीय उद्देशक में कहा है कि एक समान समाचारी वाले दो सार्मिक साथ में हों और उनमें से किसी एक ने दोष का सेवन किया हो तो दूसरे के सन्मुख प्रायश्चित्त लेना चाहिए। प्रायश्चित्त करने वाले की सेवा आदि का भार दूसरे श्रमण पर रहता है। यदि दोनों ने दोषस्थान का सेवन किया हो तो परस्पर आलोचना कर प्रायश्चित्त लेकर सेवा करनी चाहिए। अनेक श्रमणों में से किसी एक श्रमण ने अपराध किया हो तो एक को ही प्रायश्चित्त दे / यदि सभी ने अपराध किया है तो एक के अतिरिक्त शेष सभी प्रायश्चित्त लेकर शुद्धिकरण करें और उनका प्रायश्चित्त पूर्ण होने पर उसे भी प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करें। परिहारकल्पस्थित श्रमण कदाचित् रुग्ण हो जाय तो उसे गच्छ से बाहर निकालना नहीं कल्पता / जब तक वह स्वस्थ न हो जाय तब तक बयावृत्य करवाना गणावच्छेदक का कर्तव्य है और स्वस्थ होने पर उसने सदोषावस्था में सेवा करवाई अतः उसे प्रायश्चित्त लेना चाहिए। इसी तरह अनवस्थाप्य एवं पारांचिक प्रायश्चित्त करने वाले को भी रुग्णावस्था में गच्छ से बाहर नहीं करना चाहिए। विक्षिप्तचित्त को भी गच्छ से बाहर निकालना नहीं कल्पता और जब तक उसका चित्त स्थिर न हो जाय तब तक उसकी पूर्ण सेवा करनी चाहिए तथा स्वस्थ होने पर नाममात्र का प्रायश्चित्त देना चाहिए। इसी प्रकार दीप्तचित्त (जिसका चित्त अभिमान से उददीप्त हो गया है), उन्मादप्राप्त, उपसर्गप्राप्त, साधिकरण, सप्रायश्चित्त ग्रादि को गच्छ से बाहर निकालना नहीं कल्पता। नौवां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त करने वाले साधु को मृहस्थलिंग धारण कराये बिना संयम में पुनः स्थापित [ 55 ] Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसका अपराध इतना महान होता है कि बिना वैसा किये उसका पूरा प्रायश्चित्त नहीं हो पाता और न अन्य श्रमणों के अन्तर्मानस में उस प्रकार के अपराध के प्रति भय ही उत्पन्न होता है। इसी प्रकार दसवें पारंचिक प्रायश्चित्त वाले श्रमण को भी गहस्थ का वेष पहनाने के पश्चात पुन: संयम में स्थापित करना चाहिए / यह अधिकार प्रायश्चित्तदाता के हाथ में है कि उसे गहस्थ का वेष न पहनाकर अन्य प्रकार का वेष भी पहना सकता है। पारिहारिक और अपारिहारिक श्रमण एक साथ आहार करें, यह उचित नहीं है / पारिहारिक श्रमणों के साथ बिना तप पूर्ण हुए अपारिहारिक श्रमणों को आहारादि नहीं करना चाहिए, क्योंकि जो तपस्वी हैं उनका तप पूर्ण होने के पश्चात् एक मास के तप पर पांच दिन और छह महीने के तप पर एक महीना व्यतीत हो जाने के पूर्व उनके साथ कोई आहार नहीं कर सकता, क्योंकि उन दिनों में उनके लिए विशेष प्रकार के पाहार की आवश्यकता होती है जो दूसरों के लिए आवश्यक नहीं / तृतीय उद्देशक में बताया है कि किसी श्रमण के मानस में अपना स्वतंत्र गच्छ बनाकर परिभ्रमण करने की इच्छा हो पर वह आचारांग आदि का परिज्ञाता नहीं हो तो शिष्य आदि परिवारसहित होने पर भी पृथक् गण बनाकर स्वच्छन्दी होना योग्य नहीं। यदि वह आचारांग आदि का ज्ञाता है तो स्थविर से अनुमति लेकर विचर थविर की बिना अनुमति के विचरने बाले को जितने दिन इस प्रकार विचरा हो उतने ही दिन का छेद या पारिहारिक प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ता है। उपाध्याय वही बन सकता है जो कम से कम तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाला है, निर्ग्रन्थ के प्राचार में निष्णात हैं, संयम में प्रवीण है, आचारांग प्रादि प्रवचनशास्त्रों में पारंगत है, प्रायश्चित्त देने में पूर्ण समर्थ है, संघ के लिए क्षेत्र आदि का निर्णय करने में दक्ष है, चारित्रवान है, बहुश्रुत है आदि / प्राचार्य वह बन सकता है जो श्रमण के प्राचार में कुशल, प्रवचन में पटु, दशाश्रुतस्कन्ध-कल्प-बृहत्कल्पव्यवहार का ज्ञाता है और कम से कम पांच वर्ष का दीक्षित है / आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तिनी, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक पद उसे दिया जा सकता है जो श्रमण के प्राचार में कुशल, प्रवचनदक्ष, असंक्लिष्टमना व स्थानांग-समवायांग का ज्ञाता है। अपवाद में एक दिन की दीक्षापर्याय वाले साधु को भी प्राचार्य, उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है। उस प्रकार का साधु प्रतीतिकारी, धैर्यशील, विश्वसनीय, समभावी, प्रमोद कारी, अनुमत, बहुमत व उच्च कुलोत्पन्न एवं गुणसंपन्न होना आवश्यक है। आचार्य अथवा उपाध्याय की आज्ञा से ही संयम का पालन करना चाहिए / अब्रह्म का सेवन करने वाला प्राचार्य आदि पदवी के अयोग्य है / यदि गच्छ का परित्याग कर उसने वैसा कार्य किया है तो पुनः दीक्षा धारण कर तीन वर्ष बीतने पर यदि उसका मन स्थिर हो, विकार शांत हो, कषाय आदि का अभाव हो तो प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है। चतुर्थ उद्देशक में कहा है कि प्राचार्य अथवा उपाध्याय के साथ हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में कम से कम एक अन्य साधु होना चाहिए और गणावच्छेदक के साथ दो / बर्षाऋतु में प्राचार्य और उपाध्याय के साथ दो व गणावच्छेदक के साथ तीन साधुओं का होना आवश्यक है। [ 56 ] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य की महत्ता पर प्रकाश डालकर यह बताया गया है कि उनके अभाव में किस प्रकार रहना चाहिए ? आचार्य, उपाध्याय यदि अधिक रुग्ण हों और जीवन की आशा कम हो तो अन्य सभी श्रमणों को बुलाकर प्राचार्य कहे कि मेरी आयु पूर्ण होने पर अमुक साधु को अमुक पदवी प्रदान करना / उनकी मृत्यु के पश्चात् यदि वह साधु योग्य प्रतीत न हो तो अन्य को भी प्रतिष्ठित किया जा सकता है और योग्य हो तो उसे ही प्रतिष्ठित करना चाहिए। अन्य योग्य श्रमण आचारांग आदि पढ़कर दक्ष न हो जाय तब तक आचार्य आदि की सम्मति से अस्थायी रूप से साधु को किसी भी पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है और योग्य पदाधिकारी प्राप्त होने पर पूर्वव्यक्ति को अपने पद से पृथक हो जाना चाहिए। यदि वह वैसा नहीं करता है तो प्रायश्चित्त का भागी होता है। दो श्रमण साथ में विचरण करते हों तो उन्हें योग्यतानुसार छोटा और बड़ा होकर रहना चाहिए और एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए / इसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय को भी। पांचवें उद्देशक में प्रवर्तिनी को कम से कम दो अन्य साध्वियों के साथ शीतोष्णकाल में ग्रामानुग्राम विचरण करना चाहिए और गणावच्छेदिका के साथ तीन अन्य साध्वियां होनी चाहिए / वर्षा ऋतु में प्रवर्तिनी के साथ तीन और गणावच्छेदिका के साथ चार साध्वियां होनी चाहिए। प्रवर्तिनी प्रादि की मृत्यू और पदाधिकारी की नियुक्ति के सम्बन्ध में जैसा श्रमणों के लिए कहा गया है वैसा ही श्रमणियों के लिए भी समझना चाहिए। वैयावृत्य के लिए सामान्य विधान यह है कि श्रमण, श्रमणी से और श्रमणी, श्रमण से बयावृत्य न करावे किन्तु अपवादरूप में परस्पर सेवा-शुश्रूषा कर सकते हैं। सर्पदंश आदि कोई विशिष्ट परिस्थिति पैदा हो जाय तो अपवादरूप में गहस्थ से भी सेवा करवाई जा न स्थविरकल्पियों के लिए है। जिनकल्पियों के लिए सेवा का विधान नहीं है। यदि वे सेवा करवाते हैं तो पारिहारिक तपरूप प्रायश्चित्त करना पड़ता है। छठे उद्देशक में बताया है कि अपने स्वजनों के यहां बिना स्थविरों की अनुमति प्राप्त किए नहीं जाना चाहिए। जो श्रमण-श्रमणी अल्पश्रुत व अल्प-प्रागमी हैं उन्हें एकाकी अपने सम्बन्धियों के यहां नहीं जाना चाहिए / यदि जाना है तो बहुश्रुत व बहुप्रागमधारी श्रमण-श्रमणी के साथ जाना चाहिए। श्रमण के पहुंचने के पूर्व जो वस्तु पक कर तैयार हो चुकी है वह ग्राह्य है और जो तैयार नहीं हुई है वह अग्राह्य है। प्राचार्य, उपाध्याय यदि बाहर से उपाश्रय में आवें तो उनके पांव पोंछकर साफ करना चाहिए। उनके लघुनीत आदि को यतनापूर्वक भूमि पर परठना चाहिए। यथाशक्ति उनकी वैयावृत्य करनी चाहिए / उपाश्रय में उनके साथ रहना चाहिए। उपाश्रय के बाहर जावें तब उनके साथ जाना चाहिए / गणावच्छेदक उपाश्रय में रहें तब साथ रहना चाहिए और उपाश्रय से बाहर जाएं तो साथ जाना चाहिए। श्रमण-श्रमणियों को प्राचारांग आदि आगमों के ज्ञाता श्रमण-श्रमणियों के साथ रहन कल्पता है और बिना ज्ञाता के साथ रहने पर प्रायश्चित्त का भागी बनना पड़ता है। किसी विशेष कारण से अन्य गच्छ से निकलकर आने वाले श्रमण-श्रमणी यदि निर्दोष हैं, आचारनिष्ठ हैं, सबलदोष से रहित हैं, क्रोधादि से असंस्पृष्ट हैं, अपने दोषों की आलोचना कर शूद्धि करते हैं, तो उनके साथ समानता का व्यवहार करना कल्पता है, नहीं तो नहीं। [ 57 ] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवें उद्देशक में यह विधान है कि साधू स्त्री को अोर साध्वी पुरुष को दीक्षा न दे। यदि किसी ऐसे स्थान में किसी स्त्री को वैराग्य भावना जाग्रत हई हो जहां सन्निकट में साध्वी न हो तो वह इस शर्त पर दीक्षा देता है कि वह यथाशीघ्र किसी साध्वी को सुपुर्द कर देगा। इसी तरह साध्वी भी पुरुष को दीक्षा दे सकती है। जहां पर तस्कर, बदमाश या दुष्ट व्यक्तियों का प्राधान्य हो वहां श्रमणियों को विचरना नहीं कल्पता, क्योंकि वहां पर वस्त्रादि के अपहरण व व्रतभंग श्रादि का भय रहता है। श्रमणों के लिए कोई बाधा नहीं है। किसी श्रमण का किसी ऐसे श्रमण से वैर-विरोध हो गया है जो विकट दिशा (चोरादि का निवास हो ऐसा स्थान) में है तो वहाँ जाकर उससे क्षमायाचना करनी चाहिए, किन्तु स्वस्थान पर रहकर नहीं। किन्तु श्रमणी अपने स्थान से भी क्षमायाचना कर सकती है। साधु-साध्वियों को आचार्य, उपाध्याय के नियन्त्रण के बिना स्वच्छन्द रूप से परिभ्रमण करना नहीं कल्पता। आठवें उद्देशक में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि साधू एक हाथ से उठाने योग्य छोटे-मोटे शय्या संस्तारक, तीन दिन में जितना मार्ग तय कर सके उतनी दूर से लाना कल्पता है। किसी बद्ध निर्ग्रन्थ के लिए मावश्यकता पड़ने पर पांच दिन में जितना चल सके उतनी दूरी से लाना कल्पता है / स्थविर के लिए निम्न उपकरण कल्पनीय हैं—दण्ड, भाण्ड, छत्र, मात्रिका, लाष्ठिक (पीठ के पीछे रखने के लिए तकिया या पाटा), ध्यायादि के लिए बैठने का पाटा), चेल (वस्त्र), चेल-चिलिमिलिका (वस्त्र का पर्दा), चर्म, चर्मकोश (चमड़े की थैली), चर्म-पलिछ (लपेटने के लिए चमड़े का टुकड़ा)। इन उपकरणों में से जो साथ में रखने के योग्य न हों उन्हें उपाश्रय के समीप किसी गृहस्थ के यहां रखकर समय-समय पर उनका उपयोग किया जा सकता है। किसी स्थान पर अनेक श्रमण रहते हों, उनमें से कोई श्रमण किसी गृहस्थ के यहां पर कोई उपकरण भूल गया हो और अन्य श्रमण वहां पर गया हो तो गृहस्थ श्रमण से कहे कि यह उपकरण आपके समुदाय के संत का है तो संत उस उपकरण को लेकर स्वस्थान पर आये और जिसका उपकरण हो उसे दे दे। यदि वह उपकरण किसी संत का न हो तो न स्वयं उसका उपयोग करे और न दूसरों को उपयोग के लिए दे किन्तु निर्दोष स्थान पर उसका परित्याग कर दे। यदि श्रमण वहां से विहार कर गया हो तो उसकी अन्वेषणा कर स्वयं उसे उसके पास पहुंचावे / यदि उसका सही पता न लगे तो एकान्त स्थान पर प्रस्थापित कर दे। पाहार की चर्चा करते हुए बताया है कि आठ ग्रास का आहार करने वाला अल्प-याहारी, बारह ग्रास का आहार करने वाला अपार्धावमौदरिक, सोलह ग्रास का आहार करने वाला द्विभागप्राप्त, चौबीस ग्रास का आहार करने वाला प्राप्तावमौदरिक, बत्तीस ग्रास का आहार करने वाला प्रमाणोपेताहारी एवं बत्तीस ग्रास से एक ही ग्रास कम खाने वाला अवमौदरिक कहलाता है। नौवें उद्देशक में बताया है कि शय्यातर का आहारादि पर स्वामित्व हो या उसका कुछ अधिकार हो तो वह प्राहार श्रमण-श्रमणियों के लिए ग्राह्य नहीं है। इसमें भिक्षुप्रतिमानों का भी उल्लेख है जिसकी चर्चा हम दशाश्रुतस्कन्ध के वर्णन में कर चुके हैं। दसवें उहे शक में यवमध्यचन्द्र प्रतिमा या वनमध्यचन्द्रप्रतिमा का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि जो यव (जौ) के कण समान मध्य में मोटी ओर दोनों ओर पतली हो वह यवमध्यचन्द्रप्रतिमा है। जो वन के समान मध्य में पतली और दोनों और मोटी हो वह वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा है। यवमध्यचन्द्रप्रतिमा का धारक वमध्यचन्द्रप्रतिमा है। जो वन [ 58 ] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण एक मास पर्यन्त अपने शरीर के ममत्व को त्याग कर देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करता है और शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को एक दत्ति आहार की और एक दत्ति पानी की, द्वितीया को दो दत्ति आहार की और दो दत्ति पानी की ग्रहण करता है। इस प्रकार क्रमशः एक-एक दत्ति बढ़ाता हुआ पूर्णिमा को 15 दत्ति आहार की और 15 दत्ति पानी की ग्रहण करता है। कृष्णपक्ष में क्रमश: एक दत्ति कम करता जाता है और अमावस्या के दिन उपवास करता है। इसे यवमध्यचन्द्रप्रतिमा कहते हैं। वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा में कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को 15 दत्ति पाहार की और 15 दति पानी की ग्रहण की जाती है। उसे प्रतिदिन कम करते हुए यावत् अमावस्या को एक दत्ति प्राहार की और एक दत्ति पानी की ग्रहण की जाती है / शुक्लपक्ष में क्रमश: एक-एक दत्ति बढ़ाते हुए पूर्णिमा को उपवास किया जाता है / इस प्रकार 30 दिन की प्रत्येक प्रतिमा के प्रारम्भ के 29 दिन दत्ति के अनुसार पाहार और अन्तिम दिन उपवास किया जाता है। व्यवहार के आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीतव्यवहार, ये पांच प्रकार हैं। इनमें पागम का स्थान प्रथम है और फिर क्रमशः इनकी चर्चा विस्तार से भाष्य में है। स्थविर के जातिस्थविर, सूत्रस्थविर और प्रव्रज्यास्थविर, ये तीन भेद हैं। 60 वर्ष की आयु वाला श्रमण जातिस्थविर या वयःस्थविर कहलाता है। ठाणांग, समवायांग का ज्ञाता सूत्रस्थविर और दीक्षा धारण करने के 20 वर्ष पश्चात की दीक्षा वाले निर्ग्रन्थ प्रव्रज्यास्थविर कहलाते हैं। शैक्ष भूमियां तीन प्रकार की हैं-सप्त-रात्रिदिनी चातुर्मासिकी और षण्मासिकी। आठ वर्ष से कम उम्र वाले बालक-बालिकाओं को दीक्षा देना नहीं कल्पता। जिनकी उम्र लघु है वे प्राचारांगसूत्र के पढ़ने के अधिकारी नहीं हैं। कम से कम तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाले साधु को आचारांग पढ़ाना कल्प्य है / चार वर्ष की दीक्षापर्याय वाले को सूत्रकृतांग, पाँच वर्ष की दीक्षापर्याय वाले को दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प (बृहत्कल्प) और व्यवहार, आठ वर्ष की दीक्षा वाले को स्थानांग और समवायांग, दस वर्ष की दीक्षा वाले को व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती), ग्यारह वर्ष की दीक्षा वाले को लघुविमान-प्रविभक्ति, महाविमानप्रविभक्ति, अंगचूलिका, बंगलिका और विवाह-चूलिका, बारह वर्ष की दीक्षा वाले को अणोरुपपातिक, गरुलोपपातिक, धरणोपपातिक, वैश्रमणोपपातिक और वैलंधरोपपातिक, तेरह वर्ष की दीक्षा वाले को उपस्थानश्रुत, देवेन्द्रोपपात और नागपरियापनिका (नागपरियावणिग्रा), चौदह वर्ष की दीक्षा वाले को स्वप्नभावना, पन्द्रह वर्ष की दीक्षा वाले को चारणभावना, सोलह यर्ष की दीक्षा वाले को वेदनीशतक, सत्रह वर्ष की दीक्षा वाले को पाशीविषभावना, अठारह वर्ष की दीक्षा वाले को दृष्टिविधभावना, उन्नीस वर्ष की दीक्षा वाले वाले को दृष्टिवाद और बीस वर्ष की दीक्षा वाले को सब प्रकार के शास्त्र पढ़ाना कल्प्य है। वैयावृत्य (सेवा) दस प्रकार की कही गई है--१. आचार्य की वैयावृत्य, 2. उपाध्याय की वैयावृत्य, उसी प्रकार, 3. स्थविर की, 4. तपस्वी की, 5. शैक्ष-छात्र की, 6. ग्लान-रुग्ण की, 7. सामिक की, 8. कल की. 9. गण की और 10. संघ की वैयावृत्य / उपर्युक्त दस प्रकार की वयावृत्य से महानिर्जरा होती है। उपसंहार इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र की अनेक विशेषताएं हैं। इसमें स्वाध्याय पर विशेष रूप से बल दिया गया है। [ 59 ] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ ही अयोग्यकाल में स्वाध्याय करने का निषेध किया गया है। अनध्यायकाल की विवेचना की गई है। श्रमणश्रमणियों के बीच अध्ययन की सीमाएं निर्धारित की गई हैं। आहार का कवलाहारी, अल्पाहारी और ऊनोदरी का वर्णन है / प्राचार्य, उपाध्याय के लिए बिहार के नियम प्रतिपादित किये गये हैं। आलोचना और प्रायश्चित्त की विधियों का इसमें विस्तृत विवेचन है / साध्वियों के निवास, अध्ययन, वैयावत्य तथा संघ-व्यवस्था के नियमोपनियम का विवेचन है। इसके रचयिता श्रुतकेवली भद्रबाह माने जाते हैं। व्याख्यासाहित्य आगम साहित्य के गुरु गम्भीर रहस्यों के उद्घाटन के लिये विविधव्याख्यासाहित्य का निर्माण हया है ! उस विराट आगम व्याख्यासाहित्य को हम पांच भागों में विभक्त कर सकते हैं (1) नियुक्तियां (निज्जुत्ति)। (2) भाष्य (भास) / (3) चूणियां (चुण्णि)। (4) संस्कृत टीकाएं। (5) लोकभाषा में लिखित व्याख्यासाहित्य / सर्वप्रथम प्राकृत भाषा में जो पद्यबद्ध टीकाएं लिखी गई वे नियुक्तियों के नाम से विश्रुत हैं। नियुक्तियों में मूल ग्रन्थ के प्रत्येक पद पर व्याख्या न कर मुख्य रूप से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की गई है / उसकी शैली निक्षेपपद्धति की है। जो न्यायशास्त्र में अत्यधित प्रिय रही। निक्षेपपद्धति में किसी एक पद के सम्भावित अनेक अर्थ करने के पश्चात् उनमें से अप्रस्तुत अर्थों का निषेध कर प्रस्तुत अर्थ ग्रहण किया जाता है। सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् शारपेण्टियर ने नियुक्ति की परिभाषा इस प्रकार की है--"नियुक्तियाँ अपने प्रधान भाग के केवल इण्डेक्स का काम करती हैं / वे सभी विस्तार युक्त घटनावलियों का संक्षेप में उल्लेख करती हैं।" नियुक्तिकार भद्रबाह माने जाते हैं। वे कौन थे इस सम्बन्ध में हमने अन्य प्रस्तावनाओं में विस्तार से लिखा है / भद्रबाहु की दस नियुक्तियां प्राप्त हैं / उसमें दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति भी एक है। दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति प्रथम श्रतकेवली भद्रबाह को नमस्कार किया गया है फिर दश अध्ययनों के अधिकारों का वर्णन है। प्रथम असमाधिस्थान में द्रव्य और भाव समाधि के सम्बन्ध में चिन्तन कर स्थान के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, श्रद्धा, ऊर्ध्व, चर्या, वसति, संयम, प्रग्रह, योध, अचल, गणन, संस्थान (संघाण) और भाव इन पन्द्रह निक्षेपों का वर्णन है। द्वितीय अध्ययन में शबल का नाम आदि चार निक्षेप से विचार किया है। तृतीय अध्ययन में आशातना का विश्लेषण है। चतुर्थ अध्ययन में "गणि" और "सम्पदा" पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन करते हुए कहा गया है कि गणि और गुणी ये दोनों एकार्थक हैं। प्राचार ही प्रथम गणिस्थान है। सम्पदा के द्रव्य और भाव ये दो भेद हैं / शरीर द्रव्यसम्पदा है और आचार भावसम्पदा है। पंचम अध्ययन में चित्तसमाधि का निक्षेप की दष्टि से विचार किया गया है। समाधि के चार प्रकार हैं। जब चित्त राग-द्वेष से मुक्त होता है, प्रशस्तध्यान में तल्लीन होता है तब भावसमाधि होती है। षष्ठ अध्ययन में उपासक और प्रतिमा पर निक्षेप दष्टि से चिन्तन किया गया है। उपासक के द्रव्योपासक, तदर्थोपासक, मोहोपासक और भावोपासक ये चार प्रकार है। भावोपासक वही हो सकता है जिसका जीवन सम्यग्दर्शन के आलोक से जगमगा रहा हो। यहां पर श्रमणोपासक की एकादश [60 ] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमानों का निरूपण है। सप्तम अध्ययन में श्रमणप्रतिमाओं पर चिन्तन करते हुए भावभ्रमणप्रतिमा के समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा, विवेकप्रतिमा, प्रतिसंलीनप्रतिमा और विवेकप्रतिमा ये पाँच प्रकार बताये हैं। अष्टम अध्ययन में पर्युषणाकल्प पर चिन्तन कर परिवसना, पर्युषणा, पयु पशमना, वर्षावास, प्रथम-समवसरण, स्थापना और ज्येष्ठ ग्रह को पर्यायवाची बताया है। श्रमण वर्षावास में एक स्थान पर स्थित रहता है और पाठ माह तक वह परिभ्रमण करता है। नवम अध्ययन में मोहनीयस्थान पर विचार कर उसके पाप, बर्य, वैर, पंक, पनक, क्षोभ, असात, संग, शल्य, अतर, निरति, धर्त्य ये मोह के पर्यायवाची बताए गये हैं। दशम अध्ययन में जन्ममरण के मूल कारणों पर चिन्तन कर उससे मुक्त होने का उपाय बताया गया है। नियुक्तिसाहित्य के पश्चात् भाष्यसाहित्य का निर्माण हुआ, किन्तु दशाश्रुतस्कन्ध पर कोई भी भाष्य नहीं लिखा गया। भाष्यसाहित्य के पश्चात् चूर्णिसाहित्य का निर्माण हुआ। यह गद्यात्मक व्याख्यासाहित्य है / इसमें शुद्ध प्राकृत और संस्कृत मिश्रित प्राकृत में व्याख्या लिखी गई है। चूर्णिकार जिनदासगणि महत्तर का नाम चुणिसाहित्य में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि का मूल आधार दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति है। इस चूणि में प्रथम मंगलाचरण किया गया है। उसके पश्चात् दस अध्ययनों के अधिकारों का विवेचन किया गया है। जो सरल और सुगम है। मूलपाठ में और चूर्णिसम्मत पाठ में कुछ अन्तर है। यह चणि मुख्य रूप से प्राकृत भाषा में है। यत्र-तत्र संस्कृत शब्दों व वाक्यों के प्रयोग भी दिखाई देते हैं / चूणि के पश्चात् संस्कृत टीकाओं का युग आया। उस युग में अनेक आगमों पर संस्कृत भाषा में टीकाएं लिखी गई / ब्रह्ममुनि (ब्रह्मर्षि) ने दशाश्रुतस्कन्ध पर एक टीका लिखी है तथा प्राचार्य घासीलालजी म. ने दशाश्रुतस्कन्ध पर संस्कृत में व्याख्या लिखी और आचार्य सम्राट आत्मारामजी म. ने दशाश्रतस्कन्ध पर हिन्दी में टीका लिखी। और आचार्य अमोलकऋषिजी म. ने सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद लिखा। मणिविजयजी गणि ग्रन्थमाला भावनगर से दशाश्रुतस्कन्ध मूल नियुक्ति चूणि सहित वि. सं. 2011 में प्रकाशित हुआ। सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद हैदराबाद से वीर सं. 2445 को अमोलकऋषिजी कृत हिन्दी अनुवाद दशाश्रुतस्कन्ध का प्रकाशित हुप्रा / जैन शास्त्रमाला कार्यालय सैदमिट्ठा बाजार लाहौर से प्राचार्य प्रात्मारामजी म. कृत सन् 1936 में हिन्दी टीका प्रकाशित हुई। संस्कृत व्याख्या व हिन्दी अनुवाद के साथ जैन शास्त्रोद्धार समिति राजकोट से सन् 1960 में घासीलालजी म. का दशाश्रुतस्कन्ध प्रकाशित हुआ। आगम अनुयोग प्रकाशन साण्डेराव से प्रायार-दशा के नाम से मूलस्पर्शी अनुवाद सन 1981 में प्रकाशित हमा / यत्र-तत्र उसमें विशेषार्थ भी दिया गया है। प्रस्तुत सम्पादन-प्रागम साहित्य के मर्मज्ञ महामनीषी मुनि श्री कन्हैयालालजी म. "कमल" ने किया है। यह सम्पादन सुन्दर ही नहीं, अति सुन्दर है। आगम के रहस्य का तथा श्रमणाचार के विविध उलझे हुए प्रश्नों का उन्होंने प्राचीन व्याख्या साहित्य के प्राधार से तटस्थ चिन्तनपरक समाधान प्रस्तुत किया है। स्वल्प शब्दों में [ 61 ] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय को स्पष्ट करना सम्पादक मुनिजी की विशेषता है। इस सम्पादन में उनका गम्भीर पाण्डित्य यत्र-तत्र मुखरित हुआ है। बृहत्कल्प का व्याख्यासाहित्य बृहत्कल्पनियुक्ति–दशाश्रुतस्कन्ध की तरह बृहत्कल्पनियुक्ति लिखी गई है। उसमें सर्वप्रथम तीर्थंकरों को नमस्कार कर ज्ञान के विविध भेदों पर चिन्तन कर इस बात पर प्रकाश डाला है कि ज्ञान और मंगल में कथंचित् अभेद है / अनुयोग पर नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, वचन और भाव इन सात निक्षेपों से चिन्तन किया है / जो पश्चाद्भूत योग है वह अनुयोग है अथवा जो स्तोक रूप योग है वह अनूयोग है। कल्प के उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय ये चार अनुयोगद्वार हैं / कल्प और व्यवहार का अध्ययन चिन्तन करने वाला मेधावी सन्त बहुश्रुत, चिरप्रवजित, कल्पिक, अचंचल, अवस्थित, अपरिश्रावी, विज्ञ प्राप्तानुज्ञात और भावपरिणामक होता है। इसमें ताल-प्रलम्ब का विस्तार से वर्णन है, और उसके ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त का भी विधान है। ग्राम, नगर, खेड़, कर्बटक, मडम्ब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, पाश्रम, निवेश, संबाध, घोष, अंशिका, आदि पदों पर भी निक्षेपदृष्टि से चिन्तन किया है। जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक पर भी प्रकाश डाला है। आर्य पद पर विचार करते हुए नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, जाति, कुल, कर्म, भाषा, शिल्प, ज्ञान, दर्शन, चारित्र इन बारह निक्षेपों से चिन्तन किया है। पार्यक्षेत्र में विचरण करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की अभिवद्धि होती है। अनार्य क्षेत्रों में विचरण करने से अनेक दोषों के लगने की सम्भावना रहती है। स्कन्दकाचार्य के दृष्टान्त को देकर इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है। साथ ही ज्ञान-दर्शन-चारित्र की वृद्धि हेतु अनार्य क्षेत्र में विचरण करने का आदेश दिया है और उसके लिए राजा सम्प्रति का दृष्टान्त भी दिया गया है / श्रमण और श्रमणियों के प्राचार, विचार, आहार, विहार का संक्षेप में बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है। सर्वत्र निक्षेपपद्धति से व्याख्यान किया गया है। यह नियुक्ति स्वतन्त्र न रहकर बृहत्कल्पभाष्य में मिश्रित हो गई है। बृहत्कल्प-लधुभाष्य-बृहत्कल्प लधुभाष्य संघदासगणी की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कृति है। इसमें बृहत्कल्पसूत्र के पदों का विस्तार के साथ विवेचन किया गया है। लघभाष्य होने पर भी इसकी गाथा संख्या 6490 है। यह छह उद्देश्यों में विभक्त है। भाष्य के प्रारम्भ में एक सविस्तृत पीठिका दी गई है। जिसकी गाथा संख्या 805 है। इस भाष्य में भारत की महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक सामग्री का संकलन-आकलन हुआ है। इस सांस्कृतिक सामग्री के कुछ अंश को लेकर डॉ. मोतीचन्द ने अपनी पुस्तक "सार्थवाह" में "यात्री और सार्थवाह" का सुन्दर प्राकलन किया है। प्राचीन भारतीय संस्कृतिक और सभ्यता का अध्ययन करने के लिए इसकी सामग्री विशेष उपयोगी है। जैन श्रमणों के आचार का हृदयग्राही, सूक्ष्म, तार्किक विवेचन इस भाष्य की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। पीठिका में मंगलवाद, ज्ञानपंचक में श्रुतज्ञान के प्रसंग पर विचार करते हुए सम्यक्त्वप्राप्ति का क्रम और प्रौपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक सम्यक्त्व के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है / अनुयोग का स्वरूप बताकर निक्षेप आदि बारह प्रकार के द्वारों से उस पर चिन्तन किया है। कल्पव्यवहार पर विविध दष्टियों से चिन्तन करते हुए यत्र-तत्र विषय को स्पष्ट करने के लिए दृष्टान्तों का भी उपयोग हुआ है। पहले उद्देशक की व्याख्या में ताल-वृक्ष से सम्बन्धित विविध प्रकार के दोष और प्रायश्चित्त, ताल-प्रलम्ब के ग्रहण सम्बन्धी अपवाद, श्रमण-श्रमणियों को देशान्तर जाने के कारण और उसकी विधि, श्रमणों की अस्वस्थता के विधि-विधान, वैषों के पाठ प्रकार बताये हैं। दुष्काल प्रभृति विशेष परिस्थिति में श्रमण-श्रमणियों के एक दूसरे [ 62 ] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अवगहीत क्षेत्र में रहने की विधि, उसके 144 भंग और तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त आदि का वर्णन है। ग्राम, नगर, खेड, कर्बटक, मडम्ब, पत्तन, प्राकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, संबाध, अंशिका, पुटभेदन, शंकर प्रभृति पदों पर वियेचन किया है। नक्षत्रमास, चन्द्रमास, ऋतुमास, आदित्यमास और अभिवधितमास का वर्णन है। जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक की क्रियाएं, समवसरण, तीर्थकर, गणधर, आहारकशरीरी, अनुत्तरदेव, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि की शुभ और अशुभ कर्मप्रकृतियां, तीर्थकर की भाषा का विभिन्न भाषाओं में परिणमन, आफ्णगृह, रथ्यामुख, शृङ्गाटक, चतुष्क, चत्वर, अन्तराफ्ण आदि पदों पर प्रकाश डाला गया है और उन स्थानों पर बने हुए उपाश्रयों में रहने वाली श्रमणियों को जिन दोषों के लगने की सम्भावना है उनकी चर्चा की गई है। भाष्यकार ने द्रव्य ग्राम के बारह प्रकार बताये है (1) उत्तानकमल्लक, (2) अवाङ मुखमल्लक, (3) सम्पुटमल्लक, (4) उत्तानकखण्डमल्लक, (5) अवाङ मुखखण्डमल्लक, (6) सम्पुटखण्डमल्लक, (7) भिति, (8) पडालि, (9) वलाभि, (10) अक्षाटक, (11) रुचक, (12) काश्यपक। तीर्थकर, गणधर और केवली के समय ही जिनकल्पिक मुनि होते हैं। जिनकल्पिक मुनि की समाचारी का वर्णन सत्ताईस द्वारों से किया है- (1) श्रुत, (2) संहनन, (3) उपसर्ग, (4) आतंक, (5) वेदना, (6) कतिजन, (7) स्थंडिल, (8) वसति, (9) कियाच्चिर, (10) उच्चार, (11) प्रस्रवण, (12) अवकाश, (13) तृणफलक, (14) संरक्षणता, (15) संस्थापनता, (16) प्राभृतिका, (17) प्राग्नि, (18) दीप, (19) अवधान, (20) वत्स्यक्ष, (21) भिक्षाचर्या, (22) पानक, (23) लेपालेप, (24) लेप, (25) प्राचाम्ल (26) प्रतिमा, (27) मासकल्प / जिनकल्पिक की स्थिति पर चिन्तन करते हए क्षेत्र, काल, चारित्र, तीर्थ, पर्याय, आगम, वेद, कल्प, लिंग, लेश्या, ध्यान, गणना, अभिग्रह, प्रव्राजना, मुण्डापना, प्रायश्चित्त, कारण, निष्प्रतिकर्म और भक्त इन द्वारों से प्रकाश डाला है। इसके पश्चात् परिहारविशुद्धिक और यथालन्दिक कल्प का स्वरूप बताया है। स्थविरकल्पिक की प्रव्रज्या, शिक्षा, अर्थग्रहण, अनियतवास और निष्पत्ति ये सभी जिनकल्पिक के समान हैं। श्रमणों के विहार पर प्रकाश डालते हए विहार का समय, विहार करने से पहले गच्छ के निवास एवं निर्वाह योग्य या अयोग्य क्षेत्र, प्रत्युपेक्षकों का निर्वाचन, क्षेत्र की प्रतिलेखना के लिए किस प्रकार गमनागमन करना चाहिए, विहार मार्ग एवं स्थंडिल भूमि, जल, विश्रामस्थान, भिक्षा, वसति, उपद्रव आदि की परीक्षा, प्रतिलेखनीय क्षेत्र में प्रवेश करने की विधि, भिक्षा से वहाँ के मानवों के अन्तर्मानस की परीक्षा, भिक्षा, औषध आदि की प्राप्ति में सरलता व कठिनता का परिज्ञान, विहार करने से पूर्व वसति के अधिपति की अनुमति, विहार करने से पूर्व शुभ शकून देखना आदि का वर्णन है। स्थविरकल्पिकों की समाचारी में इन बातों पर प्रकाश डाला है१. प्रतिलेखना-वस्त्र आदि की प्रतिलेखना का समय, प्रतिलेखना के दोष और उनका प्रायश्चित / 2. निष्क्रमण- उपाश्रय से बाहर निकलने का समय / 3. प्राभृतिका- गृहस्थ के लिए जो मकान तैयार किया है, उसमें रहना चाहिए या नहीं रहना चाहिए। तत्सम्बन्धी विधि व प्रायश्चित्त / [63 ] Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. भिक्षा-भिक्षा के लेने का समय और भिक्षा सम्बन्धी प्रावश्यक वस्तुएं / 5. कल्पकरण-पात्र को स्वच्छ करने की विधि, लेपकृत और अलेपकृत पात्र, पात्र-लेप से लाभ / 6. गच्छशतिकादि-आधार्मिक, स्वगृहयतिमिश्र, स्वगृहपाषण्डमिश्र, यावदाथिकमिश्र, क्रीतकृत, पूतिकार्मिक और प्रात्मार्थकृत तथा उनके अवान्तर भेद / 7. अनुयान रथयात्रा का वर्णन और उस सम्बन्धी दोष / 8. पुर:कर्म-भिक्षा लेने से पूर्व सचित्त जल से हाथ आदि साफ करने से लगने वाले दोष / 9. ग्लान-ग्लान-रुग्ण श्रमण की सेवा से होने वाली निर्जरा, उसके लिए पथ्य की गवेषणा, चिकित्सा के लिए बैद्य के पास ले जाने की विधि, वैद्य से वार्तालाप करने का तरीका, रुग्ण श्रमण को उपाश्रय, गली आदि में छोड़कर चले जाने वाले प्राचार्य को लगने वाले दोष और उनके प्रायश्चित्त का विधान / 10. गच्छप्रतिबद्ध यथालंदिक-वाचना आदि कारणों से गच्छ से सम्बन्ध रखने वाले यथालदिक कल्पधारियों के साथ वन्दन आदि व्यवहार तथा मासकल्प की मर्यादा / 11. उपरिदोष-वर्षाऋतु के अतिरिक्त समय में एक क्षेत्र में एक मास से अधिक रहने से लगने वाले दोष / 12. अपवाद-एक क्षेत्र में एक मास से अधिक रहने के प्रापवादिक कारण, श्रमण-श्रमणियों की भिक्षाचर्या की विधि पर भी प्रकाश डाला है। साथ ही यह भी बताया है कि यदि ग्राम, नगर आदि दुर्ग के अन्दर और बाहर दो भागों में विभक्त हो तो अन्दर और बाहर श्रमणियों के प्राचारसम्बन्धी विधि-विधानों पर प्रकाश डालते हए बताया है कि निर्ग्रन्थी के मासकल्प की मर्यादा, विहार-विधि, समुदाय का प्रमुख और उसके गुण, उसके द्वारा क्षेत्र की प्रतिलेखना, बौद्ध श्रावकों द्वारा भड़ौच में श्रमणियों का अपहरण, श्रमणियों के योग्य क्षेत्र, वसति, विधर्मी से उपद्रव की रक्षा, भिक्षाहेतु जाने वाली श्रमणियों की संख्या, वर्षावास के अतिरिक्त श्रमणी को एक स्थान पर अधिक से अधिक कितना रहना, उसका विधान हैं। स्थविरकल्प और जिनकल्प इन दोनों अवस्थाओं में कौनसी अवस्था प्रमुख है, इस पर चिन्तन करते हुए भाष्यकार ने निष्पादक और निष्पन्न इन दोनों दृष्टियों से दोनों की प्रमुखता स्वीकार की है। सूत्र अर्थ आदि दृष्टियों से स्थविरकल्प जिनकल्प का निष्पादक है। जिनकल्प ज्ञान-दर्शन-चारित्र प्रभृति दृष्टियों से निष्पन्न है। विषय को स्पष्ट करने की दृष्टि से गुहासिंह, दो महिलाएं और दो वर्गों के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। ___एक प्राचौर और एक द्वार वाले ग्राम-नगर आदि में निर्गन्ध-निर्ग्रन्थियों को नहीं रहना चाहिए, इस सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन किया है। श्रमण-श्रमणियों को किस स्थान में रहना चाहिए, इस पर विविध दृष्टियों से चिन्तन किया गया है। व्यवशमन प्रकृत सूत्र में इस बात पर चिन्तन किया है कि श्रमणों में परस्पर वैमनस्य हो जाये तो उपशमन धारण करके क्लेश को शान्त करना चाहिए। जो उपशमन धारण करता है वह पाराधक है, जो नहीं करता है वह विराधक है। प्राचार्य को श्रमण-श्रमणियों में क्लेश होने पर उसकी उपशान्ति हेतु उपेक्षा करने पर प्रायश्चित्त का विधान है। परस्पर के झगड़े को शान्त करने की विधि प्रतिपादित की गई है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार प्रकृत सूत्र में बताया है कि श्रमण-श्रमणियों को वर्षाऋतु में एक गांव से दूसरे गांव नहीं जाना चाहिए। यदि ममन करता है तो उसे प्रायश्चित्त पाता है। यदि आपवादिक कारणों से विहार करने का प्रसंग उपस्थित हो तो उसे यतना से गमन करना चाहिए। अवग्रहसूत्र में बताया है कि भिक्षा या शौचादि भूमि के लिए जाते हुए श्रमण को गृहपति वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि ग्रहण करने की प्रार्थना करे तो उसे लेकर प्राचार्य आदि को प्रदान करे और उनकी आज्ञा प्राप्त होने पर उसका उपयोग करे। रात्रिभक्त प्रकृत सूत्र में बताया है कि रात्रि या विकाल में प्रशन पान आदि ग्रहण करना नहीं चाहिए और न वस्त्र आदि को ग्रहण करना चाहिए। रात्रि और विकाल में अध्वगमन का भी निषेध किया गया है / अध्व के दो भेद हैं—पन्थ और मार्ग / जिसके बीच में ग्राम, नगर आदि कुछ भी न पाए वह पन्थ है और जिसके बीच ग्राम नगर आये वह मार्ग है। सार्थ के भंडी, बहिलक, भारवह, प्रौदरिक, कार्पटिक ये पांच प्रकार हैं। आठ प्रकार के सार्थवाह और पाठ प्रकार के सार्थ-व्यवस्थापकों का उल्लेख है। विहार के लिए आर्यक्षेत्र ही विशेष रूप से उपयुक्त है। आर्य पद पर नाम आदि बारह निक्षेपों से विचार किया है / आर्य जातियां अम्बष्ठ, कलिन्द, वैदेह, विदक, हरित, तन्तुण ये छह हैं और आर्य कुल भी उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय, ज्ञात-कौरव और इक्ष्वाकु यह छह प्रकार के हैं। आगे उपाश्रय सम्बन्धी विवेचन में उपाश्रय के व्याघातों पर विस्तार से प्रकाश डाला है। जिसमें शालि ब्रीहि आदि सचित्त धान्य कण बिखरे हुए हों उस बीजाकीर्ण स्थान पर श्रमण को नहीं रहना चाहिए और न सुराविकट कुम्भ, शीतोदकविकटकुम्भ, ज्योति, दीपक, पिण्ड, दुग्ध, दही, नवनीत आदि पदार्थों से युक्त स्थान पर ही रहना चाहिए। सागारिक के पाहारदि के त्याग की विधि, अन्य स्थान से आई हुई भोजनसामग्री के दान की विधि, सामारिक का पिण्डग्रहण, विशिष्ट व्यक्तियों के निमित्त बनाये हुए भक्त, उपकरण आदि का ग्रहण, रजोहरण ग्रहण करने की विधि बताई है। पांच प्रकार के वस्त्र-(१) जांगिक, (2) भांगिक, (3) सानक, (4) पोतक, (5) तिरीटपट्टक, पांच प्रकार के रजोहरण-(१) औणिक, (2) प्रौष्ट्रिक, (3) सानक, (4) वक्चकचिप्पक, (5) मुजचिप्पक-इनके स्वरूप और ग्रहण करने की विधि बताई गई है। तृतीय उद्देशक में निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के परस्पर उपाश्रय में प्रवेश करने की विधि बताई है। कृत्स्न और अकृत्स्न, भिन्न और अभिन्न वस्त्रादि ग्रहण, नवदीक्षित श्रमण-श्रमणियों की उपधि पर चिन्तन किया है। उपधिग्रहण की विधि, वन्दन आदि का विधान किया है। वस्त्र फाड़ने में होने वाली हिंसा-अहिंसा पर चिन्तन करते हुए द्रव्याहिंसा और भावहिंसा पर विचार किया है। हिंसा में जितनी अधिक राग आदि की तीव्रता होगी उतना ही तीव्र कर्मबन्धन होगा। हिंसक में ज्ञान और अज्ञान के कारण कर्मबंध, अधिकरण की विविधता से कर्मबंध में वैविध्य आदि पर चिन्तन किया गया है। चतुर्थ उद्देशक में हस्तकर्म आदि के प्रायश्चित्त का विधान है। मथुनभाव रागादि से कभी भी रहित नहीं हो सकता। अत: उसका अपवाद नहीं है / पण्डक आदि को प्रव्रज्या देने का निषेध किया है। पंचम उद्देशक में गच्छ सम्बन्धी, शास्त्र स्मरण और तविषयक व्याघात, क्लेशयुक्त मन से गच्छ में रहने से अथवा स्वगच्छ का परित्याग कर अन्य गच्छ में चले जाने से लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त, निःशंक और सशंक रात्रिभोजन, उद्गार-वमन ग्रादि विषयक दोष और उसका प्रायश्चित्त, पाहार आदि के लिए प्रयत्न आदि पर प्रकाश डाला गया है। श्रमणियों के लिए विशेष रूप से विधि-विधान बताये गये हैं। षष्ठ उद्देशक में निर्दोष वचनों का प्रयोग और मिथ्या वचनों का अप्रयोग, प्राणातिपात आदि के प्रायश्चित्त, कण्टक के उद्धरण, विपर्यासजन्य दोष, प्रायश्चित्त अपवाद का वर्णन है। श्रमण-श्रमणियों को विषम [65 ] Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्ग से नहीं जाना चाहिए। जो निर्ग्रन्थी विक्षिप्तचित्त हो गई है उसके कारणों को समझकर उसके देख-रेख की व्यवस्था और चिकित्सा ग्रादि के विधि-निषेधों का विवेचन किया गया है / श्रमणों के लिए छह प्रकार के परिमन्यु व्याधात माने गये हैं—(१) कौत्कुचित (2) मौखरिक (3) चक्षुलोल (4) तितिणिक (5) इच्छालोम (6) भिज्जानिदानकरण-इनका स्वरूप, दोष और अपवाद आदि पर चिन्तन किया है। ___ कल्पस्थिति प्रकृत में छह प्रकार की कल्पस्थितियों पर विचार किया है-(१) सामायिककल्पस्थिति, (2) छेदोपस्थानीयकल्पस्थिति, (3) निविशमानकल्पस्थिति, (4) निविष्टकायिककल्पस्थिति, (5) जिनकल्पस्थिति, (6) स्थविरकल्पस्थिति | छेदोपस्थापनीयकल्पस्थिति के आचेलक्य, प्रौद्देशिक प्रादि दस कल्प हैं। उसके अधिकारी और अनधिकारी पर भी चिन्तन किया गया है। प्रस्तुत भाष्य में यत्र-तत्र सुभाषित बिखरे पड़े हैं, यथा--हे मानवो ! सदा-सर्वदा जाग्रत रहो, जाग्रत मानव की बुद्धि का विकास होता है, जो जागता है वह सदा धन्य है। "जागरह नरा णिचं, जागरमाणस्स बढ़ते बुद्धि / सो सुवति // सो धणं, जो जग्गति सो सया धण्णो // शील और लज्जा ही नारी का भूषण है। हार आदि प्राभूषणों से नारी का शरीर विभूषित नहीं हो सकता। उसका भूषण तो शील और लज्जा ही है। सभा में संस्कार रहित असाधूवादिनी वाणी प्रशस्त नहीं कही जा सकती। इस प्रकार प्रस्तुत भाष्य में श्रमणों के प्राचार-विचार का तार्किक दृष्टि से बहुत ही सूक्ष्म विवेचन किया गया है। उस युग की सामाजिक सांस्कृतिक धार्मिक राजनीतिक स्थितियों पर भी खासा अच्छा प्रकाश पड़ता है। अनेक स्थलों पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सुन्दर विश्लेषण हुआ है। जैन साहित्य के इतिहास में ही नहीं, अपितु भारतीय साहित्य में इस' ग्रन्थरत्न का अपूर्व और अनूठा स्थान है। बृहत्कल्पचूणि इस चूणि का प्राधार मूलसूत्र व लघुभाष्य है / दशाश्रुतस्कन्धचूणि का और बृहत्कल्पचूर्णि का प्रारम्भिक अंश प्रायः मिलता-जुलता है। भाषाविज्ञों का मन्तव्य है कि बृहत्कल्पचणि से दशाश्रु तस्कन्धणि प्राचीन है। यह सम्भव है कि ये दोनों ही चणियां एक ही आचार्य की हों। प्रस्तुतः चूणि में पीठिका और छह उद्देशक है / प्रारम्भ में ज्ञान के स्वरूप पर चिन्तन किया गया है / अभिधान और अभिधेय को कथंचित भिन्न और कथंचित् अभिन्न बताते हुए वक्ष शब्द के छह भाषाओं में पर्याय दिये हैं। जिसे संस्कृत में वृक्ष कहते हैं वही प्राकृत में रुक्क्ष, मगध में प्रोदण, लाट में कर, दमिल-तमिल में चोर और आन्ध्र में इडाकु कहा जाता है। चणि में तत्त्वार्थाधिगम, विशेषावश्यकभाष्य, कर्मप्रकृति, महाकल्प, गोविन्दनियंक्ति आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है। भाषा संस्कृतमिश्रित प्राकृत है। चणि में प्रारम्भ से अन्त तक लेखक के नाम का निर्देश नहीं हुआ है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कल्पपीठिकावृत्ति प्रस्तुत वृत्ति भद्रबाहु स्वामी विरचित बृहत्कल्पनियुक्ति एवं संघदासगणी बिरचित लघुभाष्य पर है। आचार्य मलयगिरि पीठिका की भाष्य गाथा 606 पर्यन्त ही अपनी वृत्ति लिख सके। आगे उन्होंने वृत्ति नहीं लिखी है। आगे की वृत्ति प्राचार्य क्षेमकीर्ति ने पूर्ण की है। जैसा कि स्वयं क्षेमकीर्ति ने भी स्वीकार किया है।' वृत्ति के प्रारम्भ में वृत्तिकार ने जिनेश्वर देव को प्रणाम कर सद्गुरुदेव का स्मरण किया है तथा भाष्यकार और चूर्णिकार के प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त की है। वृत्तिकार ने बृहत्कल्प एवं व्यवहारसूत्र के निर्माताओं के सम्बन्ध में लिखा है कि चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाह स्वामी ने श्रमणों के अनुग्रहार्थ कल्प और व्यवहार की रचना की जिससे कि प्रायश्चित्त का व्यवच्छेद न हो / उन्होंने सूत्र के गम्भीर रहस्यों को स्पष्ट करने के लिये नियुक्ति की ही रचना की है और जिनमें प्रतिभा की तेजस्विता का अभाव है उन अल्पबुद्धि वाले व्यक्तियों के लिए भाष्यकार ने भाष्य का निर्माण किया है। वह नियुक्ति और भाष्य सूत्र के अर्थ को प्रकट करने वाले होने से दोनों एक ग्रन्थ रूप हो गये। वत्ति में प्राकृत गाथाओं का उद्धरण के रूप में प्रयोग हआ है और विषय को सुबोध बनाने की दृष्टि से प्राकृत कथाएँ उद्धृत की गई हैं। प्रस्तुत मलयमिरि वृत्ति का ग्रन्थमान 4600 श्लोक प्रमाण है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचार्य मलयगिरि शास्त्रों के गम्भीर ज्ञाता थे। विभिन्न दर्शनशास्त्रों का जैसा और जितना गम्भीर विवेचन एवं विश्लेषण उनकी टीकाओं में उपलब्ध है, वैसा अन्यत्र कहीं पर भी उपलब्ध नहीं है / वे अपने युग के महान् तत्त्वचिन्तक, प्रसिद्ध टीकाकार और महान् व्याख्याता थे। आगमों के गुरुगम्भीर रहस्यों को तर्कपूर्ण शैली में प्रस्तुत करने की उनकी क्षमता अद्भुत थी, अनूठी थी। सौभाग्यसागर ने बृहत्कल्प पर संस्कृत भाषा में एक टीका लिखी। बृहत्कल्पनियुक्ति, लघुभाष्य तथा मलयगिरि, क्षेमकीर्ति कृत टीका सहित सन् 1933 से 1941 तक श्री जैन प्रात्मानन्द सभा भावनगर सौराष्ट्र से प्रकाशित हुई। प्रस्तुत ग्रन्थ का सम्पादन चतुरविजयजी और पुण्यविजयजी ने किया। सम्पादन कला की दृष्टि से यह सम्पादन उत्कृष्ट कहा जा सकता है। वृहत्कल्प एक अज्ञात टीकाकार की टीका सहित सम्यकज्ञान प्रचारक मण्डल जोधपुर से प्रकाशित हा। सन 1923 में जर्मन टिप्पणी आदि के साथ W. Schubring Lepizig 1905 : मूल मात्र नागरीलिपि में-पूना, 1923 / सन् 1915 में डॉ. जीवराज घेलाभाई दोशी ने गुजराती अनुवाद सहित अहमदाबाद से प्रकाशित किया, और आचार्य अमोलकऋषिजी म. ने हिन्दी अनुवाद सहित सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद जौहरी हैदराबाद से प्रकाशित किया। ई. सन् 1977 में आगम अनुयोग प्रकाशन साण्डेराव से "कप्पसुत्तं" के नाम से मूलानुस्पर्शी अनुवाद और विशेष अर्थ के साथ प्रकाशित हुआ। प्रस्तुत सम्पादन प्रस्तुत प्रागम के सम्पादक आगम अनुयोग प्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' हैं। जिनका शब्दानुलकी अनुवाद और सम्पादन मन को लुभाने वाला है। प्राचीन व्याख्या साहित्य के आधार पर अनेक निगूढ़ रहस्यों को सम्पादक मुनिवर ने स्पष्ट करने का प्रयास किया है। व्यवहारसूत्र व्याख्यासाहित्य व्यवहार श्रमण जीवन की साधना का एक जीवन्त भाष्य है। व्यवहारनियुक्ति में उत्सर्ग और अपवाद 1. श्री मलयगिरी प्रभवो, यां कत्तु मुपाक्रमन्त मतिमन्तः / सा कल्पशास्त्र टीका मयाऽनुसन्धोयतेऽल्पधिया / -बृहत्कल्पपीठिकावृत्ति, पृ. 177 [67 ] Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का विवेचन है। इस नियुक्ति पर भाष्य भी है। जो अधिक विस्तृत है। बृहत्कल्प और व्यवहार की नियुक्ति परस्पर शैली भाव-भाषा की दृष्टि से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। दोनों में साधना के तथ्य व सिद्धान्त प्रायः समान हैं / यह नियुक्ति भाष्य में विलीन हो गई है। व्यवहारभाष्य हम पूर्व में ही बता चुके हैं कि व्यवहारभाष्य के रचयिता का नाम अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। बृहत्कल्पभाष्य के समान ही इस भाष्य में भी निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के आचार-विचार पर प्रकाश डाला है। सर्वप्रथम पीठिका में व्यवहार, व्यवहारी एवं व्यवहर्तव्य के स्वरूप की चर्चा की गई है। व्यवहार में दोष लगने की दृष्टि से प्रायश्चित्त का अर्थ, भेद, निमित्त, अध्ययन विशेष, तदह पर्षद आदि का विवेचन किया गया है और विषय को स्पष्ट करने के लिये अनेक दृष्टान्त भी दिये गये हैं। इसके पश्चात् भिक्षु, मासपरिहार, स्थानप्रतिसेवना, आलोचना आदि पदों पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया है। आधाकर्म से सम्बन्धित अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार के लिए पृथक-पृथक प्रायश्चित्त का विधान है। मूलगुण और उत्तरगुण इन दोनों की विशुद्धि प्रायश्चित्त से होती है। अतिक्रम के लिए मासगुरु और काललघु, अतिचार के लिए तपोगुरु और कालगुरु और अनाचार के लिये चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का विधान है। पिण्डविशुद्धि समिति भावना तप प्रतिमा और अभिग्रह ये सभी उत्तरगुण में हैं। इनके क्रमश: बयालीस, भाठ, पच्चीस, बारह, बारह और चार भेद होते हैं। प्रायश्चित्त करने वाले पुरुष के निर्गत और वर्तमान ये दो प्रकार हैं। जो तपोर्ह प्रायश्चित्त से अतिक्रान्त हो गये हैं वे निर्गत हैं और जो विद्यमान हैं वे वर्तमान हैं। उनके भी भेद-प्रभेद किये गये हैं। प्रायश्चित्त के योग्य पुरुष चार प्रकार के होते हैं१. उभयतर--जो संयम तप की साधना करता हुआ भी दूसरों की सेवा कर सकता है / 2. आत्मतर-जो केवल तप ही कर सकता है। 3. परतर-जो केवल सेवा ही कर सकता है। 4. अन्यतर-जो तप और सेवा दोनों में से किसी एक समय में एक का ही सेवन कर सकता है। मालोचना पालोचनाह और आलोचक के बिना नहीं होती। अालोचनाह स्वयं आचारवान, प्राधारवान, व्यवहारवान, अपव्रीडक, प्रकुर्वी, निर्यापक, अपायदर्शी और अपरिश्राबी, इन गुणों से युक्त होता है / आलोचक भी जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चरणसम्पन्न, क्षान्त, दान्त, अमायी और अपश्चात्तापी इन दस गुणों से युक्त होता है। साथ ही आलोचना के दोष, तदविषयभूत द्रव्य आदि, प्रायश्चित्त देने की विधि आदि पर भी भाष्यकार ने चिन्तन किया है। परिहारतप के वर्णन में सेवा का विश्लेषण किया गया है और सुभद्रा और मुगावती के उदाहरण भी दिये गये हैं। आरोपणा के प्रस्थापनिका, स्थापिता, कृत्स्ना, अकृत्स्ना और हाडहडा ये पांच प्रकार बताये हैं तथा इन पर विस्तार से चर्चा की है। शिथिलता के कारण गच्छ का परित्याग कर पुनः गच्छ में सम्मिलित होने के लिए विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों का वर्णन है। पार्श्वस्थ, यथाच्छन्द, कुशील, प्रवसन्न और संसक्त के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। [ 68] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणों के विहार की चर्चा करते हुए एकाकी विहार का निषेध किया है और उनको लगने वाले दोषों का निरूपण किया है। विविध प्रकार के तपस्वी व व्याधियों से संसक्त श्रमण की सेवा का विधान करते हए क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त की सेवा करने को मनोवैज्ञानिक पद्धति पर प्रकाश डाला है। क्षिप्तचित्त के राग, भय और अपमान तीन कारण है। दीप्तचित्त का कारण सम्मान है। सम्मान होने पर उसमें मद पैदा होता है। शत्रुओं को पराजित करने के कारण बह मद से उन्मत्त होकर दीप्तचित्त हो जाता है। क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त में मुख्य अन्तर यह है कि क्षिप्तचित्त प्रायः मौन रहता है और दीप्तचित्त बिना प्रयोजन के भी बोलता रहता है। भाष्यकार ने गणावच्छेदक, प्राचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, प्रवतिनी ग्रादि पदवियों को धारण करने वाले की योग्यतानों पर विचार किया है। जो ग्यारह अंगों के ज्ञाता हैं, नवम पूर्व के ज्ञाता हैं, कृतयोगी हैं, बहुश्रुत है, बहुत आगमों के परिज्ञाता हैं, सूत्रार्थ विशारद हैं, धीर हैं, श्रुतनिघर्ष हैं, महाजन हैं वे विशिष्ट व्यक्ति ही प्राचार्य आदि विशिष्ट पदवियों को धारण कर सकते हैं। श्रमणों के विहार सम्बन्धी नियमोपनियमों पर विचार करते हए कहा है कि आचार्य, उपाध्याय ग्रादि पदवीदारों को कम से कम कितने सन्तों के साथ रहना चाहिए, आदि विविध विधि-विधानों का निरूपण है। प्राचार्य, उपाध्याय के पांच प्रतिशय होते हैं, जिनका श्रमणों को विशेष लक्ष्य रखना चाहिए 1. उनके बाहर जाने पर पैरों को साफ करना। 2. उनके उच्चार-प्रस्रवण को निर्दोष स्थान पर परठना / 3. उनकी इच्छानुसार वैयावृत्य करना / 4. उनके साथ उपाश्रय के भीतर रहना। 5. उनके साथ उपाश्रय के बाहर जाना। श्रमण किसी महिला को दीक्षा दे सकता है और दीक्षा के बाद उसे साध्वी को सौंप देना चाहिए। साध्वी किसी भी पुरुष को दीक्षा नहीं दे सकती / उसे योग्य श्रमण के पास दीक्षा के लिए प्रेषित करना चाहिए। श्रमणी एक संघ में दीक्षा ग्रहण कर दूसरे संघ में शिष्या बनना चाहे तो उसे दीक्षा नहीं देनी चाहिए। उसे जहाँ पर रहना हो वहीं पर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए, किन्तु श्रमण के लिए ऐसा नियम नहीं है / तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाला उपाध्याय और 5 वर्ष की दीक्षापर्याय वाला प्राचार्य बन सकता है। वर्षावास के लिए ऐसा स्थान श्रेष्ठ बताया है, जहाँ पर अधिक कीचड़ न हो, द्वीन्द्रियादि जीवों की बहुलता न हो, प्रासुक भूमि हो, रहने योग्य दो तीन बस्तियां हों, गोरस की प्रचुरता हो, बहुत कोई वैद्य हो, औषधियां सरलता से प्राप्त होती हों, धान्य की प्रचुरता हो, राजा सम्यक् प्रकार से प्रजा का पालन करता हो, पाखण्डी साधु कम रहते हों, भिक्षा सुगम हो और स्वाध्याय में किसी भी प्रकार का विघ्न न हो। जहाँ पर कुत्ते अधिक हों वहाँ पर श्रमण को विहार नहीं करना चाहिए। भाष्य में दीक्षा ग्रहण करने वाले के गुण-दोष पर चिन्तन करते हुए लिखा है कि कुछ व्यक्ति अपने देशस्वभाव से ही दोषयुक्त होते हैं। आंध्र में उत्पन्न व्यक्ति क्रूर होता है। महाराष्ट्र में उत्पन्न हुआ व्यक्ति वाचाल होता है और कोशल में उत्पन्न हया व्यक्ति स्वभाव से ही दुष्ट होता है। इस प्रकार का न होना बहत ही कम व्यक्तियों में सम्भव है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे भाष्य में शयनादि के निमित्त सामग्री एकत्रित करने और पुनः लौटाने की विधि बतलाई है। आहार की मर्यादा पर प्रकाश डालते हुए कहा है—आठ कौर खाने वाला श्रमण अल्पाहारी, बारह, सोलह, चौबीस, इकतीस और बत्तीस ग्रास ग्रहण करने वाला श्रमण क्रमश: अपार्धाहारी, अर्धाहारी, प्राप्तावमौदर्य और प्रमाणाहारी है / नवम उद्देशक में शय्यातर के ज्ञातिक, स्वजन, मित्र प्रभति पागन्तुक व्यक्तियों से सम्बन्धित आहार को लेने और न लेने के सम्बन्ध में विचार कर श्रमणों की विविध प्रतिमानों पर प्रकाश डाला है। - दशम उद्देशक में यवमध्यप्रतिमा और वनमध्यप्रतिमा पर विशेष रूप से चिन्तन किया है। साथ ही पांच प्रकार के व्यवहार, बालदीक्षा की विधि, दस प्रकार की वैयावृत्य आदि विषयों की व्याख्या की गई है। प्रायं रक्षित, आर्य कालक, राजा सातवाहन, प्रद्योत, मुरुण्ड, चाणक्य, चिलातपुत्र, अवन्ति, सुकुमाल, रोहिणेय, प्रार्य समुद्र, आर्य मंगु आदि की कथाएं आई हैं। प्रस्तुत भाष्य अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। व्यवहार पर एक चूणि भी लिखी गई थी। चूणि के पश्चात् व्यवहार पर प्राचार्य मलयगिरि ने वृत्ति लिखी। वत्ति में आचार्य मलयगिरि का गम्भीर पाण्डित्य स्पष्ट रूप से झलकता है। विषय की गहनता, भाषा की प्रांजलता, शैली का लालित्य और विश्लेषण की स्पष्टता प्रेक्षणीय है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्राक्कथन के रूप में पीठिका है। जिसमें कल्प; व्यवहार, दोष, प्रायश्चित्त प्रभृति विषयों पर चिन्तन किया है। वृत्तिकार ने प्रारम्भ में अर्हत् अरिष्टनेमि को, अपने सद्गुरुवर्य तथा व्यवहारसूत्र के चणिकार आदि को भक्तिभावना से विभोर होकर नमन किया है। वृत्तिकार ने बृहत्कल्प और व्यवहार इन दोनों प्रागमों के अन्तर को स्पष्ट करते हुए लिखा कि कल्पाध्ययन में प्रायश्चित्त का निरूपण है किन्तु उसमें प्रायश्चित्त देने की विधि नहीं है, जबकि व्यवहार में प्रायश्चित्त देने की और पालोचना करने की ये दोनों प्रकार की विधियां हैं। यह बहत्कल्प से व्यवहार की विशेषता है। व्यवहार, व्यवहारी और व्यवहर्तव्य तीनों का विश्लेषण करते हुए लिखा है-व्यवहारी कर्तारूप है, व्यवहार कारणरूप है और व्यवहर्तव्य कार्यरूप है। कारणरूपी व्यवहार प्रागम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत रूप से पांच प्रकार का है / चूर्णिकार ने पांचों प्रकार के व्यवहार को करण कहा है। भाष्यकार ने सूत्र, अर्थ, जीतकल्प, मार्ग, न्याय, एप्सितव्य, प्राचरित और व्यवहार इनको एकार्थक माना है। जो स्वयं व्यवहार के मर्म को जानता हो, अन्य व्यक्तियों को व्यवहार के स्वरूप को समझाने की क्षमता रखता हो वह गीतार्थ है। जो गीतार्थ है उसके लिए व्यवहार का उपयोग है / प्रायश्चित्त प्रदाता और प्रायश्चित्त संग्रहण करने वाला दोनों गीतार्थ होने चाहिए। प्रायश्चित्त के प्रतिसेवना, मंयोजना, ग्रारोपणा और परिकूचना, ये चार अर्थ हैं। प्रतिसेवना रूप प्रायश्चित्त के दस भेद हैं। (1) आलोचना, (2) प्रतिक्रमणा, (3) तदुभय, (4) विवेक (5) उत्सर्ग, (6) तप, (7) छेद, (8) मूल, (9) अनवस्थाप्य और (10) पारांचिक / इन दसों प्रायश्चित्तों के सम्बन्ध में विशेष रूप से विवेचन किया गया है। यदि हम इन प्रायश्चित्त के प्रकारों की तुलना विनयपिटक' में आयी हुई प्रायश्चित्तविधि के साथ करें तो आश्चर्यजनक समानता मिलेगी। प्रायश्चित्त प्रदान करने वाला अधिकारी या प्राचार्य बहुश्रुत ब गम्भीर हो, यह आवश्यक है। प्रत्येक के सामने 1. विनयपिटक निदान [ 70 ] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालोचना का निषेध किया गया है। पालोचना और प्रायश्चित दोनों ही योग्य व्यक्ति के समक्ष होने चाहिए, जिससे कि वह गोपनीय रह सके / बौद्धपरम्परा में साधुसमुदाय के सामने प्रायश्चित्त ग्रहण का विधान है। विनयपिटक में लिखा हैप्रत्येक महीने की कृष्ण चतुर्दशी और पूर्णमासी को सभी भिक्षु उपोसथागार में एकत्रित हो तथागत बुद्ध ने अपना उत्तराधिकारी संघ को बताया है। अत: किसी प्राज्ञ भिक्षु को सभा के प्रमुख पद पर नियुक्त कर पातिमोक्ख का वाचन किया जाता है और प्रत्येक प्रकरण के उपसंहार में यह जिज्ञासा व्यक्त की जाती है कि उपस्थित सभी भिक्षु उक्त बातों में शुद्ध हैं ? यदि कोई भिक्षु तत्सम्बन्धी अपने दोष की मालोचना करना चाहता है तो संघ उस पर चिन्तन करता है और उसकी शुद्धि करवता है। द्वितीय और तृतीय बार भी उसी प्रश्न को दुहराया जाता है। सभी की स्वीकृति होने पर एक-एक प्रकरण आगे पढ़े जाते हैं। इसी तरह भिक्षुणियां भिक्खुनी पातिमोक्ख का वाचन करती हैं। यह सत्य है कि दोनों ही परम्परानों की प्रायश्चित्त विधियां पृथक्-पृथक् हैं। पर दोनों में मनोवैज्ञानिकता है। दोनों ही परम्पराओं में प्रायश्चित्त करने वाले साधक के हृदय की पवित्रता, विचारों की सरलता अपेक्षित मानी है। प्रथम उद्देशक में प्रतिसेवना के मूलप्रतिसेवना और उत्तरप्रतिसेवना ये दो प्रकार बताये हैं / मूलगुणअतिचारप्रतिसेवना प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह रूप पांच प्रकार की है। उत्तरगुणातिचार प्रतिसेवना दस प्रकार की है। उत्तरगूण अनागत, अतिक्रान्त, कोटिसहित, नियन्त्रितः साकार, अनाकार, परिमाणकृत, निरवशेष, सांकेतिक और अद्रा प्रत्याख्यान के रूप में है। ऊपर शब्दों में उत्तरगुणों के पिण्डविशुद्धि, पांच समिति, बाह्य तप, पाभ्यान्तर तप, भिक्षप्रतिमा और अभिग्रह इस तरह दस प्रकार हैं। मूलगुणातिचारप्रतिसेवना और उत्तरगुणातिचारप्रतिसेवना इनके भी दर्य और कल्प्य ये दो प्रकार हैं। बिना कारण प्रतिसेवना दपिका है और कारण युक्त प्रतिसेवना कल्पिका है। वृत्तिकार ने विषय को स्पष्ट करने के लिए स्थान-स्थान पर विवेचन प्रस्तुत किया है / प्रस्तुत वृत्ति का ग्रन्थमान 34625 श्लोक प्रमाण है। वृत्ति के पश्चात् जनभाषा में सरल और सुबोध शैली में प्रागमों के शब्दार्थ करने वाली संक्षिप्त टीकाएं लिखी गई हैं, जिनकी भाषा प्राचीन गुजराती-राजस्थानी मिश्रित है। यह बालावबोध व टब्बा के नाम से विश्रत हैं / स्थानकवासी परम्परा के धर्मसिंह मुनि ने व्यवहारसूत्र पर भी टब्बा लिखा है, पर अभी तक वह अप्रकाशित ही है। प्राचार्य अमोलकऋषिजी महाराज द्वारा कृत हिन्दी अनुवाद साहित व्यवहारसूत्र प्रकाशित हुआ है। जीवराज घेलाभाई दोशी ने गुजराती में अनुवाद भी प्रकाशित किया है। शुबिंग लिपजिग ने जर्मन टिप्पणी के साथ सन् 1918 में लिखा / जिसको जैन साहित्य समिति पूना से 1923 में प्रकाशित किया है। पूज्य घासीलालजी म. ने छेदसूत्रों का प्रकाशन केवल संस्कृत टीका के साथ करवाया है। आगम अनुयोग प्रकाशन साण्डेराव से सन् 1980 में व्यवहारसूत्र प्रकाशित हआ। जिसका सम्पादन आगममर्मज्ञ मुनि श्री कन्हैयालालजी म. “कमल" ने किया। प्रस्तुत सम्पादन-मुनि श्री कन्हैयालालजी म. "कमल" ने पहले प्रायार-दसा, कप्पसुत्तं और बहारसुत्तं इन तीनों वेदसूत्रों का सम्पादन और प्रकाशन किया था। उसी पर और अधिक विस्तार से प्रस्तुत तीन आगमों का सम्पादन कर प्रकाशन हो रहा है। इसके पूर्व निशीथ का प्रकाशन हो चुका है। चारों छेदसूत्रों पर मूल, अर्थ और विवेचन युक्त यह प्रकाशन अपने आप में गौरवपूर्ण है। इन तीन प्रागमों के प्रकाशन के साथ ही [71] Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत आगममाला से स्थानकवासी परम्परा मान्य बत्तीस पागमों का प्रकाशन कार्य भी सम्पन्न हो रहा है। स्वर्गीय श्रद्धेय युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. की कमनीय कल्पना को अनेक सम्पादक मुनियों, महासतियों और विद्वानों के कारण मूर्त रूप मिल गया है। यह परम पाह्लाद का विषय है। छेदसूत्रों में श्रमणों की प्राचारसंहिता का विस्तार से निरूपण हा है। छेदसूत्रों में उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का निरूपण है। मैं बहुत ही विस्तार से इन पर लिखने का सोच रहा था, पर श्रमणसंघीय व्यवस्था का दायित्व आ जाने से उस कार्य में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण और अत्यधिक भीड़ भरा वाताबरण होने के कारण नहीं लिख सका / इसका मुझे स्वयं को विचार है। बहत ही संक्षिप्त में परिचयात्मक प्रस्तावना लिखी है। आशा है, सुज्ञ पाठक आगम में रहे हुए मर्म को समझेंगे। महामहित राष्ट्रसन्त आचार्यसम्राट श्री आनन्दऋषिजी म. और परमश्रद्धेय पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. की असीम कृपा के फलस्वरूप ही मैं साहित्य के क्षेत्र में कुछ कार्य कर सका हूँ और स्वर्गीय युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. की प्रेरणा से आगम साहित्य पर प्रस्तावनाएं लिखकर उनकी प्रेरणा को मूर्तरूप दे सका है, इसका मन में सन्तोष है। आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि सुज्ञ पाठकगण आगमों की स्वाध्याय कर अपने जीवन को धन्य बनायेंगे। उपाचार्य देवेन्द्रमुनि कोट, पीपाड़सिटी दिनांक 22-10-91 [72 ] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 261 269 272 276 280 व्यवहारसूत्र [256-458] प्रथम उद्देशक कपटसहित तथा कपटरहित अालोचक को प्रायश्चित्त देने की विधि परिहारकल्पस्थित भिक्षु का वैयावृत्य के लिए विहार अकेले विचरने वाले का गण में पुनरागमन पार्श्वस्थ-विहारी आदि का गण में पुनरागमन संयम छोड़कर जाने वाले का गण में पुनरागमन पालोचना करने का क्रम प्रथम उद्देशक का सारांश दूसरा उद्देशक विचरने वाले सार्मिक के परिहारतप का विधान रुग्ण भिक्षुओं को गण से निकालने का निषेध अनवस्थाप्य और पारांचिक भिक्षु की उपस्थापना अकृत्यसेवन का आक्षेप और उसके निर्णय की विधि संयम त्यागने का संकल्प एवं पुनरागमन एकपक्षीय भिक्षु को पद देने का विधान पारिहारिक और अपारिहारिकों के परस्पर आहार-सम्बन्धी व्यवहार दूसरे उद्देशक का सारांश 286 288 290 294 295 297 299 303 307 [78] Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ r m mmmm 311 321 324 333 335 338 345 346 348 MY तीसरा उद्देशक गण धारण करने का विधि-निषेध उपाध्याय प्रादि पद देने के विधि-निषेध अल्पदीक्षापर्याय वाले को पद देने का विधान निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी को आचार्य के नेतृत्व बिना रहने का निषेध अब्रह्मसेवी को पद देने के विधि-निषेध संयम त्यागकर जाने वाले को पद देने के विधि-निषेध पापजीवी बहुश्रुतों को पद देने का निषेध तीसरे उद्देशक का सारांश चौथा उद्देशक आचार्यादि के साथ रहने वाले निर्ग्रन्थों की संख्या अग्रणी साधु के काल करने पर शेष साधुओं का कर्तव्य ग्लान आचार्यादि के द्वारा पद देने का निर्देश संयम त्याग कर जाने वाले आचार्यादि के द्वारा पद देने का निर्देश उपस्थापन के विधान अन्य गण में गये भिक्षु का विवेक अभिनिचारिका में जाने के विधि-निषेध चाँप्रविष्ट एवं चर्यानिवृत्त भिक्षु के कर्तव्य शैक्ष और रत्नाधिक का व्यवहार रत्नाधिक को अग्रणी मानकर विचरने का विधान चौथे उद्देशक का सारांश पांचवां उद्देशक प्रवतिनी आदि के साथ विचरने वाली निर्ग्रन्थियों की संख्या अग्रणी साध्वी के काल करने पर साध्वी का कर्तव्य प्रवर्तिनी के द्वारा पद देने का निर्देश आचार-प्रकल्प-विस्मृल को पद देने का विधि-निषेध स्थविर के लिए प्राचार-प्रकल्प के पूनरावर्तन करने का विधान परस्पर आलोचना करने के विधि-निषेध परस्पर सेवा करने का विधि-निषेध सर्पदंशचिकित्सा के विधि-निषेध पांचवें उद्देशक का सारांश छट्ठा उद्देशक स्वजन-परजन-गह में गोचरी जाने का विधि-निषेध आचार्य प्रादि के अतिशय M M MY 355 358 359 कानिदश 363 368 372 374 376 [ 79] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 379 380 -382 386 387 388 390 391 392 395 अगीतार्थों के रहने का विधि-निषेध और प्रायश्चित्त अकेले भिक्षु के रहने का विधि-निषेध शुक्रपुद्गल निकालने का प्रायश्चित्त सूत्र अन्य गण से आये हए को गण में सम्मिलित करने का निषेध छठे उद्देशक का सारांश सातवां उद्देशक अन्य गण से आई साध्वी के रखने में परस्पर पृच्छा सम्बन्धविच्छेद करने सम्बन्धी विधि-निषेध प्रव्रजित करने आदि के विधि-निषेध दूरस्थ क्षेत्र में रहे हए गुरु आदि के निर्देश का विधि-निषेध कलह उपशमन के विधि-निषेध व्यतिकृष्ट काल में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के लिये स्वाध्याय का विधि-निषेध निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी को स्वाध्याय करने का विधि-निषेध शारीरिक अस्वाध्याय होने पर स्वाध्याय का विधि-निषेध निर्गन्थी के लिये प्राचार्य-उपाध्याय की नियुक्ति की आवश्यकता श्रमण के मृत शरीर को परठने की और उपकरणों को ग्रहण करने की विधि परिहरणीय शय्यातर का निर्णय प्राज्ञा ग्रहण करने की विधि राज्य-परिवर्तन में आज्ञा ग्रहण करने का विधान सातवें उद्देशक का सारांश पाठवां उद्देशक शयनस्थान के ग्रहण की विधि शय्या-संस्तारक के लाने की विधि एकाकी स्थविर के भण्डोपकरण और गोचरी जाने की विधि शय्या-संस्तारक के लिये पुनः आज्ञा लेने का विधान शय्या-संस्तारक ग्रहण करने की विधि पतित या विस्मृत उपकरण की एषणा अतिरिक्त पात्र लाने का विधान आहार की उनोदरी का परिमाण आठवें उद्देशक का सारांश 397 398 399 400 401 402 404 405 406 407 408 409 411 नवम उद्देशक शय्यातर के पाहणे नौकर एवं ज्ञातिजन के निमित्त से बने आहार के लेने का विधि-निषेध 417 शय्यातर के भागीदारी वाली विक्रयशालाओं से प्राहार लाने का विधि-निषेध 420 सप्तसप्ततिका आदि भिक्ष-प्रतिमाएं 424 [80 ] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक-प्रतिमा-विधान दत्ति-प्रमाण निरूपण तीन प्रकार का आहार अवगृहीत आहार के प्रकार नवम उद्देशक का सारांश 425 427 429 429 440 443 445 446 दसवां उद्देशक दो प्रकार की चन्द्रप्रतिमाएं पांच प्रकार के व्यवहार विविध प्रकार से गण की वैयावत्य करने वाले धर्मदृढता की चौभंगियां आचार्य एवं शिष्यों के प्रकार स्थविर के प्रकार बड़ी दीक्षा देने का कालप्रमाण बालक बालिका को बड़ी दीक्षा देने का विधि-निषेध बालक को आचारप्रकल्प के अध्ययन कराने का निषेध दीक्षा पर्याय के साथ आगमों का अध्ययनक्रम बैयाबृत्य के प्रकार एवं महा निर्जरा दसवें उद्देशक का सारांश उपसंहार 448 449 450 450 451 455 457 [81] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (कार्यकारिणी समिति) अध्यक्ष कार्यवाहक अध्यक्ष उपाध्यक्ष इन्दौर ब्यावर ब्यावर मद्रास जोधपुर मद्रास दुग महामंत्री मंत्री श्री सागरमलजी बेताला श्री रतनचन्दजी मोदी श्री धनराजजी विनायकिया श्री पारसमलजी चोरडिया श्री हुक्मीचन्दजी पारख श्री दुलीचन्दजी चोरड़िया श्री जसराजजी सा. पारख श्री जी. सायरमलजी चोरडिया श्री अमरचन्दजी मोदी श्री ज्ञानराजजी मूथा श्री ज्ञानचन्दजी विनायकिया श्री जवरीलालजी शिशोदिया श्री आर. प्रसन्नचन्द्रजी चोरडिया श्री माणकचन्दजी संचेती श्री एस. सायरमलजी चोरडिया श्री मोतीचन्दजी चोरडिया श्री मूलचन्दजी सुराणा श्री तेजराजजी भण्डारी श्री भंवरलालजी गोठी श्री प्रकाशचन्दजी चोपड़ा श्री जतनराजजी मेहता श्री भंवरलालजी श्रीश्रीमाल श्री चन्दनमलजी चोरडिया श्री सुमेरमलजी मेड़तिया श्री पासूलालजी बोहरा मद्रास ब्यावर पाली ब्यावर ब्यावर मद्रास सहमंत्री कोषाध्यक्ष जोधपुर परामर्शदाता कार्यकारिणी सदस्य मद्रास मद्रास नागौर जोधपुर मद्रास ब्यावर मेड़तासिटी दुर्ग मद्रास जोधपुर जोधपुर Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारसूत्र Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारसून प्रशम उद्देशक कपट-सहित तथा कपट-रहित आलोचक को प्रायश्चित्त देने की विधि 1. जे भिक्खू मासियं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचियं पालोएमाणस्स मासियं, पलिउंचियं आलोएमाणस्स दोमासियं / 2. जे भिक्खू वोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता पालोएज्जा, अपलिउंचियं आलोएमाणस्स दोमासियं, पलिउंचियं पालोएमाणस्स तेमासियं / 3. जे भिक्खू तेमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता पालोएज्जा, अपलिउंचियं पालोएमाणस्स तेमासियं, पलिउंचियं आलोएमाणस्स चाउम्मासियं / 4. जे भिक्खू चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता पालोएज्जा, अपलिउंचियं आलोएमाणस्स चाउम्मासियं पलिउंचियं, आलोएमाणस्स पंचमासियं / 5. जे भिक्खू पंचमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचियं आलोएमाणस्स पंचमासियं, पलिउंचियं आलोएमाणस्स छम्मासियं / तेण परं पलिउंचिए वा, अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा / 6. जे भिक्खू बहुसो विमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता पालोएज्जा, अपलिउंचियं आलोएमाणस्स मासियं, पलिउंचियं आलोएमाणस्स दोभासियं / 7. जे भिक्खू बहुसो विदोमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिए पालोएमाणस्स दोमासियं, पलिउंचियं आलोएमाणस्स तेमासियं / 8. जे भिक्खू बहुसो वि तेमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचियं आलोएमाणस तेमासियं, पलिउंचियं पालोएमाणस्स चाउम्मासियं / 9. जे भिक्खू बहुसो वि चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता पालोएज्जा, अपलिउंचियं पालोएमाणस्स चाउम्मासियं, पलिंउंचियं आलोएमाणस्स पंचमासियं / 10. जे भिक्खू बहुसो वि पंचमासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएब्जा, अपलिउंचियं पालोएमाणस्स पंचमासियं, पलिउंचियं पालोएमाणस्स छम्मासियं / तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा / Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262] ঘিাষ 11. जे भिक्खू मासियं वा जाव पंचमासियं वा एएसिं परिहारट्ठाणाणं अण्णयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचियं आलोएमाणस्स मासियं वा जाव पंचमासियं वा, पलिउंचियं आलोएमाणस्स दो मासियं वा जाव छम्मासियं वा। तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा / 12. जे भिक्खू बहुसो वि मासियं वा जाव बहुसो वि पंचमासियं वा एएसिं परिहारट्ठाणाणं अण्णयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचियं आलोएमाणस्स मासियं वा जाव पंचमासियं वा, पलिउंचियं आलोएमाणस्स दो मासियं वा जाब छम्मासियं वा। तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा। 13. जे भिक्खू चाउम्मासियं वा, साइरेग-चाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा, साइरेग-पंचमासियं वा, एएसिं परिहारट्ठाणाणं अण्णयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचियं आलोएमाणस्स चाउम्मासियं वा साइरेग-चाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा साइरेग-पंचमासियं वा, पलिउंचियं पालोएमाणस्स पंचमासियं वा साइरेग पंचमासियं वा छम्मासियं वा। / तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए वा ते चेव छम्मासा। 14. जे भिक्खू बहुसो वि चाउम्मासियं वा, बहुसो वि साइरेग-चाउम्मासियं वा बहुसो वि पंचमासियं वा बहुसो वि साइरेग-पंचमासियं वा एएसिं परिहारट्ठाणाणं अण्णयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचियं आलोएमाणस्स चाउम्मासियं बा, साइरेग-चाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा, साइरेग-पंचमासियं वा, पलिउंचियं आलोएमाणस्स पंचमासियं वा, साइरेग-पंचमासियं मा छम्मासियं वा। तेण परं पलिउंचिए वा अपलिऊंचिए वा ते चेव छम्मासा।। 15. जे भिक्खू चाउम्मासियं वा, साइरेग-चाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा, साइरेग-पंचमासियं वा, एएसिं परिहारट्ठाणाणं अण्णयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा-- ..... .. अपलिउंचियं आलोएमाणे ठवणिज्जं ठवइत्ता करणिज्जं बेयावडियं / ठविए वि पडिसेवित्ता, से वि कसिणे तत्थेव आरहेयवे सिया।। 1. पुट्विं पडिसेवियं पुब्धि पालोइयं, 2. पुट्विं पडिसेवियं पच्छा पालोइयं, 3. पच्छा पंडिसेवियं पुटिवं आलोइयं, 4. पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं / 1. अपलिउंचिए अपलिउंचियं, 2. अपलिउंचिए पलिउंचियं, 3. पलिउंचिए अपलिउंचियं, 4. पलिउंचिए पलिउंचियं / आलोएमाणस्स सव्वमेमं सकयं साहणिय (आरुहेयव्वे सिया)। जे एयाए पठ्ठवणाए पविए निव्यिसमाणे पडिसेवेइ, से विकसिणे तत्थेव आल्हेयव्ये सिया। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [263 प्रथम उद्देशक] 16. जे भिक्खू चाउम्मासियं वा, साइरेग-चाउम्मासियं वा, पंचमासियं वा, साइरेगपंचमासियं वा, एएसिं परिहारट्ठाणाणं अण्णयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता पालोएज्जा, पलिउंचियं आलोएमाणे ठवणिज्ज ठवइत्ता करणिज्ज व्यावडियं / ठविए वि पडिसेवित्ता, से विकसिणे तत्थेव आरहेयम्वे सिया। 1. पुग्विं पडिसेवियं पुव्विं पालोइयं, 2. पुब्धि पडिसेवियं पच्छा पालोइयं, 3. पच्छा पडिसेवियं पुस्विं आलोइयं, 4. पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं / 1. अपलिउंचिए अपलिचियं, 2. अपलिउंचिए पलिउंचियं, 3. पलिउंचिए अपलिउंचियं, 4. पलिउंचिए पलिउंचियं / पालोएमाणस्स सम्वमेयं सकयं साहणिय (आरुहेयब्वे सिया) जे एयाए पट्ठवणाए पविए निव्विसमाणे पडिसेवेइ, से विकसिणे तत्थेव आरहेयध्वे सिया। 17. जे भिक्खू बहुसो वि चाउम्मासियं वा, बहुसो वि साइरेग-चाउम्भासियं वा, बहुसो वि पंचमासियं वा, बहुसो वि साइरेग-पंचमासियं वा, एएसिं परिहारट्ठाणाणं अण्णयरं परिहारहाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, अपलिउंचिय पालोएमाणे ठवणिज्ज ठवइत्ता करणि वेयावडियं / ठविए वि पडिसेवित्ता से वि कसिणे तत्थेव आरहेयटवे सिया। 1. पुट्विं पडिसेवियं पुब्बिं आलोइयं, 2. पुन्विं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं, 3. पच्छा पडिसेवियं पुन्विं आलोइयं, 4, पच्छा पडिसेवियं पच्छा पालोइयं / 1. अपलिउंचिए अपलिउंचियं, 2. अपलिउंचिए पलिउंचियं, 3. पलिउंचिए अपलिउंचियं, 4. पलिउंचिए पलिउंचियं / भालोएमाणस्स सम्वमेयं सकयं साहणिय (प्रारुहेयब्वे सिया) जे एयाए पठ्ठवणाए पविए निव्वसमाणे पडिसेवेइ, से विकसिणे तत्थेव पारुहेयम्वे सिया। 18. जे भिक्खू बहुसो वि चाउम्मासियं वा, बहुसो वि साइरेग-चाउम्मासियं वा, बहुसो वि पंचमासियं वा, बहुसो वि साइरेग पंचमासियं वा, एएसि परिहारट्ठाणाणं अण्णयरं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, पलिउंचियं आलोएमाणे ठवणिज्ज ठवइत्ता करणिज्जं वेयावडियं / ठविए वि पडिसेबित्ता से वि कसिणे तत्थेव प्रारुहेयन्वे सिया। 1. पुग्विं पडिसेवियं पुश्विं आलोइयं, 2. पुग्विं पडिसेवियं पच्छा पासोइयं, 3. पच्छा पडिसेवियं पुग्विं आलोइयं, 4. पच्छा पडिसेवियं पच्छा पालोइयं / Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264] [व्यवहारसूत्र 1. अपलिउंचिए अपलिउंचियं, 2. अपलिउंचिए पलिउंचियं, 3. पलिउंचिए अपलिउंचिगं, 4. पलिउंचिए पलिउंचियं / आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय (आरुहेयम्वे सिया) जे एयाए पट्ठवणाए पविए निविसमाणे पडिसेवेइ, से विकसिणे तत्थेव आरहेयम्वे सिया। 1. जो भिक्षु एक बार मासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर एक मास का प्रायश्चित्त आता है और मायासहित आलोचना करने पर दो मास का प्रायश्चित्त आता है / 2. जो भिक्षु एक बार द्विमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर द्विमासिक प्रायश्चित्त पाता है और माया-सहित पालोचना करने पर त्रैमासिक प्रायश्चित्त प्राता है। 3. जो भिक्षु एक बार त्रैमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर त्रैमासिक प्रायश्चित्त पाता है और मायासहित आलोचना करने पर चातुर्मासिक प्रायश्चित्त पाता है। 4. जो भिक्षु एक बार चातुर्मासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर चातुर्मासिक प्रायश्चित्त पाता है और मायासहित आलोचना करने पर पंचमासिक प्रायश्चित्त आता है / 5. जो भिक्षु एक बार पंचमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर पंचमासिक प्रायश्चित्त आता है और मायासहित आलोचना करने पर छमासी प्रायश्चित्त पाता है। इसके उपरान्त मायासहित या मायारहित आलोचना करने पर भी वही छमासी प्रायश्चित्त पाता है। 6. जो भिक्षु अनेक बार मासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर एक मास का प्रायश्चित्त पाता है और मायासहित आलोचना करने पर द्वैमासिक प्रायश्चित्त आता है। 7. जो भिक्षु अनेक बार द्विमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर द्विमासिक प्रायश्चित्त आता है और मायासहित आलोचना करने पर त्रैमासिक प्रायश्चित्त पाता है। 8. जो भिक्षु अनेक बार त्रैमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर त्रैमासिक प्रायश्चित्त आता है और मायासहित आलोचना करने पर चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है / Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयम उद्देशक] [265 9. जो भिक्षु अनेक बार चातुर्मासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित पालोचना करने पर चातुर्मासिक प्रायश्चित्त पाता है और मायासहित पालोचना करने पर पंचमासिक प्रायश्चित्त प्राता है / 10. जो भिक्षु अनेक बार पंचमासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर पंचमासिक प्रायश्चित्त आता है और मायासहित पालोचना करने पर पाण्मासिक प्रायश्चित्त आता है। इसके उपरान्त मायासहित या मायारहित आलोचना करने पर भी वही पाण्मासिक प्रायश्चित्त आता है। 11. जो भिक्षु मासिक यावत् पंचमासिक परिहारस्थानों में से किसी परिहारस्थान की एक बार प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर प्रासेवित परिहारस्थान के अनुसार मासिक यावत् पंचमासिक प्रायश्चित्त आता है और मायासहित आलोचना करने पर आसेवित परिहारस्थान के अनुसार द्विमासिक यावत् पाण्मासिक प्रायश्चित्त आता है / इसके उपरान्त मायासहित या मायारहित आलोचना करने पर वही पाण्मासिक प्रायश्चित्त प्राता है। 12. जो भिक्षु मासिक यावत् पंचमासिक इन परिहारस्थानों में से किसी एक परिहारस्थान की अनेक बार प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित अालोचना करने पर प्रासेवित परिहारस्थान के अनुसार मासिक यावत् पंचमासिक प्रायश्चित्त पाता है और मायासहित आलोचना करने पर प्रासेवित परिहारस्थान के अनुसार द्विमासिक यावत् पाण्मासिक प्रायश्चित्त पाता है / इसके उपरान्त मायासहित या मायारहित आलोचना करने पर वही पाण्मासिक प्रायश्चित्त आता है। 13. जो भिक्षु चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक, पंचमासिक या कुछ अधिक पंचमासिक इन परिहारस्थानों में से किसी एक परिहारस्थान की एक बार प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर आसेवित परिहारस्थान के अनुसार चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक, पंचमासिक या कुछ अधिक पंचमासिक प्रायश्चित्त पाता है और मायासहित आलोचना करने पर आसेवित परिहारस्थान के अनुसार पंचमासिक या कुछ अधिक पंचमासिक या पाण्मासिक प्रायश्चित्त आता है। इसके उपरान्त मायरसहित या मायारहित मालोचना करने पर भी वही पाण्मासिक प्रायश्चित्त आता है। 14. जो भिक्षु अनेक बार चातुर्मासिक या अनेक बार कुछ अधिक चातुर्मासिक, अनेक बार पंचमासिक या अनेक बार कुछ अधिक पंचमासिक इन परिहारस्थानों से से किसी एक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके पालोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर आसेवित परिहारस्थान के अनुसार चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक, पंचमासिक या कुछ अधिक पंचमासिक Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266] [व्यवहारसूत्र प्रायश्चित्त आता है और मायासहित अालोचना करने पर प्रासेवित परिहारस्थान के अनुसार पंचमासिक या कुछ अधिक पंचमासिक या छहमासिक प्रायश्चित्त पाता है / इसके उपरान्त मायासहित या मायारहित पालोचना करने पर वही पाण्मासिक प्रायश्चित्त प्राता है। 15. जो भिक्षु चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक, पंचमासिक या कुछ अधिक पंचमासिक इन परिहारस्थानों में से किसी एक परिहारस्थान की एक बार प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे मायारहित आलोचना करने पर आसेवित प्रतिसेवना के अनुसार प्रायश्चित्त रूप परिहारतप में स्थापित करके उसकी योग्य वैयावृत्य करनी चाहिए। यदि वह परिहारतप में स्थापित होने पर भी किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर देना चाहिए। 1. पूर्व में प्रतिसेवितदोष की पहले आलोचना की हो, 2. पूर्व में प्रतिसेवितदोष की पीछे आलोचना की हो, 3. पीछे से प्रतिसेवितदोष की पहले आलोचना की हो, 4. पीछे से प्रतिसेवित्तदोष की पीछे से आलोचना की हो। 1. मायारहित आलोचना करने का संकल्प करके मायारहित आलोचना की हो, 2. मायारहित आलोचना करने का संकल्प करके मायासहित आलोचना की हो, 3. मायासहित आलोचना करने का संकल्प करके मायारहित आलोचना की हो, 4. मायासहित आलोचना करने का संकल्प करके मायासहित आलोचना की हो। इनमें से किसी भी प्रकार के भंग से आलोचना करने पर उसके सर्व स्वकृत अपराध के प्रायश्चित्त को संयुक्त करके पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर देना चाहिए। ___ जो इस प्रायश्चित्त रूप परिहारतप में स्थापित होकर वहन करते हुए भी पुन: किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में आरोपित कर देना चाहिए। 16. जो भिक्षु चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक, पंचमासिक या कुछ अधिक पंचमासिक इन परिहारस्थानों में से किसी एक परिहारस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे-- __ मायासहित आलोचना करने पर प्रासेवित प्रतिसेवना के अनुसार प्रायश्चित्त रूप परिहारतप में स्थापित करके उसकी योग्य वैयावृत्य करनी चाहिए। यदि वह परिहारतप में स्थापित होने पर भी किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर देना चाहिए। 1. पूर्व में प्रतिसेवित दोष की पहले आलोचना की हो, 2. पूर्व में प्रतिसेवित दोष की पीछे आलोचना की हो, Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक [267 3. पीछे से प्रतिसेवित दोष की पहले आलोचना की हो, 4. पीछे से प्रतिसेवित दोष को पीछे से आलोचना की हो। 1. मायारहित आलोचना करने का संकल्प करके मायारहित आलोचना की हो, 2. मायारहित आलोचना करने का संकल्प करके मायासहित आलोचना की हो. 3. मायासहित आलोचना करने का संकल्प करके मायारहित अालोचना की हो, 4. मायासहित आलोचना करने का संकल्प करके मायासहित आलोचना की हो / इनमें से किसी प्रकार के भंग से ग्रालोचना करने पर उसके सर्व स्वकृत अपराध के प्रायश्चित्त को संयुक्त करके पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर देना चाहिए। जो इस प्रायश्चित्त रूप परिहारतप में स्थापित होकर वहन करते हुए भी पुनः किसी प्रकार को प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में आरोपित कर देना चाहिए। 17. जो भिक्षु चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक, पंचमासिक या कुछ अधिक पंचमासिक इन परिहारस्थानों में से किसी एक परिहारस्थान की अनेक बार प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे ___मायारहित आलोचना करने पर प्रासेवित प्रतिसेवना के अनुसार प्रायश्चित्त रूप परिहारतप में स्थापित करके उसकी योग्य वैयावत्य करनी चाहिए। यदि वह परिहारतप में स्थापित होने पर भी किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर देना चाहिए / 1. पूर्व में प्रतिसेवितदोष की पहले आलोचना की हो, 2. पूर्व में प्रतिसेवितदोष की पोछे आलोचना की हो, 3. पीछे से प्रतिसे वितदोष की पहले आलोचना की हो, 4. पीछे से प्रतिसेवितदोष को पीछे आलोचना की हो। 1. मायारहित आलोचना करने का संकल्प करके मायारहित आलोचना की हो, 2. मायारहित आलोचना करने का संकल्प करके मायासहित पालोचना की हो, 3. मायासहित आलोचना करने का संकल्प करके मायारहित आलोचना की हो, 4. मायासहित आलोचना करने का संकल्प करके मायासहित पालोचना की हो / इनमें से किसी भी प्रकार के भंग से आलोचना करने पर उसके सर्व स्वकृत अपराध के प्रायश्चित्त को संयुक्त करके पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर देना चाहिए। जो इस प्रायश्चित्त रूप परिहारतप में स्थापित होकर वहन करते हुए भी पुन: किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में प्रारोपित कर देना चाहिए / 18. जो भिक्षु चातुर्मासिक या कुछ अधिक चातुर्मासिक, पंचमासिक या कुछ अधिक पंचमासिक इन परिहारस्थानों में से किसी एक परिहारस्थान की अनेक बार प्रतिसेवना करके पालोचना करे तो उसे Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268] [व्यवहारसूत्र मायासहित आलोचना करने पर प्रासेवित के अनुसार प्रायश्चित्त रूप परिहारतप में स्थापित करके योग्य वैयावृत्य करनी चाहिए। यदि वह परिहारतप में स्थापित होने पर भी किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर देना चाहिए / 1. पूर्व में प्रतिसेवित दोष की पहले आलोचना की हो, 2. पूर्व में प्रतिसेवित दोष की पीछे आलोचना की हो, 3. पीछे से प्रतिसेवित दोष की पहले आलोचना की हो, 4. पीछे से प्रतिसेवित दोष की पीछे आलोचना की हो / 1. मायारहित आलोचना करने का संकल्प करके मायारहित आलोचना की हो, 2. मायारहित आलोचना करने का संकल्प करके मायासहित आलोचना की हो, 3. मायासहित आलोचना करने का संकल्प करके मायारहित पालोचना की हो, 4. मायासहित आलोचना करने का संकल्प करके मायासहित आलोचना की हो। इनमें से किसी भी प्रकार के भंग से आलोचना करने पर उसके सर्व स्वकृत अपराध के प्रायश्चित्त को संयुक्त करके पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर देना चाहिए। जो इस प्रायश्चित्त रूप परिहारतप में स्थापित होकर वहन करते हुए पुनः किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त में आरोपित कर देना चाहिए। विवेचन-भिक्ष या भिक्षुणी अतिचाररहित संयम का पालन करके तो शुद्ध पाराधना करते ही हैं किन्तु साधना के लंबे काल में कभी शारीरिक या अन्य किसी प्रकार की परिस्थितियों से विवश होकर यदि उन्हें अतिचारादि का सेवन करना पड़े तो भी वे आलोचना एवं प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धि करके संयम की आराधना कर सकते हैं / इन सूत्रों में प्रतिसेवना, आलोचना, प्रायश्चित्तस्थान, प्रस्थापना, प्रारोपणा आदि का कथन किया गया है। निशीथ उद्देशक 20 में ऐसे ही अठारह सूत्र हैं। वहां इन सूत्रों से संबंधित उक्त सभी विषयों का विस्तृत विवेचन कर दिया गया है। सूत्रोक्त परिहारस्थान के भाष्यकार ने दो अर्थ किये हैं 1. परित्याग करने योग्य अर्थात् दोषस्थान और 2. धारण करने योग्य अर्थात् प्रायश्चित्ततप। __प्रस्तुत अठारह सूत्रों में 'दोषस्थान' अर्थ में इस शब्द का प्रयोग किया गया है और निशीथ के प्रत्येक उद्देशक के उपसंहारसूत्र में 'प्रायश्चित्ततप' अर्थ में इसका प्रयोग किया गया है / पारिहारिक और अपारिहारिकों का निषद्यादि व्यवहार 19. बहवे पारिहारिया बहवे अपारिहारिया इच्छेज्जा एगयओ अभिनिसेज्जं वा, अभिनिसीहियं वा चेइत्तए, नो से कप्पद थेरे अणापुच्छित्ता एगयनो अभिनिसेज्जं वा, अभिनिसीहियं वा चेइत्तए / कप्पड़ णं थेरे आपुच्छित्ता एगयओ अभिनिसेज्जं वा, अभिनिसीहियं वा चेइत्तए / Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] [269 थेरा य णं वियरेज्जा, एवं णं कप्पइ एगयओ अभिनिसेज्जं वा, अभिनिसोहियं वा चेइत्तए। थेरा य णं णो वियरेज्जा, एवं नो कप्पइ एगयो अभिनिसेज्जं वा, अभिनिसीहियं वा चेइत्तए / जो णं थेरेहि अविइण्णे, अभिनिसेज्जं वा, अभिनिसीहियं वा चेएइ, से संतरा छेए वा परिहारे वा। 19. अनेक पारिहारिक भिक्षु और अनेक अपारिहारिक भिक्षु यदि एक साथ रहना या बैठना चाहें तो उन्हें स्थविर को पूछे बिना एक साथ रहना या एक साथ बैठना नहीं कल्पता है / स्थविर को पूछ करके ही वे एक साथ रह सकते हैं या बैठ सकते हैं। यदि स्थविर प्राज्ञा दें तो उन्हें एक साथ रहना या एक साथ बैठना कल्पता है। यदि स्थविर आज्ञा न दें तो उन्हें एक साथ रहना या बैठना नहीं कल्पता है / स्थविर की आज्ञा के बिना वे एक साथ रहें या बैठे तो उन्हें मर्यादा उल्लंघन का दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त आता है। विवेचन—परिहारतप वहन करने की विस्तृत विधि निशीथ उ. 4 में कही है तथा उ. 20 एवं बृहत्कल्प उ. 4 में भी कुछ वर्णन किया गया है / पारिहारिक भिक्षु का आहार, विहार, स्वाध्याय, शय्या, निषद्या आदि सभी कार्य समूह में रहते हुए भी अलग-अलग होते हैं / अतः किसी साधु को किसी विशेष कारण से पारिहारिक के साथ बैठना हो तो स्थविर आदि, जो गण में प्रमुख हों, उनकी आज्ञा लेना आवश्यक होता है / स्थविर को उचित लगे तो वे आज्ञा देते हैं अन्यथा वे निषेध कर देते हैं। निषेध करने के बाद भी यदि कोई उ साथ बैठता है, वह मर्यादा का भंग करता है तथा बिना पूछे उसके साथ बैठे या अन्य किसी प्रकार का व्यवहार करे तो मर्यादा-भंग करने वाला होता है, जिससे वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। पारिहारिक के साथ व्यवहार न रखने का कारण यह है कि वह अकेला रहकर प्रायश्चित्त से विशेष निर्जरा करता हुआ अपनी आत्मशुद्धि करे और समूह में रहते हुए उस प्रायश्चित्त तप को वहन कराने का कारण यह है कि अन्य साधुओं को भी भय उत्पन्न हो, जिससे वे दोषसेवन करने से बचते रहें। परिहारकल्पस्थित भिक्षु का वैयावृत्य के लिए विहार 20. परिहारकप्पट्टिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से सरेज्जा। कप्पह से एगराइयाए पडिमाए जपणं जण्णं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरंति तण्णं तण्णं विसं उलित्तए। नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए / कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वस्थए, तंसि च णं कारणंसि निट्टियंसि परो वएज्जा—'वसाहि अज्जो! एगरायं वा दुरायं वा / ' एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वथए / नो से कप्पड़ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वथए / जे तत्थ एगरायानो वा दुरायाओ वा परं वसइ, से संतरा छेए वा परिहारे था। 21. परिहारकप्पट्टिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से नो सरेज्जा कप्पइ से निविसमाणस्स एगराइयाए पडिमाए जण्णं जगणं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरंति तण्णं तण्णं विसं उलित्तए। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270] [व्यवहारसूत्र नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए / कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए / तसि च णं कारणसि निट्ठियंसि परो वएज्जा—'वसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुरायं वा / ' एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वस्थए / नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए। जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ, से संतरा छए वा परिहारे वा। 22. परिहार-कप्पट्टिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से सरेज्जा वा, नो सरेज्जा वा, कप्पइ से निविसमाणस्स एगराइयाए पडिमाए जणं जण्णं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरंति तण्णं तण्णं दिसं उवलित्तए। नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए / कप्पड़ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए / तंसि च णं कारणंसि निट्टियंसि परो वएज्जा, 'वसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुरायं वा।' एवं कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए / नो से कप्पइ परं एगरायानो वा दुरायानो वा वत्थए। जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ, से संतरा छेए वा परिहारे वा। 20. परिहारकल्प में स्थित भिक्षु (स्थविर की आज्ञा से) अन्यत्र किसी रुग्ण स्थविर की वैयावत्य (सेवा) के लिए जावे उस समय स्थविर को स्मरण रहे अर्थात् स्थविर उसे परिहारतप छोड़ने की अनुमति दे तो उसे मार्ग के ग्रामादि में एक-एक रात्रि विश्राम करते हुए जिस दिशा में सार्मिक रुग्ण भिक्षु हो, उसी दिशा में जाना कल्पता है। ___ मार्ग में विचरण के लक्ष्य से ठहरना नहीं कल्पता है, किन्तु रोगादि के कारण रहना कल्पता है। कारण के समाप्त होने पर यदि कोई वैद्य प्रादि कहे कि 'हे आर्य ! तुम यहां एक-दो रात और ठहरो' तो उसे एक-दो रात और रहना कल्पता है, किन्तु एक-दो रात से अधिक रहना उसे नहीं कल्पता है। जो वहां एक-दो रात्रि से अधिक रहता है, उसे उस मर्यादा-उल्लंघन का दीक्षाछेद या तप प्रायश्चित्त आता है। 21. परिहारकल्पस्थित भिक्षु (स्थविर की आज्ञा से) अन्यत्र किसी रुग्ण भिक्षु की वैयावृत्य के लिए जाए, उस समय यदि स्थविर उसे स्मरण न दिलावे अर्थात् परिहारतप छोड़ने की अनुमति न दे तो परिहारतप वहन करते हुए तथा मार्ग के ग्रामादि में एक रात्रि विश्राम करते हुए जिस दिशा में रुग्ण साधर्मिक भिक्षु है उस दिशा में जाना कल्पता है / __ मार्ग में उसे विचरण के लक्ष्य से रहना नहीं कल्पता है। किन्तु रोगादि के कारण रहना कल्पता है / उस कारण के समाप्त हो जाने पर यदि कोई वैद्य आदि कहे कि 'हे आर्य! तुम यहां एक-दो रात और रहो तो उसे वहां एक-दो रात और रहना कल्पता है किन्तु एक-दो रात से अधिक रहना नहीं कल्पता है / जो वहां एक-दो रात्रि से अधिक रहता है उसे उस मर्यादा उल्लंघन का छेद या तप प्रायश्चित्त आता है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] [271 22. परिहारकल्प स्थित भिक्षु (स्थविर की आज्ञा से) अन्यत्र किसी रुग्ण स्थविर को वैयावृत्य के लिए जावे, उस समय स्थविर उसे स्मरण दिलावे या न दिलावे अर्थात् परिहारतप छोड़कर जाने की स्वीकृति दे या न दे तो उसे मार्ग के ग्रामादि में एक रात्रि विश्राम करते हुए और शक्ति हो तो परिहारतप वहन करते हुए जिस दिशा में रुग्ण स्थविर है उस दिशा में जाना कल्पता है। ____ मार्ग में उसे विचरण के लक्ष्य से रहना नहीं कल्पता है किन्तु रोगादि के कारण रहना कल्पता है / कारण के समाप्त हो जाने पर यदि कोई वैद्य आदि कहे कि "हे आर्य ! तुम यहां एक-दो रात और रहो" तो उसे वहां एक-दो रात और रहना कल्पता है किन्तु एक-दो रात से अधिक रहना नहीं कल्पता है / जो वहां एक-दो रात्रि से अधिक रहता है उसे उस मर्यादा-उल्लंघन का छेद या तप प्रायश्चित्त पाता है / . विवेचन-पूर्वसूत्र में परिहारतप करने वाले भिक्षु के साथ निषद्या आदि के व्यवहार का निषेध एवं अपवाद कहा गया है / प्रस्तुत सूत्रत्रिक में परिस्थितिवश पारिहारिक भिक्षु को स्थविर की सेवा के लिए भेजने का वर्णन किया गया है। पारिहारिक भिक्षु अपने प्रायश्चित्त तप की आराधना करता हुआ भी सेवा में जा सकता है अथवा तप की आराधना छोड़कर भी जा सकता है / प्रथम सूत्र में बताया गया है कि स्थविर तप छोड़ने का कहें तो तप छोड़कर जावे। दूसरे सूत्र में बताया गया है कि स्थविर तप छोड़ने का न कहें तो प्रायश्चित्त तप वहन करते हुए जावे / तीसरे सूत्र में बताया गया है कि स्थविर कहें या न कहें, यदि शक्ति हो तो परिहारतय वहन करते हुए ही जावे और शक्ति न हो तो स्वीकृति लेकर परिहारतप छोडकर जावे। पारिहारिक भिक्षु तप करते हुए जावे या तप छोड़कर जावे तो विश्रांति के लिए उसे मार्ग में एक जगह एक रात्रि से अधिक नहीं रुकना चाहिए। धर्म प्रभावना के लिए या किसी की प्रार्थना-आग्रह से वह मार्ग में अधिक नहीं रुक सकता है किन्तु स्वयं को प्रशक्ति या बीमारी के कारण अधिक रुकना चाहे तो वह रुक सकता है। यदि बीमारी के कारण 5-10 दिन तक रहे और उसका उपचार भी करना पड़े तो ठहर सकता है और स्वस्थ होने के बाद किसी वैद्य या किसी हितैषी गहस्थ के कहने से एक या दो दिन और भी रुक सकता है। उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं पाता है / स्वस्थ होने के बाद स्वेच्छा से या किसी के कहने पर दो दिन से अधिक रुके तो वह मर्यादाउल्लंघन के कारण यथायोग्य तप या छेद प्रायश्चित्त का पात्र होता है। "से संतरा छेए वा परिहारे वा" इस सूत्रांश का विवेचन बृहत्कल्पसूत्र उ. 2, सू. 4 में देखें। ___ गंतव्य स्थान का जो सीधा मार्ग संयम-मर्यादा के अनुसार हो तो उसी से वैयावृत्य के लिए जाना चाहिए किन्तु अधिक समय व्यतीत करते हुए यथेच्छ मार्ग से नहीं जाना चाहिए। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272] [व्यवहारसूत्र अकेले विचरने वाले का गण में पुनरागमन __23. भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म एगल्लविहारपडिम उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, पुणो आलोएज्जा, पुणो पडिक्कमेज्जा, पुणो छेय-परिहारस्स उवट्ठाएज्जा। 24. गणावच्छेइए य गणाम्रो प्रवक्कम्म एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, पुणो पालोएज्जा, पुणो पडिक्कमेज्जा, पुणो छेय-परिहारस्स उवट्ठाएज्जा। 25. आयरिय-उवज्झाए य गणाम्रो अवक्कम्म एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, पुणो आलोएज्जा, पुणो पडिक्कमेज्जा, पुणो छेय-परिहारस्स उवाएज्जा / 23. यदि कोई भिक्ष गण से निकलकर एकलविहारचर्या धारण करके विचरण करे, बाद में वह पुन: उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो उस पूर्व अवस्था की पूर्ण पालोचना एवं प्रतिक्रमण करे तथा प्राचार्य उसकी आलोचना सुनकर जो भी छेद या तप रूप प्रायश्चित्त दे उसे स्वीकार करे। 24. यदि कोई गणावच्छेदक गण से निकलकर एकलविहारचर्या को धारण करके विचरण करे और बाद में वह पुनः उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो उस पूर्व अवस्था की पूर्ण मालोचना एवं प्रतिक्रमण करे तथा प्राचार्य उसकी आलोचना सुनकर जो भी छेद या तप रूप प्रायश्चित्त दे उसे स्वीकार करे। 25. यदि कोई प्राचार्य या उपाध्याय गण से निकलकर एकलविहारचर्या को धारण करके विचरण करे और बाद में वह पुनः उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो उस पूर्व अवस्था की पूर्ण आलोचना एवं प्रतिक्रमण करे तथा प्राचार्य उसकी आलोचना सुनकर जो छेद या तप रूप प्रायश्चित्त दे उसे स्वीकार करे। विवेचन--इन सूत्रों में गण से निकलकर एकाकी विहारचर्या करने वाले भिक्षु, प्राचार्य, उपाध्याय एवं गणावच्छेदक का कथन है। ये एकल विहारी भिक्षु यदि एकाकी विहारचर्या छोड़कर पुनः गण में सम्मिलित होना चाहें तो उनको गण में सम्मिलित किया जा सकता है, किन्तु उनको एकाकी विहारचर्या में लगे दोषों की पालोचना प्रतिक्रमण करना आवश्यक होता है और गच्छप्रमुख उनके एकाकी विचरण का प्रायश्चित्त तप या दीक्षाछेद जो भी दे उसे स्वीकार करना भी आवश्यक होता है। इन सूत्रों के विधानानुसार भिक्षु, प्राचार्य, उपाध्याय एवं गणावच्छेदक प्रतिमाधारी नहीं हैं, यह स्पष्ट है। फिर भी सूत्रों में जो "प्रतिमा" शब्द का प्रयोग किया गया है वह केवल सूत्र-शैली है। क्योंकि आगे के सूत्रों में पार्श्वस्थ आदि के लिए एवं अन्य मत के लिंग को धारण करने वाले के लिये Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] [273 भी "प्रतिमा" शब्द का प्रयोग किया गया है / जिनके प्रतिमाधारी होने की कल्पना करना सर्वथा अनुचित होगा। भिक्षु की बारह प्रतिमा या अन्य प्रतिमाएं धारण करने वालों की निश्चित अवधि होती है। ये उतने समय तक पाराधना करते रहते हैं। उनके लिए सूत्र में प्रयुक्त "दोच्चपि" और "इच्छेज्जा" पद अनावश्यक है / वे अनेक प्रकार की तप-साधना आदि का अभ्यास करके ही प्रतिमा धारण करते हैं / अतः बीच में प्रतिमा छोड़कर आने का कोई कारण नहीं होता है तथा प्रतिमाधारी भिक्षु के लिए प्रतिमा पूर्ण करके गच्छ में आने पर तप या छेद प्रायश्चित्त के विधान की कल्पना करना भी उचित नहीं है / क्योंकि प्रतिमा धारण करने वाले श्रावक भी इतने दृढ मनोबल वाले होते हैं कि वे अपने नियमों में किसी प्रकार के प्रागार नहीं रखते हैं अर्थात् राजा आदि का प्रागार भी उनके नहीं रहता है / तब प्रतिमाओं को धारण करने वाले भिक्षु के चलचित्त होने की एवं दोष लगाने की सम्भावना ही कैसे की जा सकती है ? सूत्र 31 में अन्यमत का लिंग धारण करने वाले सामान्य भिक्षु के लिए भी "नस्थि केई छए वा परिहारे वा, नन्नस्थ एगाए पालोयणाए" ऐसा कथन है तो प्रतिमाधारी भिक्षु तो उससे भी बहुत उच्चकोटि की साधना करने वाले होते हैं। अतः इन सूत्रों में किया गया विधान एवं प्रायश्चित्त स्वेच्छावश गच्छ से निकलकर एकलविहारचर्या धारण करने वालों की अपेक्षा से है, ऐसा समझना हो उचित है / आगमों में कहे गए एकलविहार दो प्रकार के हैं(१) अपरिस्थितिक (2) सपरिस्थितिक / अपरिस्थितिक-प्रतिमाओं को धारण करने वाले भिक्षुओं का अकेला रहना केवल निर्जराहेतु होता है, वह अपरिस्थितिक एकलविहार है / प्रतिमा धारण करने वाले भिक्षु गच्छ के प्राचार्य की आज्ञा लेकर आदर सहित एकलविहार करते हैं, अतः ये आचार्य की सम्पदा में गिने जाते हैं / ये नौ पूर्व के ज्ञाता होते हैं / आठ महिनों में प्रतिमा पूर्ण करने के बाद सम्मान पूर्वक गण में आते हैं। सपरिस्थितिक-शारीरिक-मानसिक कारणों से, प्रकृति की विषमता से, शुद्ध संयम पालन करने वाले सहयोगी के न मिलने से अथवा पूर्णतया संयमविधि का पालन न कर सकने से, जो स्वेच्छा से एकलविहार धारण किया जाता है, वह 'सपरिस्थितिक एकलविहार' है। सपरिस्थितिक एकलविहारचर्या वाला भिक्षु प्राचार्य की सम्पदा में नहीं गिना जाता है। उसका गच्छ से निकलना आज्ञा से अथवा आदरपूर्वक नहीं होता है, किन्तु संघ की उदासीनता या विरोधपूर्वक होता है। सपरिस्थितिक एकल विहारचर्या वाले भिक्षु के लिए प्रतिमा धारण करना, उत्कृष्ट गीतार्थ होना अथवा विशिष्ट योग्यताओं का होना तो अनिवार्य नहीं है, तथापि नवदीक्षित (तीन वर्ष से अल्प दीक्षा पर्याय वाला), बालक (16 वर्ष से कम वय वाला) एवं तरुण (40 वर्ष से अल्प वय वाले) भिक्षु को एकलविहारी नहीं होना चाहिए। क्योंकि व्यवहारसूत्र उ. 3 में इन तीनों को आचार्य उपाध्याय के नेतृत्व में ही रहने का विधान है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274] [व्यवहारसूत्र अपरिस्थितिक एकलविहारचर्या सम्बन्धी प्रागमस्थल 1. भिक्षु को ग्यारह प्रतिमा। -दशा द. 7 2. जिनकल्पसाधना। -बहत्कल्प उ.६ 3. जिनकल्पी को सर्प काटने पर भी उपचार कराने का निषेध / -व्यव. उ. 5 4. एकलविहार का मनोरथ। --ठाणं अ. 3 5. एकलविहार के पाठ गुण / -ठाणं अ. 8 6. अकेले बैठे, खड़ा रहे, सोवे एवं विचरे। -सूय. श्रु. 1, अ. 2, उ. 2 7. संभोग (सामूहिक आहार) प्रत्याख्यान का फल। -उत्तरा. अ. 29 8. सहाय-प्रत्याख्यान का फल / -उत्तरा. अ. 29 9. शिष्य को एकलविहारसमाचारी की शिक्षा देने से प्राचार्य का शिष्य के ऋण से मुक्त होना। ---दशा . द. 4 10. गणत्याग करना आभ्यन्तर तप कहा है। --उववाई. सू. 30/ भगवती. श. 25, उ.७ 11. वस्त्र सम्बन्धी प्रतिज्ञायुक्त एकलविहार। -आ. श्रु. 1, अ.८, उ. 4-5-6-7 मोय-प्रतिमा तथा दत्ति-परिमाण तप एवं अनेक अभिग्रहों में भी समूह का या सामूहिक आहार का त्याग किया जाता है। सपरिस्थितिक एकलविहारचर्या सम्बन्धी विधान करने वाले आगमस्थल 1. आत्मसुरक्षा के लिए एकल विहार। -ठाणं. अ. 3 2. शिष्यों द्वारा उत्पन्न असमाधि से गर्गाचार्य का एकलविहार / –उत्तरा. अ. 26 3. योग्य सहायक भिक्षु के अभाव में एकल विहार का निर्देश। -उत्तरा. अ. 32 4. पूरी चूलिका का नाम ही 'विविक्तचर्या' है एवं उसमें एकलविहार के निर्देश के साथ अनेक शिक्षाप्रद वचन कहे हैं। -दशवै. चू. 2 5. शुद्ध गवेषणा करने वाले भिक्षु के एकल विहार की प्रशंसा / --आचा. श्रु. 1, अ. 6, उ. 2 6. प्राधाकर्म दोष से बचने के लिए एकलविहार की प्रेरणा एवं उससे मोक्षप्राप्ति का प्ररूपण / -सुय. श्रु. 1, अ. 10 7. एकलविहारी के निवासयोग्य उपाश्रय का विधान / ---व्यव. उ. 6 8. एकलविहारी की वृद्धावस्था का प्रापवादिक जीवन / -व्यव. उ. 8 9. ठाणं अ. 5 में गणत्याग के प्रशस्त कारण कहे हैं एवं बृहत्कल्प उ. 4 में संयम गुण की हानि हो ऐसे गण में जाने का निषेध है। अत: ऐसी परिस्थिति वाले भिक्षु का एकल विहार। 10. अरिहंत सिद्ध की साक्षी से एकलविहारी भिक्षु को आलोचना एवं प्रायश्चित्त ग्रहण करने की विधि। -व्यव. उ. 1, सू. 33 अप्रशस्त एकलविहार एवं उसका निषेध करने वाले आगमस्थल 1. अत्यन्तक्रोधी-मानी एवं धूर्त का दूषित एकलविहार / --आचा. श्रु. 1, अ. 5, उ. 1 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयम उद्देशक] [275 2. योग्य प्रायश्चित्त स्वीकार न करने से जो गच्छ-निष्कासित हो, उसका एकलविहार / / --बृहत्कल्प. उ. 4 3. अव्यक्त एवं प्रशान्त स्वभाव वाले का संकटयुक्त एकलविहार। -प्राचा. श्रु. 1, अ. 5, उ. 4 4. संयम-विधि के पालन में अरुचि वाले के लिए एकलविहार का निषेध / -प्राचा. श्रु. 1, अ. 5, उ. 6 5. परिपूर्ण पंखरहित पक्षी की उपमा से अव्यक्त भिक्षु के लिए एकलविहार का निषेध / __सूय. श्रु. 1, अ. 14 6. नवदीक्षित, बालक एवं तरुण भिक्षु को प्राचार्य की निश्रा बिना रहने का निषेध / -व्यव. उ. 3 7. प्राचार्य, उपाध्याय पद धारण करने वालों को अकेले विहार करने का निषेध / -व्य व.उ.४ . नियुक्ति तथा भाष्य में एकलविहार का वर्णन 1. बृहत्कल्पभाष्य गाथा. 690 से 693 तक जघन्यगीतार्थ-आचारांग एवं निशीथसूत्र को कण्ठस्थ धारण करने वाला। मध्यमगीतार्थ-आचारांग, सयगडांग एवं चार छेदसत्रों को कण्ठस्थ करने वाला। उत्कृष्टगोतार्थ-नवपूर्व से 14 पूर्व तक के ज्ञानी आदि / इनमें से किसी भी प्रकार का गीतार्थ ही प्राचार्य, उपाध्याय या एकलविहारी हो सकता है। क्योंकि गीतार्थ का एकाकी विहार एवं गीतार्थ आचार्य की निश्रायुक्त गच्छविहार, ये दो विहार ही जिनशासन में अनुज्ञात हैं। तीसरा अगीतार्थ का एकाकी विहार एवं अगीतार्थ की निश्रायुक्त गच्छविहार भी जिनशासन में निषिद्ध है। निशीथचूणि गा. 404 में उक्त गीतार्थ की व्याख्या के समान ही जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट बहुश्रुत की भी व्याख्या की गई है। 2. व्यवहारभाष्य उ. 1 के अन्तिम सूत्र में 1. रोगातंक 2. दुर्भिक्ष 3. राजद्वेष 4. भय 5. शारीरिक या मानसिक ग्लानता 6. ज्ञान दर्शन या चारित्र की वृद्धि हेतु 7. साथी भिक्षु के काल-धर्म प्राप्त होने पर 8. प्राचार्य या स्थविर की आज्ञा से भेजने पर, इत्यादि कारणों से एकलविहार किया जाता है। ___ गच्छ में आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर एवं गणावच्छेदक इन पांच पदवीधरों में से एक भी योग्य पदवीधर के न होने के कारण गच्छ त्याग करने वाले एकलविहारी भिक्षु होते हैं। उक्त कारणों से एकलविहारी हुए भिक्षुओं को अरिहंत सिद्ध की साक्षी से आलोचना करने का विधान है। 3. प्रोपनियुक्ति में सकारण एवं अकारण के भेद से एकलविहार दो प्रकार का कहा है 1. ज्ञान दर्शन चारित्र को वृद्धि के लिए या आगमोक्त अन्य परिस्थितियों से किया गया गीतार्थ का एकलविहार 'सकारण एकलविहार' है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276] [व्यवहारसूत्र 2. प्राचार्यादि के अनुशासन से घबराकर अथवा स्थान, क्षेत्र, आहार, वस्त्र प्रादि-मनोनुकूल प्राप्त करने हेतु अथवा अनेक स्थलों को देखने हेतु किया गया गीतार्थ का एकलविहार भी 'अकारण एकलविहार' है तथा सभी अगीतार्थों का एकल विहार तो 'अकारण एकल विहार' ही कहा जाता है। प्रस्तुत सूत्रत्रिक में आचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक एवं सामान्य भिक्षुत्रों के एकलविहार करने का एवं गण में पुनरागमन का विधान किया गया है। सारांश यह है कि एकलविहार प्रशस्त अप्रशस्त दोनों प्रकार का होता है। अतएव एकलविहार आगमों में निषिद्ध भी है एवं विहित भी है / गीतार्थ का आगमोक्त कारणों के उपस्थित होने पर किया गया प्रशस्त एकलविहार आगमविहित है। अगीतार्थ, अबहुश्रुत और अव्यक्त का एकलविहार एकान्त निषिद्ध है और ये तीनों ही शब्द एकार्थक भी हैं। संयम में शिथिल, अजागरूक एवं क्रोध, मान आदि कषायों की अधिकता वाले भिक्षु का . एकलविहार अप्रशस्त है एवं वह निदित एकलविहार कहा गया है / ये प्रशस्त अप्रशस्त कोई भी एकाकीविहारी भिक्ष पुन: गच्छ में आकर रहना चाहे तो उचित परीक्षण करके एवं योग्य प्रायश्चित्त देकर गच्छ में रखा जा सकता है / यह तीनों सूत्रों का सार है। पार्श्वस्थ-विहारी आदि का गण में पुनरागमन 26. भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म पासत्यविहारपडिम उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा वोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, अस्थि य इत्थ सेसे, पुणो आलोएज्जा, पुणो पडिक्कमेज्जा, पुणो छेयपरिहारस्स उवट्टाएज्जा। 27. भिक्खू य गणाओ प्रवक्कम्म अहाछंदविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जिताणं विहरित्तए, अत्थि य इत्थ सेसे, पुणो पालोएज्जा, पुणो पडिक्कमेज्जा, पुणो छेयपरिहारस्स उवट्ठाएज्जा। ___28. भिक्खू य गणाम्रो अवक्फम्म कुसीलविहारपडिम उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, अस्थि य इत्य सेसे, पुणो आलोएज्जा, पुणो छेयपरिहारस्स उवट्ठाएज्जा। 29. भिक्खू य गणाओ अवक्फम्म प्रोसन्नविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, अत्थि य इत्थ सेसे, पुणो पालोएज्जा, पुणो पडिक्कमेज्जा पुणो छेयपरिहारस्स उवट्ठाएज्जा। 30. भिक्खू य गणाओ अवक्कम संसत्तविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, अत्थि य इत्थ सेसे, पुणो आलोए ज्जा, पुणो पडिक्कमेज्जा, पुणो छेयपरिहारस्स उबट्टाएज्जा। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयम उद्देशक] [277 26. यदि कोई भिक्षु गण से निकलकर पावस्थविहारचर्या को अंगीकार करके विचरे और बाद में वह पार्श्वस्थविहार छोड़कर उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो यदि उसका चारित्र कुछ शेष हो तो पूर्व अवस्था की पूर्ण आलोचना एवं प्रतिक्रमण करे तथा प्राचार्य उसकी पालोचना सुनकर जो भी दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त दें, उसे स्वीकार करे। 27. यदि कोई भिक्षु गण से निकलकर यथाछन्दविहारचर्या अंगीकार करके विचरे और बाद में वह यथाछन्दविहार छोड़कर उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो यदि उसका चारित्र कुछ शेष हो तो वह उस पूर्व अवस्था की पूर्ण आलोचना एवं प्रतिक्रमण करे तथा आचार्य उसकी आलोचना सुनकर जो भी दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त दें, उसे स्वीकार करे / 28. यदि कोई भिक्षु गण से निकलकर कुशीलविहारचर्या को अंगीकार करके विचरे और बाद में वह कुशील विहार छोड़कर उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो यदि उसका चारित्र कुछ शेष हो तो वह उस पूर्व अवस्था की पूर्ण आलोचना एवं प्रतिक्रमण करे तथा आचार्य उसकी आलोचना सुनकर जो भी दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त दें, उसे स्वीकार करे। 29. यदि कोई भिक्षु गण से निकलकर अवसन्नविहारचर्या को अंगीकार करके विचरे और बाद में वह अवसनविहार छोड़कर उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो यदि उसका चारित्र कुछ शेष हो तो वह उस पूर्व अवस्था की पूर्ण पालोचना एवं प्रतिक्रमण करे तथा प्राचार्य उसकी पालोचना सुनकर जो भी दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त दें, उसे स्वीकार करे। 30. यदि कोई भिक्ष गण से निकलकर संसक्तविहारचर्या को अंगीकार करके विचरे और बाद में वह संसक्तविहार को छोड़कर उसी गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो यदि उसका चारित्र कुछ शेष हो तो वह उस पूर्व अवस्था की पूर्ण पालोचना एवं प्रतिक्रमण करे तथा प्राचार्य उसकी आलोचना सुनकर जो भी दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त दें, उसे स्वीकार करे। विवेचनपूर्व के सूत्रों में एकलविहारी भिक्षु के पुनः गच्छ में आने का कथन है और इन सूत्रों में शिथिल आचार वाले पार्श्वस्थ आदि भिक्षुओं का पुनः गच्छ में आने का कथन है / इन सूत्रों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वसूत्रों में वर्णित एकलविहार वाले संयम में शिथिल नहीं हैं, किन्तु शुद्ध प्राचार का पालन करने वाले हैं। पार्श्वस्थ आदि जब पुनः गच्छ में पाना चाहें तब उनकी दूषित प्रवृतियों के द्वारा संयम पूर्ण नष्ट न हुआ हो अर्थात् कुछ भी संयम के गुण शेष रहे हों तो उन्हें तप या छेद का प्रायश्चित्त देकर गच्छ में सम्मिलित किया जा सकता है। ___ यह संयम शेष रहने का कथन पूर्वसूत्रों में नहीं है, अन्य सभी विधान दोनों जगह समान हैं। अतः इनका विवेचन पूर्ववत् समझना चाहिए / इन सूत्रों में प्रायश्चित्त के लिए तप या छेद का वैकल्पिक विधान किया गया है अर्थात् किसी एकलविहारी या पार्श्वस्थ आदि को तप प्रायश्चित्त देकर गच्छ में सम्मिलित किया जा सकता है और किसी को दीक्षाछेद का प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है, अतः एकान्त विधान नहीं समझना चाहिए। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278] [व्यवहारसूत्र किसी भी साधु को पुनः गच्छ में सम्मिलित करने के लिए उसके संयम की परीक्षा करना एवं जानकारी करना अत्यन्त आवश्यक होता है, चाहे वह शुद्ध-प्राचार वाला हो अथवा शिथिल-प्राचार वाला हो / 1. स्वतंत्र रहने वाला भिक्षु गच्छ के आचार-विचार एवं विनय-अनुशासन में रह सकेगा या नहीं, यह देखना अत्यंत आवश्यक है। 2. वह पार्श्वस्थविहार आदि छोड़कर पुन: गच्छ में क्यों पाना चाहता है-विशुद्ध परिणामों से या संक्लिष्ट परिणामों से ? 3. परीषह-उपसर्ग एवं अपमान आदि से घबराकर पाना चाहता है ? 4. भविष्य के लिए उसके अब क्या कैसे परिणाम हैं ? 5. उसके गच्छ में रहने के परिणाम स्थिर हैं या नहीं ? इत्यादि विचारणाओं के बाद उसका एवं गच्छ का जिसमें हित हो, ऐसा निर्णय लेना चाहिए। सही निर्णय करने के लिए उस भिक्षु को कुछ समय तक या उत्कृष्ट छह महीने तक गच्छ में सम्मिलित न करके परीक्षार्थ रखा जा सकता है, जिससे उसे रखने या न रखने का सही निर्णय हो सके। इन विचारणाओं का कारण यह है कि वह भिक्षु गच्छ का या गच्छ के अन्य साधु-साध्वियों का अथवा संघ का कुछ भी अहित कर बैठे, बात-बात में कलह करे, गच्छ या गच्छप्रमुखों की निंदा करे या पुनः गच्छ को छोड़ दे, अन्य साधुओं को भी भ्रमित कर गच्छ छुड़ा दे, इत्यादि परिणामों से उसकी या गच्छ की एवं जिनशासन की होलना होती है। अतः सभी विषयों का पूर्वापर विचार करके ही प्रागंतुक भिक्षु को रखना चाहिए / अन्य गच्छ के आगंतुक भिक्षु के लिए भी ऐसी ही सावधानियां रखना आवश्यक समझ लेना चाहिए। पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील और संसक्त-इन चारों का विस्तृत विवेचन निशीथ उ. 4 में देखें / यथाछंद का विस्तृत विवेचन निशीथ उ. 10 में देखें / संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है-- 1. पाश्र्वस्थ-जो ज्ञान दर्शन चारित्र की आराधना में पुरुषार्थ नहीं करता अपितु उनके अतिचारों एवं अनाचारों में प्रवृत्ति करता है, वह 'पार्श्वस्थ' कहा जाता है। 2. यथाछंद-जो आगमविपरीत मनमाना प्ररूपण या आचरण करता है, वह यथाछंद कहा जाता है। 3. कुशील-जो विद्या, मंत्र, निमित्त-कथन या चिकित्सा आदि संयमी जीवन के निषिद्ध कार्य करता है, वह 'कुशील' कहा जाता है। 4. अवसन्न-जो संयमसमाचारी के नियमों से विपरीत या अल्पाधिक आचरण करता है, वह 'प्रवसन्न' कहा जाता है। 5. संसक्त-उन्नत प्राचार वालों के साथ उन्नत आचार का पालन करता है और शिथिलाचार वालों के साथ शिथिलाचारी हो जाता है, वह 'संसक्त' कहा जाता है / संयम में दोष लगाने के कारण ये पार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारी कहे जाते हैं। किन्तु भगवती Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] [279 सूत्र श. 25 उ. 6 में बकुश और प्रतिसेवनाकुशील निर्ग्रन्थ का वर्णन है। वे दोष का सेवन करते हुए भी निर्ग्रन्थ कहे जाते हैं। इसका कारण यह है--- 1. जो भिक्षु अनिवार्य परिस्थिति के बिना दोष सेवन करता है। 2. अनिवार्य परिस्थिति में दोष सेवन करके शुद्धि नहीं करता है। 3. संयम की मर्यादाओं से विपरीत आचरणों को सदा के लिए स्वीकार कर लेता है, वह "शिथिलाचारी पार्श्वस्थादि" कहा जाता है। जो भिक्ष किसी अनिवार्य परिस्थिति से विवश होकर दोष सेवन करता है, बाद में प्रायश्चित्त लेकर दोषों की शुद्धि कर लेता है। विशेष परिस्थिति से निवृत्त होने पर सदोष प्रवृत्तियों का परित्याग कर देता है, वह "शिथिलाचारी पार्श्वस्थादि" नहीं कहा जाता है किन्तु बकुश या प्रतिसेवना निर्ग्रन्थ एवं शुद्धाचारी कहा जाता है। शुद्धाचारी एवं शिथिलाचारी का निर्णय करने में एक विकल्प यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि संयम की जिन मर्यादाओं का आगमों में स्पष्ट कथन है, उनका जो अकारण पालन नहीं करता है उसे तो शिथिलाचारी कहा जा सकता है, किन्तु आगमों में जिन मर्यादाओं का कथन नहीं है, जो परम्परा से प्रचलित हैं या गच्छ समुदाय या व्यक्ति के द्वारा निर्धारित एवं आचरित हैं, ऐसी समाचारी के न पालने से किसी को शिथिलाचारी मानना सर्वथा अनुचित है। जिस समुदाय या गच्छ की जो मर्यादाएं हैं उस गच्छ या समुदाय वालों के लिए अनुशासन हेतू उनका पालन करना आवश्यक है। क्योंकि अपने गच्छ की मर्यादा का पालन न करने वाला गच्छसमाचारी एवं गुरु आज्ञा का भंग करने वाला होता है। किन्तु उस गक्छ से भिन्न गच्छ वाले साधु साध्वी को उन नियमों के पालन करने पर शिथिलाचारी या गुरु आज्ञा का भंग करने वाला नहीं कहा जा सकता / ऐसी सामाचारिक मर्यादाओं की एक सूची निशीथ उ. 13 में दी गई है। जिज्ञासु पाठक उसे ध्यान से देखें। पार्श्वस्थ आदि के इन पांच सूत्रों का क्रम निशीथसूत्र उद्देशक 4 एवं उद्देशक 13 के मूल पाठ एवं भाष्य में इस प्रकार है 1. पार्श्वस्थ 2. अवसन्न 3. कुशील 4. संसक्त 5. नित्यक / किन्तु प्रस्तुत सूत्र एवं उसके भाष्य में क्रम इस प्रकार है 1. पार्श्वस्थ 2. यथाछंद 3. कुशील 4. अवसन्न 5. संसक्त / यह क्रमभेद मौलिक रचना से है या कालक्रम से है या लिपिदोष से है, यह ज्ञात नहीं हो सका है / भाष्य में भी इस विषय में कोई विचार नहीं किया गया है। भाष्य में बताया गया है कि कई पार्श्वस्थादि अात्मनिन्दा एवं सुसाधुओं की प्रशंसा करते हुए विचरण करते हैं, कई पार्श्वस्थादि क्षेत्र-काल की ओट लेकर अपने शिथिलाचार का बचाव करते हैं एवं विद्या, मन्त्र, निमित्त आदि से अपनी प्रतिष्ठा बनाते हैं और सुसाधुओं की निन्दा भी करते हैं।। पार्श्वस्थ आदि महाविदेहक्षेत्र में भी होते हैं एवं सभी तीर्थंकरों के शासन में भी होते हैं। ___ इन पार्श्वस्थ आदि में भी यथाछन्द साघु अपना और जिनशासन का अत्यधिक अहित करने वाला होता है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280] [व्यवहारसूत्र ये सभी पार्श्वस्थादि अनुकम्पा के योग्य हैं तथा सद्बुद्धि आने पर यदि ये सुविहित गण में आना चाहें तो उनकी योग्यता का निर्णय करके इन्हें गच्छ में सम्मिलित किया जा सकता है, यह इन सूत्रों का आशय समझना चाहिए। अन्यलिंगग्रहण के बाद गण में पुनरागमन 31. भिक्खू य गणाओ अबक्कम्म परपासंडयडिम उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा वोच्चं पि तमेव गणं उपसंपज्जिताणं विहरित्तए, नस्थि णं तस्स तप्पत्तियं केइ छए वा परिहारे वा, नन्नत्य एगाए पालोयणाए। 31. यदि कोई भिक्षु गण से निकलकर किसी विशेष परिस्थिति से अन्य लिंग को धारण करके विहार करे और कारण समाप्त होने पर पुनः स्वलिंग को धारण करके गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे तो उसे लिंगपरिवर्तन का पालोचना के अतिरिक्त दीक्षाछेद या तप रूप कोई प्रायश्चित्त नहीं आता है। विवेचन--यदि कोई भिक्षु कषायवश गण को छोड़कर अन्यलिंग धारण करता है एवं कालान्तर में पुनः स्वगच्छ में पाना चाहता है तो उसे दीक्षाछेद या मूल दीक्षा आदि प्रायश्चित्त देकर ही गच्छ में सम्मिलित किया जा सकता है / किन्तु प्रस्तुत सूत्र में जो दीक्षाछेद आदि प्रायश्चित्त का निषेध किया गया है, उसका आशय यह है असह्य उपद्रवों से उद्विग्न होकर कोई भिक्षु भावसंयम की रक्षा के लिए द्रव्यलिंग का परिवर्तन करता है अथवा किसी देश का राजा आईतधर्म से एवं निर्ग्रन्थ श्रमणों से द्वेष रखता है, उस क्षेत्र में किसी भिक्षु को जितने समय रहना हो या उस क्षेत्र को विहार करके पार करना हो, तब वह लिंगपरिवर्तन करता है। बाद में पुनः स्वलिंग को धारण कर गच्छ के साधुओं के साथ रहना चाहता है तब उसे लिंगपरिवर्तन के लिए केवल अालोचना प्रायश्चित्त के सिवाय कोई छेद या तप प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता है। भगवती सूत्र श. 25 उ. 7 में गृहस्थलिंग एवं अन्यलिंग में छेदोपस्थापनीयचारित्र का जो कथन है, वह भी इसी अपेक्षा से है। यहां सूत्र में 'परपासंड' शब्द के साथ 'पडिम' शब्द का प्रयोग किया गया है फिर भी यह सूत्रोक्त 'भिक्षु प्रतिमा' नहीं है, किंतु शब्दप्रयोग करने की यह विशिष्ट प्रागम-शैली है, ऐसा समझना चाहिए। विशेष जानकारी के लिए सूत्र 23 का विवेचन देखें / संयम छोड़कर जाने वाले का गण में पुनरागमन 32. भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म ओहावेज्जा, से य इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नत्थि णं तस्स तप्पत्तियं केई छेए वा परिहारे वा, नन्नत्थ एगाए छेनोवट्ठावणियाए। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] 261 32. यदि कोई भिक्षु गण से निकलकर संयम का त्याग कर दे और बाद में वह उसी गण को स्वीकार कर रहना चाहे तो उसके लिए केवल "छेदोपस्थापना" (नई दीक्षा) प्रायश्चित्त है, इसके अतिरिक्त उसे दीक्षाछेद या परिहार तप आदि कोई प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता है। विवेचन–यदि कोई भिक्षु संयम-मर्यादाओं तथा परीषह-उपसर्गों से घबराकर इन्द्रियविषयों की अभिलाषा से अथवा कषायों के वशीभूत होकर संयम का त्याग कर देता है एवं गृहस्थलिंग धारण कर लेता है, वही कभी पुनः संयम स्वीकार करना चाहे और उसे दीक्षा देना लाभप्रद्र प्रतीत हो तो उसे पुनः दीक्षा दी जा सकती है। किन्तु उसे गच्छ एवं संयम त्यागने संबंधी प्रवृत्ति का कोई प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता है / क्योंकि पुन: नई दीक्षा देने से ही उसका पूर्ण प्रायश्चित्त हो जाता है। दशवकालिकसूत्र की प्रथम चूलिका में संयम में अस्थिर चित्त को पुनः स्थिर करने के लिए अठारह स्थानों द्वारा विस्तृत एवं हृदयद्रावक वर्णन किया गया है। अन्त में कहा गया है कि संयम में उत्पन्न यह दुःख क्षणिक है और असंख्य वर्षों के नरक के दुःखों से नगण्य है तथा संयम में रमण करने वाले के लिए वह दुःख भी महान् सुखकारी हो जाता है। इसलिए संयम में रमण करना चाहिए / इन्द्रियविषयों के सुख भी शाश्वत रहने वाले नहीं होते, किन्तु वे सुख तो दुःख की परम्परा को बढ़ाने वाले ही होते हैं। अत: साधक को ऐसा दृढ निश्चय करना चाहिए कि "चइज्ज देह न हु धम्मसासणं" अर्थात् 'शरीर का सम्पूर्ण त्याग करना पड़ जाय तो भी धर्म-शासन अर्थात् संयम का त्याग कदापि नहीं करूगा / संयम त्यागने वाले या संयम में रमण नहीं करने वाले भिक्षु भविष्य में अत्यन्त पश्चात्ताप को प्राप्त होते हैं। अन्य प्रागमों में भी संयम में स्थिर रहने का एवं किसी भी परिस्थिति में त्याग किये गृहवास एवं विषयों को पुनः स्वीकार नहीं करने का उपदेश दिया गया है। अतः संयमसाधनाकाल में विषय-कषायवश या असहिष्णुता आदि कारणों से संयम छोड़ने का संकल्प उत्पन्न हो जाय तो उन्हें आगमों के अनेक उपदेश-वाक्यों द्वारा तत्काल निष्फल कर देना चाहिए। आलोचना करने का क्रम 33. (1) भिक्खू य अन्नयरं प्रकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता इच्छेज्जा आलोएत्तए, जत्थेव अप्पणी आयरिय-उवज्झाए पासेज्जा, तस्संतिए आलोएज्जा जाव प्रहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा। (2) नो चेव गं अप्पणो प्रायरिय-उवज्झाए पासेज्जा, जत्थेव संभोइयं साहम्मियं पासेज्जा बहुस्सुयं बब्भागम, तस्संतिए पालोएज्जा जाव अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा। (3) नो चेव णं संभोइयं साहिम्मयं बहुस्सुयं बब्भागमं पासेज्जा, जत्थेव अन्नसंभोइयं साहम्मियं पासेज्जा बहुस्सुयं बब्भागम, तस्संतिए आलोएज्जा जाव अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा। (4) नो चेव णं अन्नसंभोइयं साहम्मियं पासेज्जा बहुस्सुयं बब्भागमं, जत्थेव सारूवियं पासेज्जा बहुस्सुयं बब्भागम, तस्संतिए पालोएज्जा जाव अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा / Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282] [व्यवहारसूत्र (5) नो चेव णं सारूवियं पासेज्जा बहुस्सुयं बभागमं, जत्थेव समणोवासगं पच्छाकडं पासेज्जा बहुस्सुयं बभागम, तस्संतिए आलोएज्जा जाव प्रहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा। (6) नो चेव णं समणोवासगं पच्छाकडं पासेज्जा बहुस्सुयं बब्भागम, जत्थेव सम्म भावियाई चेइयाई पासेज्जा, तस्संतिए आलोएज्जा जाव प्रहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा। (7) नो चैव णं सम्म भावियाई चेइयाई पासेज्जा, बहिया गामस्स वा जाव रायहाणीए वा पाईणाभिमुहे वा उदोणाभिमुहे वा करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वएज्जा "एवइया मे प्रवराहा, एवइक्खुत्तो अहं प्रवरद्धो" अरिहंताणं सिद्धाणं अन्तिए आलोएज्जा जाव अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा। (1) भिक्षु किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन करके उसकी आलोचना करना चाहे तो जहां पर अपने आचार्य या उपाध्याय को देखे, वहां उनके समीप आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करे। (2) यदि अपने आचार्य या उपाध्याय न मिलें तो जहां पर साम्भोगिक (एक मांडलिक आहार वाले) साधर्मिक साधु मिलें जो कि बहुश्रुत एवं बहुमागमज्ञ हों, उनके समीप आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करे। (3) यदि साम्भोगिक सार्मिक बहुश्रुत बहुअागमज्ञ साधु न मिले तो जहां पर अन्य साम्भोगिक सार्मिक साधु मिले-"जो बहुश्रुत हो और बहुआगमज्ञ हो", वहां उसके समीप आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करे / (4) यदि अन्य साम्भोगिक सार्मिक बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ साधु न मिले तो जहां पर सारूप्य साधु मिले, जो बहुश्रुत हो और बहुअागमज्ञ हो, वहां उसके समीप आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपः कर्म स्वीकार करे / (5) यदि सारूप्य बहुश्रुत और बहुअागमज्ञ साधु न मिले तो जहां पर पश्चात्कृत (संयमत्यागी) श्रमणोपासक मिले, जो बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ हो वहां उसके समीप आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करे / (6) यदि पश्चात्कृत बहुश्रुत और बहुमागमज्ञ श्रमणोपासक न मिले तो जहां पर सम्यक् भावित ज्ञानी पुरुष (समभावी-स्व-पर-विवेकी सम्यग्दृष्टि व्यक्ति) मिले तो वहां उसके समीप आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करे।। (7) यदि सम्यक् भावित ज्ञानी पुरुष न मिले तो ग्राम यावत् राजधानी के बाहर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर अभिमुख हो, करतल जोड़कर मस्तक के प्रावर्तन करे और मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोले Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] [283 "इतने मेरे दोष हैं और इतनी बार मैंने इन दोषों का सेवन किया है," इस प्रकार बोलकर अरिहन्तों और सिद्धों के समक्ष आलोचना करे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करे। विवेचन संयमसाधना करते हुए परिस्थितिवश या प्रमादवश कभी श्रमण-धर्म की मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले अकृत्यस्थान का आचरण हो जाय तो शीघ्र ही अप्रमत्तभाव से पालोचना करना संयम जीवन का आवश्यक अंग है / यह आभ्यन्तर तपरूप प्रायश्चित्त का प्रथम भेद है। उत्तरा. अ. 29 में आलोचना करने का फल बताते हुए कहा है कि आलोचक अपनी आलोचना करके आत्मशल्यों को, मोक्षमार्ग में विघ्न करने वाले दोषों को और अनन्त संसार की वृद्धि कराने वाले कर्मों को प्रात्मा से अलग कर देता है अर्थात् उन्हें नष्ट कर देता है। आलोचना करने वाला एवं आलोचना सुनने वाला ये दोनों ही आगमोक्त गुणों से सम्पन्न होने चाहिए। ऐसा करने पर ही इच्छित आराधना सफल होती है। निशीथ उ. 20 में आलोचना से सम्बन्धित आगमोक्त अनेक विषयों की जानकारी स्थलनिर्देश सहित दी गई है, पाठक वहीं देखें। प्रस्तुत सूत्र में पालोचना किसके समक्ष करनी चाहिये, इसका एक क्रम दिया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि जहां तक सम्भव हो इसी क्रम से पालोचना करनी चाहिए। व्युत्क्रम से करने पर भाष्य में पृ. 126 (एक सौ छब्बीस) पर गुरुचौमासी एवं लघुचौमासी प्रायश्चित्त कहा गया है। इसलिए आलोचना करने के इच्छुक भिक्षु को सर्वप्रथम अपने आचार्य या उपाध्याय के पास आलोचना करनी चाहिए। यदि किसी कारण से आचार्य उपाध्याय का योग सम्भव न हो अर्थात् वे रुग्ण हों या दूर हों एवं स्वयं का आयु अल्प हो तो सम्मिलित आहार-व्यवहार वाले साम्भोगिक साधु के समक्ष प्रालोचना करनी चाहिए, किन्त वह सामान्य भिक्ष भी अालोचना सनने के गुणों से सुसम्पन्न एवं बहुश्रुत (छेदसूत्रों में पारंगत) तथा बहुअागमज्ञ (अनेक सूत्रों एवं अर्थ का अध्येता) होना चाहिए। उक्त योग्यतासम्पन्न सांभोगिक साधु न हो या न मिले तो असांभोगिक (सम्मिलित आहार नहीं करने वाले) बहुश्रुत आदि योग्यतासम्पन्न भिक्षु के समक्ष आलोचना करनी चाहिए / वह असांभोगिक भिक्षु आचारसम्पन्न होना चाहिए। / यदि आचारसम्पन्न असांभोगिक साधु भी न मिले तो समान लिंग वाले बहुश्रुत आदि गुणों से सम्पन्न भिक्षु के पास आलोचना करनी चाहिए। यहां समान लिंग कहने का आशय यह है कि उसका प्राचार कैसा भी क्यों न हो, उसके पास भी आलोचना की जा सकती है। उक्त भिक्षु के न मिलने पर जो संयम छोड़कर श्रमणोपासकपर्याय का पालन कर रहा है और बहुश्रुत आदि गुणों से सम्पन्न है तो उसके पास आलोचना की जा सकती है। यहां तक के क्रम में प्रायश्चित्त के जानकार के समक्ष आलोचना कर शुद्धि करने का कथन किया गया गया है। प्रागे के दो विकल्पों में पालोचक स्वयं ही प्रायश्चित्त ग्रहण करता है। प्रथम विकल्प में जो सम्यक रूप से जिनप्रवचन में भावित सम्यग्दृष्टि हो अथवा जो समभाव वाला, सौम्य प्रकृति वाला, समझदार व्यक्ति हो उसके पास पालोचना कर लेनी चाहिए। द्वितीय विकल्प में बताया गया है कि कभी ऐसा व्यक्ति भी न मिले तो ग्रामादि के बाहर Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284] [व्यवहारसूत्र निर्जन स्थान में उच्चस्वर से अरिहंतों या सिद्धों को स्मृति में रख कर उनके सामने आलोचना करनी चाहिए एवं स्वयं ही यथायोग्य प्रायश्चित्त ग्रहण कर लेना चाहिए। अन्तिम दोनों विकल्प गीतार्थ भिक्षु के लिए समझना चाहिए क्योंकि, अगीतार्थ भिक्षु स्वयं प्रायश्चित्त ग्रहण करने के अयोग्य होता है। भाष्यटीका में इस सूत्र के विषय में इस प्रकार कहा है सुत्तमिणं कारणियं, आयरियादीण जत्थगच्छम्मि / पंचण्हं ही असति, एगो च तहिं न वसियव्वं // टीका-सूत्रमिदमधिकृतं कारणिक, कारणे भवं कारणिकं, कारणे सत्येकाकीविहारविषयं इत्यर्थः / इयमत्र भावना--बहूनि खलु अशिवादीनि एकाकित्वकारणानि, ततः कारणवशतो यो जातः एकाकी तद्विषयमिदं सूत्रमिति न कश्चिद् दोषः। अशिवादीनि तु कारणानि मुक्त्वा आचार्यादिविरहितस्य न वर्तते वस्तु। तथा चाह-यत्र गच्छे पञ्चानामाचार्योपाध्यायगणावच्छेदिप्रवर्तिस्थधिररूपाणामसद्भावो यदि वा यत्र पञ्चानामन्यतमोप्येको न विद्यते तत्र न वसतव्यम् अनेकदोषसंभवात् / इस व्याख्यांश में सूत्रोक्त विधान को सकारण एकाकी विचरण करने वाले भिक्षु की अपेक्षा होने का कहा गया है और एकाकी होने के अनेक कारण भी कहे हैं / जिसका स्पष्टीकरण सूत्र 23-25 के विवेचन में कर दिया गया है। सूत्र में प्रयुक्त आलोचना आदि शब्दों का अर्थ इस प्रकार है आलोएज्जा-अतिचार आदि को वचन से प्रकट करे / पडिक्कमेज्जा-मिथ्या दुष्कृत दे-अपनी भूल स्वीकार करे। निदेज्जा-आत्मसाक्षी से असदाचरण की निंदा करे अर्थात् अंतर्मन में खेद करे। गरहेज्जा-गुरुसाक्षी से असदाचरण की निंदा करे, खेद प्रकट करे। विउद्देज्जा-असदाचरण से निवृत्त हो जाए। विसोहेज्जा-आत्मा को शुद्ध कर ले अर्थात् असदाचरण से पूर्ण निवृत्त हो जाए। प्रकरणयाए अन्मुट्ठज्जा-उस अकृत्यस्थान को पुनः सेवन नहीं करने के लिए दृढ संकल्प करे। प्रहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा-उस दोष के अनुरूप तप आदि प्रायश्चित्त स्वीकार करे। आलोचना से लेकर प्रायश्चित्त स्वीकार करने तक की सम्पूर्ण प्रक्रिया करने पर ही अात्मविशुद्धि होती है एवं तभी आलोचना करना सार्थक होता है। सूत्र में आए ग्राम आदि 16 शब्दों की व्याख्या निशीथ उ. 4 तथा बृहत्कल्प उ. 1 में दी गई है, अतः वहां देखें। सूत्रोक्त आलोचना का क्रम इस प्रकार है 1. प्राचार्य उपाध्याय, 2. सार्मिक साम्भोगिक बहुश्रुत बहु-आगमज्ञ भिक्षु, 3. सार्मिक अन्य साम्भोगिक बहुश्रुत बहु-प्रागमज्ञ भिक्षु, 4. सारूपिक बहुश्रुत बहु-आगमज्ञ भिक्षु, 5. पश्चात्कृत Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] [285 बहुश्रुत बहु-आगमज्ञ श्रावक, 6. सम्यक् भावित ज्ञानी अर्थात् सम्यग्दृष्टि या समझदार व्यक्ति, 7. ग्राम आदि के बाहर जाकर अरिहंत सिद्धों की साक्षी से आलोचना करे / __ यहां तीन पदों में बहुश्रुत बहु-आगमज्ञ नहीं है-- (1) प्राचार्य उपाध्याय तो नियमत: बहुश्रुत बहु-पागमज्ञ ही होते हैं अतः इनके लिए इस विशेषण की आवश्यकता ही नहीं होती है। बृहत्कल्प भाष्य गा. 691-692 में कहा है कि प्राचार्यादि पदवीधर तो नियमतः गीतार्थ होते हैं / सामान्य भिक्षु गीतार्थ अगीतार्थ दोनों प्रकार के होते हैं / (2) सम्यग्दृष्टि या समझदार व्यक्ति का बहुश्रुत होना आवश्यक नहीं है। वह तो केवल आलोचना सुनने के योग्य होता है और गीतार्थ अालोचक भिक्षु स्वयं ही प्रायश्चित्त स्वीकार करता है। (3) अरिहंत-सिद्ध भगवान् तो सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं। उनके लिए इस विशेषण की आवश्यकता नहीं है। सूत्र में “सम्म भावियाई चेइयाई" शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है "तस्याप्यभावे यत्रव सम्यग्भावितानि-जिनवचनवासितांतः करणानि देवतानि पश्यति तत्र गत्वा तेषामंतिके पालोचयेत् / श्रमणोपासक के अभाव में जिनवचनों से जिनका हृदय सुवासित है, ऐसे देवता को देखे तो उसके पास जाकर अपनी पालोचना करे / यहां टीकाकार ने “चेइयाई" शब्द का "देवता" अर्थ किया है तथा उसे जिनवचनों से भावित अन्तःकरण वाला कहा है / "चेइय" शब्द के अनेक अर्थ शब्दकोश में बताये गये हैं। उसमें ज्ञानवान्, भिक्षु आदि अर्थ भी "चेइय" शब्द के लिये हैं / अनेक सूत्रों में तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी के लिए "चेइय" शब्द का प्रयोग किया गया है, वहां उस शब्द से भगवान् को "ज्ञानवान्" कहा है। उपासकदशा अ. 1 में श्रमणोपासक की समकित सम्बन्धी प्रतिज्ञा है। उसमें अन्यतीथिक से ग्रहण किये चेत्य अर्थात् साधु को वन्दन-नमस्कार एवं पालाप-संलाप करने का तथा आहार-पानी देने का निषेध है / वहां स्पष्ट रूप से "चेइय" शब्द का भिक्षु अर्थ में प्रयोग किया गया है। __ प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'चेइय' शब्द का अर्थ मूर्तिपूजक समुदाय वाले "अरिहंत भगवान की मूर्ति" भी करते हैं, किन्तु वह टीकाकार के अर्थ से विपरीत है तथा पूर्वापर सूत्रों से विरुद्ध भी है। क्योंकि टीकाकार ने यहां अन्तःकरण शब्द का प्रयोग किया है, वह मूर्ति में नहीं हो सकता है / सूत्र में सम्यक् भावित चैत्य का अभाव होने पर अरिहंत सिद्ध की साक्षी के लिए गांव आदि के बाहर जाने का कहा है। यदि अरिहंत चैत्य का अर्थ मन्दिर होता तो मन्दिर में ही अरिहंत सिद्ध की साक्षी से आलोचना करने का कथन होता, गांव के बाहर जाने के अलग विकल्प देने की आवश्यकता ही नहीं होती। अतः 'चेइय' शब्द का प्रस्तुत प्रकरण में 'ज्ञानी या समझदार पुरुष' ऐसा अर्थ करना ही उपयुक्त है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206] [व्यवहारसूत्र प्रथम उद्देशक का सारांश सूत्र 1-14 15-18 19 20-22 23-25 एक मास से लेकर छह मास तक प्रायश्चित्तस्थान का एक बार या अनेक बार सेवन करके कोई कपटरहित आलोचना करे तो उसे उतने मास का प्रायश्चित्त आता है और कपटयुक्त अालोचना करे तो उसे एक मास अधिक का प्रायश्चित्त आता है और छह मास या उससे अधिक प्रायश्चित्त होने पर भी छह मास का ही प्रायश्चित्त प्राता है। प्रायश्चित्त वहन करते हए पूनः दोष लगाकर दो चौभंगी में से किसी भी भंग से आलोचना करे तो उसका प्रायश्चित्त देकर आरोपणा कर देनी चाहिये। पारिहारिक एवं अपारिहारिक भिक्षु को एक साथ बैठना, रहना आदि प्रवृत्ति नहीं करना चाहिए एवं आवश्यक हो तो स्थविरों की आज्ञा लेकर ऐसा कर सकते हैं / पारिहारिक भिक्षु शक्ति हो तो तप वहन करते हुए सेवा में जावे और शक्ति अल्प हो तो स्थविरभगवन्त से प्राज्ञा प्राप्त करके तप छोड़कर भी जा सकता है। मार्ग में विचरण की दृष्टि से उसे कहीं जाना या ठहरना नहीं चाहिए। रोग आदि के कारण ज्यादा भी ठहर सकता है / अन्यथा सब जगह एक रात्रि ही रुक सकता है। एकलविहारी प्राचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक या सामान्य भिक्षु पुनः गच्छ में आने की इच्छा करे तो उसे तप या छेद प्रायश्चित्त देकर गच्छ में रख लेना चाहिए। पार्श्वस्थादि पांचों यदि गच्छ में पुनः आना चाहें और उनके कुछ संयमभाव शेष रहे हों तो तप या छेद का प्रायश्चित्त देकर उन्हें गच्छ में सम्मिलित कर लेना चाहिए। किसी विशेष परिस्थिति से अन्यलिंग धारण करने वाले भिक्षु को आलोचना के अतिरिक्त कोई प्रायश्चित्त नहीं आता है। कोई संयम छोड़कर गृहस्थवेश स्वीकार कर ले और पुनः गच्छ में आना चाहे तो उसे नई दीक्षा के सिवाय कोई प्रायश्चित्त नहीं पाता है। यदि किसी भिक्षु को अकृत्यस्थान की आलोचना करनी हो तो१. अपने प्राचार्य उपाध्याय के पास करे / 2. उनके अभाव में स्वगच्छ के अन्य बहुश्रुत साधु के पास आलोचना करे। 3. उनके अभाव में अन्यगच्छ के बहुश्रुत भिक्षु या प्राचार्य के पास पालोचना करे। 4. उनके अभाव में केवल वेषधारी बहुश्रुत भिक्षु के पास आलोचना करे / 5. उसके अभाव में दीक्षा छोड़े हुए बहुश्रुत श्रमणोपासक के पास आलोचना करे। 6. उसके अभाव में सम्यग्दृष्टि या समभावी ज्ञानी के पास आलोचना करे एवं स्वयं प्रायश्चित्त स्वीकार करे। 26-30 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक] [રક૭ 7. एवं उसके अभाव में ग्राम के बाहर अरिहंत सिद्ध प्रभु को साक्षी से आलोचना करके स्वयं प्रायश्चित्त स्वीकार कर ले। उपसंहार सूत्र 1-14 15-18 20-22 23-30 इस उद्देशक मेंप्रायश्चित्त देने का, प्रायश्चित्त वहन कराने का, पारिहारिक के साथ व्यवहार करने का, उसके स्थविर की सेवा में जाने का, एकलविहारी या पावस्थादि के पुनः गच्छ में आने का, अन्यलिंग धारण करने का, वेश छोड़कर पुनः गण में आने की इच्छा वाले का, आलोचना करने के क्रम का, इत्यादि विषयों का उल्लेख किया गया है / م WWW م س // प्रथम उद्देशक समाप्त / / Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक विचरने वाले साधर्मिकों के परिहारतप का विधान 1. दो साहम्मिया एगयनो विहरंति, एगे तत्थ अन्नयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, ठवणिज्जं ठबइत्ता करणिज्जं वेयावडियं / 2. दो साहम्मिया एगयनो विहरंति, दो वि ते अन्नयर प्रकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, एगं तत्थ कप्पागं ठवइत्ता एगे निविसेज्जा, अह पच्छा से वि निविसेज्जा। 3. बहवे साहम्मिया एगयओ विहरंति, एगे तत्थ अन्नयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, ठवणिज्जं ठवइत्ता करणिज्जं वेयावडियं / 4. बहवे साहम्मिया एगयनो विहरंति, सम्वे वि ते अन्नयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता आलोएज्जा, एगं तत्थ कप्पागं ठबइसा अवसेसा निविसेज्जा, अह पच्छा से वि निविसेज्जा। 5. परिहारकप्पट्टिए भिक्खू गिलाएमाणे अन्नयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता पालोएज्जा। से य संथरेज्जा ठवणिज्ज ठवइत्ता करणिज्जं वेयावडियं / से य नो संथरेज्जा अणुपरिहारिएणं तस्स करणिज्जं वेयावडियं / से य संते बले अणुपरिहारिएणं कोरमाणं वेयावडियं साइज्जेज्जा, से वि कसिणे तत्थेव आरुहेयब्वे सिया। 1. दो सामिक साधु एक साथ विचरते हों और उनमें से यदि एक साधु किसी अकृत्यस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो उसे प्रायश्चित्त तप में स्थापित करके सार्मिक भिक्षु को उसकी वैयावृत्य करनी चाहिए। 2. दो सार्मिक साधु एक साथ विचरते हों और वे दोनों ही साधु किसी प्रकृत्यस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करें तो उनमें से एक को कल्पाक (अग्रणी) स्थापित करे और एक परिहारतप रूप प्रायश्चित्त को वहन करे और उसका प्रायश्चित्त पूर्ण होने के बाद वह अग्रणी भी प्रायश्चित्त को वहन करे। 3. बहुत से सार्मिक साधु एक साथ विचरते हों। उनमें एक साधु किसी अकृत्यस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे तो (उनमें जो प्रमुख स्थविर हो वह) उसे प्रायश्चित्त बहन करावे और दूसरे भिक्षु को उसकी वैयावृत्य के लिए नियुक्त करे। 4. बहुत से सार्धामक साधु एक साथ विचरते हों और वे सब किसी अकृत्यस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करें तो उनमें से किसी एक को अग्रणी स्थापित करके शेष सब प्रायश्चित्त वहन करें बाद में वह अग्रणी साधु भी प्रायश्चित्त वहन करे / Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक] [289 5. परिहारतप रूप प्रायश्चित्त वहन करने वाला भिक्षु यदि रुग्ण होने पर किसी प्रकृत्यस्थान की प्रतिसेवना कर आलोचना करे तो यदि वह परिहारतप करने में समर्थ हो तो प्राचार्यादि उसे परिहारतप रूप प्रायश्चित्त दें और उसकी आवश्यक सेवा करावें।। ____यदि वह समर्थ न हो तो प्राचार्यादि उसकी वैयावृत्य के लिए अनुपारिहारिक भिक्षु को नियुक्त करें। __ यदि वह पारिहारिक भिक्षु सबल होते हुए भी अनुपारिहारिक भिक्षु से वैयावृत्य करावे तो उसका प्रायश्चित्त भी पूर्व प्रायश्चित्त के साथ आरोपित करें। विवेचन-पूर्व उद्देशक में एवं बृहत्कल्प उ. 4 में प्राचार्यादि के नेतृत्व में परिहारतप वहन करने की विधि का वर्णन किया गया है। इन सूत्रों में दो या दो से अधिक विचरण करने वाले सार्मिक भिक्षुत्रों के स्वतः परिहारतप वहन करने का विधान है। विचरण करने वाले दो सार्मिक भिक्षु यदि गीतार्थ हैं और प्राचार्य आदि से दूर किसी क्षेत्र में विचरण कर रहे हैं अथवा किसी आचार्यादि के नेतृत्व विना विचरण कर रहे हैं। उनमें से किसी एक साधु को किसी दोष की शुद्धि के लिए परिहारतप वहन करना हो तो दूसरा गीतार्थ भिक्षु उसका अनुपरिहारिक एवं कल्पाक (प्रमुखता करने वाला) बनता है। ___ यदि दोनों ने एक साथ दोष सेवन किया है और दोनों को शुद्धि के लिए परिहारतप वहन करना है तो एक भिक्षु के तप पूर्ण करने के बाद दूसरा भिक्षु तप वहन कर सकता है / अर्थात् दोनों एक साथ परिहारतप नहीं कर सकते हैं, क्योंकि एक को कल्पाक या अनुपरिहारिक रहना आवश्यक होता है। अनेक सार्मिक भिक्षु विचरण कर रहे हों तो उनमें से एक या अनेक के परिहारतप वहन करने के विषय में भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए, अर्थात् एक को कल्पाक रख कर शेष सभी साधु परिहारतप वहन कर सकते हैं। पांचवें सूत्र में यह विशेष कथन है कि यदि पारिहारिक भिक्षु कुछ रुग्ण है एवं उसने कोई दोष का सेवन किया है तो उस दोष संबंधी प्रायश्चित्त की प्रारोपणा भी पूर्व तप में कर देनी चाहिए। यदि उसके तप वहन करने की शक्ति न हो तो वह तप करना छोड़ दे और पुनः सशक्त होने के बाद उस प्रायश्चित्त को वहन करके पूर्ण कर ले। यदि वह पारिहारिक भिक्षु सामान्य रुग्ण हो और किसी अनुपरिहारिक द्वारा सेवा करने पर तप वहन कर सकता हो तो पूर्वतप के साथ ही पुनः प्राप्त प्रायश्चित्त आरोपित कर देना चाहिए और यथायोग्य सेवा करवानी चाहिए। उसके बीच में यदि रुग्ण भिक्षु स्वस्थ या सशक्त हो जाय तो उसे सेवा नहीं करवानी चाहिए। स्वस्थ एवं सशक्त होने के बाद भी यदि वह सेवा करवाता है तो उसका भी उसे प्रायश्चित्त आता है, क्योंकि परिहारतप वाला भिक्षु उत्सर्गविधि से किसी का सहयोग एवं सेवा आदि नहीं ले सकता। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290] [व्यवहारसूत्र रुग्ण भिक्षुओं को गण से निकालने का निषेध 6. परिहारकप्पट्ठियं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्ज बेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुसए नाम ववहारे पट्टवियब्वे सिया। 7. अणवठ्ठप्पं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं बेयावडियं जाव तओ रोगयंकानो विप्पमुषको, तओ पच्छा तस्स अहालहुसए नामं बवहारे पट्टवियब्वे सिया। 8. पारंचियं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विष्पमुक्को, तमो पच्छा तस्स अहालहुसए नामं ववहारे पट्टवियन्वे सिया। 9. खित्तचित्तं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तनो पच्छा तस्स प्रहालहुसए नामं ववहारे पट्टवियन्वे सिया। 10. दित्तचित्तं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विष्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुसए नामं ववहारे पट्टवियब्वे सिया। 11. जक्खाइलै भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स निज्जहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तो रोगायंकायो विप्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुसए नामं ववहारे पट्टवियब्वे सिया। 12. उम्मायपत्तं भिक्ख गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स निज्जू हित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकायो विप्पमुक्को, तो पच्छा तस्स प्रहालहुसए नामं ववहारे पट्टवियन्वे सिया। 13. उवसग्गपत्तं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विष्पमुक्को, तो पच्छा तस्स प्रहालहुसए नाम ववहारे पट्टवियब्वे सिया। 14. साहिगरणंभिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स निहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकायो विष्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स प्रहालहुसए नामं ववहारे पट्टवियब्वे सिया। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक] [291 15. सपायच्छित्तं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तो पच्छा तस्स अहालहुसए नामं ववहारे पवियम्वे सिया। 16. भत्त-पाण-पडियाइक्खियं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्जं वेयावडियं जाव तओ रोगायंकाओ विप्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुसए नाम बवहारे पट्ठवियब्वे सिया। 17. अट्ठजायं भिक्खु गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेयइस्स निज्जूहित्तए, अगिलाए तस्स करणिज्ज वेयावडियं जाव तओ रोगायंकायो विप्पमुक्को, तओ पच्छा तस्स अहालहुसए नामं ववहारे पछवियब्वे सिया। 6. परिहारतप रूप प्रायश्चित्त वहन करने वाला भिक्षु यदि रोगादि से पीडित हो जाय तो गणावच्छेदक को उसे गण से बाहर करना नहीं कल्पता है, किन्तु जब तक बह रोग-आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से वैयावृत्य करनी चाहिए। बाद में गणावच्छेदक उस पारिहारिक भिक्षु को अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। 7. अनवस्थाप्यभिक्षु (नवमें प्रायश्चित्त को वहन करने वाला साधु) यदि रोगादि से पीडित हो जाय (उस प्रायश्चित्त को बहन न कर सके) तो गणावच्छेदक को उसे गण से बाहर करना नहीं कल्पता है, किन्तु जब तक वह रोग-अातंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से वैयावृत्य करनी चाहिए / बाद में गणावच्छेदक उस अनवस्थाप्यसाधु को अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। 8. पारंचित्तभिक्षु (दसवें प्रायश्चित्त को वहन करने वाला साधु) यदि रोगादि से पीडित हो जाय तो गणावच्छेदक को उसे गण से बाहर करना नहीं कल्पता है, किन्तु जब तक वह रोग-आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से वैयावृत्य करनी चाहिए। बाद में गणावच्छेदक उस पारंचितभिक्षु को अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। 9. विक्षिप्तचित्त ग्लान-भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। जब तक वह उस रोग-अातंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए। उसके बाद उसे गणावच्छेदक अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। 10. दिप्तचित्त ग्लान-भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है / जब तक वह उस रोग-आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए / उसके बाद उसे गणावच्छेदक अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे / 11. यक्षाविष्ट ग्लान-भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। जब तक वह उस रोग-आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए। उसके बाद उसे गणावच्छेदक अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292] [व्यवहारसूत्र 12. उन्मादप्राप्त ग्लान-भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है / जब तक वह उस रोग-प्रातंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए। उसके बाद उसे गणावच्छेदक अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। 13. उपसर्गप्राप्त ग्लान-भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। जब तक वह उस रोग-अातंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए। उसके बाद उसे गणावच्छेदक अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे / 14. कलहयुक्त ग्लान-भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। जब तक वह उस रोग-आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए। उसके बाद उसे गणावच्छेदक अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। 15. प्रायश्चित्तप्राप्त ग्लान-भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है / जब तक वह उस रोग-आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए। उसके बाद उसे गणावच्छेदक अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। 16. भक्तप्रत्याख्यानी ग्लान-भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। जब तक वह उस रोग-आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए। उसके बाद उसे गणावच्छेदक अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। 17. प्रयोजनाविष्ट (आकांक्षायुक्त) ग्लान-भिक्षु को गण से बाहर निकालना उसके गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। जब तक वह उस रोग-आतंक से मुक्त न हो तब तक उसकी अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए। उसके बाद उसे गणावच्छेदक अत्यल्प प्रायश्चित्त में प्रस्थापित करे। विवेचन-इन सूत्रों में बारह प्रकार की विभिन्न अवस्थाओं वाले भिक्षुओं का कथन है। ये सभी भिक्षु अपनी उन अवस्थाओं के साथ-साथ रुग्ण भी हैं / यदि उनकी सेवा करने वाले भिक्षु खेद का अनुभव करते हों तो भी जिम्मेदार गीतार्थ गणावच्छेदक का यह कर्तव्य होता है कि वह उस भिक्षु की सेवा की उपेक्षा न करे और न ही उसे गच्छ से अलग करे, किन्तु अन्य सेवाभावी भिक्षुओं के द्वारा उसकी अग्लानभाव से सेवा करवावे / भाष्य में अग्लानभाव का अर्थ यह किया गया है कि रुचिपूर्वक या उत्साहपूर्वक सेवा करना, अथवा स्वयं का कर्तव्य समझ कर सेवा करना / इन सूत्रों में निम्न गुणों की प्रमुखता है 1. सेवाकार्य, 2. ग्लान के प्रति अनुकंपा भाव, 3. संघ की प्रतिष्ठा / सेवाकार्य संयमजीवन में प्रमुख गुण है एवं यह एक आभ्यन्तर तप है, जिसका विस्तृत विवेचन निशीथ उ. 10 में किया गया है। ठाणांग सूत्र अ. 3 उ. 4 में तथा भग श. 8 उ. 8 में तीन को अनुकंपा के योग्य कहा है१. तपस्वी (विकट तप करने वाला), 2. ग्लान, 3. नवदीक्षित / प्रस्तुत सूत्रों में भी यही बताया गया है कि किसी भी परिस्थिति में या प्रायश्चित्त काल में यदि भिक्षु रुग्ण हो तो उसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिए और न ही उसे गण से निकालना चाहिए। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक [293 ग्लान-भिक्षु की वैयावृत्य (सेवा) की समुचित व्यवस्था होती हो तो गच्छ की एवं जिनशासन की प्रतिष्ठा बढ़ती है एवं धर्म की प्रभावना होती है। किंतु समुचित व्यवस्था के अभाव में, रुग्ण भिक्षु की सेवा करने कराने में उपेक्षा वृत्ति होने पर, खिन्न होकर सेवा छोड़ देने पर, गच्छ से निकाल देने पर अथवा अन्य पारिवारिक जनों को सौंप देने पर गच्छ की एवं जिनशासन की अवहेलना या निंदा होती है। अतः इन सत्रों में यह स्पष्ट किया गया है कि इन अवस्थानों वाले भिक्षों की भी रुग्णअवस्था में उपेक्षा न करके अग्लानभाव से सेवा करनी चाहिए। यदि ये रुग्ण न हों तो आवश्यक हो जाने पर गच्छ से निकाला जा सकता है। सूत्रोक्त बारह अवस्थाएं इस प्रकार हैं--- 1. परिहारतप वहन करने वाला। 2. नवमा अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त वहन करने वाला। 3. दसवां पारांचिक प्रायश्चित्त वहन करने वाला। 4. अत्यंत शोक या भय से विक्षिप्तचित्त वाला-उन्मत / 5. हर्षातिरेक से भ्रमितचित्त वाला-उन्मत / 6. यक्षावेश (भूत-प्रेत आदि की पीडा) से पीडित / 7. मोहोदय से उन्मत्त-पागल / 8. किसी देव, पशु या राजा आदि के उपसर्ग से पीडित / 9. तीव्र कषाय-कलह से पीडित / . 10. किसी बड़े दोष के सेवन से प्रायश्चित्तप्राप्त / 11. प्राजीवन अनशन स्वीकार किया हुआ। 12. शिष्यप्राप्ति, पदलिप्सा आदि किसी इच्छा से व्याकुल बना हुआ। भाष्यकार ने इन सूत्रों में प्रयुक्त 'निज्जहित्तए' शब्द से गच्छ से निकालने का अर्थ न करके केवल उसकी सेवा में उपेक्षा नहीं करने का ही अर्थ किया है तथा 'अट्टजायं' शब्द से 'संकटग्रस्त पारिवारिक जनों के लिए धनप्राप्ति की आकांक्षा वाला भिक्षु' ऐसा अर्थ करते हुए विस्तृत व्याख्या की है। उपर्युक्त ग्यारह अवस्थाओं के साथ एवं सूत्रोक्त विधान में 'अर्थ-जात' शब्द का 'इच्छाओं से व्याकुल भिक्षु' ऐसा अर्थ करना प्रसंगसंगत प्रतीत होता है। 'प्रहालहुसए नामं ववहारे पट्टवियत्वे सिया' इस सूत्रांश की व्याख्या करते हुए भाष्यकार ने यथा-लधु एवं यथा-गुरु के अनेक भेद-प्रभेद किये हैं तथा उनका समय एवं उसमें किये जाने वाले तप का निर्देश किया है। सूत्रोक्त 'ववहार' शब्द की व्याख्या करते हुए बताया है कि व्यवहार, पालोचना, विशुद्धि और प्रायश्चित्त, ये एकार्थक शब्द हैं। प्रथम उद्देशक के प्रारम्भिक सूत्रों में परिहार' शब्द भी प्रायश्चित्त अर्थ का द्योतक है / यथा 'भिक्खु य मासियं परिहारट्ठाणं पडिसेवित्ता पालोएज्जा' अर्थात् भिक्षु एक मास के प्रायश्चित्तयोग्य दोषस्थान का सेवन करके आलोचना करे। निशीथसूत्र के 19 उद्देशकों के अन्तिम सूत्र में भी प्रायश्चित्त अर्थ में 'परिहार' शब्द प्रयुक्त है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294] [व्यवहारसूत्र यथालघुष्क प्रायश्चित्त का अर्थ ___ यथालघुष्कववहारं पंचदिनपरिमाण निर्विकृतिक कुर्वन् पूरयति / यदि वा--यथालघुष्के व्यवहारे प्रस्थापयितव्यं य प्रतिपन्नव्यवहारः तपः प्रायश्चित्त एवमेवालोचना-प्रदान-मात्रतः शुद्धः क्रियते, कारणे यतनया प्रतिसेवनात् / —टीका/भा. गा. 96 भावार्थ-लघु प्रायश्चित्त पांच दिन का होता है जो विगयों का त्याग करके पूर्ण किया जाता है। अथवा कारण से यतनापूर्वक दोष का सेवन करने पर, अत्यल्प मर्यादा भंग करने पर, परवश अवस्था में मर्यादा भंग हो जाने पर केवल आलोचना प्रायश्चित्त मात्र से उसकी शुद्धि की जा सकती है अर्थात् उसे तपरूप प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता है और दस प्रकार के प्रायश्चित्तों में प्रथम आलो. चना प्रायश्चित्त होने से इसे 'यथालघुष्क' अर्थात् लघु (सर्वजघन्य) प्रायश्चित्त कहा जाता है। ___इन सूत्रों में एवं आगे के सूत्रों में प्राचार्य उपाध्याय का निर्देश न करके गणावच्छेदक का निर्देश किया है / इससे यह स्पष्ट होता है कि गच्छ में सेवा एवं प्रायश्चित्त के कार्यों की प्रमुख जिम्मेदारी गणावच्छेदक की होती है / अनवस्थाप्य और पारांचिक भिक्षु की उपस्थापना 18. प्रणवट्ठप्पं भिक्खु अपिहिभूयं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावित्तए। 19. अणवठ्ठप्पं भिक्खु गिहिभूयं कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावित्तए। 20. पारंचियं भिक्खुअगिहिभूयं नो कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावित्तए। 21. पारंचियं भिक्खु गिहिभूयं कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावित्तए / 22. अणवठ्ठप्पं भिक्खु पारंचियं वा भिक्खु अगिहिभूयं वा गिहिभूयं वा, कप्पइ तस्स गणावच्छेइयस्स उवट्ठावित्तए, जहा तस्स गणस्स पत्तियं सिया। 18. अनवस्थाप्य नामक नौवें प्रायश्चित्त के पात्र भिक्षु को गृहस्थवेष धारण कराए विना पुनः संयम में उपस्थापन करना गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। 19. अनवस्थाप्यभिक्षु को गृहस्थवेष धारण कराके पुनः संयम में उपस्थापन करना गणावच्छेदक को कल्पता है। ___20. पारंचित नामक दसवें प्रायश्चित्त के पात्र भिक्षु को गृहस्थवेष धारण कराए विना पुनः संयम में उपस्थापन करना गणावच्छेदक को नहीं कल्पता है। 21. पारंचितभिक्षु को गृहस्थवेष धारण करवाकर पुन: संयम में उपस्थापन करना गणावच्छेदक को कल्पता है। 22. अनवस्थाप्यभिक्षु को और पारंचितभिक्षु को (परिस्थितिवश) गृहस्थ का वेष धारण Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक] [295 कराके या गृहस्थ का वेष धारण कराए विना भी पुनः संयम में उपस्थापित करना गणावच्छेदक को कल्पता है, जिससे कि गण का हित संभव हो। विवेचन--नौवें और दसवें प्रायश्चित्त योग्य भिक्षु को जघन्य छह मास, उत्कृष्ट बारह वर्ष तक का विशिष्ट तप रूप प्रायश्चित्त दिया जाता है और उस तप के पूर्ण होने पर उसे एक बार गृहस्थ का वेष धारण करवाया जाता है / तत्पश्चात् उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र दिया जाता है। उपर्युक्त चार सूत्रों में गृहस्थ का वेष पहनाने का विधान करके पांचवें सूत्र में अपवाद का कथन किया गया है / जिसका भाव यह है कि किसी विशिष्ट व्यक्ति को गृहस्थ नहीं बनाना ही उचित लगे तो गणावच्छेदक अपने निर्णयानुसार कर सकता है / अर्थात् जिस तरह करने में उसे गच्छ का या जिनशासन का अत्यधिक हित संभव हो वैसा ही कर सकता है। भाष्यकार ने गृहस्थ न बनाने के कुछ कारण ये कहे हैं१. जिसने किसी राजा को संघ के अनुकूल बनाया हो / 2. जिसे गृहस्थ न बनाने के लिए किसी राजा का आग्रह हो। 3. गण के साधुओं ने जिसे द्वेषवश असत्य आक्षेप से वह प्रायश्चित्त दिलवाया हो और वह अन्य गण के पास पुनः आलोचना करे तो। 4. उस प्रायश्चित्तप्राप्त भिक्षु या प्राचार्य के अनेक शिष्यों का आग्रह हो / 5. अपने उपकारी को कठोर प्रायश्चित्त देने के कारण उनके अनेक शिष्य संयम छोड़ने को उद्यत हों। 6. उस प्रायश्चित्त के संबंध में दो गणों में विवाद हो / इत्यादि परिस्थितियों में तथा अन्य भी ऐसे कारणों से उस भिक्षु को गृहस्थ बनाये बिना भी उपस्थापन कर देना चाहिए। अकृत्यसेवन का आक्षेप एवं उसके निर्णय करने की विधि 23. दो साहम्मिया गयओ विहरंति, एगे तत्थ अन्नयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता पालोएज्जा अहं णं भंते ! अमुगेणं साहुणा सिद्धि इमम्मि कारणम्मि पडिसेवी। से य पुच्छियव्वे "कि पडिसेवी, अपडिसेवी" ? से य वएज्जा-"पडिसेवी" परिहारपत्ते। से य वएज्जा-"नो पडिसेवी" नो परिहारपत्ते। जं से पमाणं वयइ से पमाणाम्रो घेयन्वे / प०-से किमाहु भंते ? उ०—सच्चपइन्ना ववहारा। 23. दो सार्मिक एक साथ विचरते हों, उनमें से एक साधु किसी अकृत्यस्थान की प्रतिसेवना करके आलोचना करे Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्यवहारसूत्र 'हे भगवन् ! मैंने अमुक साधु के साथ अमुक कारण के होने पर दोष का सेवन किया है। (उसके इस प्रकार कहने पर) दूसरे साधु से पूछना चाहिए-- 'क्या तुम प्रतिसेवी हो या अप्रतिसेवी ?' यदि वह कहे कि 'मैं प्रतिसेवी हैं' तो वह प्रायश्चित्त का पात्र होता है। यदि वह कहे कि 'मैं प्रतिसेवी नहीं हूँ', तो वह प्रायश्चित्त का पात्र नहीं है और जो भी वह प्रमाण दे, उनसे निर्णय करना चाहिए। प्र०-हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है ? उ०-सत्य प्रतिज्ञा वाले भिक्षुषों के सत्य कथन पर व्यवहार (प्रायश्चित्त) निर्भर होता है / विवेचन यदि कोई भिक्षु विचरण करके पाएँ और अपनी आलोचना करते हुए, कोई दूसरे साधु को भी दोषसेवन करने वाला कहे तो ऐसा कहने में उस साधु का दूसरे साधु के प्रति द्वेष हो सकता है या दीक्षापर्याय में उसे किसी से छोटा बनाने का संकल्प हो सकता है। इसलिए वह असत्य आक्षेप करता है और अपने आक्षेप को सत्य सिद्ध करने के लिए वह स्वयं भी दोषी बनकर आलोचना करने का दिखावा करता है। भाष्यकार ने यह भी कहा है कि वह आलोचना करते हुए अपना और अन्य भिक्षु का मैथुनसेवन करना तक भी स्वीकार कर लेता है। इस प्रकार छल करके दूसरे साधु को कलंकित करना चाहता है / ऐसी परिस्थिति में शास्त्रकार ने विवेकपूर्वक निर्णय करने के निम्न उपाय बताये हैं __आलोचना सुनने वाला गीतार्थ भिक्षु अन्य भिक्षु से जब तक पूर्ण जानकारी न कर ले तब तक उसे किसी प्रकार का निर्णय नहीं करना चाहिए। यदि पूछने पर अन्य भिक्षु दोषसेवन करना स्वीकार नहीं करे और कुछ स्पष्टीकरण करे तो उसे सावधानीपूर्वक सुनना चाहिए। तदनन्तर आक्षेप लगाने वाले से दोष-सेवन का स्थान (क्षेत्र) या उस दोष से सम्बन्धित व्यक्ति की जानकारी करना चाहिए। फिर उन दोनों के कथन एवं प्रमाणों पर पूर्ण विचार करके निर्णय करना चाहिए। कोई प्रबल प्रमाण न हो तो दोषसेवन को अस्वीकार करने वाले भिक्षु को किसी प्रकार का प्रायश्चित्त नहीं देना चाहिए। आक्षेपकर्ता ने दोषसेवन किया हो या न किया हो तो असत्य आक्षेप करने पर उसे उस दोषसेवन का प्रायश्चित्त आता ही है। यदि आलोचना करने वाला सत्य कथन कर रहा हो, किन्तु अन्य भिक्षु अपना दोष स्वीकार न करे और आलोचक उसे प्रमाणित भी न कर सके, तब भी दोष अस्वीकार करने वाले को कोई प्रायश्चित्त नहीं दिया जा सकता। क्योंकि भिक्षु सत्य वचन की प्रतिज्ञा वाले होते हैं। अतः स्वयं के स्वीकार करने पर ही उसे प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। प्रमाण के बिना केवल किसी के कहने से उसे प्रायश्चित्त नहीं दिया जा सकता है / आलोचना करने वाला अपने कथन की सत्यता को प्रमाणित कर दे एवं गीतार्थ प्रायश्चित्तदाता को उन प्रमाणों को सत्यता समझ में आ जाय और उससे सम्बन्धित भिक्षु दोष को स्वीकार कर ले तभी उसे प्रायश्चित्त दिया जाता है। कदाचित् दोष प्रमाणित होने पर भी सम्बन्धित भिक्षु उसे स्वीकार न करे तो प्रायश्चित्तदाता गच्छ के अन्य गीतार्थ भिक्षुओं की सलाह Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक] [297 लेकर उसका प्रायश्चित्त घोषित कर सकते हैं एवं प्रायश्चित्त को अस्वीकार करने पर उसे गच्छ से अलग भी कर सकते हैं। असत्य आक्षेप लगाने वाले को वही प्रायश्चित्त देने का कथन बृहत्कल्प उद्देशक 6 में है तथा गीतार्थ या प्राचार्य प्रदत्त आगमोक्त प्रायश्चित्त के स्वीकार न करने वाले को गच्छ से अलग करने का कथन बृहत्कल्प उद्देशक 4 में है। तात्पर्य यह है कि गच्छप्रमुख केवल एक पक्ष के कथन से निर्णय एवं व्यवहार न करे, किन्तु उभय पक्ष के कथन को सुनकर उचित निर्णय करके प्रायश्चित्त दे। संदिग्धावस्था में अर्थात् सम्यक् प्रकार से निर्णय न होने पर दोषी व्यक्ति को प्रायश्चित्त नहीं देना चाहिए। ऐसा करने में प्रायश्चित्तदाता को कोई दोष नहीं लगता है, किन्तु दोषी व्यक्ति स्वयं ही अपनी संयमविराधना के फल को प्राप्त कर लेता है। दोषसेवन प्रमाणों से सिद्ध हो जाए एवं स्पष्ट निर्णय हो जाए तो दोषी के अस्वीकार करने पर भी प्रायश्चित्त देना अनिवार्य हो जाता है, अन्यथा गच्छ में अव्यवस्था फैल जाती है और लोकनिन्दा भी होती है। अतः गीतार्थ भिक्षुओं को एवं गच्छप्रमुखों को विवेकपूर्वक सूत्रोक्त प्रायश्चित्त देने का निर्णय करना चाहिए / संयम त्यागने का संकल्प एवं पुनरागमन 24. भिक्खू य गणाप्रो अवक्कम्म ओहाणुप्पेही बजेज्जा, से य अणोहाइए इच्छेज्जा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं बिहरित्तए, तत्थ णं थेराणं इमेयारवे विवाए समुप्पज्जित्था 'इमं भो ! जाणह कि पडिसेवी, अपडिसेवी ?' से य पुच्छियव्वे.---कि पडिसेवी, अपडिसेवी ?' से य वएज्जा-'पडिसेवी' परिहारपत्ते / से य वएज्जा-'नो पडिसेवी' नो परिहारपत्ते / जं से पमाणं वयइ से पमाणाम्रो घेयम्वे / ५०-से किमाहु भंते ? उ०-सच्चपइन्ना ववहारा। 24. संयम त्यागने की इच्छा से यदि कोई साधु गण से निकलकर जाए और बाद में असंयम सेवन किए बिना ही वह आये और पुनः अपने गण में सम्मिलित होना चाहे तो ( गण में लेने के सम्बन्ध में ) स्थविरों में यदि विवाद उत्पन्न हो जाए (वे परस्पर कहने लगे कि) क्या तुम जानते हो--यह प्रतिसेवी है या अप्रतिसेवी ? (ऐसी स्थिति में आगम का विधान है कि स्थविरों को) उस भिक्षु से ही पूछना चाहिएक्या तुम प्रतिसेवी हो या अप्रतिसेवी ? यदि वह कहे कि-"मैं प्रतिसेवी हूं।" तो वह प्रायश्चित्त का पात्र होता है। यदि वह For Private & Personal use only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298] [व्यवहारसूत्र कहे कि "मैं प्रतिसेवी नहीं हूं।" तो वह प्रायश्चित्त का पात्र नहीं होता है और जो वह प्रमाण देवे उनसे निर्णय करना चाहिए। प्र०—हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है ? उ०-सत्य प्रतिज्ञा वाले भिक्षुओं के सत्य कथन पर व्यवहार (प्रायश्चित्त) निर्भर होता है। विवेचन--प्रथम उद्देशक के ३२वें सूत्र में संयम का परित्याग करके गृहस्थ बन जाने वाले भिक्षु के पुनः गण में आकर दीक्षित होने का कथन है और इस सूत्र में संयम त्यागने के संकल्प से अन्यत्र जाकर विचारों में परिवर्तन आ जाने से पुनः लौट कर आने वाले भिक्षु का कथन है / वह चलचित्त भिक्षु पुनः उसी दिन आ सकता है, एक दो रात्रि व्यतीत करके भी आ सकता है और अनेक दिनों के बाद भी लौटकर आ सकता है। लौटकर आने वाला भिक्षु अपने विचार-परिवर्तन का एवं उनके कारणों का स्पष्टीकरण करता हुया गच्छ में रहना चाहे तो उस समय यदि गच्छ के गीतार्थ स्थविरों के विचारों में एकरूपता न हो अर्थात् किसी को यह सन्देह हो कि यह इस अवधि में किसी न किसी दोष का सेवन करके आया होगा, उस समय गच्छप्रमुख उस भिक्षु को पूछे या अन्य किसी से जानकारी करके निर्णय करे / यदि प्रामाणिक जानकारी न मिले तो उस भिक्षु के उत्तर के अनुसार ही निर्णय करना चाहिए अर्थात् वह दोषसेवन करना स्वीकार करे तो उसे उसका प्रायश्चित्त देवे। यदि वह दोष स्वीकार न करे तो किसी के सन्देह करने मात्र से उसे प्रायश्चित्त न दे। किन्तु संयम त्यागने के संकल्प का एवं उस संकल्प से अन्यत्र जाने का उसे यथोचित प्रायश्चित्त दिया जा सकता है एवं उसे गच्छ में सम्मिलित किया जा सकता है। संयम छोड़ने के संकल्प न करने का वर्णन और संयम छोड़ने के कारणों का वर्णन तथा पुन: गण में आने पर परीक्षण करने का वर्णन प्रथम उद्देशक के ३२वें सूत्र के विवेचन में देखें। यहां भाष्यकार ने संयम छोड़ने के संकल्प के कुछ विशेष कारण कहे हैं, जिनका सम्बन्ध पूर्व सूत्र 23 से किया है तथा विचारों के पुन: परिवर्तन होने के भी कुछ कारण कहे हैं। संयम त्यागने के कराण 1. असत्य प्राक्षेप लगाने वाला स्वयं ही दण्डित हो जाने से खिन्न होकर संयम छोड़ने का संकल्प कर सकता है। 2. सत्य कहने वाला कभी अपने कथन को प्रमाणित नहीं कर पाता है, तब अन्याय से उद्विग्न होकर संयम त्यागने का संकल्प कर सकता है। 3. कोई साधु दोष-सेवन कर छिपाना चाहता हो किन्तु दूसरे के द्वारा प्रकट कर देने से एवं प्रमाणित कर देने से लज्जित होकर वह संयम त्यागने का संकल्प कर सकता है। 4. किसी के छल-छद्मों से भी गीतार्थों द्वारा यदि गलत निर्णय हो जाए, जिससे असन्तुष्ट होकर कोई संयम त्यागने का संकल्प कर सकता है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक] [299 पुनः गण में आने के कारण 1. उसके साथ भेजे गए साधुनों के समझाने से / 2. प्रामादि के किसी प्रमुख व्यक्ति के समझाने से / 3. पारिवारिक लोगों के समझाने से। 4. चिन्तन-मनन करते-करते या वैराग्यप्रद आगमसूत्रों के स्मरण होने से / 5. कषाय एवं कलह के उपशांत हो जाने से / 6. विषयेच्छा से जाने वाले को स्व-स्त्री के कालधर्म प्राप्त होने की जानकारी मिल जाने से। 7. घर का सम्पूर्ण धन विनष्ट होने की जानकारी होने से / 8. परिवार के लोग घर में नहीं रखेंगे, ऐसा ज्ञात होने से / 9. धर्म की अश्रद्धा हो जाने पर संयम त्यागने वाले को फिर कभी किसी दृश्य के देखने पर पुनः धर्म में श्रद्धा हो जाने से। 10. मार्ग में ही अत्यन्त बीमार हो जाने से अथवा कष्ट या उपसर्ग आ जाने से यह विचार पाए कि संयम त्यागने के संकल्प से पुण्य नष्ट होकर पाप का उदय हो रहा है, अतः संयमपालन करना ही श्रेयस्कर है। 11. कोई मित्र देव के प्रतिबोध देने से / भाष्यकार ने यह भी स्पष्ट कहा है कि भिक्षु यदि संयमत्याग के संकल्प की जानकारी गच्छप्रमुखों को देवे तो गच्छप्रमुख उसे अनेक उपायों से स्थिर करे। तदुपरांत भी वह जाना चाहे तो उसे पहुँचाने के लिए 1-2 कुशल भिक्षुओं को साथ भेजे, जो उसे 1-2 रात्रि तक या गंतव्यस्थान तक पहँचाने जाएँ। वे मार्ग में भी उसे यथोचित सलाह देवें और अन्त में उसके गंतव्यस्थान जाएँ। इस बीच कभी भी उसके विचार पुनः संयम में स्थिर हो जाएँ तो उसे साथ लाकर गच्छप्रमुख के सुपुर्द कर दें। उसके पुन: न आने पर भी साथ में भेजे साधु गच्छप्रमुख को मार्ग में हुई बातों की पूरी जानकारी दें। साथ भेजे गए भिक्षुओं के लौटने के बाद विचारों में परिवर्तन होने पर वह पीछे से अकेला या जाए तब सूत्रोक्त विवाद की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। संयम त्यागने के संकल्प वाला भिक्षु सूचना देकर भी जा सकता है और सूचना दिये विना भी जा सकता है। दोनों प्रकार से जाने वाला भिक्षु संयम त्याग किये विना पुनः आ सकता है और संयम त्याग कर भी पुनः पा सकता है / प्रस्तुत सूत्र में संयम का त्याग किये विना आने वाले भिक्षु के सम्बन्ध में सारा विधान किया गया है। एकपक्षीय भिक्षु को पद देने का विधान 25. एगपक्खियस्स भिक्खुस्स कप्पइ आयरिय-उवज्झायाणं इत्तरिय दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा, धारेत्तए वा, जहा वा तस्स गणस्स पत्तियं सिया। 25. एकपक्षीय अर्थात् एक ही प्राचार्य के पास दीक्षा और श्रुत ग्रहण करने वाले भिक्षु को Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300] [व्यवहारसूत्र अल्पकाल के लिए अथवा यावज्जीवन के लिए प्राचार्य या उपाध्याय पद पर स्थापित करना या उसे धारण करना कल्पता है अथवा परिस्थितिवश कभी जिसमें गण का हित हो वैसा भी किया जा सकता विवेचन--प्राचार्य उपाध्याय को अपनी उपस्थिति में ही संघ की व्यवस्था बराबर बनी रहे, इसके लिए योग्य आचार्य और उपाध्याय की नियुक्ति कर देना चाहिए। अल्पकालिक पदनियुक्ति के कारण 1. वर्तमान आचार्य को किसी विशिष्ट रोग की चिकित्सा करने के लिए अथवा मोहचिकित्सा हेतु विशिष्ट तपसाधना करने के लिए संघभार से मुक्त होना हो, 2. अन्य प्राचार्य उपाध्याय के पास अध्ययन करने हेतु जाना हो, अथवा उन्हें अध्ययन कराने एवं सहयोग देने जाना हो, 3. परिस्थितिवश अल्पकाल के लिए संयम छोड़ना आवश्यक हो, 4. पदनियुक्ति के समय पर योग्य भिक्षु का आवश्यक अध्ययन अपूर्ण हो, इत्यादि परिस्थितियों में अल्पकालिक पद दिया जाता है। जीवनपर्यंत पदनियुक्ति के कारण 1. आचार्य उपाध्याय को अपना मरण-समय निकट होने का ज्ञान होने पर / 2. अतिवृद्धता या दीर्घकालीन असाध्य रोग हो जाने पर / 3. प्राचार्य उपाध्याय को जिनकल्प आदि कोई विशिष्ट साधना करना हो। 4. प्राचार्य को संयम का पूर्णतया त्याग करना हो / 5. ब्रह्मचर्य का पालन करना अशक्य हो। 6. स्वगच्छ का त्याग कर अन्यगच्छ में जाना हो। इन स्थितियों में आचार्य पदयोग्य भिक्षु को जीवनपर्यंत के लिए पद दिया जाता है / भाष्यकार ने यहां दो प्रकार के प्राचार्य कहे हैं-१. सापेक्ष, 2. निरपेक्ष / जो अपने जीवनकाल में ही उचित अवसर पर योग्य भिक्षु को अपने पद पर नियुक्त कर देता है, वह 'सापेक्ष' कहा जाता है। जो उचित अवसर पर योग्य भिक्षु को अपने पद पर नियुक्त नहीं करता है और उपेक्षा करता हुअा काल कर जाता है या अयोग्य को नियुक्त करता है, वह "निरपेक्ष" कहा जाता है / क्योंकि उसके काल करने के बाद गच्छ में कषाय कलह आदि की वद्धि हो जाती है, जिससे गच्छ की व्यवस्था भंग हो जाती है। सूत्र में कहे गए एकपाक्षिक शब्द की व्याख्या दुविहो य एगपक्खी, पवज्ज सुए य होई नायन्चो / सुत्तम्मि एगवायण, पवज्जाए कुलिवादी॥ -- व्यव. भाष्य गा. 325 भावार्थ-एकपाक्षिक दो प्रकार का होता है-१. श्रुत से 2. प्रव्रज्या से / Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक 301 जिसने एक गुरु के पास ही वाचना ग्रहण की हो अथवा जिसका श्रुतज्ञान एवं अर्थज्ञान प्राचार्यादि के समान हो, उनमें भिन्नता न हो, वह श्रुत से एकपाक्षिक कहा जाता है। जो एक ही कुल गण एवं संघ में प्रवजित होकर स्थिरता से रहा हो अथवा जिसने एक गच्छवर्ती साधुओं के साथ निवास अध्ययनादि किया हो वह प्रव्रज्या से एकपाक्षिक कहा जाता है। भाष्यकार ने इन दो पदों से चार भंग इस प्रकार किये हैं-- 1. प्रव्रज्या और श्रुत से एकपाक्षिक। 2. प्रव्रज्या से एकपाक्षिक, श्रुत से नहीं। 3. श्रुत से एकपाक्षिक किन्तु प्रव्रज्या से नहीं / 4. प्रव्रज्या एवं श्रुत दोनों से एकपाक्षिक नहीं। इनमें प्रथम भंग वाले को ही पद पर नियुक्त करना चाहिए, अन्य भंग वाला पूर्ण रूप से एकपाक्षिक नहीं होता। सूत्र में अन्तिम वाक्य से प्रापवादिक विधान भी किया है कि किसी विशेष परिस्थिति में पूर्ण एकपाक्षिक एवं पदयोग्य भिक्षु न हो तो जैसा गण-प्रमुखों को गण के लिए उचित लगे वैसा कर सकते हैं। __ भाष्यकार ने यहां यह स्पष्ट किया है कि आपवादिक स्थिति में भी तृतीय भंगवर्ती को अर्थात् जो श्रुत से सर्वथा एकपाक्षिक हो तो उसे पद पर नियुक्त करना चाहिए। किन्तु दूसरे और चौथे भंगवर्ती को पद परनियुक्त करने से आचार्य को गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है तथा वह प्राज्ञा-भंग आदि दोषों को प्राप्त करता है। अतः जो अल्पश्रुत न हो किन्तु बहुश्रुत हो एवं श्रुत से एकपाक्षिक हो, उसे परिस्थितिवश पद पर नियुक्त किया जा सकता है / भाष्यकार ने गा. 333 में अल्पश्रुत को भी एकपाक्षिक न कह कर अनेकपाक्षिक कहा है। श्रुत से एकपाक्षिक न होने के दोष 1. भिन्न वाचना होने से अनेक विषयों में शिष्यों को संतुष्ट नहीं कर सकता है। 2. भिन्न प्रकार से प्ररूपणा करने पर गच्छ में विवाद उत्पन्न होता है। 3. भिन्न-भिन्न प्ररूपणाओं के प्राग्रह से कलह उत्पन्न होकर गच्छ छिन्न-भिन्न हो जाता है। 4. अल्पश्रुत हो तो प्रश्न-प्रतिप्रश्नों का समाधान नहीं कर सकता, जिससे शिष्यों को अन्य गच्छ में जाकर पूछना पड़ता है / 5. अन्य गच्छ वाले अगीतार्थ या गीतार्थ शिष्यों को श्रुत के निमित्त से प्राकृष्ट कर अपनी निश्रा में कर सकते हैं, जिससे गण में क्षति, अशान्ति एवं अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है। प्रवज्या से एकपाक्षिक न होने के दोष 1. अन्य कुल गण की प्रव्रज्या वाला आचार्य बन जाने पर भी गण के साधुओं को अपना नहीं मानता है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302] [व्यवहारसूत्र 2. गण के कई साधु आचार्य को अपना नहीं मानते हैं। 3. दोनों के हृदय में पूर्ण आत्मीयता न होने से प्रेम या अनुशासन में वृद्धि नहीं होती है, किन्तु उपेक्षाभाव एवं अनुशासनहीनता की वृद्धि होती है / 4. परस्पर प्रात्मीयभाव न होने से स्वार्थवृत्ति एवं शिष्यलोभ से कलह आदि उत्पन्न होते हैं, जिससे जिनशासन की हीलना होती है। 5. भाष्यकार ने यह भी बताया है अधिक लम्बा समय बीत जाने पर भी दोनों में परायेपन का भाव नष्ट नहीं होता है, जिससे गच्छ में भेद उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए प्रथम भंगवर्ती एकपाक्षिक भिक्षु को ही आचार्यादि पद पर अल्पकाल के लिये या जीवनपर्यंत के लिए स्थापित करना चाहिए / सूत्रगत प्रापवादिक विधान की व्याख्या करते हुए भाष्यकार ने सर्वप्रथम तीसरे भंग वाले अर्थात् श्रुत से एकपाक्षिक भिक्षु को ही पद पर नियुक्त करने को कहा है। प्रथम एवं तृतीय भंग वाले योग्य साधु के अभाव में जब किसी को प्राचार्य आदि पद देना आवश्यक हो जाय तब क्रम से दूसरे या चौथे भंग वाले को भी पद दिया जा सकता है। क्योंकि जिस गण में अनेक साधु-साध्वियों का समुदाय हो और जिसमें नवदीक्षित, तरुण या बालवय वाले साधुसाध्वी हों, उन्हें प्राचार्य उपाध्याय या प्रवर्तिनी के बिना रहने का व्यव. उ. 3 सू. 11-12 में सर्वथा निषेध किया है। वहां यह भी बताया है कि श्रमण निर्ग्रन्थ दो पदवीधरों के अधीनस्थ ही रहते हैं और श्रमणी निर्ग्रन्थियां तीन पदवीधरों के नेतृत्व में रहती हैं। यदि परिस्थितिवश किसी भी भंग वाले अनेकपाक्षिक भिक्षु को आचार्य आदि पद दिया जाय तो वह इन गुणों से युक्त होना चाहिए 1. प्रकृति से कोमल स्वभाव वाला हो। 2. गच्छ के समस्त साधु-साध्वियां उसके प्राचार्य होने में सम्मत हों। 3. वह विनयगुण-संपन्न हो। .. ... 4. प्राचार्य साधु आदि के गृहस्थजीवन का स्वजन संबंधी हो अथवा अनेक साधु-साध्वियां उसके गृहस्थजीवन के संबंधी हों। 5. जिसने गण में अपने व्यवहार से प्रात्मीयता स्थापित कर ली हो। इत्यादि अनेक गुणों से संपन्न हो तो उस अनेकपाक्षिक भिक्षु को भी प्राचार्य प्रादि पद पर नियुक्त किया जा सकता है। जिस गण में अनेक गीतार्थ भिक्षु शिष्यादि की ऋद्धि से संपन्न हों तो एक को मूल प्राचार्य एवं उसके सदृश गुणसंपन्न एक को उपाध्याय पद पर नियुक्त करना चाहिए। उसके बाद जो शिष्यसंपदा से परिपूर्ण हो एवं प्राचार्य के लक्षणों से युक्त हो उसे भी प्राचार्य या उपाध्याय आदि पदों पर नियुक्त करना चाहिए और वैसे लक्षण युक्त न हो तो स्थविर आदि पद से विभूषित करना चाहिए। किंतु जिनके प्रभूत शिष्य न हों, उनको एक मुख्य प्राचार्य के अनुशासन में ही रहना चाहिए। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक] [303 मुख्य प्राचार्य से जो दीक्षा पर्याय में अधिक हों एवं श्रुतसंपदा से संपन्न भी हों, किंतु आचार्य उपाध्याय पद के योग्य न हों तो उन्हें स्थविर आदि पद से सम्मानित करना चाहिए। __यदि अन्य भिक्षु प्राचार्य से अधिक दीक्षा पर्याय वाले न हों या श्रुतसम्पदा वाले न हों तो सभी साधुओं को एक ही प्राचार्य उपाध्याय के अनुशासन में रहना चाहिए / पारिहारिक और अपारिहारिकों के परस्पर आहार-सम्बन्धी व्यवहार ___ 26. बहवे पारिहारिया बहवे अपारिहारिया इच्छेज्जा एगयओ एगमासं वा, दुमासं था, तिमासं वा, चाउमासं वा, पंचमासं वा, छम्मासंवा वथए, ते अन्नमन्नं संभ जंति, अन्नमन्नं नो संभुजंति, मासं ते, तओ पच्छा सव्वे वि एगयओ संभुजंति। 27. परिहारकप्पट्ठियस्स भिक्खुस्स नो कप्पइ असणं वा जाव साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा। थेरा य णं वएज्जा-'इमं ता प्रज्जो ! तुम एएसि देहि वा अणुप्पदेहि वा / ' एवं से कप्पइ दाउं वा, अणुप्पदाउं वा। कप्पइ से लेवं अणुजाणावेत्तए, 'अणुजाणह भंते ! लेवाए' एवं से कप्पड लेवं समासेवित्तए / 28. परिहारकप्पढ़िए भिक्खू सएणं पडिग्गहेणं बहिया अप्पणो वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा यणं वएज्जा 'पडिग्गाहेहि प्रज्जो! - अहं पि भोक्खामि वा पाहामि वा', एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। तत्थ से नो कप्पइ अपरिहारिएणं परिहारियस्स पडिग्गहंसि असणं वा जाब साइमं वा भोत्तए वा पायए वा। कप्पइ से सयंसि वा पडिग्गहंसि, सयंसि वा पलासगंसि, सयंसि वा कमण्डलंसि, सयंसि या खुब्भगंसि, सयंसि वा पाणिसि उद्धटु-उद्धटु भोत्तए वा पायए वा। एस कप्पो अपरिहारियस्स परिहारियानो। 29. परिहारकम्पट्ठिए भिक्खू थेराणं पडिग्गहेणं बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा यणं वएज्जा__'पडिग्गाहेहि अज्जो ! तुमंपि पच्छा भोक्खसि वा पाहिसि वा', एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। तत्थ से नो कप्पइ परिहारिएणं अपरिहारियस्स पडिग्गहंसि असणं वा जाव साइमं वा भोत्तए वा पायए वा। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304] [व्यवहारसूत्र कप्पह से सयंसि वा पडिग्गहंसि, सयंसि वा पलासगंसि, सयंसि वा कमण्डलंसि, सयंसि वा खुम्भगंसि, सयंसि वा पाणिसि उद्घटु-उद्धट्ट भोत्तए बा पायए बा। एस कप्पो परिहारियस्स अपरिहारियाओ। 26. अनेक पारिहारिक और अनेक अपारिहारिक भिक्षु यदि एक, दो, तीन, चार, पांच, छह मास पर्यन्त एक साथ रहना चाहें तो पारिहारिक भिक्षु पारिहारिक भिक्षु के साथ और अपारिहारिक भिक्षु अपारिहारिक भिक्षु के साथ बैठकर आहार कर सकते हैं, किन्तु पारिहारिक भिक्षु अपारिहारिक भिक्षु के साथ बैठकर नहीं कर सकते / वे सभी (पारिहारिक और अपारिहारिक) भिक्षु छह मास तप के और एक मास पारणे का बीतने पर एक साथ बैठकर आहार कर सकते हैं। 27. अपारिहारिक भिक्षु को पारिहारिक भिक्षु के लिए अशन यावत् स्वादिम आहार देना या निमन्त्रण करके देना नहीं कल्पता है। यदि स्थविर कहे कि- "हे आर्य ! तुम इन पारिहारिक भिक्षुओं को यह आहार दो या निमन्त्रण करके दो।" ऐसा कहने पर उसे आहार देना या निमन्त्रण करके देना कल्पता है। परिहारकल्पस्थित भिक्षु यदि लेप (घृतादि विकृति) लेना चाहे तो स्थविर की प्राज्ञा से उसे लेना कल्पता है। "हे भगवन् ! मुझे घृतादि विकृति लेने की आज्ञा प्रदान करें।" इस प्रकार स्थविर से प्राज्ञा लेने के बाद उसे घृतादि विकृति का सेवन करना कल्पता है। 28. परिहारकल्प में स्थित भिक्षु अपने पात्रों को ग्रहण कर अपने लिए आहार लेने जावे और उसे जाते हुए देखकर यदि स्थविर कहे कि "हे प्रार्य ! मेरे योग्य आहार-पानी भी लेते आना, मैं भी खाऊंगा-पीऊंगा।" ऐसा कहने पर उसे स्थविर के लिए पाहार लाना कल्पता है। वहां अपारिहारिक-स्थविर को पारिहारिक भिक्षु के पात्र में प्रशन यावत् स्वाद्य खाना-पीना नहीं कल्पता है। किन्तु उसे अपने ही पात्र में, पलासक (मात्रक) में, जलपात्र में, दोनों हाथ में या एक हाथ में ले-ले कर खाना-पीना कल्पता है / यह अपारिहारिक भिक्षु का पारिहारिक भिक्षु की अपेक्षा से प्राचार कहा गया है। 29. परिहारकल्प में स्थित भिक्षु स्थविर के पात्रों को लेकर उनके लिए आहार-पानी लाने को जावे, तब स्थविर उसे कहे "हे प्रार्य ! तुम अपने लिये भी साथ में ले आना और बाद में खा लेना, पी लेना।" ऐसा कहने पर उसे स्थविर के पात्रों में अपने लिए भी आहार-पानी लाना कल्पता है / Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक] [305 वहां अपारिहारिक स्थविर के पात्र में पारिहारिक भिक्षु को प्रशन यावत् स्वाद्य खाना-पीना नहीं कल्पता है। किन्तु उसे अपने ही पात्र में, पलासक में, कमण्डलु में, दोनों हाथ में या एक हाथ में ले-लेकर खाना-पीना कल्पता है। यह पारिहारिक भिक्षु का अपारिहारिक भिक्षु की अपेक्षा से प्राचार कहा गया है / विवेचन-परिहारतप करने वाले भिक्षुत्रों के साथ अपारिहारिक भिक्षु रहे तो उनमें से कई तो अलग-अलग आहार करते हैं और कई सम्मिलित आहार करते हैं। एक मास परिहारतप वाला भिक्ष एक मास तप पूर्ण होने तक अलग अाहार करता है और 5 दिन पारणे की अपेक्षा अलग आहार करता है, उसके बाद वह एक मांडलिक आहार कर वह एक मांडलिक आहार करता है। इसी प्रकार दो मास परिहारतप वाला भिक्षु दो मास और दस दिन तक अलग आहार करता है, तीन मास तप वाला भिक्षु तीन मास और पन्द्रह दिन, चार मास तप वाला भिक्षु चार मास और बीस दिन, पांच मास तप वाला भिक्षु पांच मास और पच्चीस दिन, छह मास तप वाला भिक्षु छह मास और तीस दिन (एक मास) तक अलग आहार करता है। इस प्रकार परिहारतप की समाप्ति के एक मास बाद पारिहारिक-अपारिहारिक सभी एक साथ आहार करते हैं। परिहारतप करने वाला भिक्षु अपना आहार स्वयं लाता है, उसे किसी से आहारादि लेना नहीं कल्पता है, यह सामान्य विधान है। __ यदि वह तप करता हुआ अशक्त हो जाय तो स्थविर अन्य भिक्षुओं को कहे कि "हे आर्यो ! तुम इस परिहारी भिक्षु को आहार दो या निमन्त्रण करो, ऐसा कहने पर उसे पाहार दिया जा सकता है। यदि उसे घृतादि विगय की आवश्यकता हो तो वह पुनः आज्ञा मिलने पर विगय सेवन कर सकता है, किन्तु केवल आहार देने की आज्ञा से विगय सेवन नहीं कर सकता। ___ किसी अपारिहारिक स्थविर को वैयावृत्य में रहने वाला पारिहारिक भिक्षु स्थविर के लिए और अपने लिए आहार लेने अलग-अलग जाता है, यह सामान्य विधान है। किन्तु कभी किसी कारण से स्थविर प्राज्ञा दे तो अपने पात्रों में अपने आहार के साथ उनके लिए भी आहारादि ला सकता है और उनके पात्रों में उनके आहार के साथ अपना आहार भी ला सकता है। ऐसा करने में उसके रूक्ष आहार के कोई विगय का लेप लग जाय तो वह स्थविर की आज्ञा से खा सकता है। सूत्र में उन भिक्षुओं के आहार करने की यह मर्यादा कही गई है कि वे परस्पर किसी के पात्र में आहार न करें, किन्तु अपने पात्र में या हाथ में लेकर फिर खावें। इस विधान से यह फलित होता है कि उन्हें अपने-अपने पात्र अलग-अलग रखने होते हैं एवं शामिल लाये गये पाहार को सम्मिलित होकर नहीं खा सकते हैं। इसका कारण यह है कि वह अलग Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्यवहारसूत्र व्यवहार रखने वाला पारिहारिक भिक्षु है। कारण से एवं आज्ञा से आहार साथ लाना परिस्थितिजन्य अपवाद है, किन्तु पात्र लेने एवं साथ में आहार खाने के अलगाव में कोई बाधा न होने से उसके सामान्य विधान का ही पालन करना आवश्यक होता है। भिक्ष का शरीर संयम और तप में सहायक होता है, अत: इसे आहार देना आदि प्रवृत्ति करना आवश्यक है। अनासक्त भाव से स्व-शरीर हेतु की गई प्रवृत्ति भी निर्जरा का हेतु है, अतः सूत्र में "अप्पणो वेयावडियाए" अर्थात् अपनी वैयावृत्य के लिए" ऐसे शब्द का प्रयोग किया गया है। सूत्र में आहार करने के साधनरूप में पात्रों के लिए इन शब्दों का प्रयोग किया गया है१. स्वयं के (आहार लेने के) पात्र में। 2. स्वयं के "पलासक" (मात्रक) में।। 3. स्वयं के कमण्डलक (पानी लेने के पात्र) में / 4. स्वयं के खोबे में अर्थात् दोनों हाथों से बनी अंजलि में / 5. स्वयं के हाथ में अर्थात् एक हाथ की पसली में / यहां स्वयं के पलासक का अर्थ टीकाकार ने "ढाक के पत्तों से बना दोना" ऐसा किया है। सूत्र में "सयंसि" पद प्रत्येक शब्द के साथ है। साधु के स्वयं का पात्र वही होता है जो सदा उसके पास रहता है एवं जो प्रागमोक्त हो।। पलास के पत्तों का दोना रखना आगम में निषिद्ध है और वह अधिक समय धारण करने योग्य भी नहीं होता है / अतः “स्वयं का पलासक" यह कथन "मात्रक" के लिए ही समझना उपयुक्त है एवं मात्रक रखना आगमसम्मत भी है। -दशा. द. 8 सूत्र के विधान से ही ऐसा ज्ञात होता है कि वे भिक्षु यदि पात्र की ऊनोदरी करने वाले हों तो स्वयं के मात्रक में, हाथ में या खोबे (अंजली) में ले-लेकर भी खा सकते हैं। चौदहपूर्वी श्रीभद्रबाहु स्वामी द्वारा रचित इस व्यवहारसूत्र में पात्र की दृष्टि से तीन नाम कहे गये हैं / इससे यह फलित होता है कि भिक्षु सामान्यतया भी अनेक पात्र रख सकता है, अतः एक पात्र ही रखने की परम्परा का ऐतिहासिक कथन आगमसम्मत नहीं कहा जा सकता / / छेदसूत्रों में परिहार तप एवं पारिहारिक भिक्षु सम्बन्धी निर्देशों के कथन की बहुलता को देखते हुए इस विधि का विच्छेद मानना भी उचित प्रतीत नहीं होता है / इस विधि के मुख्य आगमसम्मत नियम ये हैं-"आयंबिल, उपवास एवं एकांतवास से मौनपूर्वक आचार्य आदि के साथ साथ रहना, सहाय-प्रत्याख्यान एवं सम्भोग-प्रत्याख्यान करना, इत्यादि हैं, जिनका कि वर्तमान में पालन करना सम्भव है / व्याख्याओं में इसका विच्छेद माना है एवं साध्वी के लिए भी निषिद्ध कहा है, किन्तु ऐसा उल्लेख अागमों में नहीं है और न ही किसी आगमविधान से ऐसा सिद्ध होता है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा उद्देशक [307 6-17 18-22 23-24 दूसरे उद्देशक का सारांश विचरण करने वाले दो या दो से अधिक भिक्षुओं द्वारा परिहारतप वहन किया जा सकता है। रुग्ण भिक्षुओं की उपेक्षा नहीं करना चाहिए या उन्हें गच्छ से नहीं निकालना चाहिए, किन्तु उनको यथोचित सेवा करनी-करवानी चाहिए। नवमे-दसवें प्रायश्चित्त प्राप्त भिक्षु को गृहस्थ-लिंग धारण करवाकर ही उपस्थापना करनी चाहिए / कदाचित् बिना गहस्थ-लिंग के भी दीक्षा देना गच्छ-प्रमुख के निर्णय पर निर्भर रहता है। आक्षेप एवं विवाद पूर्ण स्थिति में स्पष्ट प्रमाणित होने पर ही प्रायश्चित देना एवं प्रमाणित न होने पर स्वयं के दोष स्वीकार करने पर ही प्रायश्चित्त देना / जिसकी श्रुत एवं दीक्षा पर्याय एकपाक्षिक हो ऐसे भिक्षु को पद देना। परिहारतप पूर्ण होने के बाद भी कुछ दिन आहार अलग रहता है, उत्कृष्ट एक मास तक भी पाहार अलग रखा जाता है, जिससे बिना समविभाग के वह विकृति का सेवन कर सके। परिहारतप वाले को स्थविर की प्राज्ञा होने पर ही पाहार दिया जा सकता है एवं विशेष प्राज्ञा लेकर ही वह कभी विगय का सेवन कर सकता है। स्थविर की सेवा में रहा हुअा पारिहारिक भिक्षु कभी आज्ञा होने पर दोनों की गोचरी साथ में ला सकता है, किन्तु उसे साथ में नहीं खाना चाहिए / अलग अपने हाथ या पात्र में लेकर ही खाना चाहिए। 28-29 उपसंहार इस उद्देशक में - सूत्र 1-5, 26-29 18:22 23-24 25 परिहारतप वहन सम्बन्धी विधानों का, रुग्ण भिक्षुओं की अग्लानभाव से सेवा करने का, नवमे दसवें प्रायश्चित्त वाले की उपस्थापना का, विवाद की स्थिति में निर्णय करने का, एकपाक्षिक को ही प्राचार्य पद देने का, इत्यादि विषयों का वर्णन किया गया है। // दूसरा उद्देशक समाप्त // Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक 1. भिक्खू य इच्छेज्जा गणं धारेत्तए, भगवं च से अपलिच्छन्ने एवं से नो कप्पा गणं धारित्तए, भगवं च से पलिच्छन्ने, एवं से कप्पइ गणं धारेत्तए / 2. भिक्खु य इच्छेज्जा गणं धारेसए, नो से कप्पइ थेरे प्रणापुच्छित्ता गणं धारेत्तए / कप्पइ से थेरे आपुच्छित्ता गणं धारेत्तए, थेरा य से वियरेज्जा एवं से कप्पा गणं धारेत्तए, थेरा य से नो कप्पा गणं धारेत्तए। जं णं थेरेहि अविइण्णं गणं धारेइ से सन्तरा छए वा परिहारे वा, जे साहम्मिया उट्ठाए विहरंति, नस्थि णं तेसि केइ छए वा परिहारे वा। 1. यदि कोई भिक्ष गण को धारण करना अर्थात् अग्रणी होना चाहे और वह सूत्रज्ञान आदि योग्यता से रहित हो तो उसे गण धारण करना नहीं कल्पता है। यदि वह भिक्षु सूत्रज्ञान आदि योग्यता से युक्त हो तो उसे गण धारण करना कल्पता है / 2. यदि योग्य भिक्ष गण धारण करना चाहे तो उसे स्थविरों से पूछे बिना गण धारण करना नहीं कल्पता है। यदि स्थविर अनुज्ञा प्रदान करें तो गण धारण करना कल्पता है। यदि स्थविर अनुज्ञा प्रदान न करें तो गण धारण करना नहीं कल्पता है। यदि कोई स्थविरों की अनुज्ञा प्राप्त किए बिना ही गण धारण करता है तो वह उस मर्यादाउल्लंघन के कारण दीक्षा-छेद या तपप्रायश्चित्त का पात्र होता है, किन्तु जो सार्मिक साधु उसकी प्रमुखता में विचरते हैं वे दीक्षा-छेद या तपप्रायश्चित्त के पात्र नहीं होते हैं। विवेचन---गण को धारण करना दो प्रकार से होता है-१. कुछ साधुनों के समूह की प्रमुखता करते हुए विचरण करना या चातुर्मास करना यह प्रथम प्रकार का गण धारण है / ऐसे भिक्षु को गण धारण करने वाला, गणधर, गणप्रमुख, संघाटकप्रमुख, मुखिया या अग्रणी कहा जाता है। भाष्य में इसे "स्पर्धकपति" भी कहा गया है / 2. साधुओं के समूह का अधिपति अर्थात् प्राचार्यादि पद धारण करने वाला / जिसे प्राचार्य, उपाध्याय, गणधर, गच्छाधिपति, गणी आदि कहा जाता है / तात्पर्य यह है कि पद वालों को एवं प्रमुख रूप में विचरने वाले को "गणधर" कहा जाता है। प्रस्तुत दोनों सूत्रों में प्रथम प्रकार के गणधारक का कथन है / क्योंकि यहां स्थविरों की प्राज्ञा लेकर गण धारण करना और बिना आज्ञा गण धारण करने पर प्रायश्चित्त का पात्र होना कहा गया है / ऐसा विधान प्राचार्य पद धारण करने वाले के लिए उपयुक्त नहीं होता है। आचार्य पद गण के स्थविर देते हैं या वर्तमान आचार्य की आज्ञा से आचार्य पद दिया जाता है अथवा गच्छ के साधु-साध्वी या चतुर्विध संघ मिलकर प्राचार्य पद देते हैं, किन्तु कोई स्वयं ही पद Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] [309 लेना चाहे और स्थविर को पूछे कि 'मैं प्राचार्य बन ?' अथवा बिना पूछे ही प्राचार्य बन जाए, ऐसे अर्थ की कल्पना सर्वथा असंगत है। अतः इन दोनों सूत्रों का विषय है--संघाटक के प्रमुख रूप में विचरण करना / आचार्यादि पद की अपेक्षा का कथन तो आगे के सूत्रों में किया गया है / यदि कोई भिक्षु गणप्रमुख के रूप में विचरना चाहे तो उसका पलिछन्न होना आवश्यक है। प्रर्थात जो शिष्यसम्पदा और श्रतसम्पदा सम्पन्न है, वही प्रमुख रूप में विचरण कर सकता है। यहां भाष्यकार ने शिष्यसम्पदा एवं श्रतसम्पदा के चार भांगे कहे हैं, उनमें से प्रथम भंग के अनर दोनों प्रकार की सम्पदा से युक्त हो उसे ही प्रमुख रूप में विचरण करना चाहिए। यदि पृथक-पृथक शिष्य करने की परम्परा न हो तो श्रुतसम्पन्न (ग्रागमवेत्ता) एवं बुद्धिमान भिक्षुगण के कुछ साधुओं की प्रमुखता करता हुआ विचरण कर सकता है / जिस भिक्षु के एक या अनेक शिष्य हों वह शिष्यसम्पदा युक्त कहा जाता है। जो आवश्यकसूत्र, दशवैकालिकसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र तथा आचारांगसूत्र और निशीथसूत्रों के मूल एवं अर्थ को धारण करने वाला हो अर्थात जिसने इतना मूल श्रत उपाध्याय की निश्रा से कंठस्थ धा एवं प्राचार्य या उपाध्याय से इन सूत्रों के अर्थ की वाचना लेकर उसे भी कंठस्थ धारण किया हो एवं वर्तमान में वह श्रुत उसे उपस्थित हो तो वह श्रुतसम्पन्न कहा जाता है। जिसके एक भी शिष्य नहीं है एवं उपर्युक्त श्रुत का अध्ययन भी जिसने नहीं किया है, वह गण धारण के अयोग्य है / यदि किसी भिक्षु के शिष्यसम्पदा है, किन्तु वह बुद्धिमान् एवं श्रुतसम्पन्न नहीं है अथवा धारण किए हुए श्रुत को भूल गया है, वह भी गण धारण के अयोग्य है। किन्तु यदि किसी को वृद्धावस्था (60 वर्ष से अधिक) होने के कारण श्रुत विस्मृत हो गया हो तो वह श्रुतसम्पन्न ही कहा जाता है एवं गण धारण कर सकता है। इस सूत्र में "भगवं च से" इस पद का प्रयोग किया गया है। इसमें "भगवं" शब्द के साथ "च" और "से" होने से यह "सम्बोधन" रूप नहीं है। इसलिए यह शब्द गण धारण करने की इच्छा वाले अनगार के लिए ही प्रयुक्त है तथा इसके साथ "पलिच्छन्ने और अपलिच्छन्ने" शब्दों को जोड़कर दो प्रकार की योग्यता का विधान किया गया है। इसलिए "भगवं च से" इस पद का अर्थ है यदि वह भिक्षु (अनगार भगवंत) और "पलिच्छन्ने" इस पद का अर्थ है-शिष्य एवं श्रुतसम्पदा-सम्पन्न / भाष्यकार ने शिष्यसम्पदा वाले को "द्रव्यपलिच्छन्न" और श्रुत सम्पन्न को "भावपलिच्छन्न" कहा है / उस चौभंगी युक्त विवेचन से भावपलिच्छन्न को ही गण धारण करके विचरने योग्य कहा है। जिसका सारांश यह है कि जो आवश्यक श्रुत से सम्पन्न हो एवं बुद्धिसम्पन्न हो, वह गण धारण करके विचरण कर सकता है। भाष्यकार ने यह भी स्पष्ट किया है 1. विचरण करते हुए वह स्वयं के और अन्य भिक्षुओं के ज्ञान दर्शन चारित्र की शुद्ध आराधना करने करवाने में समर्थ हो / 2. जनसाधारण को अपने ज्ञान तथा वाणी एवं व्यवहार से धर्म के सन्मुख कर सकता हो। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310] [व्यवहारसूत्र 3. अन्य मत से भावित कोई भी व्यक्ति प्रश्न-चर्चा करने के लिए आ जाय तो यथायोग्य उत्तर देने में समर्थ हो, ऐसा भिक्षु गणप्रमुख के रूप में अर्थात् संघाटकप्रमुख होकर विचरण कर सकता है। धर्मप्रभावना को लक्ष्य में रखकर विचरण करने वाले प्रमुख भिक्षु में ये भाष्योक्त गुण होना आवश्यक हैं, किन्तु अभिग्रह प्रतिमाएं एवं मौन साधना आदि केवल आमकल्याण के लक्ष्य से विचरण करने वाले को सूत्रोक्त श्रुतसम्पन्न रूप पलिच्छन्न होना ही पर्याप्त है। भाष्योक्त गुण न हों तो भी वह प्रमुख होकर विचरण करता हुआ आत्मसंयम-साधना कर सकता है। द्वितीय सूत्र के अनुसार कोई भी श्रुतसम्पन्न योग्य भिक्षु स्वेच्छा से गणप्रमुख के रूप में विचरण करने के लिए नहीं जा सकता है, किन्तु गच्छ के स्थविर भगवंत की अनुमति लेकर के ही गण धारण कर सकता है अर्थात स्थविर भगवन्त से कहें कि-"हे भगवन् ! मैं कुछ भिक्षों को लेकर विचरण करना चाहता हूँ।" तब स्थविर भगवन्त उसकी योग्यता जानकर एवं उचित अवसर देखकर स्वीकृति देवें तो गण धारण कर सकता है। यदि वे स्थविर किसी कारण से स्वीकृति न दें तो उसे गण धारण नहीं करना चाहिये एवं योग्य अवसर की प्रतीक्षा करना चाहिए। ___ सूत्र में स्थविर भगवन्त से प्राज्ञा प्राप्त करने का जो विधान किया गया है उसके सन्दर्भ में यह समझना चाहिए कि यहां स्थविर शब्द से प्राचार्य उपाध्याय प्रवर्तक आदि सभी आज्ञा देने वाले अधिकारी सूचित किये गये हैं। क्योंकि स्थविर शब्द अत्यन्त विशाल है। इसमें सभी पदवीधर और अधिकारीगण भिक्षुओं का समावेश हो जाता है / बागमों में गणधर गौतम सुधर्मास्वामी के लिए एवं तीर्थकरों के लिए भी "थेरे स्थविर" शब्द का प्रयोग है / अतः इस विधान का आशय यह है कि गण धारण के लिए गच्छ के किसी भी अधिकारी भिक्षु की आज्ञा लेना आवश्यक है एवं स्वयं का श्रुतसंपदा प्रादि से सम्पन्न होना भी आवश्यक है। यदि कोई भिक्ष उत्कट इच्छा के कारण आज्ञा लिये बिना या स्वीकृति मिले बिना भी अपने शिष्यों को या अन्य अपनी निश्रा में अध्ययन प्रादि के लिए रहे हुए साधुओं को लेकर विचरण करता है तो वह प्रायश्चित्त का पात्र होता है। उसके साथ शिष्य रूप रहने वाले या अध्ययन प्रादि किसी भी कारण से उसकी निश्रा में रहने वाले साधु उसकी आज्ञा का पालन करते हुए उसके साथ रहते हैं, वे प्रायश्चित्त के पात्र नहीं होते हैं। यह भी द्वितीय सूत्र में स्पष्ट किया गया है / आज्ञा के बिना गण धारण करने वाले भिक्षु के लिए प्रायश्चित्त का विधान करते हुए सूत्र में कहा गया है कि "से संतरा छेए वा परिहारे वा", इसका अर्थ करते हुए व्याख्याकार ने यह स्पष्ट किया है कि वह भिक्षु अपने उस अपराध के कारण यथायोग्य छेद (पांच दिन आदि) प्रायश्चित्त को अथवा मासिक आदि परिहारतप या सामान्य तप रूप प्रायश्चित्त को प्राप्त होता है। अर्थात् पालोचना करने पर या आलोचना न करने पर भी अनुशासन-व्यवस्था हेतु उसे यह सूत्रोक्त प्रायश्चित्त दिया जाता है। सूत्र में भिक्षु के लिए यह विधान किया गया है। इसी प्रकार साध्वी के लिए भी संपूर्ण विधान समझ लेना चाहिए। उसे विचरण करने के लिए स्थविर या प्रवर्तिनी की आज्ञा लेनी चाहिए। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] [311 उपाध्याय आदि पद देने के विधि-निषेध ___3. तिवासपरियाए समणे निग्गथे--प्रायारकुसले, संजमकुसले, पबयणकुसले, पण्णत्तिकुसले, संगहकुसले, उवग्गहकुसले, अक्खयायारे, अभिन्नायारे, असबलायारे, असंकिलिहायारे, बहुस्सुए बभागमे, जहणेणं आयारप्पकप्प-धरे, कप्पइ उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए / 4. सच्चेव णं से तिवासपरियाए समणे निग्गथे नो आयारकुसले, नो संजमकुसले, नो पवयण कुसले, नो पण्णत्तिकुसले, नो संगहकुसले, नो उवग्गहकुसले, खयायारे, भिन्नायारे, सबलायारे, संकिलिट्ठयारे, अप्पसुए, अप्पागमे नो कप्पइ उवज्झायत्ताए उदिसित्तए। 5. पंचवासपरियाए समणे जिग्गंथे-आयारकुसले, संजमकुसले, पवयणकुसले, पण्णत्तिकुसले, संगहकुसले, उवग्गहकुसले, अक्खयायारे, अभिन्नायारे, असबलायारे, असंकिलिहायारे, बहुस्सुए, बब्भागमे, जहण्णेणं दसा-कप्प-ववहारधरे, कप्पइ प्रायरिय-उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए। 6. सच्चेण णं से पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे-नो आयारकुसले, नो संजमकुसले, नो पवयणकुसले, नो पण्णत्तिकुसले, नो संगहकुसले, नो उवग्गहकुसले, खयायारे, भिन्नायारे, सबलायारे, संकिलिट्ठायारे, अप्पसुए, अप्पागमे नो कप्पइ आयरिय-उवमायत्ताए उदिसित्तए। 7. अट्ठवासपरियाए समणे निग्गंथे-पायारकुसले, संजमकुसले,,पवयणकुसले, पण्णत्तिकुसले, संगहकुसले, उवग्गहकुसले, अक्खयायारे, अभिन्नायारे, असबलायारे, असंकिलिट्ठायारे, बहुस्सुए, बब्भागमे, जहणणं ठाण-समवाय-धरे, कप्पइ आयरियत्ताए उवज्झायत्ताए गणावच्छेइयत्ताए उद्दिसित्तए। 8. सच्चेव णं से अट्ठवासपरियाए समणे णिग्गंथे नो प्रायारकुसले नो संजमकुसले, नो पवयणकुसले, नो पन्नत्तिकुसले, नो संगहकुसले, नो उवग्गहकुसले, खयायारे, भिन्नायारे, सबलायारे, संकिलिट्ठायारे, अप्पसुए अप्पागमे, नो कप्पइ आयरियत्ताए, उवज्झायत्ताए, गणावच्छेइयत्ताए उदिसित्तए। 3. तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्थ----यदि आचारकुशल, संयमकुशल, प्रवचनकुशल, प्रज्ञप्तिकुशल, संग्रहकुशल और उपग्रह करने में कुशल हो तथा अक्षत चरित्र वाला, अभिन्न चारित्र वाला, अशबल चारित्र वाला और असंक्लिष्ट आचार वाला हो, बहुश्रुत एवं बहुआगमज्ञ हो और कम से कम आचार-प्रकल्प धारण करने वाला हो तो उसे उपाध्याय पद देना कल्पता है। 4. वही तीन वर्ष की दीक्षापर्यायवाला श्रमण-निर्ग्रन्थ-यदि आचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञप्ति, संग्रह और उपग्रह में कुशल न हो तथा क्षत, भिन्न, शबल और संक्लिष्ट प्राचार वाला हो, अल्पश्रुत एवं अल्प आगमज्ञ हो तो उसे उपाध्याय पद देना नहीं कल्पता है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312] [ व्यवहारसूत्र 5. पांच वर्ष की दीक्षापर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्थ-यदि आचारकुशल, संयमकुशल, प्रवचनकुशल, प्रज्ञप्तिकुशल, संग्रहकुशल और उपग्रहकुशल हो तथा अक्षत चारित्र वाला, अभिन्न व वाला, अशबल चारित्र वाला और असंक्लिष्ट प्राचार वाला हो, बहश्रत एवं बहयागमज्ञ हो एवं कम से कम दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प एवं व्यवहारसूत्र को धारण करने वाला हो तो उसे प्राचार्य या उपाध्याय पद देना कल्पता है / 6. वही पांच वर्ष की दीक्षापर्याय वाला श्रमण निग्रंथ-यदि प्राचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञप्ति, संग्रह और उपग्रह में कुशल न हो तथा क्षत, भिन्न, शबल और संक्लिष्ट प्राचार वाला हो, अल्पश्रुत और अल्प प्रागमज्ञ हो तो उसे प्राचार्य या उपाध्याय पद देना नहीं कल्पता है। 7. आठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्थ-यदि आचारकुशल, संयम कुशल, प्रवचनकुशल, प्रज्ञप्तिकुशल, संग्रहकुशल और उपग्रहकुशल हो तथा अक्षत चारित्र वाला, अभिन्न चारित्र वाला अशबल चारित्र और असंक्लिष्ट आचार वाला हो, बहुश्रत एवं बहुप्रागमज्ञ हो एवं कम से कम स्थानांग-समवायांग सूत्र को धारण करने वाला हो तो उसे प्राचार्य, उपाध्याय और गणावच्छेदक पद देना कल्पता है। 8. वही पाठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाला श्रमण निग्रंथ यदि प्राचार, संयम, प्रवचन, प्रज्ञप्ति, संग्रह और उपग्रह में कुशल न हो तथा क्षत, भिन्न, शबल और संक्लिष्ट आचार वाला हो, अल्पश्रुत और अल्प प्रागमज्ञ हो तो उसे प्राचार्य, उपाध्याय और गणावच्छेदक पद देना नहीं कल्पता विवेचन-जिस गच्छ में अनेक साधु-साध्वियां हैं। जिसके अनेक संघाटक (संघाड़े) अलगअलग विचरते हों अथवा जिस गच्छ में नवदीक्षित, बाल या तरुण साधु-साध्वियां हों, उसमें अनेक पदवीधरों का होना अत्यावश्यक है एवं कम से कम आचार्य, उपाध्याय इन दो पदवीधरों का होना तो नितांत आवश्यक है। किन्तु जिस गच्छ में 2-4 साधु या 2-4 साध्वियां ही हों, जिनके एक या दो संघाटक ही अलग-अलग विचरते हों एवं उनमें कोई भी नवदीक्षित बाल या तरुण वय वाला न हो तो पदवीधर के बिना ही केवल वय या पर्याय स्थविर से उनकी व्यवस्था हो सकती है। यहां प्रथम सूत्रद्विक में उपाध्याय पद, द्वितीय सूत्रद्विक में प्राचार्य-उपाध्याय पद और तृतीय सूत्रद्विक में अन्य पदों के योग्यायोग्य का कथन दीक्षापर्याय, श्रुत-अध्ययन एवं अनेक गुणों के द्वारा किया गया है। जिसमें दीक्षापर्याय और श्रुत-अध्ययन की जघन्य मर्यादा तो उपाध्याय से प्राचार्य की और उनसे गणावच्छेदक की अधिक अधिकतर कही है / इसके सिवाय मध्यम या उत्कृष्ट कोई भी दीक्षापर्याय एवं श्रुत-अध्ययन वाले को भी ये पद दिये जा सकते हैं। प्राचारकुशल प्रादि अन्य गुणों का सभी पदवीधरों के लिए समान रूप से निरूपण किया गया है / अतः प्रत्येक पद-योग्य भिक्षु में वे गुण होना आवश्यक हैं। दीक्षापर्याय-भाष्यकार ने बताया है कि दीक्षापर्याय के अनुसार अनुभव, क्षमता, योग्यता का विकास होता है, जिससे भिक्षु उन-उन पदों के उत्तरदायित्व को निभाने में सक्षम होता है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] [313 उपाध्याय का मुख्य उत्तरदायित्व अध्ययन कराने का है, जिसमें शिष्यों के अध्ययन सम्बन्धी सभी प्रकार की व्यवस्था की देख-रेख उन्हें रखनी पड़ती है। अतः इस पद के लिए जघन्य तीन वर्ष की दोक्षापर्याय होना आवश्यक कहा है / प्राचार्य पर गच्छ की संपूर्ण व्यवस्थाओं का उत्तरदायित्व रहता है। वे अर्थ-परमार्थ की वाचना भी देते हैं / अत: अधिक अनुभव क्षमता की दृष्टि से उनके लिए न्यूनतम पांच वर्ष की दोक्षापर्याय होना प्रावश्यक कहा है। गणावच्छेदक गण संबंधी अनेक कर्तव्यों को पूर्ण करके उनकी चिन्ता से प्राचार्य को मुक्त रखता है अर्थात् गच्छ के साधुओं को सेवा, विचरण एवं प्रायश्चित्त आदि व्यवस्थानों का उत्तरदायित्व गणावच्छेदक का होता है / यद्यपि अनुशासन का पूर्ण उत्तरदायित्व प्राचार्य का होता है तथापि व्यवस्था तथा कार्यसंचालन का उत्तरदायित्व गणावच्छेदक का अधिक होने से इनकी दीक्षापर्याय कम से कम पाठ वर्ष की होना आवश्यक कहा है। ___ अन्यगुण–प्राचार-कुशलता आदि दस गुणों का कथन इन सूत्रों में है। उनकी व्याख्या भाष्य में इस प्रकार है--- 1. आचारकुशल-ज्ञानाचार में एवं विनयाचार में जो कुशल होता है वह प्राचारकुशल कहा जाता है / यथा—गुरु आदि के आने पर खड़ा होता है, उन्हें आसन चौकी प्रादि प्रदान करता है, प्रातःकाल उन्हें वन्दन करके प्रादेश मांगता है, द्रव्य से अथवा भाव से उनके निकट रहता है, शिष्यों को एवं प्रतीच्छकों (अन्य गच्छ से अध्ययन के लिए आये हों) को गुरु के प्रति श्रद्धान्वित करने वाला कायिकी आदि चार प्रकार की विनयप्रतिपत्ति को यथाविधि करने वाला, प्राक करने वाला, गुरु आदि की यथायोग्य पूजा, भक्ति, आदर-सत्कार करके उन्हें प्रसन्न रखने वाला, परुष वचन नहीं बोलने वाला, अमायावी-सरल स्वभावी, हाथ-पांव-मुख अादि की विकृत चेष्टा से रहित स्थिर स्वभाव वाला, दूसरों के साथ मायावी आचरण अर्थात् धोखा न करने वाला, यथासमय प्रतिलेखन प्रतिक्रमण एवं स्वाध्याय करने वाला, यथोचित तप करने वाला, ज्ञानादि की वृद्धि एवं शुद्धि करने वाला, समाधिवान् और सदैव गुरु का बहुमान करने वाला, ऐसा गुणनिधि भिक्षु "प्राचार. कुशल" कहलाता है। 2. संयमकुशल--(१) पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय एवं पचेंन्द्रिय जीवों की सम्यक् प्रकार से यतना करने वाला, आवश्यक होने पर ही निर्जीव पदार्थों का विवेकपूर्वक उपयोग करने वाला, गमनागमन आदि की प्रत्येक प्रवृत्ति अच्छी तरह देखकर करने वाला, असंयम प्रवृत्ति करने वालों के प्रति उपेक्षा या माध्यस्थ भाव रखने वाला. यथासमय यथाविधि प्रमार्जन करने : वाला, परिष्ठापना समिति के नियमों का पूर्ण पालने करने वाला, मन वचन काया को अशुभ प्रवृत्ति को त्यागने वाला, इन सत्तरह प्रकार के संयम का पालन करने में निपुण (दक्ष), (2) अथवा कोई वस्तु रखने या उठाने में तथा एषणा, शय्या, प्रासन उपधि, आहार आदि में यथाशक्ति प्रशस्त योग रखने वाला, अप्रशस्त योगों का परित्याग करने वाला, (3) इन्द्रियों एवं कषायों का निग्रह करने वाला अर्थात् शुभाशुभ पदार्थों में रागद्वेष नहीं करने वाला और कषाय के उदय को विफल कर देने वाला, हिंसा आदि पाश्रवों का पूर्ण निरोध करने Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314] [व्यवहारसूत्र वाला, अप्रशस्त योग और अप्रशस्त ध्यान अर्थात् आर्त-रौद्र ध्यान का त्याग कर शुभ योग और धर्मशुक्ल ध्यान में लीन रहने वाला, आत्मपरिणामों को सदा विशुद्ध रखने वाला, इहलोकादि आशंका से रहित, ऐसा गुणनिधि भिक्षु "संयमकुशल' है। 3. प्रवचन कुशल-जो जिनवचनों का ज्ञाता एवं कुशल उपदेष्टा हो वह प्रवचनकुशल है, यथा-सूत्र के अनुसार उसका अर्थ, परमार्थ, अन्वय-व्यतिरेक युक्त सूत्राशय को, अनेक अतिशय युक्त अर्थों को एवं आश्चर्यकारी अर्थों को जानने वाला, मूल एवं अर्थ की श्रुतपरम्परा को भी जानने वाला, प्रमाण-नय-निक्षेपों से पदार्थों के स्वरूप को समझने वाला, इस प्रकार श्रुत एवं अर्थ के निर्णायक होने से जो श्रुत रूप रत्नों से पूर्ण है तथा जिसने सम्यक् प्रकार से श्रुत को धारण करके उसका पुनरावर्तन किया है, पूर्वापर सम्बन्ध पूर्वक चिन्तन किया है, उसके निर्दोष होने का निर्णय किया है और उसके अर्थ को बहुश्रुतों के पास चर्चा-वार्ता आदि से विपुल विशुद्ध धारण किया है, ऐसे गुणों को धारण करने वाला और उक्त अध्ययन से अपना हित करने वाला, अन्य को हितावह उपदेश करने वाला एवं प्रवचन का अवर्णवाद बोलने वालों का निग्रह करने में समर्थ ऐसा गुणसम्पन्न भिक्षु "प्रवचनकुशल" है। 4. प्रज्ञप्तिकुशल--लौकिक शास्त्र, वेद, पुराण एवं स्वसिद्धांत का जिसने सम्यग् विनिश्चय कर लिया है, जो धर्म-कथा, अर्थ-कथा आदि का सम्यक्ज्ञाता है तथा जीव-अजीव के स्वरूप एवं भेदों का, कर्म बंध एवं मोक्ष के कारणों का, चारों गति में गमनागमन करने का एवं उनके कारणों का तथा उनसे उत्पन्न दुःख-सुख का, इत्यादि कथन करने में कुशल, परवादियों के कुदर्शन का सम्यक् समाधान करके उनसे कुदर्शन का त्याग कराने में समर्थ एवं स्वसिद्धांतों को समझाने में कुशल भिक्षु "प्रज्ञप्तिकुशल" है। 5. संग्रहकुशल-द्रव्य से उपधि, शिष्यादि का और भाव से श्रुत एवं अर्थ तथा गुणों का आत्मा में संग्रह करने में जो कुशल (दक्ष) होता है तथा क्षेत्र एवं काल के अनुसार विवेक रख कर ग्लान वृद्ध आदि की अनुकम्पापूर्वक वैयावृत्य करने की स्मृति रखने वाला, आचार्यादि की रुग्णावस्था के समय वाचना देने वाला, समाचारी भंग करने वाले या कषाय में प्रवृत्त होने वाले भिक्षुओं को यथायोग्य अनुशासन करके रोकने वाला, आहार विनय आदि के द्वारा गुरुभक्ति करने वाला, गण के अन्तरंग कार्यों को करने वाला अथवा गण से बहिर्भाव वालों को अन्तर्भावी बनाने वाला, आहार, उपधि आदि जिसको जो आवश्यक हो उसकी पूर्ति करने वाला, परस्पर साथ रहने में एवं अन्य को रखने में कुशल, सीवन, लेपन आदि कार्य करने कराने में कुशल, इस प्रकार निःस्वार्थ सहयोग देने के सवभाव वाला गुणनिधि भिक्षु “संग्रहकुशल है। 6. उपग्रहकुशल-बाल, वृद्ध, रोगी, तपस्वी, असमर्थ भिक्षु आदि को शय्या, प्रासन, उपधि, आहार, औषध आदि देता है, दिवाता है तथा इनकी स्वयं सेवा करता है अन्य से करवाता है, गुरु आदि के द्वारा दी गई वस्तु या कही गई वार्ता निर्दिष्ट साधुओं तक पहुंचाता है तथा अन्य भी उनके द्वारा निर्दिष्ट कार्यों को कर देता है अथवा जिनके प्राचार्यादि नहीं हैं, उन्हें आत्मीयता से दिशानिर्देश करता है, वह "उपग्रहकुशल" है / 7. अक्षत-आचार-आधाकर्म आदि दोषों से रहित शुद्ध प्राहार ग्रहण करने वाला एवं परिपूर्ण प्राचार का पालन करने वाला। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [315 तोसरा उद्देशक] 8. अभिन्नाचार-किसी प्रकार के अतिचारों का सेवन न करके पांचों आचारों का परिपूर्ण पालन करने वाला। 9. अशबलाचार-विनय, व्यवहार, भाषा, गोचरी आदि में दोष न लगाने वाला अथवा शबल दोषों से रहित आचरण वाला। 10. असंक्लिष्ट-आचार-इहलोक-परलोक सम्बन्धी सुखों की कामना न करने वाला अथवा क्रोधादि का त्याग करने वाला संक्लिष्ट परिणाम रहित भिक्षु / "क्षत-आचार" आदि शब्दों का अर्थ इससे विपरोत समझ लेना चाहिए, यथा१. आधाकर्मादि दोषों का सेवन करने वाला। 2. अतिचारों का सेवन कर पांच प्राचार या पांच महाव्रत में दोष लगाने वाला। 3. विनय, भाषा आदि का विवेक नहीं रखने वाला, शबल दोषों का सेवन करने वाला। 4. प्रशंसा, प्रतिष्ठा, आदर और भौतिक सुखों की चाहना करने वाला अथवा क्रोधादि से संक्लिय्ट परिणाम रखने वाला। बहुश्रुत-बहुआगमज्ञ-अनेक सूत्रों एवं उनके अर्थों को जानने वाला 'बहुश्रुत या बहुप्रागमज्ञ' कहा जाता है / प्रागमों में इन शब्दों का भिन्न-भिन्न अपेक्षा से प्रयोग है / यथा-- 1. गम्भीरता विचक्षणता एवं बुद्धिमत्ता आदि गुणों से युक्त। 2. जिनमत की चर्चा-वार्ता में निपुण या मुख्य सिद्धान्तों का ज्ञाता / 3. अनेक सूत्रों का अभ्यासी। 4. छेदसूत्रों में पारंगत / 5. प्राचार एवं प्रायश्चित्त विधानों में कुशल / 6. जघन्य, मध्यम या उत्कृष्ट बहुश्रुत / (1) जघन्यबहुश्रुत--प्राचारांग एवं निशीथसूत्र को अर्थ सहित कण्ठस्थ करने वाला। (2) मध्यमबहुश्रुत-आचारांग, सूत्रकृतांग और चार छेदसूत्रों को अर्थ सहित कण्ठस्थ धारण करने वाला। (3) उत्कृष्टबहुश्रु त--दृष्टिवाद को धारण करने वाला अर्थात् नवपूर्वी से 14 पूर्वी तक ! सभी बहुश्रुत कहे गये हैं। __जो अल्पबुद्धि, अत्यधिक भद्र, अल्प अनुभवी एवं अल्पयागमअभ्यासी होता है, वह 'अबहुश्रुत अबहुप्रागमज्ञ' कहा जाता है तथा कम से कम पाचारांग, निशीथ, आवश्यक, दशवैकालिक और उत्तराध्ययन सूत्र को अर्थ सहित अध्ययन करके उन्हें कण्ठस्थ धारण नहीं करने वाला "प्रबहुश्रुत अबहुआगमज्ञ" कहा जाता है। आचारप्रकल्प--(१) प्रस्तुत तीसरे सूत्र में "प्राचारप्रकल्पधारी होने का विधान है। (2) दशवे उद्देशक में सर्वप्रथम "प्राचारप्रकल्प नामक अध्ययन" की वाचना देने का विधान है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 [व्यवहारसूत्र (3) पांचवें उद्देशक में "प्राचारप्रकल्प अध्ययन" को भूल जाने वाले तरुण साधु-साध्वियों को प्रायश्चित्त देने का विधान है। इस प्रकार इस व्यवहारसूत्र में कुल सोलह बार "माचारप्रकल्प" या "प्राचारप्रकल्प-अध्ययन" का कथन है, यथा--- उद्देशक सूत्र 3, 10 में एक-एक बार, 17 में एक बार, 21, 22, 23 में एक-एक बार 15, 16, 18 में दो-दो बार 17, 18 में दो-दो बार नंदीसूत्र में कालिक उत्कालिक सूत्रों की सूची में 71 आगमों के नाम दिये गये हैं। उनमें "प्राचारप्रकल्प" या "प्राचारप्रकल्प-अध्ययन" नाम का कोई भी सूत्र नहीं कहा गया है। अत: यह समझना एवं विचारना आवश्यक हो जाता है कि यह "प्राचारप्रकल्प" किस सूत्र के लिये निर्दिष्ट है और कालपरिवर्तन से इसका नाम परिवर्तन किस प्रकार हुआ है। इस विषय में व्याख्याकार पूर्वाचार्यों के मंतव्य इस प्रकार उल्लिखित मिलते हैं (1) पंचविहे आयारप्पकप्पे पण्णत्ते, तं जहा–१. मासिए उग्घाइए, 2. मासिए अणुग्धाइए, 3. चाउमासिए उग्घाइए, 4. चाउमासिए अणुग्घाइए 5. पारोवणा। टोका--आचारस्य प्रथमांगस्य पदविभागसमाचारीलक्षणप्रकृष्टकल्पाभिधायकत्वात् प्रकल्पः आचारप्रकल्पः निशीथाध्ययनम् / स च पंचविधः, पंचविधप्रायश्चित्ताभिधायकत्वात् ।-ठाणांग. अ. 5 (2) आचारः प्रथमांगः, तस्य प्रकल्पो अध्ययनविशेषो, निशीथम् इति अपराभिधानस्य / ____ --समवायांग. 28 (3) अष्टाविंशतिविधः प्राचारप्रकल्पः निशीथाध्ययनम् आचारांगम् इत्यर्थः / स च एवं(१) सत्यपरिण्णा जाव (25) विमुत्ती, (26) उग्धाइ, (27) अणुग्धाइ (28) प्रारोवणा तिविहमो निसीहं तु, इति अठ्ठावीसविहो पायारप्पकप्पनामो त्ति। -राजेन्द्र कोश भा. 2, पृ. 349, “आयारपकप्प" शब्द / -प्रश्नव्याकरण सूत्र अ. 10. (4) आचारः प्राचारांगम्, प्रकल्पो-निशीथाध्ययनम्, तस्यैव पंचमचूला / आचारेण सहितः प्रकल्पः आचारप्रकल्प, पंचविंशति अध्ययनात्मकत्वात् पंचविंशतिविधः आचारः, 1. उद्घातिमं, 2. अनुद्घातिमं 3. आरोवणा इति त्रिधा प्रकल्पोमीलने अष्टाविंशतिविधः।। -~-अभि. रा. को. भाग 2 पृ. 350, 'पायारपकप्प' शब्द यहां समवायांगसूत्र एवं प्रश्नव्याकरणसूत्र के मूल पाठ में अट्ठाईस प्रकार के प्राचारप्रकल्प का कथन किया गया है, जिसमें सम्पूर्ण पाचारांगसूत्र के 25 अध्ययन और निशीथसूत्र के Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक [317 तीन विभाग का समावेश करके अट्ठाईस का योग बताया है। प्रस्तुत सूत्र में सोलह बार "प्राचारप्रकल्प" का कथन है और उसके अध्ययन को अत्यधिक महत्त्व दिया है। उससे भी वर्तमान में प्रसिद्ध दोनों ही सूत्रों को समझना उचित प्रतीत होता है। क्योंकि केवल प्राचारांगसूत्र ग्रहण करें तो "प्रकल्प' शब्द निरर्थक हो जाता है और केवल निशीथसूत्र समझे तो आचारांग का अध्ययन किये बिना निशीथसूत्र का अध्ययन करना मानना होगा, जो कि सर्वथा अनुचित है। इसका कारण यह है कि प्रायश्चित्त-विधानों के अध्ययन के पूर्व प्राचार-विधानों का अध्ययन करना आवश्यक होता है / समवायांग और प्रश्नव्याकरणसूत्र में भी सूत्रकार ने प्राचार सम्बंधी पच्चीस अध्ययन के साथ ही प्रायश्चित्त रूप अध्ययन कह कर अट्ठाईस अध्ययन गिनाए हैं। नंदीस्त्र की रचना के समय प्रायश्चित्तविधायक तीन विभागों के बीस उद्देशक प्राचारांगसूत्र से पूर्णतः पृथक् हो चुके थे और उनका नाम "निशीथसूत्र" रख दिया गया था। इसी कारण नंदीसूत्र में "प्रकल्प" या "आचारप्रकल्प" नामक कोई सूत्र नहीं कहा गया है और नंदीसूत्र के पूर्वरचित सूत्रों में अनेक जगह प्राचारप्रकल्प का कथन है किन्तु वहां “निशीथसूत्र" नाम नहीं है। ___ समवायांगसूत्र के उपर्युक्त टीकांश में टीकाकार ने स्पष्ट किया है कि "प्राचार का मतलब प्रथमांग-याचारांगसूत्र और प्रकल्प का मतलब उसका अध्ययन विशेष / जिसका कि प्रसिद्ध दूसरा नाम निशीथसूत्र है", इस प्रकार दोनों सूत्र मिलकर ही सम्पूर्ण प्राचारप्रकल्पसूत्र है। 'प्राचार-प्रकल्प' शब्द के वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार होते हैं१. प्राचार और प्रायश्चित्तों का विधान करने वाला सूत्र निशीथ-अध्ययनयुक्त-प्राचारांग सूत्र। 2. आचारविधानों के प्रायश्चित्त का प्ररूपक सूत्र-निशीथसूत्र / 3. आचारविधानों के बाद तत्संबंधी प्रायश्चित्तों को कहने वाला अध्ययन--प्राचारप्रकल्प अध्ययन-निशीथ अध्ययन / 4. प्राचारांग से पृथक् किया गया खंड या विभाग रूप सूत्र अथवा अध्ययन-प्राचारप्रकल्प अध्ययन-निशोथसूत्र / संख्याप्रधान ठाणांग और समवायांग सूत्र में अनेक अपेक्षाओं से अनेक प्ररूपण किये गये हैं। उसे एकांतअपेक्षा से समझना उचित्त नहीं है। यथा-निशीथसूत्र के 20 उद्देशक हैं किन्तु उन्हें विभिन्न अपेक्षामों से (तीन या पांच) ही गिनाये गये हैं। ठाणांगसूत्र में तीन अनुद्घातिक भी कहे गये हैं और पांच अनुद्घातिक भी कह दिए हैं / इसी प्रकार प्राचारप्रकल्प के पांच विभाग भी कहे गये हैं और अट्ठाईस विभाग भी कहे गये हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, अतः अल्पसंख्या के कथन का आग्रह न रखकर अधिक संख्या अर्थात् अट्ठाईस को पूर्ण मानना चाहिए। सारांश यह है कि संक्षिप्त-अपेक्षा से उपलब्ध निशीथसूत्र को आगम और व्याख्याओं में आचारप्रकल्प कहा गया है और विस्तृत एवं परिपूर्णअपेक्षा से उपलब्ध आचारांग और निशीथसूत्र दोनों को मिलाकर आचारप्रकल्प कहा गया है। अतः निष्कर्ष यह है कि ये दोनों एक ही सूत्र के दो विभाग हैं। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318] [व्यवहारसूत्र नंदीसूत्र की रचना के समय उसका विभक्त होना एवं निशोथ नामकरण हो जाना संभव है। उसके पूर्व अनेक प्रागम स्थानों में निशोथ नाम का कोई अस्तित्व नहीं है, केवल 'प्राचारप्रकल्प' या 'प्राचारप्रकल्प-अध्ययन' के नाम से विधान किये हैं। निशीथसूत्र के अलग हो जाने के कारण उसके रचनाकार के संबंध में अनेक विचार प्रचलित हुए हैं, यथा 1. यह विशाखागणि द्वारा पूर्वो से उद्धृत किया गया है। 2. समय की आवश्यकता को लेकर पार्यरक्षित ने इसकी रचना की है / 3. चौदहपूर्वी भद्रबाहुस्वामी ने निशोथ सहित चारों छेदसूत्रों को पूर्वो से उद्धृत किया है, इत्यादि कल्पनाएं की गई है। व्यवहारसूत्र में 'प्राचारप्रकल्प-डाध्ययन' का वर्णन है और उसे साधु-साध्वी दोनों को कंठस्थ रखने का कथन है और व्यवहारसूत्र चौदहपूर्वी भद्रबाहुस्वामो के द्वारा रचित (नियूंढ) है / अतः भद्रबाहुस्वामी के बाद में होने वाले विशाखागणि और आर्य रक्षित के द्वारा प्राचारप्रकल्प की रचना करने की कल्पना करना तो स्पष्ट ही पागम से विपरीत है। उन दोनों प्राचार्यों में से किसी एक के द्वारा पूर्वश्रुत से उद्ध त करना मान लेने पर निशीथसूत्र को पूर्वश्रुत का अंश मानना होगा। जबकि व्यवहारसूत्र में साध्वियों को उसके कंठस्थ रखने का विधान है और साध्वियों को पूर्वो का अध्ययन वजित भी है / अतः इन दोनों प्राचार्यों के द्वारा पूर्वो से उद्ध त करने का विकल्प भी सत्य नहीं है. किन्तु उन प्राचार्यों के पहले भी यह प्राचारप्रकल्प पूर्वी से भिन्न श्रुत रूप में उपलब्ध था, यह निश्चित है। भद्रबाहुस्वामी ने चार छेदसूत्रों की रचना नहीं की थी किन्तु तीन छेदसूत्रों को हो रचना को थी, यह दशाश्रुतस्कंधसूत्र की नियुक्ति की प्रथम गाथा से स्पष्ट है गाथा-वंदामि भद्दबाहुं, पाईणं चरिम-सगल-सुय-णाणि / सुत्तस्स फारगमिसि, दसासु कप्पे य ववहारे // दशाश्रुतस्कंध के नियुक्तिकर्ता द्वितीय भद्रबाहुस्वामी ने प्रथम भद्रबाहुस्वामी को प्राचीन भद्रबाहु के नाम से वंदन करके उन्हें तीन सूत्रों की रचना करने वाला कहा है। भद्रबाहुस्वामी ने यदि निशीथसूत्र की रचना की होती तो वे व्यवहारसूत्र में सोलह बार 'प्राचारप्रकल्प' का प्रयोग करने के स्थान में या अध्ययनक्रम कहने के वर्णन में कहीं निशीथ का भी नाम निर्देश कर देते। किन्तु अध्ययनक्रम में भी निशीथ का नाम नहीं दिया गया है, प्राचारप्रकल्प और 'दसा-कप्प-ववहार' नाम दिये हैं। अतः निशोथसूत्र को भद्रबाहु को रचना कहना भी प्रमाणसंगत नहीं हैं। इन सब विचारणाओं से यह सिद्ध होता है कि यह किसी को रचना नहीं है किन्तु आचारांग के अध्ययन को किसी आशय से पृथक किया गया है। कब किसने पृथक् किया, कब तक प्राचारप्रकल्प नाम रहा और कब निशीथ नाम हुमा, यह जानने का आधार नहीं मिलता है। तथापि नंदीसूत्र को रचना के समय यह पृथक्हो गया था और इसका नाम भी निशीथसूत्र निश्चित्त हो गया था तथा प्राचार Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] [319 प्रकल्प नाम का कोई भी सूत्र उस समय प्रसिद्धि में नहीं रहा था फिर भी प्राचारप्रकल्प के नाम से अनेक विधान तो आज तक भी आगमों में उपलब्ध हैं। प्रस्तुत प्रथम सूत्र द्विक में उपाध्याय पद योग्य भिक्षु के लिए इसके अध्ययन करने का और अर्थ सहित कण्ठस्थ धारण करने का विधान है। यह उपाध्याय पद योग्य भिक्षु के लिए आवश्यक जघन्यश्रुत है / इसके कण्ठस्थ न होने पर वह उपाध्याय पद पर स्थापित करने के अयोग्य कहा गया है। दसा-कप्प-ववहारधरे द्वितीय सूत्रद्विक में आचार्य पद के योग्यायोग्य का कथन करते हुए जघन्य पांच वर्ष की दीक्षापर्याय एवं अन्य बहुश्रुत पयंत के सभी गुणों को कह कर कम से कम तीन छेदसूत्रों को धारण करना आवश्यक कहा है। __मूल पाठ में इनके लिए 'छेदसूत्र' शब्द का प्रयोग नहीं है तथा नंदीसूत्र में कही गई सूत्रसूची में भी इन्हें छेदसूत्र नहीं कहा गया है। अन्य आगमों में भी 'छेदसूत्र' शब्द का प्रयोग नहीं है / भाष्य, चूणि आदि व्याख्यानों में 'छेदसूत्र' शब्द का प्रयोग मिलता है। अतः नंदी की रचना के बाद व्याख्याकारों के समय में इन सूत्रों की 'छेदसूत्र' संज्ञा हो गई है / निशीथसूत्र उ. 19 में आये "उत्तम श्रुत' निर्देश की व्याख्या में दृष्टि वाद अथवा छेदसूत्रों को 'उत्तमश्रुत' माना गया है, वहां सूत्र में प्राचारशास्त्र का अध्ययन कराने के पूर्व 'उत्तमश्रुत' का अध्ययन कराने पर प्रायश्चित्त कहा है। यहां 'दसा' शब्द से दशाश्रुतस्कंधसूत्र, 'कप्प' शब्द से बृहत्कल्पसूत्र और 'ववहार' शब्द से व्यवहारसूत्र का कथन किया गया है। ये तीनों सूत्र चौदहपूर्वी प्रथम भद्रबाहुस्वामी द्वारा रचित (नियूंढ) हैं, यह निर्विवाद है। आगमों में एक विशेष प्रकार की शैली उपलब्ध है, जिससे किन्हीं सूत्रों में स्वयं उसी.सूत्र का नाम दिया गया है / यथा-नंदीसूत्र में नंदीसूत्र का नाम, समवायांगसूत्र में समवायांगसूत्र का नाम / इसी प्रकार प्रस्तुत व्यवहारसूत्र में भी व्यवहारसूत्र के अध्ययन का निर्देश दो रथलों में किया गया है-- प्रस्तुत सूत्र 5 में तथा दसवें उद्देशक के अध्ययनक्रम में / विशेष प्रकार की शैली के अतिरिक्त इसमें कोई ऐतिहासिक कारण भी हो सकता है। अन्वेषक बहुश्रुत इस विषय का मनन करके कुछ न कुछ रहस्योद्घाटन करने का प्रयत्न करें। ठाण-समवायधरे--तृतीय सूत्रद्विक में गणावच्छेदक पद के योग्यायोग्य भिक्षु का कथन करते हुए आठ वर्ष की दीक्षापर्याय एवं बहुश्रुत पर्यंत के सभी गुणों को कहकर कम से कम ठाणांगसूत्र और समवायांगसूत्र को कण्ठस्थ धारण करना आवश्यक कहा है / यद्यपि गणावच्छेदक से आचार्य और उपाध्याय के पद का विशेष महत्त्व है तथापि कार्यों की अपेक्षा एवं गण-चिता की अपेक्षा गणावच्छेदक का क्षेत्र विशाल होता है। अतः इनके लिए जघन्य दीक्षापर्याय एवं जघन्यश्रुत भी अधिक कहा गया है। यहां सूत्र में गणावच्छेदक के साथ-साथ अन्य पदवियों का भी संग्रह कई प्रतियों में किया गया है, जिनकी कुल संख्या कुछ प्रतियों में 6 या 7 भी मिलती है / भाष्यादि व्याख्यानन्थों में कहा है कि प्रत्येक विशाल गच्छ में पांच पदवीधरों का होना आवश्यक है। अन्यथा उस गच्छ को साधुनों के Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320] [व्यवहारसूत्र समाधि से रहने के अयोग्य, अव्यस्थित और त्याज्य गच्छ कहा है। वे पांच पदवियां ये हैं--(१) प्राचार्य, (2) उपाध्याय, (3) प्रवर्तक, (4) स्थविर, (5) गणावच्छेदक / इनमें से प्रवर्तक के अतिरिक्त चार पदवीधरों के कर्तव्य, अधिकार आदि का कथन अनेक आगमों में है। यथा--(१) प्राचार्य और उपाध्याय के नेतृत्व के बिना बाल तरुण संतों को रहना ही निषिद्ध है / (2) कुछ ऐसे आवश्यक कर्तव्य होते हैं जो "स्थविर" को पूछकर करने का विधान है। (3) प्रायश्चित देना या गच्छ से अलग करना आदि कार्य गणावच्छेदक के निर्देशानुसार किए जाने का कथन है / भाष्यादि व्याख्याग्रन्थों में प्रवर्तक का कार्य श्रमण-समाचारी में प्रवृत्ति कराने का कहा गया है। इन पांच के अतिरिक्त सूत्रों में गणी और गणधर पद के पाठ भी मिलते हैं। इनमें से "गणधर" की व्याख्या इस उद्देशक के प्रथम सूत्र में की गई है और गणी शब्द प्राचार्य का ही पर्यायवाची शब्द है अर्थात् गण-गच्छ को धारण करने वाला "गणी" या प्राचार्य होता है। यथा-- ठाणा. अ. 3, अ. 8; उत्तरा. अ. 3 और व्यव. उ.१/अभि. रा. कोश भा. 3, पृ. 823 / ___ अथवा एक प्रमुख आचार्य की निश्रा में अन्य अनेक छोटे प्राचार्य (कुछ शिष्यों के) होते हैं, वे गणी कहे जाते हैं। प्रस्तुत सत्रद्वय (7-8) का विधान गणावच्छेदक और स्थविर के लिए तो उचित है, किन्तु गणी गणधर और प्रवर्तक के लिए आठ वर्ष की दीक्षापर्याय और उक्त श्रुत का कण्ठस्थ होना अनिवार्य नहीं हो सकता। क्योंकि तीन या पांच वर्ष की दीक्षापर्याय से ही उनकी योग्यता अंकित की जा सकती है। स्थविर का समावेश तो गणावच्छेदक में हो सकता है, क्योंकि गणावच्छेदक श्रुत की अपेक्षा स्थविर ही होते हैं / अतः यह तीसरा सूत्र द्विक गणावच्छेदक से सम्बन्धित है। शेष पदवियों का सूत्र के अन्त में जो संग्रह मिलता है, वे शब्द कभी कालान्तर से किसी के द्वारा अधिक जोड़ दिये गये हैं। ऐसा भी सम्भव है, क्योंकि उपलब्ध प्रतियों में ये शब्द हीनाधिक मिलते हैं और प्रसंगसंगत भी नहीं हैं। यद्यपि तीनों सूत्रद्विक में क्रमश: (1) प्राचारप्रकल्प, (2) दसा-कप्प-ववहार, (3) ठाणांग, समवायांग, जघन्यश्रुत-अध्ययन एवं धारण करना कहा गया है, तथापि अध्ययनक्रम के दसवें उद्देशक के विधान से एवं निशीथ उद्देशक 19 के प्रायश्चित्त-विधानों एवं उसकी व्याख्या से यह सिद्ध होता (1) उपाध्याय के लिए-~~१. श्रावश्यकसूत्र 2, दशवैकालिकसूत्र, 3. उत्तराध्ययनसूत्र, 4. आचारांगसूत्र 5 निशीथसूत्र, यों कम से कम पांच सूत्रों को कण्ठस्थ धारण करना अनिवार्य है। (2) प्राचार्य के लिए-१. अावश्यक, 2. दशवैकालिक, 3. उत्तराध्ययन, 4. आचारांग, 5. निशीथ, 6, सूत्रकृतांग, 7. दशाश्रुतस्कन्ध, 8. बृहत्कल्प, 9. व्यवहारसूत्र, यों कम से कम कुल 9 सूत्रों को कण्ठस्थ धारण करना आवश्यक है। (3) गणावच्छेदक के लिए-उपर्युक्त 9 और ठागांणसूत्र, समवायांगसूत्र, यों कम से कम ग्यारह सूत्रों को कण्ठस्थ धारण करना अनिवार्य है। सूत्राध्ययन सम्बंधी विशेष स्पष्टीकरण के लिए निशीथ उद्दे. 19 देखें। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] [321 अल्पदीक्षापर्याय वाले को पद देने का विधान 9. निरुद्धपरियाए समणे निग्गंथे कप्पइ तदिवसं पायरिय-उवज्ञायत्ताए उदिसित्तए। प०–से किमाहु भंते। उ०-अस्थि णं थेराणं तहारूवाणि कुलाणि, कडाणि, पत्तियाणि, थेज्जाणि वेसासियाणि, सम्मयाणि, सम्मुइकराणि, अणुमयाणि, बहुमयाणि भवंति। तेहि कडेहि, तेहि पत्तिएहि, तेहि थेग्जेहि, तेहि वेसासिएहि, तेहि सम्मएहि, तेहि सम्मुइकरेहि, तेहि अणुमहि, तेहि बहुमहिं / जं से निरुद्धपरियाए समणे निग्गंथे कप्पइ आयरिय-उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए तद्दिवसं / 10. निरुद्धवासपरियाए समणे णिग्गंथे कप्पइ आयरिय-उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए, समुच्छेयकप्पंसि / तस्स णं आयार-पकप्पस्स देसे अवट्ठिए, से य अहिज्जिस्सामि त्ति अहिज्जेज्जा, एवं से कप्पइ आयरिय-उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए। से य अहिज्जिस्सामि ति नो अहिज्जेज्जा, एवं से नो कप्पई आयरिय-उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए। 9. निरुद्ध (अल्प) पर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्थ जिस दिन दीक्षित हो, उसी दिन उसे प्राचार्य या उपाध्याय पद देना कल्पता है। प्र०---हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है ? उ०-स्थविरों के द्वारा तथारूप से भावित प्रीतियुक्त, स्थिर, विश्वस्त, सम्मत, प्रमुदित, अनुमत और बहुमत अनेक कुल होते हैं। उन भावित प्रीतियुक्त, स्थिर, विश्वस्त, सम्मत, प्रमुदित, अनुमत और बहुमत कुल से दीक्षित जो निरुद्ध (अल्प) पर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्थ है, उसे उसी दिन प्राचार्य या उपाध्याय पद देना कल्पता है। 10. आचार्य या उपाध्याय के काल-धर्मप्राप्त (मरण) हो जाने पर निरुद्ध (अल्प) वर्ष पर्याय वाले श्रमण निर्ग्रन्थ को प्राचार्य या उपाध्याय पद देना कल्पता है। _उसके प्राचारप्रकल्प का कुछ अंश अध्ययन करना शेष हो और वह अध्ययन पूर्ण करने का संकल्प रखकर पूर्ण कर ले तो उसे प्राचार्य या उपाध्याय पद देना कल्पता है। किन्तु यदि वह शेष अध्ययन पूर्ण करने का संकल्प रखकर भी उसे पूर्ण न करे तो उसे प्राचार्य या उपाध्याय पद देना नहीं कल्पता है / विवेचन-पूर्व के छह सूत्रों में प्राचार्य आदि पद देने योग्य भिक्षु के गुणों का वर्णन करते हुए उत्सर्गविधि का कथन किया गया है। इस सूत्रद्विक में दीक्षापर्याय एवं श्रुत-अध्ययन सम्बन्धी अपवाद Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322] [व्यवहारसूत्र विधि का कथन किया गया है। अर्थात् पूर्व सूत्रों में कम से कम तीन वर्ष एवं पांच वर्ष की दीक्षापर्याय का होना क्रमश: उपाध्याय एवं आचार्य के लिए अनिवार्य कहा गया है और इन सूत्रों में उसी दिन के दीक्षित भिक्षु को या अनिवार्य वर्षों से कम वर्ष की दीक्षापर्याय वाले को अथवा आवश्यक श्रुत-अध्ययन अपूर्ण हो ऐसे भिक्षु को परिस्थितिवश आचार्य उपाध्याय पद देने का विधान किया है। इन सूत्रों का तात्पर्य यह है कि यदि किसी में सूत्रोक्त पद के योग्य अन्य सभी गुण हों तो किसी विशेष परिस्थिति में श्रुत-धारण की या दीक्षापर्याय की अपूर्णता को नगण्य किया जा सकता है, क्योंकि अन्य सभी गुण विद्यमान होने से श्रुत और दीक्षा-पर्याय की कमी की पूर्ति तो पद देने के बाद भी हो सकती है। नौवें सूत्र में उसी दिन के दीक्षित भिक्षु को पद देने का कथन करते हुए उसके परिवार की धर्मनिष्ठा एवं कुलीनता की पराकाष्ठा सूचित की गई है एवं सूत्र के अंत में ऐसे गुणसंपन्न कुलों से दीक्षित होने वाले भिक्षु को उसी दिन पद देने का उपसंहार-वाक्य कहा गया है / दसवें सूत्र में अपूर्ण सूत्र के अध्ययन को पूर्ण करने की शर्त कही गई है अर्थात् पद देने के पूर्व या पश्चात् शीघ्र ही अवशेष श्रुत को पूर्ण करना आवश्यक कहा है। इन सूत्रों में दो प्रकार की गणस्थिति को लक्ष्य में रख कर कथन किया गया है-(१) गण में रहे हुए साधुओं में सर्वानुमत एवं अनुशासनव्यवस्था संभालने योग्य कोई भी नहीं है, उस समय किसी योग्य भावित कुल के प्रतिभासंपन्न व्यक्ति का दीक्षित होना सूचित किया गया है। (2) गण में दीर्घ दीक्षापर्याय वाले एवं श्रुतसंपन्न साधुओं में कोई भी पद-योग्य नहीं है, किंतु अल्पपर्याय वाला एवं अपूर्ण श्रुत वाला भिक्षु योग्य है, ऐसी परिस्थितियों में उसे पद पर नियुक्त करना सूचित किया है। नवदीक्षित भिक्षु के सूत्रणित पारिवारिक गुण 1. तथारूप कुशल स्थविरों द्वारा धर्मभावना से भावित किये गये कुल / 2. पत्तियाणि-'प्रीतिकराणि, वैनयिकानि कृतानि'-विनयसंपन्न कुल / 3. थेज्जाणि-'प्रीतिकरतया गच्छचितायां प्रमाणभूतानि-गच्छ में प्रीति होने से गच्छ के कार्यसम्पादान में प्रमाणभूत / 4. वेसासियाणि-आत्मानं अन्येषां गच्छवासिना मायारहितानि कृततया विश्वासस्थानानिगच्छ के समस्त साधुओं के विश्वासयोग्य सरल स्वभावी। 5. सम्मयाणि--तेषु तेषु प्रयोजनेषु इष्टानि-संघ के अनेक कार्यों में इष्ट / 6. सम्मुइकराणि-बहुशो विग्रहेषु समुत्पन्नेषु गणस्य समुदितं अकार्षीत्-गच्छ में उत्पन्न क्लेश को शांत करके गच्छ को प्रसन्न रखने वाले। 7. अणमयाणि-बहुमयाणि-गच्छगत बाल म्लान वृद्ध आदि सभी को मान्य, बहुमान्य प्रादेय वचन वाले। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] 8. तेहि कहि जाब तेहिं बहुमहि-ऐसे भावित यावत् सब को मान्य परिवार वाले सदस्यों में से कोई दीक्षा लेने वाला भिक्षु हो तो उसे कप्पइ आयरिय-उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए तदिवसं--उसी दिन दीक्षा देकर प्राचार्य उपाध्याय पद दिया जा सकता है। भाष्य में इस सूत्र की व्याख्या करते हुए मोहवश या स्वार्थवश पारिवारिक लोगों द्वारा बलात् दीक्षा छुड़वा कर घर ले जाये गये व्यक्ति के कालांतर से पुनः दीक्षित होने पर उसे उसी दिन पद देने का संबंध बताया है, किंतु यह कल्पना सूत्र के प्राशय के अनुकूल नहीं है। क्योंकि सूत्र में उसके पूर्व दीक्षापर्याय संबंधी गुणों या उपलब्धियों का कोई कथन नहीं किया गया है, अपितु पारिवारिक लोगों की पूर्ण धर्मनिष्ठा का वर्णन किया है / शास्त्रकार द्वारा ऐसे सद्गुणों से सम्पन्न पारिवारिक जनों के द्वारा बलात् मोह से स्वार्थवश अपहरण की कल्पना करना उपयुक्त नहीं है / अतः ऐसे श्रेष्ठ गुणसंपन्न भावित कुल से दीक्षित होने वाला नवदीक्षित भिक्षु ही 'निरुद्धपर्याय' शब्द से अभीष्ट है।। भाष्य में दसवें सूत्र की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि संयम में किसी प्रकार के दोषों को सेवन करने पर जिसकी दीक्षापर्याय का छेदन कर दिया गया हो, जिससे उसकी दीक्षापर्याय पदप्राप्ति के योग्य नहीं रही हो ऐसे भिक्षु को पद देने का वर्णन है। किंतु सूत्र के विषय की इस प्रकार संगति करना भी उपयुक्त नहीं लगता है। क्योंकि ऐसे दीक्षाछेदन योग्य दोषों से खंडित आचार बाले को पद देना ही उचित नहीं है। सत्र में उसके प्राचारप्रकल्प अध्ययन की अपूर्णता भी कही है। इससे भी अल्पवर्ष की प्रारम्भिक दीक्षापर्याय वाले का ही कथन सिद्ध होता है / क्योंकि अधिक दीक्षापर्याय तक भी जिसका प्राचारप्रकल्प-अध्ययन पूर्ण न हो ऐसे जडबुद्धि और दीक्षाछेद के प्रायश्चित्त को प्राप्त भिक्षु को पद देना शोभाजनक एवं प्रगतिकारक नहीं हो सकता और वास्तव में ऐसा व्यक्ति तो पूर्व सूत्रों के अनुसार सभी पदों के सर्वथा अयोग्य होता है। उसके लिए तो सूत्र में अपवादविधान भी नहीं है। __ अतः इन सूत्रों में प्रयुक्त निरुद्ध' शब्द से 'पूर्व दीक्षा का निरोध' या 'छेदन' अर्थ न करके 'अल्प वर्ष की दीक्षापर्याय' एवं 'अत्यंत अल्प संयमपर्याय' अर्थात दीक्षा के प्रथम दिन पद देने का प्र करना चाहिए। आगमों में 'निरुद्ध' शब्द 'अल्प' या 'अत्यल्प' अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यथा१. सन्निरुद्धम्मि आउए-अत्यंत अल्प आयु वाले इस मनुष्य भव में, 2. निरुद्धायु-अल्प आयु, 3. निरुद्धभवपवंचे संसारभ्रमण जिसका अल्प रह गया है, 4. निरुद्धवास-आवश्यक वर्षों से अल्प वर्ष पर्याय वाला। शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं, कई व्युत्पत्तिपरक भी होते हैं, कई रूढ अर्थ भी। उनमें से कहीं रूढ अर्थ प्रासंगिक होता है, कहीं व्युत्पत्तिपरक अर्थ प्रासंगिक होता है और कहीं दोनों या अनेक अर्थ भी अपेक्षा से घटित हो जाते हैं / अतः जो अर्थ सूत्राशय के अनुकूल हो एवं अन्य भागमविधानों से अविरुद्ध हो, ऐसा ही सूत्र का एवं शब्दों का अर्थ-भावार्थ करना चाहिए। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324] [व्यवहारसूत्र इसी प्राशय से सूत्रार्थ एवं भावार्थ भाष्य से भिन्न प्रकार का किया है। यद्यपि भाष्य में प्रायः सर्वत्र अनेक संभावित अर्थों का संग्रह किया जाता है और प्रमुख रूप से सूत्राशय के अनुरूप अर्थ कौनसा है, इसे भी 'सुत्तनिवातो' शब्द से गाथा में सूचित किया जाता है / तथापि कहीं-कहीं किसी सूत्र की व्याख्या में केवल एक ही अर्थ भावार्थ में व्याख्या पूर्ण कर दी जाती है, जो कि आगम से अविरुद्ध भी नहीं होती है। इसलिए ऐसे निम्नांकित स्थलों पर भाष्य से सर्थथा भिन्न अर्थ-विवेचन करना पड़ा हैयथा-(१) निशीथसूत्र उ. 2, सू. 1 'पादपोंछन' (2) निशीथसूत्र उ. 2, सू. 8 'विसुयावेइ' (3) निशीथसूत्र उ. 3, सू. 73 'गोलेहणियासु' (4) निशीथसूत्र उ. 3, सू. 80 'अणुग्गएसूरिए' (5-6) निशीथसूत्र उ. 19, सू. 1 और 6 'वियड' और 'गालेइ' (7) व्यवहार उ. 2, सू. 17 'प्रट्ठजाय' (8) व्यवहार उ. 3, सू. 1-2 'गणधारण' (9) व्यवहार उ. 9, सू. 31 'सोडियसाला' (10) व्यवहार उ. 10, सू. 22 'तिवासपरियाए' (11) व्यवहार उ. 3, सू. 10 पलासगंसि' (12-13) तथा प्रस्तुत दोनों सूत्र में 'निरुद्धपरियाए, निरुद्धवासपरियाए / इन विषयों की विस्तृत जानकारी के लिए सूचित स्थलों के विवेचन देखें। निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी को आचार्य के नेतृत्व बिना रहने का निषेध 11. निग्गंथस्स णं नव-डहर-तरुणस्स प्रायरिय-उवज्झाए वीसुभेज्जा, नो से कप्पड़ प्रणारिय-उवज्झाइए होत्तए। कप्पइ से पुठवं आयरियं उद्दिसावेत्ता तनो पच्छा उवज्झायं / ५०-से किमाहु भंते ! उ०-दु-संगहिए समणे निग्गंथे, तं जहा-१. प्रायरिएण य, 2. उवज्झाएण य / 12. निग्गंथीए णं नव-डहर-तरुणीए आयरिय-उवज्झाए, पत्तिणी य वीसु भेज्जा, नो से कप्पइ अणायरिय-उवज्झाइयाए अपवित्तिणियाए होत्तए। कप्पइ से पुव्वं आयरियं उद्दिसावेत्ता तओ उवज्झायं तओ पच्छा पवत्तिणि / प०-से किमाहु भंते ? उ०—ति-संगहिया समणी निग्गंथी, तं जहा--१. पायरिएण य, 2. उवज्झाएण य, 3. पवत्तिणीए य / 11. नवदीक्षित, बालक या तरुण निर्ग्रन्थ के प्राचार्य और उपाध्याय की यदि मृत्यु हो जाए तो उसे प्राचार्य और उपाध्याय के बिना रहना नहीं कल्पता है। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] [325 उसे पहले प्राचार्य की और बाद में उपाध्याय को निश्रा (अधीनता) स्वीकार करके ही रहना चाहिए। प्र०-हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है ? उ०--श्रमण निर्ग्रन्थ दो के नेतृत्व में ही रहते हैं, यथा-१. आचार्य और 2. उपाध्याय / 12. नवदीक्षिता, बालिका या तरुणी निर्ग्रन्थों के प्राचार्य, उपाध्याय और प्रवतिनी की यदि मृत्यु हो जावे तो उसे प्राचार्य उपाध्याय और प्रवर्तिनी के बिना रहना नहीं कल्पता है। उसे पहले प्राचार्य की, बाद में उपाध्याय की और बाद में प्रवर्तिनी की निश्रा (अधीनता) स्वीकार करके ही रहना चाहिए। प्र०-हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है ? उ०–श्रमणी निर्ग्रन्थी तीन के नेतृत्व में ही रहती है, यथा-१. प्राचार्य, 2. उपाध्याय और 3. प्रवर्तिनी। विवेचन-नव, डहर, तरुण का स्पष्टार्थ भाष्य में इस प्रकार किया गया है तिवरिसो होइ नवो, प्रासोलसगं तु डहरगं बेति / तरुणो चत्तालोसो, सत्तरि उण मज्झिमो, थेरओ सेसो / तीन वर्ष की दीक्षा पर्याय पर्यंत नवदीक्षित कहा जाता है। चार वर्ष से लेकर सोलह वर्ष की उम्र पर्यंत डहर-बाल कहा जाता है / सोलह वर्ष की उम्र से लेकर चालीस वर्ष पर्यंत तरुण कहा जाता है। सत्तर वर्ष में एक कम अर्थात् उनसत्तर (69) वर्ष पर्यन्त मध्यम (प्रौढ) कहा जाता है। सत्तर वर्ष से आगे शेष सभी वय वाले स्थविर कहे जाते हैं। -भाष्य गा. 220 एवं टीका। आगम में साठ वर्ष वाले को स्थविर कहा है। –व्यव. उ. १०.-ठाणं अ. 3. भाष्यगाथा 221 में यह स्पष्ट किया गया है कि नवदीक्षित भिक्षु बाल हो या तरुण हो, मध्यम वय वाला हो अथवा स्थविर हो, उसे प्राचार्य उपाध्याय की निश्रा के बिना रहना या विचरण करना नहीं कल्पता है। अधिक दीक्षापर्याय वाला भिक्ष यदि चालीस वर्ष से कम वय वाला हो तो उसे भी प्राचार्य उपाध्याय की निश्रा बिना रहना नहीं कल्पता है। तात्पर्य यह है कि बाल या तरुण वय वाले भिक्ष और नवदीक्षित भिक्ष एक हों या अनेक हों, उन्हें आचार्य और उपाध्याय की निश्रा में ही रहना आवश्यक है / जिस गच्छ में आचार्य उपाध्याय कालधर्म प्राप्त हो जाए अथवा जिस गच्छ में प्राचार्य उपाध्याय न हों तो बाल-तरुण-नवदीक्षित भिक्ष ओं को प्राचार्य उपाध्याय के बिना या प्राचार्य उपाध्याय रहित गच्छ में किंचित् भी रहना नहीं कल्पता है / उन्हें प्रथम अपना आचार्य नियुक्त करना चाहिए तत्पश्चात् उपाध्याय नियुक्त करना चाहिए / सूत्र में प्रश्न किया गया है— "हे भगवान् ! आचार्य उपाध्याय बिना रहना ही नहीं, ऐसा कहने का क्या आशय है ?" Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326] [व्यवहारसूत्र ___ इसका समाधान यह किया गया है कि ये उक्त वय वाले श्रमण निर्ग्रन्थ सदा दो से संग्रहीत होते हैं अर्थात् इनके लिये सदा दो का नेतृत्व होना अत्यन्त आवश्यक है--१. आचार्य 2. उपाध्याय का / तात्पर्य यह है कि प्राचार्य के नेतृत्व से इनकी संयमसमाधि रहती है और उपाध्याय के नेतृत्व से इनका आगमानुसार व्यवस्थित अध्ययन होता है। दूसरे सूत्र में नव, डहर एवं तरुण साध्वी के लिये भी यही विधान किया गया है। उन्हें भी प्राचार्य, उपाध्याय और प्रवर्तिनी इन तीन की निश्रा के बिना रहना नहीं कल्पता है। इस सूत्र में भी प्रश्न करके उत्तर में यही कहा गया है कि ये उक्त बय वाली साध्वियां सदा तोन की निश्रा से ही सुरक्षित रहती हैं। सूत्र में "निग्गंथस्स नव-डहर-तरुणगस्स" और "णिग्गंथीए णव-डहर-तरुणीए" इस प्रकार का प्रयोग है, यहां बहवचन का या गण का कथन नहीं है, जिससे यह विधान प्रत्येक 'नव डहर तरुण' भिक्ष के लिये समझना चाहिए / अतः जिस गच्छ में प्राचार्य और उपाध्याय दो पदवीधर नहीं हैं, वहां उक्त नव डहर तरुण साधुओं को रहना नहीं कल्पता है और इन दो के अतिरिक्त प्रवर्तिनो न हो तो वहां उक्त नव डहर तरुण साध्वियों को रहना नहीं कल्पता है / / तात्पर्य यह है कि उक्त साधुनों से युक्त प्रत्येक गच्छ में प्राचार्य उपाध्याय दो पदवीधर होना आवश्यक है। यदि ऐसे गच्छ में केवल एक पदवीधर स्थापित करे या एक भी पदवीधर नियुक्त न करे केवल रत्नाधिक की निश्रा से रहे तो इस प्रकार से रहना आगम-विपरीत है। क्योंकि इन सूत्रों से यह स्पष्ट है कि अल्पसंख्यक गच्छ में या विशाल गच्छ में प्राचार्य और उपाध्याय का होना आवश्यक है, यही जिनाज्ञा है। यदि किसी गच्छ में 2-4 साधु ही हों और उनमें कोई सूत्रोक्त नव डहर तरुण न हो अर्थात् सभी प्रौढ एवं स्थविर हों तो वे बिना आचार्य उपाध्याय के विचरण कर सकते हैं, किन्तु यदि उनमें नव डहर तरुण हों तो उन्हें किसी भी गच्छ के आचार्य उपाध्याय की निश्रा लेकर ही रहना चाहिए अन्यथा उनका विहार आगमविरुद्ध है। ___ इसी प्रकार साध्वियाँ भी 5-10 हों, जिनके कोई प्राचार्य उपाध्याय या प्रवर्तिनी न हो या उन्होंने किसी परिस्थिति से गच्छ का त्यागकर दिया हो और उनमें नव डहर तरुण साध्वियाँ हों तो उन्हें भी किसी आचार्य और उपाध्याय की निश्रा स्वीकार करना आवश्यक है एवं अपनी प्रवर्तिनी नियुक्त करना भी आवश्यक है / अन्यथा उनका विहार भी आगमविरुद्ध है / इन सूत्रों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि स्थानांग अ. 3 में कहे गये भिक्षु के दूसरे मनोरथ के अनुसार अथवा अन्य किसी प्रतिज्ञा को धारण करने वाला भिक्षु और दशवै. चू. 2, गा. 10; उत्तरा. अ. 32, गा. 5; प्राचा. श्रु. 1, प्र. 6, उ. 2; सूय. श्रु. 1, अ. 10 गा. 11 में कहे गये सपरिस्थितिक प्रशस्त एकलविहार के अनुसार अकेला विचरण करने वाला भिक्षु भी यदि नव डहर या तरुण है तो उसका वह विहार आगमविरुद्ध है। अतः उपर्युक्त आगमसम्मत एकलविहार भी प्रौढ एवं स्थविर भिक्ष ही कर सकते हैं जो नवदीक्षित न हों। तात्पर्य यह है कि तीन वर्ष की दीक्षापर्याय और चालीस वर्ष की उम्र के पहले किसी भी प्रकार का एकलविहार या गच्छत्याग करना उचित नहीं है और वह आगमविपरीत है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] [327 बीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाला पर्यायस्थविर होने से 29 वर्ष की वय में वह प्राचार्य की प्राज्ञा लेकर एकलविहार साधनाएँ कर सकता है। किन्तु सपरिस्थितिक एकल विहार या गच्छत्याग नहीं कर सकता। ऐसे स्पष्ट विधान वाले सूत्र एवं अर्थ के उपलब्ध होते हुए भी समाज में निम्न प्रवतियां या परम्पराएं चलती हैं, वे उचित नहीं कही जा सकतीं / यथा--- (1) केवल प्राचार्य पद से गच्छ चलाना और उपाध्याय पद नियुक्त न करना / (2) कोई भी पद नियुक्त न करने के आग्रह से विशाल गच्छ को अव्यवस्थित चलाते रहना। (3) उक्त वय के पूर्व ही गच्छत्याग करना।। ऐसा करने में स्पष्ट रूप से उक्त प्रागमविधान की स्वमति से उपेक्षा करना है। इस उपेक्षा से होने वाली हानियां इस प्रकार हैं 1. गच्छगत साधुओं के विनय, अध्ययन, आचार एवं संयमसमाधि की अव्यवस्था प्रादि अनेक दोषों की उत्पत्ति होती है। 2. साधुओं में स्वच्छन्दता एवं प्राचार-विचार की भिन्नता हो जाने से क्रमशः गच्छ का विकास न होकर अधःपतन होता है। 3. साधुत्रों में प्रेम एवं संयमसमाधि नष्ट होती है और क्लेशों की वृद्धि होती है / 4. अन्ततः गच्छ भी छिन्न-भिन्न होता रहता है। अतः प्रत्येक गच्छ में प्राचार्य उपाध्याय दोनों पदों पर किसी को नियुक्त करना आवश्यक है / यदि कोई प्राचार्य उपाध्याय पदों को लेना या गच्छ में ये पद नियुक्त करना अभिमानसूचक एवं क्लेशवृद्धि कराने वाला मानकर सदा के लिये पदरहित गच्छ रखने का आग्रह रखते हैं और ऐसा करते हुए अपने को निरभिमान होना व्यक्त करते हैं, तो ऐसा मानना एवं करना उनका सर्वथा अनुचित है और जिनाज्ञा की अवहेलना एवं प्रासातना करना भी है / क्योंकि जिनाज्ञा प्राचार्य उपाध्याय नियुक्त करने की है तथा नमस्कारमंत्र में भी ये दो स्वतन्त्र पद कहे गये हैं। अतः उपर्युक्त आग्रह में सूत्रविधानों से भी अपनी समझ को सर्वोपरि मानने का अहं सिद्ध होता है। यदि प्राचार्य उपाध्याय पद के अभाव में निरभिमान और क्लेशरहित होना सभी विशाल गच्छ वाले सोच लें तो नमस्कार मंत्र के दो पदों का होना ही निरर्थक सिद्ध होगा। जिससे पद-नियुक्ति सम्बन्धी सारे आगमविधानों का भी कोई महत्त्व नहीं रहेगा। इसलिये अपने विचारों का या परम्परा का आग्रह न रखते हुए सरलतापूर्वक प्रागमविधानों के अनुसार ही प्रवृत्ति करना चाहिए। सारांश (1) प्रत्येक नव डहर तरुण साधु को दो- और साध्वी को तीन पदवीधरयुक्त गच्छ में ही रहना चाहिए। (2) इन पदवीधरों से रहित गच्छ में नहीं रहना चाहिए। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328] [व्यवहारसूत्र (3) सूत्रोक्त वय के पूर्व एकलविहार या गच्छत्याग कर स्वतन्त्र विचरण भी नहीं करना चाहिए। (4) कोई परिस्थिति विशेष हो तो अन्य प्राचार्य एवं उपाध्याय से युक्त गच्छ की निश्रा लेकर विचरण करना चाहिए। (5) गच्छप्रमुखों को चाहिए कि वे अपने गच्छ को 2 या 3 पद से कभी भी रिक्त न रखें। अब्रह्मसेवी को पद देने के विधि-निषेध 13. भिक्खू य गणामो अवक्कम्म मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा, तिणि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियतं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उदिसित्तए वा धारेत्तए वा। ____ तिहि संवच्छरेहि वीइक्कतेहि चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्टियंसि ठियस्स, उवसंतस्स, उवरयस्स, पडिविरयस्स, निव्वगारस्स, एवं से कप्पइ प्रायरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं या उहिसित्तए वा धारेत्तए वा। 14. गणावच्छेइए य गणावच्छेयत्तं अनिक्खिवित्ता मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियतं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा / 15. गणावच्छेहए य गणावच्छेइयत्तं निक्खिवित्ता मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा, तिणि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। तिहि संवच्छरेहि वीइक्कतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्टियंसि ठियस्स उवसंतस्स, उवरयस्स, पडिविरयस्स, निविगारस्स, एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 16. आयरिय-उवज्झाए य आयरिय-उवज्ञायत्तं अनिक्खिवित्ता मेहणधम्म पडिसेवेज्जा, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 17. आयरिय-उवज्झाए य आयरिय-उवज्झायत्तं निक्खिवित्ता मेहुणधम्म पडिसेवेज्जा, तिणि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ पायरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। तिहिं संवच्छरेहि वीइक्कतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स उवसंतस्स, उवरयस्स, पडिविरयस्स, निवागारस्स, एवं से कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] [329 13. यदि कोई भिक्षु गण को छोड़कर मैथुन का प्रतिसेवन करे अर्थात् मैथुनसेवन करे तो उसे उक्त कारण से तीन वर्ष पर्यन्त प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या उसको धारण करना नहीं कल्पता है। तीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने पर यदि वह वेदोदय से उपश मैथुन से निवृत्त, मैथुनसेवन से ग्लानिप्राप्त और विषय-वासना-रहित हो जाए तो उसे प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता है। 14. यदि कोई गणावच्छेदक अपना पद छोड़े बिना मैथुन का प्रतिसेवन करे तो उसे उक्त कारण से यावज्जीवन प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या इसे धारण करना नहीं कल्पता है / 15. यदि कोई गणावच्छेदक अपना पद छोड़कर मैथुन का प्रतिसेवन करे तो उसे उक्त कारण से तीन वर्ष पर्यन्त प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। तीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने पर यदि वह उपशान्त, उपरत, प्रतिविरत और निर्विकार हो जाए तो उसे प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता है। 16. यदि कोई प्राचार्य या उपाध्याय अपने पद को छोड़े बिना मैथुन का प्रतिसेवन करे तो उसे उक्त कारण से यावज्जीवन प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता 17. यदि कोई प्राचार्य या उपाध्याय अपने पद को छोड़कर मैथुन का प्रतिसेवन करे तो उसे उक्त कारण से तीन वर्ष पर्यन्त प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। तीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने पर यदि वह उपशान्त, उपरत, प्रतिविरत और निर्विकार हो जाए तो उसे प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता है। विवेचन आगमों में ब्रह्मचर्य की बहुत महिमा कही गई है एवं इसका पालन भी दुष्कर कहा गया है। इनके प्रमाणस्थलों के लिये नि. उ. 6 देखें। पांच महाव्रतों में भी ब्रह्मचर्य महाव्रत प्रधान है / अतः इसके भंग होने पर यहां कठोरतम प्रायश्चित्त कहा गया है। निशीथ उ. 6-7 में इस महावत के अतिचार एवं अनाचारों का गुरुचौमासी प्रायश्चित्त कहा गया है और यहां केवल प्राचार्य आदि पदवियां देने, न देने के रूप में प्रायश्चित्त कहे गये हैं / अर्थात मैथुनसेवो को निशोथसूत्रोक्त गुरुचौमासी प्रायश्चित्त तो आता ही है साथ ही वह तीन वर्ष या उससे अधिक वर्ष अथवा जीवन भर प्राचार्यादि पद के अयोग्य हो जाता है, यह इन सूत्रों में कहा गया है। जो भिक्षु संयमवेश में रहते हुए स्त्री के साथ एक बार या अनेक बार मैथुनसेवन कर लेता है तो वह आचार्य आदि पदों के योग्य गुणों से सम्पन्न होते हुए भी कम से कम तीन वर्ष तक पद धारण करने के अयोग्य हो जाता है / Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330] [व्यवहारसूत्र अतः उसे पद देने का एवं धारण करने का निषेध किया गया है। जिससे वह भिक्षु तीन वर्ष तक प्रमुख बन कर विचरण भी नही कर सकता है, क्योंकि सूत्र में "गणधर" बनने का निषेध किया है। "गणधर" शब्द का विशेषार्थ इसी उद्देशक के प्रथम सूत्र में देखें। जो भिक्षु मैथुनसेवन के बाद या प्रायश्चित्त से शुद्धि कर लेने के बाद सर्वथा मैथुनभाव से निवृत्त हो जाता है और तीन वर्ष पर्यन्त वह निष्कलंक जीवन व्यतीत करता है, उस भिक्षु की अपेक्षा से यह जघन्य मर्यादा है। यदि उस अवधि में भी पुनः ब्रह्मचर्य महाव्रत के अतिचार या अनाचारों का सेवन करता है, अथवा दिये गये प्रायश्चित्त से विपरीत आचरण करता है, तो यह तीन वर्ष की मर्यादा आगे बढ़ा दी जाती है और ऐसा करने से कभी जीवनपर्यन्त भी वह पद प्राप्ति के अयोग्य रह जाता है। ___ प्राचार्य, उपाध्याय या गणावच्छेदक आदि गच्छ में एवं समाज में अत्यधिक प्रतिष्ठित होते हैं तथा ये अन्य साधु-साध्वियों के लिए आदर्श रूप होते हैं। पद पर प्रतिष्ठित होने से इन पर जिनशासन का विशेष दायित्व होता है। उपलक्षण से इन तीन के अतिरिक्त प्रवर्तक, प्रवर्तिनी आदि पदों के लिए भी समझ लेना चाहिए। _इन पदवीधरों के द्वारा पद पर रहते हुए मैथुनसेवन करना अक्षम्य अपराध है। अतः बिना किसी विकल्प के जीवन भर वे किसी भी पद को धारण नहीं कर सकते। उन्हें सदा अन्य के अधीन रहकर ही विचरण करते हुए संयम पालन करना पड़ता है। यदि कोई पदवीधर यह जान ले कि 'मैं ब्रह्मचर्य का पालन करने में असमर्थ हूं' और तब वह अपना असामर्थ्य प्रकट करके या सामान्य रूप से अपनी संयमपालन की अक्षमता प्रकट करके पदत्याग कर देता है और योग्य अन्य भिक्षु को पद पर नियुक्त कर देता है, उसके बाद मैथुनसेवन करता है तो उसे उक्त जीवन पर्यन्त का प्रायश्चित्त नहीं पाता है किन्तु तीन वर्ष तक पदमुक्त रहने का ही प्रायश्चित्त पाता है। सामान्य भिक्षु के मैथनसेवन की वार्ता से भी लोकापवाद एवं जिनशासन की अवहेलना होती है और उस भिक्षु की प्रतिष्ठा भी नहीं रहती है / तथापि प्राचार्य आदि पदवीधर द्वारा भैथुनसेवन की वार्ता से तो जिनशासन को अत्यधिक अवहेलना होती है एवं उस पदवीधर को भी अत्यधिक लज्जित होना पड़ता है। ___ अतः सामान्य भिक्षु या कोई पदवीधर ब्रह्मचर्य पालन करने में अपने आपको असमर्थ माने तो उन्हें प्राचा. श्रु. 1 अ. 5 उ. 4 में कही गई क्रमिक साधना करनी चाहिये या पाचा. श्रु. 1 अ. 8 उ.४ के अनुसार आचरण करना चाहिए। किन्तु संयमी जीवन में मैथुनसेवन करके स्वयं का एवं जिनशासन का अहित नहीं करना चाहिये। ___ अाचारांगसूत्र में कथित उत्कट अाराधना यदि किसी से संभव न हो एवं तीव्र मोहोदय उपशांत न हो तो भी संयमी जीवन को कलंकित करके जिनशासन की अवहेलना करना सर्वथा अनुचित है। उसकी अपेक्षा संयम त्यागकर मर्यादित गृहस्थजीवन में धर्म-आराधना करना श्रेयस्कर ऐसा भी संभव न हो तो अन्य विधि जो भाष्य में कही गई है यह गीतार्थों के जानने योग्य है Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] [331 एवं आवश्यक होने पर कभी गीतार्थों की निश्रा से अन्य साधु-साध्वियों के भी जानने योग्य एवं परिस्थितिवश आचरण करने योग्य हो सकती है। प्रस्तुत सूत्र में पाए उद्दिसित्तए और धारित्तए, इन दो पदों का आशय यह है कि अब्रह्मसेवी भिक्षु को पद पर नियुक्त नहीं करना चाहिए और यदि जानकारी के अभाव में कोई उसको पद पर नियुक्त कर भी दे तो उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। सूत्र में मैथुन के संकल्पों से निवृत्त भिक्षु के लिए अनेक विशेषणों का प्रयोग किया गया है / टीकाकार ने उनके अर्थ में कुछ अन्तर बताते हुए व्याख्या की है। यथा स्थित--स्थित परिणाम वाले उपशांत-मैथुनप्रवृत्ति से निवृत्त उपरत--मैथुन के संकल्पों से निवृत्त प्रतिविरत-मैथुन सेवन से सर्वथा विरक्त निर्विकारी पूर्ण रूप से विकाररहित, शुद्ध ब्रह्मचर्य पालने वाला / - व्यव. भाष्य टीका / संयम त्यागकर जाने वाले को पद के विधि-निषेध 18. भिक्खू य गणानो अवक्कम्म ओहाएज्जा, तिण्णि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उदिसित्तए वा धारेत्तए था। तिहिं संवच्छरेहि वीइक्कतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स, उवसंतस्स, उवरयस्स, पडिविरयस्स, निबिगारस्स एवं से कप्पइ प्रायरियतं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उदिसित्तए वा धारेत्तए वा। 19. गणावच्छेइए य गणावच्छेइयत्तं अनिक्खिवित्ता पोहाएज्जा, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पद पायरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 20. गणावच्छेइए य गणावच्छेइयत्तं निक्खिवित्ता मोहाएज्जा, तिणि संघच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। तिहि संवच्छरेहि वोइक्कतेहि, चउत्यगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स, उवसंतस्स, उवरयस्स, पडिविरयस्स, निविगारस्स एवं से कप्पइ आयरियतं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 21. पायरिय-उवज्झाए य आयरिय-उवज्झायत्तं निक्खिवित्त पोहाएज्जा, तिणि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ प्रायरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए था। 22. आयरिय-उवज्झाए य प्राथरिय-उवज्झायत्तं निक्खिवित्ता ओहाएज्जा, तिण्णि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ पायरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332] [व्यवहारसूत्र तिहिं संवच्छरेहि वीइक्कतेहि चउत्यगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स, उवसंतस्स, उवरयस्स, पडिविरयस्स, निविगारस्स एवं से कप्पइ आयरियतं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 18. यदि कोई भिक्षु गण और संयम का परित्याग करके और वेष को छोड़कर के चला जाए और बाद में पुनः दीक्षित हो जाए तो उसे उक्त कारण से तीन वर्ष पर्यन्त प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। तीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने पर यदि वह उपशांत, उपरत, प्रतिविरत और निर्विकार हो जाए तो उसे प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता है। 19. यदि कोई गणावच्छेदक अपना पद छोड़े बिना संयम का परित्याग करके और वेष छोड़कर चला जाए और बाद में पुनः दीक्षित हो जाए तो उसे उक्त कारण से यावज्जीवन आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है / 20. यदि कोई गणावच्छेदक अपना पद छोड़कर के तथा संयम का परित्याग करके और वेष छोड़कर चला जाए और बाद में पुनः दीक्षित हो जाए तो उसे उक्त कारण से तीन वर्ष पर्यन्त प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। तीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने पर यदि वह उपशान्त, उपरत, प्रतिविरत और निर्विकार हो जाए तो उसे प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता है। 21. यदि कोई प्राचार्य या उपाध्याय अपना पद छोड़े बिना संयम का परित्याग करके और वेष छोड़कर चला जाए और बाद में पुनः दीक्षित हो जाए तो उसे उक्त कारण से यावज्जीवन आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है / 22. यदि कोई प्राचार्य या उपाध्याय अपना पद छोड़कर के तथा संयम और वेष का परित्याग करके चला जाए और बाद में पुनः दीक्षित हो जाए तो उसे उक्त कारण से तीन वर्ष पर्यन्त प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। तीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने पर यदि वह उपशान्त, उपरत, प्रतिविरत और निर्विकार हो जाए तो उसे प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता है। विवेचन--पूर्व सूत्रपंचक में ब्रह्मचर्य पालन में असमर्थ भिक्षु एवं आचार्य प्रादि के लिए पदवी सम्बन्धी प्रायश्चित्त का विधान किया गया है और इस सूत्रपंचक में सामान्य रूप से संयम पालन में असमर्थ भिक्षु आदि के संयम त्यागकर जाने के बाद पुनः दीक्षा स्वीकार करने पर उसे पदवी देने या न देने का विधान किया गया है। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] [333 संयम के त्यागने में परोषह या उपसर्ग आदि कई कारण हो सकते हैं / ब्रह्मचर्य आदि महाव्रत पालन की अक्षमता का भी कारण हो सकता है। किसी भी कारण से संयम त्यागने वाला यदि पुन: दीक्षा ग्रहण करे तो उसे भी तीन वर्ष तक या जीवनपर्यन्त पदवी नहीं देने का वर्णन पूर्व सूत्रपंचक के समान यहां भी समझ लेना चाहिए तथा शब्दार्थ भी उसी के समान समझ लेना चाहिए। अनेक आगमों में संयम त्यागने का एवं परित्यक्त भोगों को पुनः स्वीकार करने का स्पष्ट निषेध किया गया है। दशवैकालिकसूत्र की प्रथम चूलिका में संयम त्यागने पर होने वाले अनेक अपायों (दुखों) का कथन करके संयम में स्थिर रहने की प्रेरणा दी गई है। उस चूलिका का नाम भी "रतिवाक्य" है, जिसका अर्थ है संयम में रुचि पैदा करने वाले शिक्षा-वचन / अतः उस अध्ययन का चिन्तन-मनन करके सदा संयम में चित्त स्थिर रखना चाहिए। पापजीवी बहुश्रुतों को पद देने का निषेध 23. भिक्खु य बहुस्सुए बब्भागमे बहुसो बहु-आगाढा-गाढेसु कारणेसु माई मुसाबाई, असुई, पावजीवी, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 24. गणावच्छेइए य बहुस्सुए बभागमे बहुसो बहु-भागाढा-गाढेसु कारणेसु माई मुसाबाई, असुई, पावजीवी, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ पायरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। ___ 25. पायरिय-उवज्झाए य बहुस्सुए बब्भागमे बहुसो बहु-आगाढा-गाढेसु कारणेसु माई मुसाबाई, असुई, पावजीवी, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ पायरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा / 26. बहवे भिक्खुणो बहुस्सुया बब्भागमा बहुसो बहु-आगाढा-गाढेसु कारणेसु माई मुसावाई, असुई, पावजीवी, जावज्जीवाए तेसि तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 27. बहबे गणावच्छेइया बहुस्सुया बभागमा बहुसो बहु-आगाढा-गाढेसु कारणेसु माई मुसावाई, प्रसुई, पावजीवी, जावज्जीवाए तेसि तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए था। 28. बहवे प्रायरिय-उवज्शाया बहुस्सुया बब्भागमा बहुसो बहु-आगाढा-गाढेसु कारणेसु माई मुसावाई, प्रसुई, पावजीवी जावज्जीवाए तेसि तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्यवहारसूत्र 29. बहवे भिक्खुणो बहवे गणावच्छेइया बहवे आपरिय-उवझाया बहुस्सुया बब्भागमा बहुसो बहु-प्रागाढा-गाढेसु कारणेसु माई मुसावाई, असुई, पावजीवी जावज्जीवाए तेसि तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 23. बहुश्रुत, बहुअागमज्ञ भिक्षु अनेक प्रगाढ कारणों के होने पर यदि अनेक बार मायापूर्वक मृषा बोले या अपवित्र पापाचरणों से जीवन व्यतीत करे तो उसे उक्त कारणों से यावज्जीवन आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। 24. बहुश्रुत, बहुअागमज्ञ गणावच्छेदक अनेक प्रगाढ कारणों के होने पर अनेक बार मायापूर्वक मृषा बोले या अपवित्र पापाचरणों से जीवन व्यतीत करे तो उसे उक्त कारणों से यावज्जीवन प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। 25. बहुश्रुत, बहुप्रागमज्ञ प्राचार्य या उपाध्याय अनेक प्रगाढ कारणों के होने पर यदि अनेक बार मायापूर्वक मृषा बोले या अपवित्र पापाचरणों से जीवन व्यतीत करे तो उसे उक्त कारणों से यावज्जीवन प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है / 26. बहुश्रुत, बहुआगमज्ञ अनेक भिक्षु अनेक प्रगाढ कारणों के होने पर यदि अनेक बार मायापूर्वक मृषा बोलें या अपवित्र पापाचरणों से जीवन व्यतीत करें तो उन्हें उक्त कारणों से यावज्जीवन प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है / 27. बहुश्रुत, बहनागमज्ञ अनेक गणावच्छेदक अनेक प्रगाढ कारणों के होने पर भी यदि अनेक बार मायापूर्वक मृषा बोलें या अपवित्र पापाचरणों से जीवन व्यतीत करें तो उन्हें उक्त कारणों से यावज्जीवन आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। 28. बहुश्रुत, बहुआगमज्ञ अनेक आचार्य उपाध्याय अनेक प्रगाढ कारणों के होने पर यदि अनेक बार मायापूर्वक मृषा बोले या अपवित्र पापाचरणों से जीवन व्यतीत करें तो उन्हें उक्त कारणों से यावज्जीवन प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। 29. बहुश्रुत, बहुअागमज्ञ अनेक भिक्ष, अनेक गणावच्छेदक या अनेक प्राचार्य उपाध्याय अनेक प्रगाढ कारणों के होने पर यदि अनेक बार मायापूर्वक मृषा बोलें या अपवित्र पापाचरणों से जीवन व्यतीत करें तो उन्हें उक्त कारणों से यावज्जीवन प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। विवेचन-इन सूत्रों में बहुश्रुत बहुमागमज्ञ भिक्षु को प्राचार्य आदि पद न देने के प्रायश्चित्त का विधान है। अतः अल्पज्ञ अल्पश्रुत भिक्षुत्रों के लिए इस प्रायश्चित्त का विधान नहीं है, क्योंकि वे जिनाज्ञा एवं संयममार्ग के उत्सर्ग-अपवाद रूप प्राचरणों एवं सिद्धान्तों के पूर्ण ज्ञाता नहीं होते हैं / अतः वे अव्यक्त या अपरिपक्व होने से पदवियों के अयोग्य ही होते हैं तथा उनके द्वारा इन सूत्रों में कहे गये दोषों का सेवन करना सम्भव भी नहीं है / कदाचित् वे ऐसा कोई अांशिक दोष सेवन कर भी लें तो उनकी शुद्धि निशीथसूत्रोक्त तप प्रायश्चित्तों से ही हो जाती है / Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] [335 आचार्य उपाध्याय आदि सभी पदवीधर भिक्षु तो नियमतः बहुश्रुत बहुआगमज्ञ होते हैं फिर भी उनके लिए इन शब्दों का प्रयोग केवल स्वरूपदर्शक है अथवा लिपिप्रमाद से हो जाना सम्भव है। जैसे कि पहले उद्देशक में पालोचनासत्र में प्राचार्य उपाध्याय के यह विशेषण नहीं हैं अन्य भिक्षों के लिए यह विशेषण लगाये गये हैं तथापि वहां कई प्रतियों में इन विशेषण सम्बन्धी लिपिप्रमाद हुया है। विशेषणयुक्त इन सूत्रों का तात्पर्य यह है कि बहुश्रुत भिक्षु जिनशासन के जिम्मेदार व्यक्ति होते हैं। इनके द्वारा बड़े दोषों का सेवन जिनशासन को अत्यधिक अवहेलना का कारण होने से उनकी भूल अक्षम्य होती है। जिससे उन्हें प्रायश्चित्त रूप में जीवन भर के लिए धर्मशासन के पद से मुक्त रखने का विधान किया गया है। अतः इन सूत्रों में कहे गये आचरणों को करने वाले बहुश्रुत भिक्षु आदि को जीवन भर प्राचार्य यावत् गणप्रमुख बनकर विचरण करने का कोई अधिकार नहीं रहता है। __ सूत्र में 'बहुत बार' और 'बहु आगाढ कारण' इन दो शब्दों का प्रयोग किया गया है / अतः एक बार उक्त आचरण करने पर यह सूत्रोक्त प्रायश्चित्त नहीं आता है, किन्तु उसे केवल तप प्रायश्चित्त ही दिया जाता है। बह ग्रागाढ अर्थात अनेक प्रबल कारणों के बिना ही यदि उक्त भिक्ष इन दोषों का सेवन करे तो उसे दीक्षाछेद रूप प्रायश्चित्त पाता है। सारांश यह है कि अनेक बार दोष सेवन करने पर और अनेक आगाढ कारण होने पर ही यह प्रायश्चित्त समझना चाहिए। पूर्व के दस सूत्रों में भी प्राचार्य आदि पदवी के सम्बन्ध में प्रायश्चित्तरूप विधि-निषेध किये गये हैं और इन सात सूत्रों में भी यही वर्णन है / अन्तर यह है कि वहां ब्रह्मचर्यभंग या वेष त्यागने की अपेक्षा से वर्णन है और यहां प्रथम, द्वितीय या पंचम महाव्रत सम्बन्धी दोषों की अपेक्षा वर्णन है। अर्थात् जो भिक्षु झूठ, कपट, प्रपंच दूसरों के साथ धोखा, असत्य दोषारोपण आदि आचरणों का अनेक बार सेवन करता है या तन्त्र, मन्त्र आदि से किसी को कष्ट देता है अथवा विद्या, मन्त्र, ज्योतिष, वैद्यककर्म आदि का प्ररूपण करता है, ऐसे भिक्षु को सूत्र में "पापजीवी' कहा है। वह कलुषित चित्त और कुशील प्राचार के कारण सभी प्रकार की प्रमुखता या पदवी के सर्वथा अयोग्य हो जाता है। यहां सात सूत्रों द्वारा प्रायश्चित्तविधान करने का यह प्राशय है कि एक भिक्षु हो या अनेक अथवा एक पदवीधर हो या अनेक, ये मिलकर भी सूत्रोक्त दोष सेवन करें तो वे सभी प्रायश्चित्त के भागी होते हैं / आगाढ कारणों की जानकारी के लिए भाष्य का अध्ययन करें। सूत्र 1-2 तीसरे उद्देशक का सारांश बुद्धिमान, विचक्षण, तीन वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला और प्राचारांग निशीथसत्र को अर्थ सहित कंठस्थ धारण करने वाला ऐसा "भाव पलिच्छन्न" भिक्षु प्रमुख बनकर विचरण कर सकता है, किन्तु गच्छप्रमुख प्राचार्यादि की आज्ञा बिना विचरण करने पर वह यथायोग्य तप या छेद रूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336] [व्यवहारसूत्र सूत्र 3.4 5-6 7-8 कम से कम तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाला भिक्षु आचारसम्पन्न, बुद्धिसम्पन्न, विचक्षण, बहुश्रुत, जिन-प्रवचन की प्रभावना में दक्ष तथा कम से कम आचारांग एवं निशोथसूत्र को अर्थ सहित धारण करने वाला हो, उसे उपाध्याय पद पर नियुक्त किया जा सकता है। जो भिक्षु तीन वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला हो, किन्तु उक्त गुणसम्पन्न न हो तो उसे उपाध्याय पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकता। उपाध्याय के योग्य गुणों के सिवाय यदि दीक्षापर्याय पांच वर्ष और अर्थसहित कण्ठस्थ श्रुत में कम से कम आचारांग, सूत्रकृतांग और चार छेदसूत्र हों तो उसे प्राचार्य पद पर नियुक्त किया जा सकता है तथा वे पाठ संपदा आदि से सम्पन्न भी होने चाहिए। पांच वर्ष की दीक्षापर्याय वाला भिक्षु उक्त गुणों से सम्पन्न न हो तो उसे प्राचार्य पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकता है। उपर्युक्त गुणसम्पन्न एवं कम से कम आठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाला तथा पूर्वोक्त आगमों सहित ठाणांग-समवायांगसूत्र को कण्ठस्थ धारण करने वाला भिक्षु गणावच्छेदक पद पर नियुक्त किया जा सकता है / आठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाला उक्त गुणसम्पन्न न हो तो उसे गणावच्छेदक पद पर नियुक्त नहीं किया जा सकता है / किसी विशेष परिस्थिति में अन्य गुणों से सम्पन्न योग्य भिक्ष हो तो उसे आवश्यक दीक्षापर्याय और श्रुत कंठस्थ न हो तो भी प्राचार्य उपाध्याय पद पर नियुक्त किया जा सकता है / गच्छ में अन्य किसी भिक्षु के योग्य न होने पर एवं अत्यन्त प्रावश्यक हो जाने पर ही यह विधान समझना चाहिए / इस विधान से 'नवदीक्षित' भिक्षु को उसी दिन आचार्य बनाया जा सकता है। चासीस वर्ष की उम्र से कम उम्र वाले एवं तीन वर्ष की दीक्षापर्याय से कम संयम वाले साधु-साध्वियों को प्राचार्य उपाध्याय की निश्रा बिना स्वतन्त्र विचरण करना या रहना नहीं कल्पता है तथा इन साधुओं को प्राचार्य और उपाध्याय से रहित गच्छ में नहीं रहना चाहिए और साध्वियों को प्राचार्य उपाध्याय एवं प्रतिनी इन तीन से रहित गच्छ में नहीं रहना चाहिए। इनमें से किसी के कालधर्म प्राप्त हो जाने पर भी उस पद पर अन्य को नियुक्त करना आवश्यक है। आचार्यादि पद पर नियुक्त भिक्षु का चतुर्थ व्रत भंग हो जाए तो उसे आजीवन सभी पद के अयोग्य घोषित कर दिया जाता है। पद त्याग करके चतुर्थ व्रत भंग करने पर या सामान्य भिक्षु के द्वारा चतुर्थ व्रत भंग करने पर वह तीन वर्ष के बाद योग्य हो तो किसी भी पद पर नियुक्त किया जा सकता है। 9-10 11-12 13-17 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा उद्देशक] [337 सूत्र 18-22 यदि पदवीधर किसी अन्य को पद पर नियुक्त किये बिना संयम छोड़कर चला जाय तो उसे पुनः दीक्षा अंगीकार करने पर कोई पद नहीं दिया जा सकता / यदि कोई अपना पद अन्य को सौंप कर जावे या सामान्य भिक्षु संयम त्याग कर जावे तो पुनः दीक्षा लेने के बाद योग्य हो तो उसे तीन वर्ष के बाद कोई भी पद यथायोग्य समय पर दिया जा सकता है। बहुश्रुत भिक्षु या प्राचार्य आदि प्रबल कारण से अनेक बार झूठ-कपट-प्रपंचअसत्याक्षेप आदि अपवित्र पापकारी कार्य करे या अनेक भिक्षु, प्राचार्य आदि मिलाकर ऐसा कृत्य करें तो वे जीवन भर के लिए सभी प्रकार की पदवियों के अयोग्य हो जाते हैं और इसमें अन्य कोई विकल्प नहीं है। 23-29 उपसंहार 1-2 9-10 11 12 इस उद्देशक मेंप्रमुख बनकर विचरण करने के कल्प्याकल्प्य का, पद देने के योग्यायोग्य का, परिस्थितिवश अल्प योग्यता में पद देने का, प्राचार्य, उपाध्याय दो के नेतृत्व में तरुण या नवदीक्षित साधुओं को रहने का, प्राचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तिनी इन तीन के नेतृत्व में तरुण या नवदीक्षित साध्वियों के रहने का, चतुर्थव्रत भंग करने वालों को पद देने के विधि-निषेध का, संयम त्याग कर पुनः दीक्षा लेने वालों को पद देने के विधि-निषेध का, झूठ-कपट-प्रपंच आदि करने वालों को पद देने के सर्वथा निषेध का, इत्यादि विषयों का वर्णन किया गया। ॥तीसरा उद्देशक समाप्त // 13-17 18-22 23-29 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक आचार्यादि के साथ रहने वाले निर्ग्रन्थों की संख्या 1. नो कप्पइ आयरिय-उवज्झायस्स एगाणियस्स हेमन्त-गिम्हासु चारए / 2. कप्पइ पायरिय-उवज्झायस्स अप्पबिइयस्स हेमन्त-गिम्हासु चारए / 3. नो कप्पइ गणावच्छेइयस्स अप्पबिइयस्स हेमन्त-गिम्हासु चारए / 4. कप्पइ गणावच्छेइयस्स अप्पतइयस्स हेमन्त-गिम्हासु चारए / 5. नो कप्पइ आयरिय-उवज्झायस्स अप्पबिइयस्स वासावासं वत्थए / 6. कप्पइ प्रायरिय-उवज्झायस्स अप्पतइयस्स वासावासं वत्थए / 7. नो कप्पइ गणावच्छेइयस्स अप्पतइयस्स वासावासं वत्थए / 8. कप्पड गणावच्छेइयस्स अप्पच उत्थस्स वासावासं वत्थए / 9. से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा बहूणं पायरिय-उधज्झायाणं अप्पबिइयाणं, बहूर्ण गणावच्छेइयाणं अप्पतइयाणं कप्पड हेमंत-गिम्हासु चारए, अन्नमन्नं निस्साए / 10. से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा बहूणं आयरिय-उवज्झायाणं अप्पतइयाणं, बहूणं गणावच्छेइयाणं अप्पचउत्थाणं कप्पइ वासावासं वत्थए अन्नमन्नं निस्साए / 1. हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में प्राचार्य या उपाध्याय को अकेला विहार करना नहीं कल्पता है। 2. हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में प्राचार्य या उपाध्याय को एक साधु को साथ लेकर विहार करना कल्पता है। 3. हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में गणावच्छेदक को एक साधु के साथ विहार करना नहीं कल्पता है। 4. हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में गणावच्छेदक को दो अन्य साधुओं को साथ लेकर विहार करना कल्पता है। 5. वर्षाकाल में प्राचार्य या उपाध्याय को एक साधु के साथ रहना नहीं कल्पता है / Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौया उद्देशक] 6. वर्षाकाल में प्राचार्य या उपाध्याय को अन्य दो साधुनों के साथ रहना कल्पता है। 7. वर्षाकाल में गणावच्छेदक को दो साधुओं के साथ रहना नहीं कल्पता है। 8. वर्षाकाल में गणावच्छेदक को अन्य तीन साधुओं के साथ रहना कल्पता है / 9. हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में अनेक आचार्यों या उपाध्यायों को ग्राम यावत् राजधानी में अपनी-अपनी नेत्राय में एक-एक साधु को और अनेक गणावच्छेदकों को दो-दो साधुओं को रखकर विहार करना कल्पता है। 10. वर्षाऋतु में अनेक आचार्यों या उपाध्यायों को ग्राम यावत् राजधानी में अपनी-अपनी नेश्राय में दो-दो साधुओं को और अनेक गणावच्छेदकों को तीन-तीन साधुओं को रखकर रहना कल्पता है। विवेचन-इन सूत्रों में प्राचार्य, उपाध्याय एवं गणावच्छेदक के विचरण एवं चातुर्मास-निवास सम्बन्धी विधान किया गया है। प्रवर्तक, स्थविर आदि अन्य पदवीधर या सामान्य भिक्षुओं के लिये यहां विधान नहीं किया गया है / अन्य आगमों में इन के लिए ऐसा कोई विधान नहीं है। केवल अव्यक्त या अपरिपक्व भिक्ष को स्वतन्त्र विचरण करने का निषेध किया गया है एवं उसके स्वतन्त्र विचरण का दुष्परिणाम बताकर गुरु के सान्निध्य में विचरण करने का विधान प्राचा. श्रु. 1 अ. 5 उ. 4 तथा सूय. श्रु. 1 अ. 14 गा. 3-4 में किया गया है। ___व्यक्त, परिपक्व एवं गीतार्थ भिक्षु के लिए कोई एकांत नियम पागम नहीं है, अपितु अनेक प्रकार के अभिग्रह, प्रतिमाएं, जिनकल्प, संभोग-प्रत्याख्यान, सहाय-प्रत्याख्यान आदि तथा परिस्थितिवश संयमसमाधि या चित्तसमाधि के लिए एकल विहार का विधान किया गया है एवं भिक्षु के द्वितीय मनोरथ में भी निवृत्त होकर अकेले विचरण करने की इच्छा रखने का विधान है। यहां तथा अन्यत्र प्राचार्य-उपाध्याय इन दो पदों का जो एक साथ कथन किया गया है, इसका तात्पर्य यह है कि ये दोनों गच्छ में बाह्य-आभ्यन्तर ऋद्धिसम्पन्न होते हैं तथा इन दोनों पदवीधरों का प्रत्येक गच्छ में होना नितान्त आवश्यक भी है, ऐसा आगमविधान है। अर्थात् इन दो के बिना किसी गच्छ का या साधुसमुदाय का विचरण करना आगमानुसार उचित नहीं है। विशाल गच्छों में गणावच्छेदक पद भी आवश्यक होता है, किन्तु प्राचार्य-उपाध्याय के समान प्रत्येक गच्छ में अनिवार्य नहीं है / अत: यहां उनके लिए विधान करने वाले सूत्र अलग कहे हैं। इन सूत्रों के विधानानुसार ये तीनों पदवीधर कभी भी अकेले नहीं विचर सकते और चातुर्मास भी नहीं कर सकते, किन्तु कम से कम एक या अनेक साधुओं को साथ रखना इन्हें आवश्यक होता है। साथ रखे जाने वाले उन साधुओं की मर्यादा इस प्रकार है __ प्राचार्य-उपाध्याय हेमन्त ग्रीष्म ऋतु में कम से कम एक साधु को साथ रखते हुए अर्थात् दो ठाणा से विचरण कर सकते हैं और अन्य दो साधु को साथ रखकर कुल तीन ठाणा से चातुर्मास कर सकते हैं। इससे यह नियम फलित हो जाता है कि वे कभी भी अकेले विहार नहीं कर सकते और एक साधु को साथ लेकर केवल दो ठाणा से चातुर्मास भी नहीं कर सकते। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340] [व्यवहारसूत्र नववें-दसवें सूत्र में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि जहां हेमन्त ग्रीष्म ऋतु में या चातुर्मास में अनेक प्राचार्य-उपाध्याय साथ में हों तो भी प्रत्येक प्राचार्य-उपाध्याय की अपनी-अपनी निश्रा में सूत्र में कहे अनुसार सन्त साथ में होना आवश्यक है, अर्थात् एक प्राचार्य-उपाध्याय के निश्रागत साधु य प्राचार्य-उपाध्याय को रहना नहीं कल्पता है। इससे यह फलित होता है कि अन्य किसी साधु के बिना केवल 2-3 आचार्य-उपाध्याय ही साथ में रहना चाहें तो नहीं रह सकते हैं या आवश्यक साधुओं से कम साधु साथ रखकर भी अनेक प्राचार्य-उपाध्याय साथ में नहीं रह सकते और रहने पर सूत्रोक्त मर्यादा का उल्लंघन होता है / गणावच्छेदक हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में कम से कम दो साधुओं को साथ रखकर कुल तीन ठाणा से विचरण कर सकते हैं और अन्य तीन साधुओं को साथ लेकर कुल चार ठाणा से चातुर्मास कर सकते हैं। इससे कम साधुओं से रहना गणावच्छेदक के लिए निषिद्ध है / अत: वे दो ठाणा से विचरण नहीं कर सकते और तीन ठाणा से चातुर्मास नहीं कर सकते। नववे एवं दसवें सूत्र के अनुसार अनेक गणावच्छेदक साथ हो जाएं तो भी उन्हें अपनी-अपनी निश्रा में ऊपर कही गई संख्या के सन्तों को रखना आवश्यक है। वे अन्य गणावच्छेदक आदि को या उनके साथ रहे सन्तों को अपनी निश्रा में गिनकर नहीं रह सकते एवं स्वयं को भी अन्य की निश्रा में गिनकर नहीं रह सकते। ये तीनों पदवीधर कोई प्रतिमाएं या अभिग्रह धारण कर स्वतन्त्र एकाकी विचरण करना चाहें अथवा अन्य विशेष परिस्थितियों से विवश होकर एकाकी विचरण करना चाहें तो उन्हें अपने प्राचार्य आदि पद का त्याग करना आवश्यक हो जाता है तथा अन्य किसी को उस पद पर नियुक्त करना भी आवश्यक होता है। प्राचार्य-उपाध्याय संघ के प्रतिष्ठित पदवीधर होते हैं। इनका एकाकी विचरण एवं दो ठाणा से चातुर्मास करना संघ के लिए शोभाजनक नहीं होता है। यद्यपि गणावच्छेदक आचार्य के नेतृत्व में कार्यवाहक पद है, तथापि इनके साथ के साधुओं की संख्या आचार्य से अधिक कही गई है। इसका कारण यह है कि इनका कार्यक्षेत्र अधिक होता है / सेवा, व्यवस्था आदि कार्यों में अधिक साधु साथ में हों तो उन्हें सुविधा रहती है। सूत्र में निर्दिष्ट संख्या से अधिक साधुओं के रहने का निषेध नहीं समझना चाहिए / संयम की सुविधानुसार अधिक सन्त भी साथ रहना चाहें तो रह सकते हैं। किन्तु अधिक सन्तों के साथ रहने में संयम की क्षति अर्थात् एषणासमिति एवं परिष्ठापनिकासमिति प्रादि भंग होती हो तो अल्प सन्तों से विचरण करना चाहिए। अग्रणी साधु के काल करने पर शेष साधुओं का कर्तव्य 11. गामाणुगामं दूइज्जमाणे भिक्खू जं पुरनो कट्ट विहरइ, से य आहच्च वीसुभेज्जा, अस्थि य इत्थ अण्णे केइ उक्संपज्जणारिहे से उवसंपज्जियन्वे / नत्थि य इत्थ अण्णे केइ उवसंपज्जणारिहे तस्स य अप्पणो कप्पाए असमत्ते कप्पइ एगाराइयाए पडिमाए जगणं-जण्णं दिसं अण्णे साहम्मिया विहरंति तणं-तण्णं दिसं उवलित्तए। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक] [341 नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए / कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं बत्थए / तंसि च णं कारणंसि निट्ठियंसि परो वएज्जा--"वसाहि अज्जो ! एगरायं वा, दुरायं वा", एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए / नो से कप्पइ परं एगरायानो वा दुरायानो वा वत्थए / जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ से संतरा छेए वा परिहारे वा। 12. वासावासं पज्जोसविओ भिक्खू जं पुरओ कट्ट विहरइ से य आहच्च वीसुभेज्जा, अस्थि य इत्य अण्णे केइ अवसंपज्जणारिहे से उवसंपज्जियन्वे / नस्थि य इत्थ अण्णे केइ उवसंपज्जणारिहे तस्स य अप्पणो कप्पाए असमत्ते कप्पइ से एगराइयाए पडिमाए जणं-जण्णं दिसं अण्णे साहम्मिया विहरंति तण्णं-तणं दिसं उवलितए / नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए। कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए। तंसि च णं कारणंसि नियंसि परो वएज्जा-“वसाहि प्रज्जो ! एगरायं वा, दुरायं वा" एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायानो वा वस्थए। जे तत्थ एगरायानो वा दुरायानो वा परं वसइ, से संतरा छेए वा परिहारे वा / 11. ग्रामानुग्राम विहार करता हुमा भिक्षु, जिनको अग्रणी मानकर विहार कर रहा हो और वह यदि कालधर्म-प्राप्त हो जाय तो शेष भिक्षुत्रों में जो भिक्षु योग्य हो, उसे अग्रणी बनाना चाहिए। यदि अन्य कोई भिक्षु अग्रणी होने योग्य न हो और स्वयं (रत्नाधिक) ने भी आचारप्रकल्प का अध्ययन पूर्ण न किया हो तो उसे मार्ग में विश्राम के लिए एक रात्रि ठहरते हुए जिस दिशा में अन्य स्वधर्मी विचरते हों, उस दिशा में जाना कल्पता है। मार्ग में उसे विचरने के लक्ष्य से ठहरना नहीं कल्पता है / यदि रोगादि का कारण हो तो अधिक ठहरना कल्पता है / रोगादि के समाप्त होने पर यदि कोई कहे कि- "हे आर्य ! एक या दो रात और ठहरो" तो उसे एक या दो रात ठहरना कल्पता है, किन्तु एक या दो रात से अधिक ठहरना नहीं कल्पता है। जो भिक्षु वहां (कारण समाप्त होने के बाद) एक या दो रात से अधिक ठहरता है, वह मर्यादा उल्लंघन के कारण दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है। 12. वर्षावास में रहा हुआ भिक्षु, जिनको अग्रणी मानकर रह रहा हो और वह यदि कालधर्म-प्राप्त हो जाय तो शेष भिक्षुषों में जो भिक्षु योग्य हो उसे अग्रणी बनाना चाहिये। यदि अन्य कोई भिक्षु अग्रणी होने योग्य न हो और स्वयं (रत्नाधिक) ने भी निशीथ आदि का अध्ययन पूर्ण न किया हो तो उसे मार्ग में विश्राम के लिए एक-एक रात्रि ठहरते हुए जिस दिशा में अन्य स्वधर्मी हों उस दिशा में जाना कल्पता है। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342] [व्यवहारसूत्र मार्ग में उसे विचरने के लक्ष्य से ठहरना नहीं कल्पता है। यदि रोगादि का कारण हो तो अधिक ठहरना कल्पता है। रोगादि के समाप्त होने पर यदि कोई कहे कि~~"हे आर्य ! एक या दो रात ठहरो" तो उसे एक या दो रात और ठहरना कल्पता है / किन्तु एक या दो रात से अधिक ठहरना नहीं कल्पता है / जो भिक्षु एक या दो रात से अधिक ठहरता है, वह मर्यादा-उल्लंघन के कारण दीक्षाछेद या तपरूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है / विवेचन-विचरण या चातुर्मास करने वाले भिक्षुत्रों में एक कल्पाक अर्थात् संघाड़ा-प्रमुख होना आवश्यक है। जिसके लिए उद्देशक 3 सू. 1 में गणधारण करने वाला अर्थात् गणधर कहा है तथा उसे श्रुत एवं दीक्षापर्याय से संपन्न होना आवश्यक कहा गया है / अतः तीन वर्ष की दीक्षापर्याय और आचारांगसूत्र एवं निशीथसूत्र को कण्ठस्थ धारण करने वाला ही गण धारण कर सकता है। शेष भिक्षु उसको प्रमुख मानकर उसकी आज्ञा में रहते हैं / उस प्रमुख के सिवाय उस संघाटक में अन्य भी एक या अनेक संघाड़ा-प्रमुख होने के योग्य हो सकते हैं अर्थात् वे अधिक दीक्षापर्याय एवं पर्याप्त श्रुत धारण करने वाले हो सकते हैं। कभी एक प्रमुख के अतिरिक्त सभी साधु अगीतार्थ या नवदीक्षित ही हो सकते हैं। विचरण या चातुर्मास करने वाले संघाटक का प्रमुख भिक्षु यदि कालधर्म को प्राप्त हो जाय तो शेष साधुनों में से रत्नाधिक भिक्षु प्रमुख पद स्वीकार करे / यदि वह स्वयं श्रुत से संपन्न न हो तो अन्य योग्य को प्रमुख पद पर स्थापित करे / __ यदि शेष रहे साधुओं में एक भी प्रमुख होने योग्य न हो तो उन्हें चातुर्मास में रहना या विचरण करना नहीं कल्पता है, किन्तु जिस दिशा में अन्य योग्य सार्मिक भिक्ष निकट हों, उनके समीप में पहुंच जाना चाहिये / ऐसी स्थिति में चातुर्मास में भी विहार करना आवश्यक हो जाता है तथा हेमंत ग्रीष्म ऋतु में भी अधिक रुकने की स्वीकृति दे दी हो तो भी वहां से विहार करना आवश्यक हो जाता है। जब तक अन्य सामिक भिक्षुत्रों के पास न पहुंचे तब तक मार्ग में एक दिन की विश्रांति लेने के अतिरिक्त कहीं पर भी अधिक रुकना उन्हें नहीं कल्पता है। किसी को कोई शारीरिक व्याधि हो जाय तो उपचार के लिए ठहरा जा सकता है। व्याधि समाप्त होने के बाद वैद्य आदि के कहने से 1-2 दिन और भी ठहर सकता है / स्वस्थ होने के बाद दो दिन से अधिक ठहरने पर यथायोग्य प्रायश्चित्त आता है / इन सूत्रों के प्रतिपाद्य विषय का सार यह है कि योग्य शिष्य को आवश्यकश्रुत-अध्ययन (प्राचारप्रकल्प आदि) शीघ्र अर्थसहित कंठस्थ धारण कर लेना चाहिए, क्योंकि उसके अपूर्ण रहने पर वह भिक्षु गण (संघाटक) का प्रमुख नहीं हो सकता एवं प्रमुख के कालधर्म प्राप्त हो जाने पर चातुर्मास में भी उसे विहार करना आवश्यक हो जाता है और एक भी दिन वह कहीं विचरण के भाव से या किसी की विनती से नहीं रह सकता है। किन्तु यदि उक्त श्रुत पूर्ण कर लिया हो तो वह भिक्षु कभी भी सूत्रोक्त प्रमुख पद धारण कर सकता है / स्वतंत्र विचरण एवं चातुर्मास भी कर सकता है। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक [343 __ इसलिए प्रत्येक साधु-साध्वी को आगमोक्त क्रम से श्रुत-अध्ययन का प्रमुख लक्ष्य रखना चाहिए। ग्लान आचार्यादि के द्वारा पद देने का निर्देश 13. आयरिय-उवज्झाए गिलायमाणे अन्नयरं वएज्जा-"प्रज्जो! ममंसि णं कालगयंसि समाणंसि अयं समुक्कसियन्वे / " से य समुक्कसणारिहे समुक्कसियव्वे, से य नो समुक्कसणारिहे नो समुक्कसियग्वे, अस्थि य इत्थ अण्णे केइ समुक्कसणारिहे से समुक्कसियवे / नस्थि य इत्थ अण्णे केइ समुक्कसणारिहे से चेव समुक्कसियब्वे, तंसि च णं समुक्किट्ठसि परो वएज्जा"दुस्समुक्किट्ठ ते अज्जो ! निविखवाहि !" तस्स णं निक्खिवमाणस्स नत्थि केइ छए वा परिहारे वा। जे साहम्मिया प्रहाकप्पेणं नो उट्ठाए विहरंति सम्वेसि तेसि तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा। 13. रोगग्रस्त आचार्य या उपाध्याय किसी प्रमुख साधु से कहे कि- "हे प्रार्य ! मेरे कालगत होने पर अमुक साधु को मेरे पद पर स्थापित करना।" यदि आचार्य द्वारा निर्दिष्ट वह भिक्षु उस पद पर स्थापन करने योग्य हो तो उसे स्थापित करना चाहिए। यदि वह उस पद पर स्थापन करने योग्य न हो तो उसे स्थापित नहीं करना चाहिए। यदि संघ में अन्य कोई साधु उस पद के योग्य हो तो उसे स्थापित करना चाहिए। यदि संघ में अन्य कोई भी साधु उस पद के योग्य न हो तो प्राचार्य-निर्दिष्ट साधु को ही उस पद पर स्थापित करना चाहिए। उसको उस पद पर स्थापित करने के बाद कोई गीतार्थ साधु कहे कि- "हे आर्य ! तुम इस पद के अयोग्य हो अतः इस पद को छोड़ दो" (ऐसा कहने पर) यदि वह उस पद को छोड़ दे तो दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त का पात्र नहीं होता है। जो सार्मिक साधु कल्प के अनुसार उसे प्राचार्यादि पद छोड़ने के लिए न कहे तो वे सभी सार्मिक साधु उक्त कारण से दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। विवेचन-तीसरे उद्देशक में आचार्य-उपाध्याय पद के योग्य भिक्षु के गुणों का विस्तृत कथन किया गया है। यहां पर रुग्ण प्राचार्य-उपाध्याय अपना अन्तिम समय समीप जान कर प्राचार्यउपाध्याय पद के लिए किसी साधु का नाम निर्देश करें तो उस समय स्थविरों का क्या कर्तव्य है, इसका स्पष्टीकरण किया गया है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344] [व्यवहारसूत्र रुग्ण आचार्य ने आचार्य बनाने के लिए जिस के नाम का निर्देश किया है, वह योग्य भी हो सकता है और अयोग्य भी हो सकता है अर्थात् उनका कथन रुग्ण होने के कारण या भाव के कारण संकुचित दृष्टिकोण वाला भी हो सकता है। अतः उनके कालधर्म प्राप्त हो जाने पर "प्राचार्य या उपाध्याय पद किस को देना"- इसके निर्णय की जिम्मेदारी गच्छ के शेष साधुओं की कही गई है। जिसका भाव यह है कि यदि आचार्यनिर्दिष्ट भिक्षु तीसरे उद्देशक में कही गई सभी योग्यतामों से युक्त है तो उसे ही पद पर नियुक्त करना चाहिए, दूसरा कोई विकल्प अावश्यक नहीं है। यदि वह शास्त्रोक्त योग्यता से संपन्न नहीं है और अन्य भिक्षु योग्य है तो आचार्यनिर्दिष्ट भिक्षु को पद देना अनिवार्य न समझ कर उस योग्य भिक्षु को ही पद पर नियुक्त करना चाहिए। यदि अन्य कोई भी योग्य नहीं है तो आचार्यनिर्दिष्ट भिक्षु योग्य हो अथवा योग्य न हो, उसे ही आचार्यपद पर नियुक्त करना चाहिए / अन्य अनेक भिक्षु भी पद के योग्य हैं और वे प्राचार्यनिर्दिष्ट भिक्षु से रत्नाधिक भी हैं किन्तु यदि आचार्यनिर्दिष्ट भिक्षु योग्य है तो उसे ही आचार्य बनाना चाहिये। आचार्यनिर्दिष्ट या अनिर्दिष्ट किसी भी योग्य भिक्षु को अथवा कभी परिस्थितिवश अल्प योग्यता वाले भिक्षु को पद पर नियुक्त करने के बाद यदि यह अनुभव हो कि गच्छ की व्यवस्था अच्छी तरह नहीं चल रही है, साधुओं की संयम समाधि एवं बाह्य वातावरण क्षुब्ध हो रहा है, गच्छ में अन्य योग्य भिक्षु तैयार हो गये हैं तो गच्छ के स्थविर या प्रमुख साधु-साध्वियां आदि मिलकर आचार्य को पद त्यागने के लिये निवेदन करके अन्य योग्य को पद पर नियुक्त कर सकते हैं / ऐसी स्थिति में यदि वे पद त्यागना न चाहें या अन्य कोई साधु उनका पक्ष लेकर प्राग्रह करे तो वे सभी प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। ___ इस सूत्रोक्त आगम-प्राज्ञा को भलीभांति समझकर सरलतापूर्वक पद देना, लेना या छोड़ने के लिए निवेदन करना आदि प्रवृत्तियां करनी चाहिये तथा अन्य सभी साधु-साध्वियों को भी प्रमुख स्थविर संतों को सहयोग देना चाहिए, किन्तु अपने-अपने विचारों की सिद्धि के लिये निन्दा, द्वेष, कलह या संघभेद आदि अनुचित तरीकों से पद छुड़ाना या कपट-चालाकी से प्राप्त करने की कोशिश करना उचित नहीं है। गच्छ-भार संभालने वाले पूर्व के प्राचार्य का तथा गच्छ के अन्य प्रमुख स्थविर संतों का यह कर्तव्य है कि वे निष्पक्ष भाव से तथा विशाल दृष्टि से गच्छ एवं जिनशासन का हित सोचकर आगमनिर्दिष्ट गुणों से सम्पन्न भिक्षु को ही पद पर नियुक्त करें। कई साधु स्वयं ही प्राचार्य बनने का संकल्प कर लेते हैं, वे ही कभी अशांत एवं क्लेश की स्थिति पैदा करते हैं या करवाते हैं, किन्तु मोक्ष की साधना के लिए संयमरत भिक्षु को जल-कमलवत् निर्लेप रहकर एकत्व आदि भावना में तल्लीन रहना चाहिये / किसी भी पद की चाहना करना या पद के लिए लालायित रहना भी संयम का दूषण है / इस चाहना में बाह्य ऋद्धि की इच्छा होने से इसका समावेश लोभ नामक पाप में होता है तथा उस इच्छा की पूर्ति में अनेक प्रकार के संयमविपरीत संकल्प एवं कुटिलनीति आदि का अवलंबन भी लिया जाता है, जिससे संयम की हानि एवं विराधना होती है। साथ ही मानकषाय की अत्यधिक पुष्टि होती है। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक] निशीथ उद्दे. 17 में अपने प्राचार्यत्व के सूचक लक्षणों को प्रकट करने वाले को प्रायश्चित्त का पात्र कहा गया है। अतः संयमसाधना में लीन गुणसंपन्न भिक्षु को यदि प्राचार्य या अन्य गच्छप्रमुख स्थविर ही गच्छभार सम्भालने के लिए कहें या आज्ञा दें तो अपनी क्षमता का एवं अवसर का विचार कर उसे स्वीकार करना चाहिए किन्तु स्वयं ही आचार्यपदप्राप्ति के लिये संकल्पबद्ध होना एवं न मिलने पर गण का त्याग कर देना आदि सर्वथा अनुचित है। __ इस प्रकार इस सूत्र में निर्दिष्ट सम्पूर्ण सूचनाओं को समझ कर सूत्रनिर्दिष्ट विधि से पद प्रदान करना चाहिए और इससे विपरीत अन्य अयोग्य एवं अनुचित मार्ग स्वीकार नहीं करना चाहिए। ___ इस सूत्र से यह भी स्पष्ट होता है कि स्याद्वाद सिद्धांत वाले वीतरागमार्ग में विनयव्यवहार एवं आज्ञापालन में भी अनेकांतिक विधान हैं. अर्थात विनय के नाम से केवल "बा का निर्देश नहीं है। इसी कारण प्राचार्य द्वारा निर्दिष्ट या अनिर्दिष्ट भिक्षु की योग्यता-अयोग्यता की विचारणा एवं नियुक्ति का अधिकार सूचित किया गया है। ऐसे आगमविधानों के होते हुये भी परम्परा के प्राग्रह से या "बाबावाक्यं प्रमाणम्" की उक्ति चरितार्थ कर के आगमविपरीत प्रवृत्ति करना अथवा भद्रिक एवं अकुशल सर्वरत्नाधिक साधुओं को गच्छप्रमुख रूप में स्वीकार कर लेना गच्छ एवं जिनशासन के सर्वतोमुखी पतन का ही मार्ग है / अतः स्याद्वादमार्ग को प्राप्त करके आगमविपरीत परंपरा एवं निर्णय को प्रमुखता न देकर सदा जिनाज्ञा एवं शास्त्राज्ञा को ही प्रमुखता देनी चाहिये। संयम त्याग कर जाने वाले आचार्यादि के द्वारा पद देने का निर्देश 14. आयरिय-उवज्झाए ओहायमाणे अन्नयरं वएज्जा-"अज्जो! ममंसि णं पोहावियंसि समाणसि अयं समुक्कसियब्बे / " से य समुक्कसणारिहे समुक्कसियध्वे, से 4 नो समुक्कसणारिहे नो समुक्कसियन्वे / अस्थि य इत्थ अण्णे केइ समुक्कसणारिहे से समुक्कसियध्वे / तं सि च णं समुक्किट्ठसि परो वएज्जा-"दुस्समुक्किळं ते अज्जो! निविखवाहि।" तस्स णं निक्खिवमाणस्स नत्थि केइ छए वा परिहारे वा। जे साहम्मिया अहाकप्पेणं नो उडाए विहरति / सव्वेसि तेसि तप्पत्तियं छए वा परिहारे वा। 14. संयम का परित्याग करके जाने वाले प्राचार्य या उपाध्याय किसी प्रमुख साधु से कहें कि "हे आर्य मेरे चले जाने पर अमुक साधु को मेरे पद पर स्थापित करना।" तो यदि आचार्यनिर्दिष्ट वह साधु उस पद पर स्थापन करने योग्य हो तो उसे स्थापित करना चाहिये। यदि वह उस पद पर स्थापित करने योग्य न हो तो उसे स्थापित नहीं करना चाहिये। यदि संघ में अन्य कोई साधु उस पद के योग्य हो तो उसे स्थापित करना चाहिये। यदि संघ में अन्य कोई भी साधु उस पद के योग्य न हो तो प्राचार्यनिर्दिष्ट साधु को ही उस पद पर स्थापित करना चाहिये। उस को उस पद पर स्थापित करने के बाद यदि गीतार्थ साधु कहें कि"हे आर्य ! तुम इस पद के अयोग्य हो, अत: इस पद को छोड़ दो" (ऐसा कहने पर) यदि Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346] [व्यवहारसूत्र वह उस पद को छोड़ दे तो दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त का पात्र नहीं होता है। जो सार्मिक साधु कल्प के अनुसार उसे प्राचार्यादि पद छोड़ने के लिए न कहें तो वे सभी सार्मिक साधु उक्त कारण से दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। विवेचन-पूर्व सूत्र में रुग्ण या मरणासन्न प्राचार्य-उपाध्याय ने किसी भिक्षु को प्राचार्यादि देने का सूचन किया हो तो उनके कथन का विवेकपूर्वक आचरण करना आगमानुसार उचित माना गया है / इस सूत्र में भी वही विधान है / अन्तर यह है कि यहां द्रव्य एवं भाव से संयय का परित्याग करने के इच्छुक प्राचार्य-उपाध्याय का वर्णन है। शरीर अस्वस्थ होने से, वैराग्य की भावना मंद हो जाने से, वेदमोहनीय के प्रबल उदय से या अन्य परीषह उपसर्ग से संयम त्यागने का संकल्प उत्पन्न हो सकता है। उसका निवारण न होने से सामान्य भिक्षु या पदवीधरों के लिए भी ऐसी परिस्थति उत्पन्न हो सकती है। इस परिस्थिति का एवं उसके विवेक का वर्णन उद्दे. 3 सू. 28 में देखें। अन्य सम्पूर्ण विवेचन पूर्वसूत्र 13 के अनुसार समझ लेना चाहिये। उपस्थापन के विधान 15. पायरिय-उवज्झाए सरमाणे परं चउराय-पंचरायाओ कप्पागं भिक्खु नो उवट्ठावेइ कप्पाए, अत्थियाई से केइ माणणिज्जे कप्पाए नत्थि से केइ छए वा परिहारे वा। णस्थियाई से केइ माणणिज्जे कप्पाए से सन्तरा छेए वा परिहारे वा। 16. आयरिय-उवज्झाए असरमाणे परं चउराय-पंचरायानो कप्पागं भिक्खु नो उवट्ठावेइ कप्पाए, अत्थियाइं से केइ माणणिज्जे कप्पाए, नस्थि से केई छेए वा परिहारे वा / णस्थियाइं से केइ माणणिज्जे कप्पाए, से संतरा छए वा परिहारे वा। 17. आयरिय-उवज्झाए सरमाणे वा असरमाणे वा परं दसराय कप्पाओ कप्पागं भिक्खु नो उवट्ठावेइ कप्पाए, अत्थियाई से केइ माणणिज्जे कप्पाए नथि से केइ छए वा परिहारे वा। * 15. प्राचार्य या उपाध्याय स्मरण होते हुए भी बड़ीदीक्षा के योग्य भिक्ष को चार-पांच रात के बाद भी बड़ीदीक्षा में उपस्थापित न करे और उस समय यदि उस नवदीक्षित के कोई पूज्य पुरुष की बड़ीदीक्षा होने में देर हो तो उन्हें दीक्षाछेद या तप रूप कोई प्रायश्चित्त नहीं पाता है। यदि उस नवदीक्षित के बड़ीदीक्षा लेने योग्य कोई पूज्य पुरुष न हो तो उन्हें चार-पांच रात्रि उल्लंघन करने का छेद या तप रूप प्रायश्चित्त आता है। 16. प्राचार्य या उपाध्याय स्मृति में न रहने से बड़ीदीक्षा के योग्य भिक्ष को चार-पांच रात के बाद भी बड़ीदीक्षा में उपस्थापित न करे, उस समय यदि वहां उस नवदीक्षित के कोई पूज्य पुरुष की बड़ी दीक्षा होने में देर हो तो उन्हें दीक्षाछेद या तप रूप कोई प्रायश्चित्त नहीं आता है। यदि उस नवदीक्षित के बड़ीदीक्षा लेने योग्य कोई पूज्य पुरुष न हो तो उन्हें चार-पांच रात्रि उल्लंघन करने का दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त पाता है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक] [347 17. प्राचार्य या उपाध्याय स्मृति में रहते हुए या स्मृति में न रहते हुए भी बड़ीदीक्षा के योग्य भिक्ष को दस दिन के बाद बड़ी दीक्षा में उपस्थापित न करे, उस समय यदि उस नवदीक्षित के कोई पूज्य पुरुष की बड़ीदीक्षा होने में देर हो तो उन्हें दीक्षाछेद या तप रूप कोई प्रायश्चित्त नहीं आता है। यदि उस नवदीक्षित के बड़ीदीक्षा के योग्य कोई पूज्य पुरुष न हो तो उन्हें दस रात्रि उल्लंघन करने के कारण एक वर्ष तक प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद पर नियुक्त करना नहीं कल्पता है। विवेचन-प्रथम एवं अन्तिम तीर्थकर के शासन में भिक्ष ओं को सामायिकचारित्र रूप दीक्षा देने के बाद छेदोपस्थापनीयचारित्र रूप बड़ीदीक्षा दी जाती है। उसकी जघन्य कालमर्यादा सात अहोरात्र की है अर्थात् काल की अपेक्षा नवदीक्षित भिक्ष सात रात्रि के बाद कल्पाक (बड़ीदीक्षा के योग्य) कहा जाता है और गुण की अपेक्षा आवश्यकसूत्र सम्पूर्ण अर्थ एवं विधि सहित कंठस्थ कर लेने पर, जीवादि का एवं समितियों का सामान्य ज्ञान कर लेने पर, दशवकालिक सूत्र के चार अध्ययन की अर्थ सहित वाचना लेकर कंठस्थ कर लेने पर एवं प्रतिलेखन आदि दैनिक क्रियाओं का कुछ अभ्यास कर लेने पर 'कल्पाक' कहा जाता है। ___इस प्रकार कल्पाक (बड़ीदीक्षायोग्य) होने पर एवं अन्य परीक्षण हो जाने पर उस नवदीक्षित भिक्ष को बड़ीदीक्षा (उपस्थापना) दी जाती है। योग्यता के पूर्व बड़ीदीक्षा देने पर नि. उ. 11 सू. 84 के अनुसार प्रायश्चित्त आता है। उक्त योग्यतासंपन्न कल्पाक भिक्ष को सूत्रोक्त समय पर बड़ीदीक्षा न देने पर प्राचार्यउपाध्याय को प्रायश्चित्त प्राता है। इस प्रायश्चित्तविधान से यह स्पष्ट होता है कि किसी को नई दीक्षा या बड़ोदीक्षा देने का अधिकार प्राचार्य या उपाध्याय को ही होता है एवं उसमें किसी प्रकार की त्रटि होने पर प्रायश्चित्त भी उन्हें ही आता है। अन्य साधु, साध्वी या प्रवर्तक, प्रवर्तिनी भी प्राचार्य-उपाध्याय की आज्ञा से किसी को दीक्षा दे सकते हैं किन्तु उसकी योग्यता के निर्णय की मुख्य जिम्मेदारी प्राचार्य-उपाध्याय की ही होती है। सामान्य रूप से तो आगमानुसार प्रवृत्ति करने की जिम्मेदारी सभी साधु-साध्वी को होती ही है, फिर च्छ के व्यवस्था सम्बन्धी निर्देश प्राचार्य-उपाध्याय के अधिकार में होते हैं। अतः तत्सम्बन्धी विपरीत आचरण होने पर प्रायश्चित्त के पात्र भी वे प्राचार्यादि ही होते हैं। यहां इन तीन सूत्रों में बड़ीदीक्षा के निमित्त से तीन विकल्प कहे गये हैं--(१) विस्मरण में मर्यादा-उल्लंघन, (2) स्मृति होते हुए मर्यादा-उल्लंघन, (3) विस्मरण या अविस्मरण से विशेष मर्यादा-उल्लंघन / काल से एवं गुण से कल्पाक बन जाने पर उस भिक्ष को चार या पांच रात्रि के भीतर अर्थात् चार रात्रि और पांचवें दिन तक बड़ीदीक्षा दी जा सकती है। यह सूत्र में आये "चउराय पंचरायानो" शब्द का अर्थ है / इस छूट में विहार, शुभ दिन, मासिक धर्म की अस्वाध्याय, रुग्णता आदि अनेक कारण निहित हैं। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340] व्यिवहारसूत्र ___ अतः दीक्षा के सात दिन बाद आठवें, नौवें, दसवें, ग्यारहवें या बारहवें दिन तक कभी भी बड़ीदीक्षा दी जा सकती है और उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं पाता है। बारहवीं रात्रि का उल्लंघन करने पर सूत्र 15-16 के अनुसार यथायोग्य तप या दीक्षाछेद रूप प्रायश्चित्त पाता है। जिसका भाष्य में जघन्य प्रायश्चित्त पांच रात्रि का कहा गया है। दीक्षा की सत्त नों रात्रि का उल्लंघन करने पर यथायोग्य तप या छेद प्रायश्चित्त के अतिरिक्त एक वर्ष तक उसे प्रायश्चित्त रूप में प्राचार्य-उपाध्याय पद से मुक्त कर दिया जाता है। __ यहां बड़ीदीक्षा के विधान एवं प्रायश्चित्त में एक छूट और भी कही गई है, वह यह कि उस नवदीक्षित भिक्ष के माता-पिता आदि कोई भी माननीय या उपकारी पुरुष हों और उनके कल्पाक होने में देर हो तो उनके निमित्त से उसको बड़ीदीक्षा देने में छह मास तक की भी प्रतीक्षा की जा सकती है और उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं पाता है। ठाणांगादि आगमों में सात रात्रि का जघन्य शैक्षकाल कहा गया है। अतः योग्य हो तो भी सात रात्रि पूर्ण होने के पूर्व बड़ीदीक्षा नहीं दी जा सकती है, क्योंकि उस समय तक वह शैक्ष एवं अकल्पाक कहा गया है। छह मास का "उत्कृष्ट शैक्षकाल" कहा गया है। अतः माननीय पुरुषों के लिए बड़ीदीक्षा रोकने पर भी छह मास का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। इन सूत्रों में स्मृति रहते हुए एवं विस्मरण से 4-5 दिन की मर्यादा उल्लंघन का प्रायश्चित्त समान कहा गया है। चार-पांच दिन की छूट में शुभ दिन या विहार आदि कारण के अतिरिक्त ऋतुधर्म आदि अस्वाध्याय का भी जो कारण निहित है, उसका निवारण 4-5 दिन की छूट में सरलता से हो सकता है। अन्यगण में गये भिक्षु का विवेक 18. भिक्खू य गणाम्रो प्रवक्कम्म अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, तं च केइ साहम्मिए पासित्ता वएज्जा ५०-कं प्रज्जो ! उवसंपज्जित्ताणं विहरसि ? उ०-जे तत्थ सव्यराइणिए तं वएज्जा / प०-'अह भन्ते ! कस्स कप्पाए ?' उ०-जे तत्थ सव्व-बहुस्सुए तं वएज्जा, जं वा से भगवं वक्खइ तस्स आणा-उववाय-वयणनिद्देसे चिट्ठिस्सामि। 18. विशिष्ट ज्ञानप्राप्ति के लिए यदि कोई भिक्षु अपना गण छोड़कर अन्य गण को स्वीकार कर विचर रहा हो तो उस समय उसे यदि कोई स्वधर्मी भिक्षु मिले और पूछे कि प्र०-'हे आर्य ! तुम किसी की निश्रा में विचर रहे हो? उ०--तब वह उस गण में जो दीक्षा में सबसे बड़ा हो उसका नाम कहे / Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक] [349 प्र०-यदि पुनः पूछे कि-'हे भदन्त ! किस बहुश्रुत की प्रमुखता में रह रहे हो ? उ.-तब उस गण में जो सबसे अधिक बहुश्रुत हो–उसका नाम कहे तथा वे जिनकी आज्ञा में रहने के लिए कहें, उनकी ही आज्ञा एवं उनके समीप में रहकर उनके ही वचनों के निर्देशानुसार मैं रहूँगा ऐसा कहे। विवेचन-प्रत्येक गच्छ में बहुश्रुत आचार्य-उपाध्याय का होना आवश्यक ही होता है। फिर भी उपाध्यायों के क्षयोपशम में और अध्यापन की कुशलता में अंतर होना स्वाभाविक है / किसी गच्छ में बहुश्रुत वृद्ध प्राचार्य का शिष्य प्रखर बुद्धिमान् एवं श्रुतसंपन्न हो सकता है जो प्राचार्य की सभी जिम्मेदारियों को निभा रहा हो अथवा किसी बहुश्रुत प्राचार्य के गुरु या दीक्षित पिता आदि भद्रिक परिणामी अल्पश्रुत हों और वे गच्छ में रत्नाधिक हों तो ऐसे गच्छ में अध्ययन करने के लिये जाने वाले भिक्षु के संबंध में सूत्रकथित विषय समझ लेना चाहिए। कोई अध्ययनशोल भिक्ष किसी भी अन्यगच्छीय भिक्षु की अध्यापन-कुशलता की ख्याति सुन कर या जानकर उस गच्छ में अध्ययन करने के लिए गया हो / वहां विचरण करते हुए कभी कोई पूर्व गच्छ का सार्मिक भिक्षु गोचरी आदि के लिए भ्रमण करते हुए मिल जाए और वह पूछे कि 'हे आर्य ! तुम किस की निश्रा (आज्ञा) में विचरण कर रहे हो ?' तब उत्तर में वहां जो रत्नाधिक आचार्य, गुरु या बहुश्रुत के दीक्षित पिता आदि हों उनका नाम बतावे / किंतु जब प्रश्नकर्ता को संतोष न हो कि इनसे तो अधिक ज्ञानी संत अपने गच्छ में भी हैं, फिर अपना गच्छ छोड़ कर इनके गच्छ में क्यों आया है ? अत: सही जानकारी के लिए पुनः प्रश्न करे कि.-'हे भगवन ! आपका कल्पाक कौन है ? अर्थात् किस प्रमुख की आज्ञा में पाप विचरण एवं अध्ययन आदि कर रहे हो, इस गच्छ में कौन अध्यापन में कुशल है ? इसके उत्तर में जो वहां सबसे अधिक बहश्रत हो अर्थात सभी बहुश्रुतों में भी जो प्रधान हो और गच्छ का प्रमुख हो, उनके नाम का कथन करे और कहे कि 'उनकी निश्रा में गच्छ के सभी साधु रहते हैं एवं अध्ययन करते हैं और मैं भी उनकी आज्ञानुसार विचरण एवं अध्ययन कर रहा हूँ।' अभिनिचारिका में जाने के विधि-निषेध 19. बहवे साहम्मिया इच्छेज्जा एगयओ अभिनिचारियं चारए नो णं कप्पइ थेरे अणापुच्छित्ता एगयओ अभिनिचारियं चारए, कप्पइ णं थेर प्रापुच्छित्ता एगयओ अभिनिचारियं चारए। थेरा य से वियरेज्जा-एवं णं कप्पइ एगयओ अभिनिचारियं चारए। थेरा य से नो वियरेज्जा-एवं नो कप्पइ एगयओ अभिनिचारियं चारए / जे तत्थ थेरेहि अविइण्णे एगयओ अभिनिचारियं चरंति, से सन्तरा छए वा परिहारे वा। 19. अनेक सार्मिक साधु एक साथ 'अभिनिचारिका' करना चाहें तो स्थविर साधुओं को पूछे बिना उन्हें एक साथ 'अभिनिचारिका' करना नहीं कल्पता है, किन्तु स्थविर साधुओं से पूछ लेने पर उन्हें एक साथ 'अभिनिचारिका' करना कल्पता है / Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्यवहारसूत्र यदि स्थविर साधु अाज्ञा दें तो उन्हें 'अभिनिचारिका' करना कल्पता है। यदि स्थविर साधु आज्ञा न दें तो उन्हें 'अभिनिचारिका' करना नहीं कल्पता है / यदि स्थविरों से आज्ञा प्राप्त किये बिना 'अभिनिचारिका' करे तो वे दीक्षाछेद या परिहारप्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। विवेचन-आचार्य-उपाध्याय जहां मासकल्प ठहरे हों, शिष्यों को सूत्रार्थ की वाचना देते हों, वहां से ग्लान असमर्थ एवं तप से कृश शरीर वाले साधु निकट ही किसी गोपालक बस्ती में दुग्धादि विकृति सेवन के लिए जाएं तो उनकी चर्या को यहां 'अभिनिचारिका गमन' कहा गया है। किसी भी भिक्षु को या अनेक भिक्षुओं को ऐसे दुग्धादि की सुलभता वाले क्षेत्र में जाना हो तो गच्छ-प्रमुख प्राचार्य या स्थविर आदि की आज्ञा लेना आवश्यक होता है। वे आवश्यक लगने पर ही उन्हें अभिनिचारिका में जाने की आज्ञा देते हैं अन्यथा मना कर सकते हैं। नि. उ. 4 में प्राचार्य-उपाध्याय की विशिष्ट प्राज्ञा बिना विकृति सेवन करने का प्रायश्चित्त कहा गया है और यहां पर आज्ञा बिना 'वजिका' में जाने का प्रायश्चित्त कहा गया है / अतः आज्ञा न मिलने पर नहीं जाना चाहिए / भाष्य में बताया गया है कि प्राचार्य-उपाध्याय के पास साधुओं की संख्या अधिक हो, अन्य गच्छ से अध्ययन हेतु आये अनेक प्रतीच्छक साधु हों, पाहुने साधुनों का आवागमन अधिक हो अथवा बद्ध आदि कारुणिक साधु अधिक हों, इत्यादि किसी भी कारण से भिक्षुओं को अध्ययन या तप उपधान के बाद या प्रायश्चित्त वहन करने के बाद आवश्यक विकृतिक पदार्थों के न मिलने पर कृशता अधिक बढ़ती हो तो उन भिक्षुओं को नियत दिन के लिये अर्थात्--५ दिन आदि संख्या का निर्देश कर 'वजिका' में जाने की आज्ञा दी जाती है। उसी अपेक्षा से सूत्र का संपूर्ण विधान है / सामान्य विचरण करने हेतु प्राज्ञा लेने का कथन उद्दे. 3 सूत्र 2 में है। चर्याप्रविष्ट एवं चर्यानिवृत्त भिक्षु के कर्तव्य 20. चरियापविठे भिक्खू जाव चउराय-पंचरायानो थेरे पासेज्जा, सच्चेव आलोयणा, सच्चेव पडिक्कमणा, सच्चेव ओग्गहस्स पुब्वाणुग्णवणा चिट्टइ अहालंदमवि प्रोग्गहे / 21. चरियापविट्ठे भिक्खू परं चउराय-पंचरायाओ थेरे पासेज्जा, पुणो पालोएज्जा, पुणो पडिक्कमेज्जा, पुणो छेयपरिहारस्स उवट्ठाएज्जा। भिक्खुभावस्स अट्ठाए दोच्चंपि ओग्गहे अणुनवयम्वे सिया।। कप्पइ से एवं वदित्तए, 'अणुजाणह भंते ! मिओग्गहं अहालंदं धुवं नितियं वेउट्टियं / ' तओ पच्छा काय-संकासं। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चौथा उद्देशक] [351 22. चरियानियट्टे भिक्खू जाव चउराय-पंचरायाओ थेरे पासेज्जा, __ सच्चेव आलोयणा, सच्चेव पडिक्कमणा, सच्चेव ओग्गहस्स पुन्वाणुन्नवणा चिट्ठइ, अहालंदमवि ओग्गहे। 23. चरियानियट्टे भिक्खू परं चउराय-पंचरायाओ थेरे पासेज्जा, पुणो पालोएज्जा, पुणो पडिक्कमेज्जा, पुणो छेयपरिहारस्स उवढाएज्जा। भिक्खूभावस्स अट्टाए दोच्चं पि ओग्गहे अणुन्नवेयव्वे सिया। कप्पइ से एवं वइत्तए-'अणुजाणह भंते ! मिओग्गहं अहालंदं धुवं नितियं वेउट्टियं / ' तओ पच्छा काय-संफासं / 20. चर्या में प्रविष्ट भिक्षु यदि चार-पांच रात की अवधि में स्थविरों को देखे (मिले) तो उन भिक्षुओं को वही आलोचना, वही प्रतिक्रमण और कल्पपर्यंत रहने के लिये वही अवग्रह की पूर्वानुज्ञा रहती है। 21. चर्या में प्रविष्ट भिक्षु यदि चार-पांच रात के बाद स्थविरों को देखे (मिले) तो वह पुनः अालोचना-प्रतिक्रमण करे और आवश्यक दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त में उपस्थित हो।। भिक्षुभाव (संयम की सुरक्षा) के लिए उसे दूसरी बार अवग्रह की अनुमति लेनी चाहिए / वह इस प्रकार प्रार्थना करे कि-'हे भदन्त ! मितावग्रह में विचरने के लिए, कल्प अनुसार करने के लिए, ध्रुव नियमों के लिये अर्थात् दैनिक क्रियायें करने के लिए प्राज्ञा दें तथा पुनः आने की अनुज्ञा दीजिए।' इस प्रकार कहकर वह उनके चरण का स्पर्श करे / 22. चर्या से निवृत्त कोई भिक्षु यदि चार-पांच रात की अवधि में स्थविरों को देखे (मिले) तो उसे वही पालोचना वही प्रतिक्रमण और कल्प पर्यन्त रहने के लिये वही अवग्रह की पूर्वानुज्ञा रहती है। 23. चर्या से निवृत्त भिक्षु यदि चार-पांच रात के बाद स्थविरों से मिले तो वह पुनः आलोचना-प्रतिक्रमण करे और आवश्यक दीक्षाछेद या तपरूप प्रायश्चित्त में उपस्थित हो। __ भिक्षुभाव (संयम की सुरक्षा) के लिये उसे दूसरी बार अवग्रह की अनुमति लेनी चाहिए / वह इस प्रकार से प्रार्थना करे कि- 'हे भदन्त ! मुझे मितावग्रह की, यथालन्दकल्प की ध्रुव, नित्य क्रिया करने की और पुनः पाने की अनुमति दीजिए।' इस प्रकार कहकर वह उनके चरणों का स्पर्श करे। विवेचन----प्रस्तुत सूत्रचतुष्क में 'चरिका' शब्द के दो अर्थ विवक्षित किए गये हैं(१) पूर्वसूत्रोक्त वजिकागमन (2) विदेश या दूरदेश गमन यहां इन दोनों प्रकार की चरिका के दो प्रकार कहे गये हैं (1) प्रविष्ट-जितने समय की आज्ञा प्राप्त हुई है, उतने समय के भीतर वजिका में रहा हुआ या दूर देश एवं विदेश की यात्रा में रहा हुआ भिक्षु / Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352] [व्यवहारसूत्र (2) निवृत्त-जिका-विहार से निवृत्त या दूर देश के विचरण से निवृत्त होकर पुनः आज्ञा लेकर आस-पास में विचरण करने वाला भिक्षु / इन सूत्रों में प्रविष्ट एवं निवृत्त चरिका वाले आज्ञाप्राप्त भिक्षु को विनय-व्यवहार का विधान किया गया है / जिसमें 4-5 दिन की मर्यादा की गई है। इन मर्यादित दिनों के पूर्व गुरु प्राचार्य अादि का पुनः मिलने का अवसर प्राप्त हो जाय तो पूर्व की आज्ञा से ही विचरण किया जा सकता है किंतु इन मर्यादित दिनों के बाद अर्थात् 10-20 दिन से या कुछ महीनों से मिलने का अवसर प्राप्त हो तो पुनः सूत्रोक्त विधि से आज्ञा प्राप्त कर लेनी चाहिए। __ चार-पांच दिन का कथन एक व्यावहारिक सीमा है, यथा-स्थापनाकुल और राजा के कोठार, दुग्धशाला आदि स्थानों की जानकारी किए बिना गोचरी जाने पर निशी. उ. 4 तथा उ. 9 में प्रायश्चित्त विधान है। वहां पर भी 4-5 रात्रि की छूट दी गई है। इस उद्देशक के सूत्र 15 में उपस्थापना के लिए भी 4-5 रात्रि की छूट दी गई है। अतः प्रस्तुत प्रकरण से भी 4-5 दिन के बाद गुरु आदि से मिलने पर पुनः विधियुक्त आज्ञा लेना आवश्यक समझना चाहिये। शैक्ष और रत्नाधिक का व्यवहार 24. दो साहम्भिया एगयओ विहरंति, तं जहा--सेहे य, राइणिए य। तत्थ सेहतराए पलिच्छन्ने, राइणिए अपलिच्छन्ने, सेहतराएणं राइणिए उवसंपज्जियन्वे, भिक्खोबवायं च दलयइ कप्पागं / 25. दो साहम्मिया एगयओ विहरंति, तं जहा-सेहे य, राइणिए य / तत्थ राइणिए पलिच्छन्ने सेहतराए अपलिच्छन्ने / इच्छा राइणिए सेहतरागं उपसंपज्जेज्जा, इच्छा नो उवसंपज्जेज्जा, इच्छा भिक्खोववायं दलेज्जा कप्पागं, इच्छा नो दलेज्जा कप्पागं / 24. दो सार्मिक भिक्षु एक साथ विचरते हों, यथा-अल्प दीक्षापर्याय वाला और अधिक दीक्षापर्याय वाला। उनमें यदि अल्प दीक्षापर्याय वाला श्रुतसम्पन्न तथा शिष्यसम्पन्न हो और अधिक दीक्षापर्याय वाला श्रुतसम्पन्न तथा शिष्यसम्पन्न न हो तो भी अल्प दीक्षापर्याय वाले को अधिक दीक्षापर्याय वाले की विनय वैयावृत्य करना, आहार लाकर देना, समीप में रहना और अलग विचरने के लिए शिष्य देना इत्यादि कर्तव्यों का पालन करना चाहिये / 25. दो सार्मिक भिक्षु एक साथ विचरते हों, यथा--अल्प दीक्षापर्याय वाला और अधिक दीक्षापर्याय वाला। उनमें यदि अधिक दीक्षापर्याय वाला श्रुतसम्पन्न तथा शिष्यसम्पन्न हो और अल्प दीक्षापर्याय वाला श्रुतसम्पन्न तथा शिष्यसम्पन्न न हो तो अधिक दीक्षापर्याय वाला इच्छा हो तो अल्प दीक्षापर्याय वाले की वैयावृत्य करे, इच्छा न हो तो न करे / इच्छा हो तो आहार लाकर दे, इच्छा न हो तो न दे। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक] [353 इच्छा हो तो समीप में रखे, इच्छा न हो तो न रखे / इच्छा हो तो अलग विचरने के लिये शिष्य दे, इच्छा न हो तो न दे। विवेचन-इन सूत्रों में रत्नाधिक और शैक्ष सार्मिक भिक्षुओं के ऐच्छिक एवं आवश्यक कर्तव्यों का कथन किया गया है। यहां रत्नाधिक की अपेक्षा अल्प दीक्षापर्याय वाले भिक्षु को शैक्ष कहा गया है, अतः इस अपेक्षा से अनेक वर्षों की दीक्षापर्याय वाला भी शैक्ष कहा जा सकता है। (1) रत्नाधिक भिक्षु शिष्य आदि से सम्पन्न हो और शैक्ष भिक्षु शिष्य आदि से सम्पन्न न हो तो उसे विचरण करने के लिये शिष्य देना या उसके लिये आहार आदि मंगवा देना और अन्य भी सेवाकार्य करवा देना रत्नाधिक के लिये ऐच्छिक कहा गया है अर्थात् उन्हें उचित लगे या उनकी इच्छा हो वैसा कर सकते हैं। (2) शैक्ष भिक्ष यदि शिष्य आदि से सम्पन्न हो एवं रत्नाधिक भिक्ष शिष्यादि से सम्पन्न न हो और वह विचरण करना चाहे या कोई सेवा कराना चाहे तो शिष्यादिसम्पन्न शैक्ष का कर्तव्य हो जाता है कि वह रत्नाधिक को बहुमान देकर उनकी आज्ञानुसार प्रवृत्ति करे। यह कथन यहां कर्तव्य एवं अधिकार की अपेक्षा से किया गया है। किन्तु सेवा की आवश्यकता होने पर तो रत्नाधिक को भी शैक्ष की यथायोग्य सेवा करना या करवाना आवश्यक होता है। न करने पर वह प्रायश्चित्त का पात्र होता है। अत: सूत्रोक्त विधान सामान्य स्थिति की अपेक्षा से है, ऐसा समझना चाहिये। रत्नाधिक को अग्रणी मानकर विचरने का विधान 26. दो भिक्खुणो एगयओ विहरंति, नो णं कप्पइ अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ णं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरितए / 27. दो गणावच्छेइया एगयओ विहरंति, नो णं कप्पइ अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ णं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। 28. दो आयरिय-उवज्झाया एगयओ विहरंति, नो णं कप्पइ अण्णमण्णं उपसंपज्जिताणं विरित्तए / कप्पइ णं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए / 29. बहवे भिक्खुणो एगयओ विहरंति नो णं कप्पइ अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। कप्पइ णं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। 30. बहवे गणावच्छेइया एगयओ विहरंति, नो णं कप्पइ अण्णमण्णं उवसंपज्जिताणं विहरित्तए / कप्पइ णं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। 31. बहवे आयरिय-उवज्झाया एगयओ विहरंति, नो णं कप्पइ अण्णमण्णं उवसंपज्जिताणं विहरित्तए / कप्पइ णं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए / Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354] [व्यवहारसूत्र 32. बहवे भिक्खुणो बहवे गणावच्छेइया, बहवे आयरिय-उवज्शाया एगयओ विहरंति, नो णं कप्पइ अण्णमण्णं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए / कप्पइ णं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए / 26. दो भिक्षु एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ में विचरना नहीं कल्पता है। किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर साथ विचरना कल्पता है / 27. दो गणावच्छेदक एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ में विचरना नहीं कल्पता है। किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर साथ विचरना कल्पता है। 28. दो प्राचार्य या दो उपाध्याय एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ विचरना नहीं कल्पता है। किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर साथ विचरना कल्पता है। 29, बहुत से भिक्षु एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ विचरना नहीं कल्पता है। किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर साथ विचरना कल्पता है। 30. बहुत से गणावच्छेदक एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ विचरना नहीं कल्पता है। किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर साथ विचरना कल्पता है। 31. बहुत से प्राचार्य या उपाध्याय एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ विचरना नहीं कल्पता है। किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर विचरना कल्पता है। 32. बहुत से भिक्षु, बहुत से गणावच्छेदक और बहुत से प्राचार्य या उपाध्याय एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ विचरना नहीं कल्पता है। किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर विचरना कल्पता है। विवेचन-दो या अनेक भिक्षु यदि एक साथ रहें अथवा एक साथ विचरण करें और वे किसी को बड़ा न माने अर्थात् प्राज्ञा लेना, वन्दन करना आदि कोई भी विनय एवं समाचारी का व्यवहार न करें तो उनका इस प्रकार साथ रहना उचित नहीं है। किन्तु उन्हें रत्नाधिक साधु की प्रमुखता स्वीकार करके उनके साथ विनय-व्यवहार रखते हुए रहना चाहिए और प्रत्येक कार्य उनकी आज्ञा लेकर ही करना चाहिए। रत्नाधिक के साथ रहते हुए भी उनका विनय एवं आज्ञापालन न करने से ज्ञान-दर्शन-चारित्र को उन्नति नहीं होती है अपितु स्वच्छन्दता की वृद्धि होकर आत्मा का अधःपतन होता है और संयम को विराधना होती है। जनसाधारण को ज्ञात होने पर जिनशासन की हीलना होती है। अतः Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौया उद्देशक] [355 अवमरात्निक (शैक्ष) भिक्षु का यह आवश्यक कर्तव्य है कि वह रत्नाधिक को प्रमुखता स्वीकार करके ही उनके साथ रहे। उसी प्रकार दो या अनेक प्राचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक भी एक साथ रहें या विचरण करें तो दीक्षापर्याय से ज्येष्ठ प्राचार्य आदि का उचित विनय-व्यवहार करते हुए रह सकते हैं। यह विधान एक मांडलिक आहार करने वाले साम्भोगिक साधुओं की अपेक्षा से है, ऐसा समझना चाहिये। यदि कभी अन्य साम्भोगिक साधु, प्राचार्य, उपाध्याय या गणावच्छेदक का किसी ग्रामादि में एक ही उपाश्रय में मिलना हो जाय और कुछ समय साथ रहने का प्रसंग आ जाय तो उचित विनयव्यवहार और प्रेमसम्बन्ध के साथ रहा जा सकता है, किन्तु सूत्रोक्त उपसम्पदा (नेतृत्व) स्वीकार करने का विधान यहां नहीं समझना चाहिए। यदि अन्य साम्भोगिक के साथ विचरण या चातुर्मास करना हो अथवा अध्ययन करना हो तो उनकी भी अल्पकालीन उपसम्पदा (नेतृत्व) स्वीकार करके ही रहना चाहिए। सूत्र 18 9-10 चौथे उद्देशक का सारांश प्राचार्य एवं उपाध्याय को अकेले विचरण नहीं करना चाहिए और दो ठाणा से चौमासा भी नहीं करना चाहिए, किन्तु वे दो ठाणा से विचरण कर सकते हैं और तीन ठाणा से चातुर्मास कर सकते हैं। गणावच्छेदक को दो ठाणा से विचरण नहीं करना चाहिए और तीन ठाणा से चातुर्मास नहीं करना चाहिए। किन्तु वे तीन ठाणा से विचरण कर सकते हैं एवं चार ठाणा से चातुर्मास कर सकते हैं / अनेक प्राचार्य आदि को एक साथ विचरण करना हो तो भी उपयुक्त साधुसंख्या अपनी-अपनी निश्रा में रखते हुए ही विचरण करना चाहिए और इसी विवेक के साथ उन्हें चातुर्मास में भी रहना चाहिए। विचरणकाल में या चातुर्मासकाल में यदि उस सिंघाड़े की प्रमुखता करने वाला भिक्षु काल-धर्म को प्राप्त हो जाय तो शेष साधुनों में जो श्रुत एवं पर्याय से योग्य हो, उसकी प्रमुखता स्वीकार कर लेनी चाहिए। यदि कोई भी योग्य न हो तो चातुर्मास या विचरण को स्थगित करके शीघ्र ही योग्य प्रमुख साधुओं के या प्राचार्य के सान्निध्य में पहुंच जाना चाहिए। आचार्य-उपाध्याय कालधर्म प्राप्त करते समय या संयम छोड़कर जाते समय जिसे प्राचार्य-उपाध्याय पद पर नियुक्त करने को कहें, उसे ही पद पर स्थापित करना चाहिए। वह योग्य न हो और अन्य योग्य हो तो उस प्राचार्यनिर्दिष्ट भिक्षु को पद 11-12 13-14 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्यवहारसूत्र सूत्र 15-17 15 20-23 न देकर या दे दिया हो तो उसे हटाकर अन्य योग्य भिक्षु को पद दिया जा सकता है। जो उसका खोटा पक्ष करें, वे सभी प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। नवदीक्षित भिक्षु के शीघ्र ही योग्य हो जाने पर १२वीं रात्रि के पूर्व बड़ीदीक्षा दे देनी चाहिये। उसके उल्लंघन करने पर प्राचार्य-उपाध्याय को यथायोग्य तप या छेद प्रायश्चित्त आता है एवं सत्तरहवीं रात्रि का उल्लंघन करने पर तप या छेद प्रायश्चित्त के अतिरिक्त एक वर्ष के लिए पदमुक्त होने का प्रायश्चित्त भी आता है। यदि बड़ीदीक्षा के समय का उल्लंघन करने में नवदीक्षित के माता-पिता आदि पूज्य पुरुषों की दीक्षा का कारण हो तो उत्कृष्ट छः मास तक दीक्षा रोकने पर भी प्रायश्चित्त नहीं पाता है। अन्य गण में अध्ययन आदि के लिये गये भिक्षु को किसी के द्वारा पूछने पर प्रथम सर्वरत्नाधिक का नाम बताना चाहिये / उसके बाद आवश्यक होने पर सर्वबहुश्रुत का नाम निर्देश करना चाहिए। वजिका (गोपालक बस्ती) में विकृति सेवन हेतु जाने के पूर्व स्थविर की अर्थात् गुरु आदि की प्राज्ञा लेना आवश्यक है, आज्ञा मिलने पर ही जाना कल्पता है / चरिकाप्रविष्ट या चरिकानिवृत्त भिक्षु को प्राज्ञाप्राप्ति के बाद 4-5 दिन में गुरु आदि के मिलने का प्रसंग पा जाय तो उसी पूर्व की आज्ञा से विचरण या निवास करना चाहिए, किन्तु 4-5 दिन के बाद अर्थात् आज्ञाप्राप्ति से अधिक समय बाद गुरु आदि के मिलने का प्रसंग या जाय तो सूत्रोक्त विधि से पुन: आज्ञा प्राप्त करके विचरण कर सकता है। रत्नाधिक भिक्षु को अवम रानिक भिक्षु की सामान्य सेवा या सहयोग करना ऐच्छिक होता है और अवमरानिक भिक्षु को रत्नाधिक भिक्षु की सामान्य सेवा या सहयोग करना आवश्यक होता है / रत्नाधिक भिक्षु यदि सेवा-सहयोग न लेना चाहे तो आवश्यक नहीं होता है। अवमरानिक भिक्षु ग्लान हो तो रत्नाधिक को भी उसकी सेवा या सहयोग करना आवश्यक होता है / अनेक भिक्षु, अनेक आचार्य-उपाध्याय एवं अनेक गणावच्छेदक आदि कोई भी यदि साथ-साथ विचरण करें तो उन्हें परस्पर समान बन कर नहीं रहना चाहिए, किन्तु जो उनमें रत्नाधिक हो उसकी प्रमुखता स्वीकार करके उचित विनय एवं समाचारीव्यावहार के साथ रहना चाहिए। 24-25 26-32 उपसंहार इस उद्देशक मेंआचार्य उपाध्याय गणावच्छेदक के विचरण करने में साधुओं की संख्या का, सूत्र 1-10 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा उद्देशक सूत्र 11-12 13-14 15-17 [357 सिंघाड़ाप्रमुख भिक्षु के कालधर्म प्राप्त होने पर उचित कर्तव्य का, प्राचार्य के दिवंगत होने पर या संयम त्यागने पर योग्य को पद पर नियुक्त करने का, बड़ीदीक्षा देने सम्बन्धी समय के निर्धारण का, गणान्तर में गये भिक्षु के विवेक का, वजिकागमन एवं चरिका प्रवृत्त या निवृत्त भिक्षु के विवेक का, रत्नाधिक एवं अवमरात्निक के कर्तव्यों का, साथ में विचरण करने सम्बन्धी विनय-विवेक का, इत्यादि विषयों का कथन किया गया है / 19-23 24-25 26-32 // चौथा उद्देशक समाप्त // Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच उद्देशक प्रवर्तिनी आदि के साथ विचरने वाली निर्ग्रन्थियों की संख्या 1. नो कप्पइ पवत्तिणीए अप्पबिइयाए हेमंत-गिम्हासु चारए। 2. कप्पइ पवत्तिणीए अप्पतइयाए हेमन्त-गिम्हासु चारए। 3. नो कप्पइ गणावच्छेइणीए अप्पतइयाए हेमंत-गिम्हासु चारए। 4. कप्पइ गणावच्छेइणीए अप्पचउत्थाए हेमंत-गिम्हासु चारए। 5. नो कप्पइ पवत्तिणीए अप्पतइयाए वासावासं वत्थए / 6. कप्पइ पवत्तिणीए अप्पचउत्थाए वासावासं वत्थए। 7. नो कप्पड गणावच्छेइणीए अप्पचउत्थाए वासावासं वत्थए / 8. कप्पइ गणावच्छेदणीए अप्पपंचमाए वासावासं वत्थए / 9. से गामंसि वा जाव रायणिसि वा बहूणं पवत्तिणीणं अप्पतइयाणं बहूणं गणावच्छेइणोणं अप्प-चउत्थाणं कप्पइ हेमंत-गिम्हासु चारए अण्णमण्णं नीसाए। 10. से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा बहणं पवत्तिणीणं अप्पचउत्थाणं बहूणं गणावच्छे. इणोणं अप्प-पंचमाणं कप्पइ वासावासं वत्थए अण्णमण्णं नीसाए। 1. हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में प्रवर्तिनी साध्वी को, एक अन्य साध्वी को साथ लेकर विहार करना नहीं कल्पता है। 2. हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में प्रवतिनी को, अन्य दो साध्वियां साथ लेकर विहार करना कल्पता है। 3. हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में गणावच्छेदिनी को अन्य दो साध्वियां साथ लेकर विहार करना नहीं कल्पता है। 4. हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में गणावच्छेदिनी को अन्य तीन साध्वियां साथ लेकर विहार करना कल्पता है। 5. वर्षावास में प्रवर्तिनी को अन्य दो साध्वियों के साथ रहना नहीं कल्पता है / Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक] [359 6. वर्षावास में प्रवर्तिनी को अन्य तीन साध्वियों के साथ रहना कल्पता है / 7. वर्षावास में गणावच्छेदिनी को अन्य तीन साध्वियों के साथ रहना नहीं कल्पता है / 8. वर्षावास में गणावच्छेदिनी को अन्य चार साध्वियों के साथ रहना कल्पता है / 9. हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में अनेक प्रतिनियों को ग्राम यावत् राजधानी में अपनी-अपनी निश्रा में दो-दो अन्य साध्वियों को साथ लेकर और अनेक गणावच्छेदिनीयों को, तीन तीन अन्य साध्वियों को साथ लेकर विहार करना कल्पता है / 10. वर्षावास में अनेक प्रतिनियों को यावत् राजधानी में अपनी-अपनी निश्रा में तीन-तीन अन्य साध्वियों को साथ लेकर और अनेक गणावच्छेदिनीयों को चार-चार अन्य साध्वियों को साथ लेकर रहना कल्पता है। विवेचन-चौथे उद्देशक में प्रारम्भ के दस सूत्रों में प्राचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक के विचरण में एवं चातुर्मास में साथ रहने वाले साधुनों की संख्या का उल्लेख किया गया है और यहां प्रवर्तिनी और गणावच्छेदिका के साथ रहने वाली साध्वियों की संख्या का विधान है। बृहत्कल्प उहे. 5 में साध्वी को अकेली रहने का निषेध है और यहां प्रतिनी को दो के साथ विचरने का निषेध है / अतः प्रतिनी एक साध्वी को साथ में रखकर न विचरे, दो साध्वियों को साथ लेकर विचरे और तीन साध्वियों को साथ में रखकर चातुर्मास करे। गणावच्छेदिनी प्रवर्तिनी की प्रमुख सहायिका होती है। इसका कार्यक्षेत्र गणावच्छेदक के समान विशाल होता है और यह प्रवर्तिनी की आज्ञा से साध्वियों की व्यवस्था, सेवा प्रायश्चित्त आदि सभी कार्यों की देख-रेख करती है। अतः गणावच्छेदिनी अन्य तीन साध्वियों को साथ लेकर विचरे और चार अन्य साध्वियों को साथ में रखकर चातुर्मास करे। बृहत्कल्प उद्दे. 5 के विधान से और इन सूत्रों के वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अकेली साध्वी विचरण न करे किन्तु दो साध्वियां साथ में विचरण कर सकती हैं या चातुर्मास कर सकती हैं। क्योंकि आगम के किसी भी विधान में उनके लिये दो से विचरने का निषेध नहीं है। किन्तु साम्प्रदायिक समाचारियों के विधानानुसार दो साध्वियों का विचरण एवं चातुर्मास करना निषिद्ध माना जाता है, साथ ही सेवा आदि के निमित्त प्रवर्तिनी आदि की आज्ञा से दो साध्वियों को जाना. अाना आगम-सम्मत भी माना जाता है / अन्य आवश्यक विवेचन चौथे उद्देशक के दस सूत्रों के समान समझ लेना चाहिये। अग्रणी साध्वी के काल करने पर साध्वी का कर्तव्य 11. गामाणुगामं दूइज्जमाणी णिग्गंथी य जं पुरओ काउंविहरइ, सा य आहच्च वीसुभेज्जा अस्थि य इस्थ काइ अण्णा उपसंपज्जणारिहा सा उपसंपज्जियव्वा / नत्य य इत्थ काइ अण्णा उपसंपज्जणारिहा तीसे य अपणो कप्पाए असमते एवं से कप्पइ एगराइयाए पडिमाए जण्णं-जण्णं दिसं अण्णाओ साहम्मिणोलो विहरंति तण्ण-तण्णं दिसं उवलित्तए / Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 [व्यवहारसूत्र नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए / कप्पा से तत्थ कारणवतियं वस्थए / तंसि च णं कारणंसि निद्वियंसि परो वएज्जा—'वसाहि प्रज्जे ! एगरायं वा दुरायं वा', एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए / नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वस्थए। जा तस्थ एगरायाओ वा बुरायाओ वा परं वसइ सा सन्तरा छए वा परिहारे वा। 12. वासावासं पज्जोसविया णिग्गंथी य ज पुरओ काउं विहरइ, सा य आहच्च वीसुभेज्जा, अस्थि य इत्थ काइ अण्णा उवसंपज्जणारिहा सा उपसंपज्जियव्वा / नत्थि य इत्य काइ अण्णा उवसंपज्जाणारिहा तोसे य अप्पणो कप्पइ असमसे एवं से कप्पइ एगराइयाए पडिमाए जण्णं-जण्णं दिसं अण्णाओ साहम्मिणीश्रो विहरंति तण्णं-तण्णं दिसं उवलित्तए। नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए / कप्पइ से तत्थ कारणवत्तियं बत्थए। तंसि च णं कारणंसि निट्ठियंसि परो वएज्जा—'वसाहि अज्जे ! एगरायं वा दुरायं वा', एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए / नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायानो वा वत्थए / जा तत्थ एगरायानो वा दुरायाओ वा परं वसइ सा संतरा छए वा परिहारे वा। 11. ग्रामानुग्राम विहार करती हुई साध्वियां, जिसको अग्रणी मानकर विहार कर रही हों उनके कालधर्म प्राप्त होने पर शेष साध्वियों में जो साध्वी योग्य हो उसे अग्रणी बनाना चाहिये। यदि अन्य कोई साध्वी अग्रणी होने योग्य न हो और स्वयं ने भी निशीथ आदि का अध्ययन पूर्ण न किया हो तो उसे मार्ग में एक-एक रात्रि ठहरते हुए जिस दिशा में अन्य साधर्मिणी साध्वियां विचरती हों, उस दिशा में जाना चाहिए। मार्ग में उसे विचरने के लक्ष्य से ठहरना नहीं कल्पता है / यदि रोगादि का कारण हो तो ठहरना कल्पता है। रोगादि के समाप्त होने पर यदि कोई कहे कि-'हे आर्ये ! एक या दो रात और ठहरो', तो उन्हें एक या दो रात और ठहरना कल्पता है। किन्तु एक या दो रात से अधिक ठहरना नहीं कल्पता है / जो साध्वी एक या दो रात से अधिक ठहरती है, वह मर्यादा-उल्लंघन के कारण दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त की पात्र होती है। 12. वर्षावास में रही हुई साध्वियां जिसको अग्रणी मानकर रह रही हों उसके कालधर्म प्राप्त होने पर शेष साध्वियों में जो साध्वी योग्य हो, उसे अग्रणी बनाना चाहिये। यदि अन्य कोई साध्वी अग्रणी होने योग्य न हो और स्वयं ने भी प्राचार-प्रकल्प का अध्ययन पूर्ण न किया हो तो उसे मार्ग में एक-एक रात्रि ठहरते हुए जिस दिशा में अन्य सार्धामणी साध्वियां विचरती हों उस दिशा में जाना कल्पता है। मार्ग में उसे विचरने के लक्ष्य से ठहरना नहीं कल्पता है। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक] [361 यदि रोगादि का कारण हो तो ठहरना कल्पता है। रोगादि के समाप्त होने पर यदि कोई कहे कि'--'हे आर्य ! एक या दो रात और ठहरो',' तो उसे एक या दो रात और ठहरना कल्पता है। किन्तु एक या दो रात से अधिक ठहरना नहीं कल्पता है। जो साध्वी एक या दो रात से अधिक ठहरती है, वह मर्यादा-उल्लंघन के कारण दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त की पात्र होती है। विवेचन-चौथे उद्देशक के ग्यारहवें बारहवें सूत्र में अग्रणी साधु के कालधर्म-प्राप्त हो जाने का वर्णन है और यहां अग्रणी साध्वी के कालधर्म-प्राप्त हो जाने का वर्णन है। अन्य साध्वी को अग्रणी बनने या बनाने का अथवा विहार करने का विवेचन चौथे उद्देशक के समान समझना चाहिए। सूत्र में"तीसे य अप्पणो कप्पाए" और "वसाहि अज्जे" आदि एकवचन के प्रयोग प्रमुख साध्वी को लक्ष्य करके किये गये हैं और प्रमुख बनने या बनाने का वर्णन होने के कारण अनेक साध्वियों का होना भी सूत्र से ही स्पष्ट हो जाता है। प्रतिनो के द्वारा पद देने का निर्देश 13. पवत्तिणी य गिलायमाणी अन्नयर वएज्जा-"मए णं अज्जे ! कालगयाए समाणीए इयं समुक्कसियवा।" सा य समुक्कसिणारिहा समुक्कसियव्वा, सा य नो समुक्कसिणारिहा नो समुक्कसियन्या / अस्थि य इत्थ अण्णा काइ समुक्कसिणारिहा सा समुक्कसियन्वा / नस्थि य इत्थ अण्णा काइ समुक्कसिणारिहा सा चेव समुक्कसियव्वा / ताए च णं समुक्किट्ठाए परा वएज्जा-- "दुस्समुक्किट्ठ ते अज्जे / निक्खिवाहि" ताए णं निविखक्माणाए नस्थि केइ छए वा परिहारे वा / जामो साहम्मिणीओ अहाकप्पं नो उट्ठाए विहरंति सव्वासि तासि तप्पत्तियं छए वा परिहारे वा। 14, पवत्तिणी य ओहायमाणी अन्नयरं वएज्जा"मए णं अज्जे ! पोहावियाए समाणीए इयं समुक्कसियव्वा / " सा य समुक्कसिणारिहा समुक्कसियव्वा, सा य नो समुक्कसिणारिहा नो समुक्कसियव्वा / अत्थि य इत्थ अण्णा काइ समुक्कसिणारिहा सा समुक्कसियव्वा / नत्थि य इत्थ अण्णा काइ समुक्कसिणारिहा सा चेव समुक्कसियव्या / ताए च णं समुक्किट्ठाए परा वएज्जा-"दुस्समुक्किळं ते प्रज्जे ! निक्खिवाहि / " ताए णं निक्खिवमाणाए नस्थि केइ छए वा परिहारे वा। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्यवहारसूत्र ___जाओ साहम्मिणोओ अहाकप्पं नो उवट्ठाए विहरंति सव्वासि तासि तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा। 13. रुग्ण प्रवर्तिनी किसी प्रमुख साध्वी से कहे कि- "हे आर्ये ! मेरे कालगत होने पर अमुक साध्वी को मेरे पद पर स्थापित करना।" यदि प्रवतिनी-निर्दिष्ट वह साध्वी उस पद पर स्थापन करने योग्य हो तो उसे स्थापित करना चाहिए। यदि वह उस पद पर स्थापन करने योग्य न हो तो उसे स्थापित नहीं करना चाहिए / यदि समुदाय में अन्य कोई साध्वी उस पद के योग्य हो तो स्थापित करना चाहिए / यदि समुदाय में अन्य कोई भी साध्वी उस पद के योग्य न हो तो प्रवर्तिनी-निर्दिष्ट साध्वी को ही उस पद स्थापित करना चाहिए। उसको उस पद पर स्थापित करने के बाद कोई गीतार्थ साध्वी कहे कि-"हे आयें ! तुम इस पद के अयोग्य हो अतः इस पद को छोड़ दो", (ऐसा कहने पर) यदि वह उस पद को छोड़ दे तो वह दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त की पात्र नहीं होती है। जो स्वर्मिणी साध्वियां कल्प (उत्तरदायित्व) के अनुसार उसे प्रवर्तिनी आदि पद छोड़ने के लिए न कहें तो वे सभी स्वर्मिणी साध्वियां उक्त कारण से दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त की पात्र होती हैं। 14. संयम-परित्याग कर जाने वाली प्रवतिनी किसी प्रमुख साध्वी से कहे कि-'हे प्रार्थे ! मेरे चले जाने पर अमुक साध्वी को मेरे पद पर स्थापित करना।" यदि वह साध्वी उस पद पर स्थापन करने योग्य हो तो उसे उस पद पर स्थापन करना चाहिए। यदि वह उस पद पर स्थापन करने योग्य न हो तो उसे स्थापित नहीं करना चाहिए। यदि समुदाय में अन्य कोई साध्वी उस पद के योग्य हो तो उसे स्थापित करना चाहिए। यदि समुदाय में अन्य कोई भी साध्वी उस पद के योग्य न हो तो प्रवर्तिनी-निर्दिष्ट साध्वी को ही उस पद पर स्थापित करना चाहिए। उसको उस पद पर स्थापित करने के बाद कोई गीतार्थ साध्वी कहे कि- 'हे प्रार्थे ! तुम इस पद के अयोग्य हो, अत: इस पद को छोड़ दो", (ऐसा कहने पर) यदि वह उस पद को छोड़ दे तो वह दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त की पात्र नहीं होती है। जो स्वधर्मिणी साध्वियां कल्प (उत्तरदायित्व) के अनुसार उसे प्रतिनी पद छोड़ने के लिए न कहें तो वे सभी स्वर्धामणी साध्वियां उक्त कारण से दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त की पात्र होती हैं। विवेचन-आचार्य अपने गच्छ के सम्पूर्ण साधु-साध्वियों के धर्मशासक होते हैं। अतः उनका विशिष्ट निर्णय तो सभी साध्वियों को स्वीकार करना होता ही है, अर्थात् उनके निर्देशानुसार Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक प्रवर्तिनी पद पर किसी साध्वी को नियुक्त किया जा सकता है, किन्तु सामान्य विधान की अपेक्षा सूत्रानुसार साध्वियां या प्रवर्तिनी आदि भी अन्य योग्य साध्वी को प्रवर्तिनी आदि पद पर नियुक्त कर सकती हैं। यह इन सूत्रों से स्पष्ट होता है। अन्य विवेचन चौथे उद्देशक के सूत्र 13-14 के समान समझ लेना चाहिए। आचारप्रकल्प-विस्मृत को पद देने का विधि-निषेध 15. निग्गंथस्स णं नव-डहर-तरुणस्स आयारकपप्पे नामं अज्झयणे परिम्भठे सिया, से य पुच्छियव्वे "केण ते कारणेण अज्जो! प्रायारपकप्पे नाम-अज्झयणे परिभट्ठे ? कि प्राबाहेणं उदाहु पमाएणं ?" से य वएज्जा-"नो प्राबाहेणं, पमाएणं," जावज्जीवं तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ पायरियत वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा / से य वएज्जा-"आबाहेणं, नो पमाएणं, से य संठवेस्सामि ति" संठवेज्जा एवं से कप्पड़ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। से य "संठवेस्सामि" ति नो संठवेज्जा, एवं से नो कप्पइ पायरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 16. निग्गंथीए णं नव-डहर-तरुणाए आयारपकप्पे नामं अन्मयणे परिम्भठे सिया, सा य पुच्छियव्या "केण भे कारणेणं अज्जे ! आयारपकप्पे नामं प्रायणे परिभो ? किं प्राबाहेणं, उदाहु पमाएणं ?" साय वएज्जा "नो प्राबाहेणं, पमाएणं", जावज्जीवं तीसे तप्पत्तियं नो कप्पइ पवत्तिणितं वा गणावच्छेइणितं वा उद्दिसित्तए वा, धारेत्तए वा।। सा य वएज्जा-"आबाहेणं, नो पमाएणं सा य संठवेस्सामि ति" संठवेज्जा एवं से कप्पा पवत्तिणित्ति वा गणावच्छेइणितं वा उद्दिसिसए वा धारेत्तए बा। साय "संठवेस्सामि" ति नो संठवेज्जा, एवं से नो कप्पइ पयत्तिणितं वा गणावच्छेइणितं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 15. नवदीक्षित, बाल एवं तरुण निर्ग्रन्थ के यदि आचारप्रकल्प (आचारांग-निशीथसूत्र) का अध्ययन विस्मृत हो जाए तो उसे पूछा जाए कि "हे आर्य ! तुम किस कारण से प्राचारप्रकल्प-अध्ययन को भूल गए हो, क्या किसी कारण से भूले हो या प्रमाद से ? " Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364] [व्यवहारसूत्र __ यदि वह कहे कि किसी कारण से नहीं अपितु प्रमाद से विस्मृत हुआ है", तो उसे उक्त कारण से जीवनपर्यन्त आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। यदि वह कहे कि "अमुक कारण से विस्मृत हुआ है-प्रमाद से नहीं / अब मैं प्राचारप्रकल्प पुनः कण्ठस्थ कर लूगा"-ऐसा कहकर कण्ठस्थ कर ले तो उसे प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता है / यदि वह प्राचारप्रकल्प को पुनः कण्ठस्थ कर लेने को कहकर भी कण्ठस्थ न करे तो उसे प्राचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है / 16. नवदीक्षित, बाल एवं तरुण निर्ग्रन्थी को यदि प्राचारप्रकल्प-अध्ययन विस्मृत हो जाए तो उसे पूछना चाहिए कि ___ "हे प्रार्थे ! तुम किस कारण से प्राचारप्रकल्प-अध्ययन भूल गई हो? क्या किसी कारण से भूली हो या प्रमाद से ?" यदि वह कहे कि-"किसी कारण से नहीं अपितु प्रमाद से विस्मृत हुआ है" तो उसे उक्त कारण से जीवनपर्यन्त प्रवर्तिनी या गणावच्छेदिनी पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है / __यदि वह कहे कि-"अमुक कारण से विस्मृत हुआ है, प्रमाद से नहीं, मैं पुनः प्राचारप्रकल्प को कण्ठस्थ कर लगी"-ऐसा कहकर कण्ठस्थ कर ले तो उसे प्रवर्तिनी या गणावच्छेदिनी पद देना या धारण करना कल्पता है / यदि वह प्राचारप्रकल्प को पुनः कण्ठस्थ कर लेने को कहकर भी कण्ठस्थ न करे तो उसे प्रवर्तिनी या गणावच्छेदिनी पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है / / विवेचन-तीसरे उद्देशक के तीसरे सूत्र में तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण को "प्राचारप्रकल्प" कण्ठस्थ धारण करने का कहा गया है और इन सूत्रों में प्रत्येक श्रमण-श्रमणी को आचारप्रकल्प कण्ठस्थ करना एवं उसे कण्ठस्थ रखना आवश्यक कहा गया है। साथ ही गच्छ के प्रमुख श्रमणों का यह कर्तव्य बताया गया है कि वे समय-समय पर यह जांच भी करते रहें कि किसी श्रमण को प्राचारप्रकल्प विस्मृत तो नहीं हो रहा है। यदि विस्मृत हुआ है तो उसके कारण की जानकारी करनी चाहिए। सूत्र में यह भी कहा गया है कि आचारप्रकल्प को भूलने वाला श्रमण या श्रमणी यदि नवदीक्षित है, बालवय या तरुणवय वाला है तो उसे सूत्रोक्त प्रायश्चित्त पाता है / वह प्रायश्चित्त दो प्रकार का है, यथा-- (1) सकारण भूलने पर पुनः कण्ठस्थ करने तक वह किसी भी पदवी को धारण नहीं कर सकता तथा (सिंघाड़ाप्रमुख) बन कर विचरण भी नहीं कर सकता। (2) प्रमादवश भूल जाय तो वह जीवनपर्यन्त किसी पदवी को धारण नहीं कर सकता तथा सिंघाड़ाप्रमुख बन कर विचरण भी नहीं कर सकता। "प्राचारप्रकल्प" से यहां आचारांग और निशीथसूत्र का निर्देश किया गया है। इस सम्बन्धी विस्तृत व्याख्या उद्दे. 3 सूत्र 3 के विवेचन से जान लेनी चाहिए। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक] ___ उद्दे. तीन और पांच के इन सूत्र-विधानों में प्राचारप्रकल्प का जो महत्त्व बताया गया है, उसे लक्ष्य में रखकर एवं अनुप्रेक्षा करके यदि उसकी रचना के विषय में निर्णय किया जाय तो सहज ही यह निर्णय हो जाता है कि इस व्यवहारसूत्र के रचयिता स्थविर भद्रबाहुस्वामी ने या उनके बाद के किसी स्थविर ने 'पाचारप्रकल्प' की रचना नहीं की है किन्तु यह गणधररचित है और प्रारंभ से ही जिनशासन के सभी साधु-साध्वियों को आवश्यक रूप से अध्ययन कराया जाने वाला शास्त्र है / वर्तमान में यह शास्त्र आचारांग+निशीथ उभय सूत्रों का सूचक है। दशाश्रुतस्कंध के नियुक्तिकार ने नियुक्ति की प्रथम गाथा में ही स्थविर श्री प्रथम भद्रबाहुस्वामी को वंदन-नमस्कार करते हुए उन्हें 'तीन छेदसूत्रों (दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प और व्यवहारसूत्र) की रचना करने वाले' ऐसे विशेषण से विभूषित किया है और श्रीभद्रबाहुस्वामी ने अपने द्वारा रचित (निर्यढ) इस व्यवहारसूत्र में सोलह बार प्राचारप्रकल्प का निर्देश करते हए अनेक प्रकार के विधान किए हैं। इतना स्पष्ट होते हुए भी ऐतिहासिक भ्रान्तियों के कारण वर्तमान के इतिहासज्ञ इस सूत्र के रचनाकार और उनके समय के विषय में अपने संदिग्ध विचार प्रस्तुत करते हैं, यह अत्यंत खेद का विषय है। प्राचारप्रकल्प संबंधी व्यवहारसूत्र के विधानों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अध्ययन-व्यवस्था में आचारांग-निशीथसूत्र को अर्थ-परमार्थ सहित कंठस्थ करना प्रत्येक साधु-साध्वी के लिये अत्यंत आवश्यक है तथा स्वाध्याय आदि के द्वारा उसे कण्ठस्थ रखना भी आवश्यक है / जो कोई भी श्रमण या श्रमणी इसके अध्ययन की योग्यता वाले नहीं होते हैं या इसका अध्ययन नहीं करते हैं अथवा अध्ययन करने के बाद उसका स्वाध्याय न करके विस्मृत कर देते हैं, वे ही श्रमण या श्रमणी जिनशासन के किसी भी पद को ग्रहण करने में या पूर्व ग्रहीत को धारण करने के अयोग्य होते हैं, अर्थात् उन्हें कोई पद नहीं दिया जा सकता है और पहले से किसी पद पर हों तो उन्हें पद से हटा दिया जाता है। वे सिंघाड़ाप्रमुख बनकर भी विचरण करने का अधिकार नहीं रखते हैं तथा किसी भी प्रकार की गणव्युत्सर्गसाधना अर्थात् एकलविहार, संभोग-प्रत्याख्यान आदि साधनाएँ भी नहीं कर सकते हैं। __ प्राचारप्रकल्प का धारक भिक्षु ही जघन्य गीतार्थ या जघन्य बहुश्रत कहा गया है। वही स्वतंत्र विहार या गोचरी के योग्य होता है। अबहुश्रुत या अगीतार्थ की गवेषणा से प्राप्त पदार्थों के उपयोग करने का भी भाप्य में निषेध किया गया है एवं प्रायश्चित्त कहा गया है। वर्तमान में पूर्वो का ज्ञान विच्छेद मानना तो आगमसम्मत है, किन्तु अन्य सूत्रों का विच्छेद होना नहीं कहा जा सकता है / अतः क्षेत्र या काल की अोट लेकर इन व्यवहारसूत्रकथित विधानों के आचरण का विच्छेद मानना सर्वथा अनुचित है / क्योंकि वर्तमान में दीक्षित होने वाले अनेक नवयुवक श्रमण-श्रमणियों को यदि योग्य अध्यापन कराने वाले मिलें तो वे तीन वर्ष में इतना अध्ययन कंठस्थ अवश्य कर सकते हैं। किन्तु अत्यंत खेद के साथ यह कहना पड़ता है कि अध्ययन के क्षेत्र में उदासीनता के कारण विद्यमान लगभग दस हजार (10,000) जैन साधु-साध्वियों में केवल दस साधु-साध्वियां भी इस प्राचारप्रकल्प को अर्थसहित कण्ठस्थ धारण करने वाले नहीं हैं। फिर भी समाज में अनेक प्राचार्य, उपाध्याय हैं और अनेक पद प्राप्ति के लिये लालायित रहने वाले भी हैं। संघाड़ाप्रमुख बनकर विचरण करने वाले भी अनेक साधु-साध्वी हैं और वे स्वयं को पागमानुसार विचरण करने वाले भी मानते हैं / किन्तु आगमानुसार अध्ययन, विचरण तथा गच्छ के पदों की व्यवस्था किस Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366] [व्यवहारसूत्र प्रकार करनी चाहिए, यह इन छेदसूत्रों के विवेचन से सरलतापूर्वक जानने एवं पालन करने का प्रयत्न नहीं करते हैं / यह पागमविधानों की उपेक्षा करना है। ___ अत: वर्तमान के पदवीधरों और गच्छप्रमुखों को अवश्य ही इस ओर ध्यान देकर आगम की अध्ययनप्रणाली को अविछिन्न बनाये रखना चाहिए / अर्थात् प्रत्येक नवदीक्षित युवक संत-सती को उचित व्यवस्था के साथ कम से कम तीन या पांच दस वर्ष तक आगम-अध्ययन एवं आत्मजागृतियुक्त संयमपालन में पूर्ण योग्य बनाना चाहिए। यह प्रत्येक पदवीधर का, गच्छप्रमुख का और गुरु का परम कर्तव्य है / ऐसा करने से ही वे शिष्यों के उपकारक हो सकते हैं। दशा. द. 4 में भी प्राचार्यादि के लिये शिष्य के प्रति ऐसे ही कर्तव्यों का कथन करके उनके ऋण से उऋण होना कहा गया है, जिसका विवेचन वहीं पर देखें / वर्तमान में ऐसा न करने वाले ये अनेक पदवीधर क्या अपने कर्तव्यों के प्रति सजग हैं ? एवं जिनशासन के प्रति कृतज्ञ हैं ? अथवा पदों के द्वारा केवल प्रतिष्ठा प्राप्त करके संतुष्टि करने वाले हैं ? इस विषय में गहरा विचार करके जिनशासन के प्रति कर्तव्यनिष्ठा रखने वाले आत्मार्थी साधकों को आगमानुसार अध्ययन-अध्यापन एवं पदप्रदान करने की व्यवस्था करनी चाहिए एवं विकृत परंपरा को आगमानुसारी बनाने में प्रयत्नशील होना चाहिए। वर्तमान में यह मान्यता भी प्रचलित है कि–'प्राचारांग एवं निशीथसूत्र का यदि गुरुमुख से एक बार वाचन-श्रवण कर लिया तो प्रमुख बनकर विचरण या पदवीधारण किया जा सकता है और ऐसा करने पर सूत्राज्ञा का पालन हो जाता है। किन्तु इन दो सूत्रों में किए गए विधानों को गहराई से समझने पर उपर्युक्त धारणा केवल स्वमतिकल्पित कल्पनामात्र सिद्ध होती है। क्योंकि इन सूत्रों में प्राचारप्रकल्प के विस्मृत होने आदि के विधान से प्रत्येक साधु-साध्वी को कंठस्थ धारण करना ही सिद्ध होता है। __ कई प्राचार्यों की यह भी मान्यता है कि—'साध्वी को निशीथसूत्र का अध्ययन-अध्यापन आर्य रक्षित के द्वारा निषिद्ध है', यह भी आगमविपरीत कल्पना है / क्योंकि प्रस्तुत सोलहवें सूत्र में साध्वी को प्राचारप्रकल्प के कण्ठस्थ रखने का स्पष्ट विधान है। प्रागमविधानों से विपरीत प्राज्ञा देकर परंपरा चलाने का अधिकार किसी भी प्राचार्य को नहीं होता है और साढ़े नवपूर्वी आर्यरक्षितस्वामी ऐसी आज्ञा दे भी नहीं सकते हैं, फिर भी इतिहास के नाम से ऐसी कई असंगत कल्पनाएँ प्रचलित हो जाती हैं। अतः कल्पित कल्पनामों से सावधान रहकर सूत्राज्ञा को प्रमुखता देनी चाहये / स्थविर के लिए आचारप्रकल्प के पुनरावर्तन करने का विधान 17. थेराणं थेरभूमिपत्ताणं आयारपकप्पे नाम अज्झयणे परिभट्टे सिया, कप्पइ तेसि संठवेत्ताण वा, असंठवेत्ताण वा प्रायरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 18. थेराणं थेरभूमिपत्ताणं आयारपकप्पे नाम अज्ञयणे परिस्मठे सिया, कप्पइ तेसि Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक] [367 सन्निसण्णाण वा, संतुयाण वा, उत्ताणयाण वा, पासिल्लयाण वा आयरपकप्पं नामं अज्झयणं दोच्चंपि तच्चपि पडिपुच्छित्तए वा, पडिसारेत्तए वा। 17. स्थविरत्व (वृद्धावस्था) प्राप्त स्थविर यदि प्राचारप्रकल्प-अध्ययन विस्मृत हो जाए (और पुनः कण्ठस्थ करे या न करे) तो भी उन्हें आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता है। 18. स्थविरत्वप्राप्त स्थविर यदि पाचारप्रकल्प-अध्ययन विस्मृत हो जाए तो उन्हें बैठे हुए, लेटे हुए, उत्तानासन से सोये हुए या पार्श्वभाग से शयन किये हुए भी आचारप्रकल्प-अध्ययन दो-तीन बार पूछकर स्मरण करना और पुनरावृत्ति करना कल्पता है / ___ विवेचन-पूर्व सूत्रद्विक के कहे गये विषय का ही यहां स्थविर साधु-साध्वी की अपेक्षा कथन किया गया है। भाष्य में चालीस से उनसत्तर वर्ष की वय वाले को प्रौढ कहा है और सत्तर वर्ष से अधिक वय वाले को स्थविर कहा गया है। किन्तु ठाणांगसूत्र एवं व्यवहारसूत्र उद्दे. 10 आदि प्रागमों में 60 वर्ष की वय वाले को स्थविर कहा गया है / अतः चालीस से उनसठ वर्ष तक की वय वाले को प्रौढ समझना चाहिए। प्रस्तुत सूत्रद्वय में स्थविर भिक्षुत्रों के लिये आपवादिक विधान किया है, जो प्रौढ के लिये नहीं समझा जा सकता। अत: प्रौढ का समावेश पूर्व सूत्रद्विक में उपलक्षण से या परिशेषन्याय से समझ लेना चाहिए। क्योंकि उस अवस्था तक श्रुत कंठस्थ धारण करने की शक्ति का अधिक ह्रास नहीं होता है। स्मरणशक्ति का ह्रास साठ वर्ष की वय के बाद होना अधिक संभव है / अतः प्रौढ साधुसाध्वियों के प्राचारप्रकल्प विस्मरण का प्रायश्चित्त भी पूर्व सूत्रद्विक में अंतनिहित है, ऐसा समझ लेना चाहिए। सत्तरहवें सूत्र में यह कहा गया है कि स्थविर भिक्षु यदि आचारप्रकल्प विस्मृत हो जाये और वह उसे पुनः उपस्थित कर सके या उपस्थित न भी कर सके तो उन्हें कोई भी पद दिया जा सकता है और पूर्वप्रदत्त पद को वे धारण भी कर सकते हैं / प्रस्तुत सूत्रों का आशय यह है कि स्थविर भिक्षु को भी आचारप्रकल्प पुनः उपस्थित करने का प्रयत्न तो करना ही चाहिए, किन्तु पुन: उपस्थित न हो सकने पर उन्हें कोई भी प्रायश्चित्त नहीं आता है। अठारहवें सूत्र में भी यह स्पष्ट किया गया है कि वे सूत्र को पुनः कण्ठस्थ रखने के लिये कभी लेटे हुए या बैठे हुए भी अन्य साधुओं से सूत्र का श्रवण कर सकते हैं या बीच के कोई स्थल विस्मृत हों तो उन्हें पूछ सकते हैं / इस प्रकार इस सूत्र में भिक्षु को वृद्धावस्था में भी स्वाध्यायप्रिय होना सूचित किया गया है। सूत्र में "थेराणं थेरभूमिपत्ताणं" शब्द प्रयोग से यह सूचित किया गया है कि वयःस्थविर होते हुए भी जिन्हें बुढ़ापा आ चुका है अर्थात् जिनकी शरीरशक्ति और इन्द्रियशक्ति क्षीण हो चुकी है, उनकी अपेक्षा ही यह आपवादिक विधान समझना चाहिए। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368] [व्यवहारसूत्र परस्पर आलोचना करने के विधि-निषेध 19. जे निग्गंथा य निग्गथीओ य संभोइया सिया, नो णं कप्पइ अण्णमण्णस्स अंतिए आलोइत्तए। अस्थि य इत्थ णं केइ पालोयणारिहे कप्पइ णं तस्स अंतिए पालोइत्तए। नत्थि य इत्थ णं केइ आलोयणारिहे एवं णं कप्पइ अण्णमण्णस्स अंतिए आलोइत्तए। 19. जो साधु और साध्वियां साम्भोगिक हैं, उन्हें परस्पर एक दूसरे के समीप आलोचना करना नहीं कल्पता है / यदि स्वपक्ष में कोई आलोचना सुनने योग्य हो तो उनके समीप ही आलोचना करना कल्पता है। यदि स्वपक्ष में आलोचना सुनने योग्य कोई न हो तो साधु-साध्वी को परस्पर आलोचना करना कल्पता है। विवेचन-बृहत्कल्पसूत्र के चौथे उद्देशक में बारह सांभोगिक व्यवहारों का वर्णन करते हुए औत्सर्गिक विधि से साध्वियों के साथ छह सांभोगिक व्यवहार रखना कहा गया है। तदनुसार साध्वियों के साथ एक मांडलिक पाहार का व्यवहार नहीं होता है तथा आगाढ कारण के बिना उनके साथ आहारादि का लेन-देन भी नहीं होता है, तो भी वे साधु-साध्वी एक प्राचार्य की आज्ञा में होने से और एक गच्छ वाले होने से सांभोगिक कहे जाते हैं। ऐसे सांभोगिक साधु-साध्वियों के लिए भी आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त आदि परस्पर करना निषिद्ध है, अर्थात् साधु अपने दोषों की आलोचना, प्रायश्चित्त प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर आदि के पास ही करें और साध्वियां अपनी आलोचना, प्रायश्चित्त प्रवर्तिनी, स्थविरा आदि योग्य श्रमणियों के पास ही करें, यह विधिमार्ग या उत्सर्गमार्ग है। अपवादमार्ग के अनुसार किसी गण में साधु या साध्वियों में कभी कोई आलोचनाश्रवण के योग्य न हो या प्रायश्चित्त देने योग्य न हो तब परिस्थितिवश साधु स्वगच्छीय साध्वी के पास आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त कर सकता है और साध्वी स्वगच्छीय साधु के पास आलोचना आदि कर सकती है। __ इस विधान से यह स्पष्ट है कि सामान्यतया एक गच्छ के साधु-साध्वियों को भी परस्पर पालोचना, प्रायश्चित्त नहीं करना चाहिए। परस्पर आलोचना का दुष्फल बताते हुए भाष्य में कहा गया है कि साधु या साध्वी को कभी चतुर्थव्रत भंग संबंधी आलोचना करनी हो और आलोचना सुनने वालासाधू या साध्वी भी कामवासना से पराभूत हो तो ऐसे अवसर पर उसे अपने भाव प्रकट करने का अवसर मिल सकता है और वह कह सकता है कि 'तुम्हें प्रायश्चित्त तो लेना ही है तो एक बार मेरी इच्छा भी पूर्ण कर दो, फिर एक साथ प्रायश्चित्त हो जायेगा। इस प्रकार परस्पर आलोचना के कारण एक दूसरे का अधिकाधिक पतन होने की संभावना रहती है / अन्य दोषों की आलोचना करते समय भी एकांत में पुनः-पुनः साधु-साध्वी का संपर्क होने से ऐसे दोषों के उत्पन्न होने की संभावना रहती है / Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक] ऐसे ही कारणों से स्वाध्याय या वाचना आदि के सिवाय साधु-साध्वी को परस्पर सभी प्रकार का संपर्क वजित है / इसलिये उन्हें एक दूसरे के उपाश्रय में सामान्य वार्तालाप या केवल दर्शन हेतु अथवा परम्परा-पालन के लिये नहीं जाना चाहिए। स्थानांगसूत्र-निदिष्ट सेवा आदि परिस्थितियों से जाना तो आगमसम्मत है। साधु-साध्वियों के परस्पर संपर्कनिषेध का विशेष वर्णन बृह. उ. 3 सूत्र 1 के विवेचन में देखें। उस सूत्र में परस्पर एक दूसरे के उपाश्रय के बैठने, खड़े रहने आदि अनेक कार्यो का निषेध है। परस्पर सेवा करने का विधि-निषेध 20. जे निग्गंथा य निग्गंथीयो य संभोइया सिया, नो गं कप्पइ अण्णमण्णणं वेयावच्चं कारवेत्तए। अस्थि य इत्थ णं के वेयावच्चकरे कप्पइ णं तेणं वेयावच्चं कारवेत्तए, नत्यि य इत्य णं केइ वेयावच्चकरे, एवं णं कप्पइ अण्णमण्णेणं वेयावच्चं कारवेत्तए। 20. जो साधु और साध्वियां सांभोगिक हैं, उन्हें परस्पर एक दूसरे की वैयावृत्य करना नहीं कल्पता है। यदि स्वपक्ष में कोई वैयाक्त्य करने वाला हो तो उसी से वैयावृत्य कराना कल्पता है। यदि स्वपक्ष में वैयावृत्य करने वाला कोई न हो तो साधु-साध्वी को परस्पर वैयावृत्य करना कल्पता है। विवेचन-पूर्वसूत्र में साधु-साध्वियों के परस्पर आलोचना करने का निषेध किया गया है और प्रस्तुत सूत्र में परस्पर एक दूसरे के कार्यों को करने का निषेध किया गया है। साधु-साध्वी के संयम हेतु शरीर सम्बन्धी और उपकरण सम्बन्धी जो भी आवश्यक कार्य हो वह प्रथम तो स्वयं ही करना चाहिए और कभी कोई कार्य साधु-साधुनों से और साध्वियां साध्वियों से भी करवा सकती हैं, यह विधिमार्ग है।। रोग आदि कारणों से या किसी आवश्यक कार्य के करने में असमर्थ होने से परिस्थितिवश विवेकपूर्वक साधु साध्वी परस्पर भी अपना कार्य करवा सकते हैं, यह अपवादमार्ग है। अतः विशेष परिस्थिति के बिना साधु-साध्वी को परस्पर कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए / इन सूत्रों के पारस्परिक व्यवहारों के निषेध का मुख्य कारण यह है कि इन प्रवृत्तियों से अतिसम्पर्क, मोहवृद्धि होने से कभी ब्रह्मचर्य में असमाधि उत्पन्न हो सकती है और इस प्रकार का परस्पर अनावश्यक प्रतिसम्पर्क देखकर जन-साधारण में कई प्रकार की कुशंकाएं उत्पन्न हो सकती हैं। अतः सूत्रोक्त विधान के अनुसार ही साधु-साध्वियों को आचरण करना चाहिए। परस्पर किये जाने वाले सेवाकार्य-- (1) आहार-पानी लाकर देना या लेना अथवा निमंत्रण करना। (2) वस्त्र-पात्र आदि उपकरणों की याचना करके लाकर देना या स्वयं के याचित उपकरण देना। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370] [व्यवहारसूत्र (3) उपकरणों का परिकर्म कार्य-सीना, जोड़ना, रोगानादि लगाना। (4) वस्त्र, रजोहरण आदि धोना। (5) रजोहरण आदि उपकरण बनाकर देना। (6) प्रतिलेखन आदि कर देना / इत्यादि अनेक कार्य यथासम्भव समझ लेने चाहिए। इन्हें आगाढ़ परिस्थितियों के बिना परस्पर करना करवाना साधु-साध्वियों को नहीं कल्पता है एवं करने-करवाने पर गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है। प्राचार्य आदि पदवीधरों के भी प्रतिलेखना आदि सेवा कार्य केवल भक्ति प्रदर्शित करने के लिये साध्वियां नहीं कर सकती हैं / यदि प्राचार्य आदि इस तरह अपना कार्य अकारण करवावें तो वे भी गुरुचौमासी प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। तात्पर्य यह है कि साथ में रहने वाले साधु जो सेवाकार्य कर सकते हों तो साध्वियों से नहीं कराना चाहिए, उसी प्रकार साध्वियों को भी जब तक अन्य साध्वियां करने वाली हों तब तक साधुओं से अपना कोई भी कार्य नहीं करवाना चाहिए। सर्पदंशचिकित्सा के विधि-निषेध 21. निग्गथं च णं राओ वा वियाले वा दोहपुट्ठो लूसेज्जा, इत्थी वा पुरिसस्स ओमावेज्जा, पुरिसो वा इत्थीए प्रोमावेज्जा, एवं से कप्पइ, एवं से चिट्टइ, परिहारं च से नो पाउणइ, एस कप्पो थेर-कप्पियाणं। एवं से नो कप्पइ, एवं से नो चिट्ठइ, परिहारं च से पाउणइ, एस कप्पे जिणकप्पियाणं / 21. यदि किसी निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी को रात्रि या विकाल (सन्ध्या) में सर्प डस ले और उस समय स्त्री निर्ग्रन्थ की और पुरुष निर्ग्रन्थी की सर्पदंश चिकित्सा करे तो इस प्रकार उपचार कराना उनको कल्पता है / इस प्रकार उपचार कराने पर भी उनकी निर्ग्रन्थता रहती है तथा वे प्रायश्चित्त के पात्र नहीं होते हैं / यह स्थविरकल्पी साधुओं का आचार है। जिनकल्प वालों को इस प्रकार उपचार कराना नहीं कल्पता है, इस प्रकार उपचार कराने पर उनका जिनकल्प नहीं रहता है और वे प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। यह जिनकल्पी साधुओं का आचार है। विवेचन--बृहत्कल्पसूत्र के छ8 उद्देशक में 6 प्रकार की कल्पस्थिति कही गई है, अर्थात् 6 प्रकार का आचार कहा गया है। वहां पर स्थविरकल्पी और जिनकल्पी का आचार भिन्न-भिन्न सूचित किया है / उस प्राचार-भिन्नता का एक उदाहरण इस सूत्र में स्पष्ट किया गया है। दोनों के प्राचार में मुख्य अन्तर यह है कि स्थविरकल्पी यथावसर शरीरपरिकर्म, औषधउपचार तथा परिस्थिति वश किसी भी अपवादमार्ग का अनुसरण कर सकते हैं, किन्तु जिनकल्पी दृढ़तापूर्वक उत्सर्गमार्ग पर ही चलते हैं। वे किसी भी प्रकार का औषध-उपचार, शरीरपरिकर्म, Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [371 पांचवां उद्देशक] शरीरसंरक्षण आदि नहीं कर सकते हैं तथा अन्य भी अनेक प्रकार की विशिष्ट समाचारी का वे पालन करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि स्थविरकल्पी भिक्षु को सांप काट खाए तो वह मन्त्रवादी से सांप का जहर उतरवा सकता है। रात्रि में भी वह सर्पदंश का उपचार करा सकता है तथा साध्वी, पुरुष से और साधु, स्त्री से भी रात्रि में सर्पदंश का उपचार करा सकता है। कोई स्थविरकल्पी भी दृढ़ मनोबली हो और चिकित्सा न करावे तो यह उसकी इच्छा पर निर्भर है अर्थात् सूत्रों में दी गई छूट या सूत्रों से प्रतिध्वनित होने वाली छूट का सेवन स्थविरकल्पी के लिए सदा ऐच्छिक होता है। जिनकल्पी की साधना में स्वेच्छा का कोई विकल्प नहीं है। उसे तो शरीर-निरपेक्ष होकर ग्रहण की गई प्रतिज्ञायों को जीवनपर्यन्त पालन करना होता है। निर्वद्य अपवाद सेवन से भी इनका जिनकल्प भंग हो जाता है, जिससे वे प्रायश्चित्त के भागी होते हैं / स्थविरकल्पी को परिस्थितिवश निर्वद्य अपवाद सेवन का प्रायश्चित्त नहीं आता है और कभी किसी परिस्थिति में सावध अपवाद सेवन का भी अत्यल्प प्रायश्चित्त ही आता है। किन्तु अकारण मर्यादा का उल्लंघन करने पर उन्हें भी विशेष प्रायश्चित्त आता है / जिनकल्पी को विशिष्ट समाचारी 1. तीसरे प्रहर में ही गोचरी करना एवं विहार भी तीसरे प्रहर में ही करना। 2. रूक्ष एवं लेप रहित पदार्थों का आहार करना, अभिग्रह युक्त गोचरी करना एवं अन्तिम पांच पिंडेषणाओं में से किसी एक पिंडेषणा से आहारादि ग्रहण करना। 3. वस्त्र-पात्र आदि भी तीसरी चौथी वस्त्रैषणा-पात्रैषणा (पडिमा) से ग्रहण करना। 4. औपग्रहिक उपधि नहीं रखना, अतः संस्तारकपट्ट या आसन भी नहीं रखना। 5. तीसरे प्रहर के अतिरिक्त प्रायः सदा कायोत्सर्ग करना या उत्कुटुकासन से समय व्यतीत करना। 6. बिछाए हुए पाट, संस्तारक या पृथ्वीशिला मिल जाय तो ही उपयोग में लेना। 7. संयम पालन योग्य क्षेत्र में पूर्ण मासकल्प रहना और चातुर्मास में किसी भी कारण से विहार नहीं करना। 8. दस प्रकार की समाचारी में से दो समाचारियों का पालन करना। 9. स्थंडिल के 10 दोष-रहित भूमि हो तो ही परठना अन्यथा नहीं परठना। 10. मकान का प्रमार्जन, बिलों को ढकना, बन्द करना आदि नहीं करना, न दरवाजे खोलना, न बन्द करना। 11. गृहस्थ की इच्छा बिना कुछ भी नहीं लेना या उन्हें अप्रीतिकर हो, ऐसा कुछ भी व्यवहार नहीं करना / 12. मकान देते समय कोई पूछे-"तुम कितने साधु हो, कितना ठहरोगे" ऐसे भावों से पूछने पर नहीं ठहरना। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372] [व्यवहारसूत्र 13. अल्प समय भी अग्नि या दीपक जले या उसका प्रकाश आवे वहां नहीं ठहरना / 14. भिक्षु की 12 पडिमा तथा अन्य भद्र-महाभद्र आदि पडिमा नहीं करना / 15. गांव में गोचरी के घरों को छह विभाग में विभाजित करना, फिर एक दिन में किसी एक विभाग में ही गोचरी करना, छह दिनों के पूर्व पुनः वहां गोचरी नहीं जाना। 16. अन्य कोई भिक्षु गोचरी जाए, उस विभाग में नहीं जाना। 17. अतिक्रम आदि दोषों के संकल्पमात्र का भी गुरुचौमासी प्रायश्चित्त लेना / 18. किसी को दीक्षा न देना, किन्तु प्रतिबोध दे सकते हैं। 19. प्रांख आदि का मैल नहीं निकालना / 20. वृद्धावस्था में जंघावल क्षीण होने पर विहार नहीं कहना, किन्तु अन्य सभी जिनकल्प की मर्यादाओं का पालन करना / इत्यादि और भी अनेक मर्यादाएं हैं, जिन्हें भाष्यादि से अथवा अभि. राजेन्द्र कोष भाग 4 'जिनकल्प' शब्द पृ. 1473 (19) से जान लेना चाहिए। अभि. राजेन्द्र कोष में जिनकल्प का अर्थ इस प्रकार किया है(१) जिनाः गच्छनिर्गतसाधुविशेषाः तेषां कल्प: समाचारः / 'जिनानामिव कल्पो जिनकल्प उग्रविहारविशेषः--उग्रविहारी गच्छनिर्गत साधु जिनकल्पी कहे जाते हैं और उनकी समाचारीमर्यादाओं को जिनकल्प कहा जाता है। इसलिये ही प्रस्तुत सूत्र में उन्हें सांप काट जाय तो भी चिकित्सा कराने का निषेध है / प्रस्तुत सूत्रविधान के अनुसार स्थविरकल्पी की संयमसाधना शरीरसापेक्ष या शरीरनिरपेक्ष दोनों प्रकार की होती है, किन्तु जिनकल्प-साधना शरीरनिरपेक्ष ही होती है / पांचवें उद्देशक का सारांश सूत्र 1-10 प्रवतिनी दो साध्वियों को साथ लेकर विचरण करे और तीन साध्वियों को साथ लेकर चातुर्मास करे। ___गणावच्छेदिका तीन साध्वियों को साथ लेकर विचरण करे एवं चार साध्वियों को साथ लेकर चातुर्मास करे। अनेक प्रवर्तिनी या गणावच्छेदिका सम्मिलित होवें तो भी उपर्युक्त संख्या के अनुसार ही प्रत्येक को रहना चाहिए। 11-12 प्रमुखा साध्वी के कालधर्म प्राप्त हो जाने पर शेष साध्वियां अन्य योग्य को प्रमुखा बनाकर विचरण करें। योग्य न हो तो विहार करके शीघ्र अन्य संघाड़े में मिल जावें। 13-14 प्रवर्तिनी-निर्दिष्ट योग्य साध्वी को पदवी देना, वह योग्य न हो तो अन्य योग्य साध्वी को पद पर नियुक्त करना। 15-16 आचारांग निशीथसूत्र प्रत्येक साधु-साध्वी को अर्थ सहित कण्ठस्थ धारणा करना और उन्हें उपस्थित रखना चाहिए। आचार्यादि को भी यथासमय पूछताछ करते रहना चाहिए। यदि किसी को ये सूत्र विस्मृत हो जाये तो उसे किसी प्रकार के Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां उद्देशक] [373 सूत्र 17-18 पद पर न रखें न ही उसे प्रमुख बन कर विचरण करने की आज्ञा दें। यदि कोई रोगादि के कारण से सूत्र भूल जाय तो स्वस्थ होने पर पुनः कण्ठस्थ करने के बाद पद आदि दिये जा सकते हैं। वद्धावस्था वाले स्थविर के द्वारा ये कण्ठस्थ सूत्र भूल जाना क्षम्य है तथा पुन: याद करते हुए भी याद न होवे तो कोई प्रायश्चित्त नहीं है। वृद्ध भिक्षु कभी लेटे हुए या बैठे हुए सूत्र की पुनरावृत्ति, श्रवण या पृच्छा आदि कर सकते हैं। विशेष परिस्थिति के बिना साधु-साध्वी को परस्पर एक दूसरे के पास आलोचना, प्रायश्चित्त नहीं करना चाहिए। साधु-साध्वी को परस्पर एक दूसरे का कोई भी सेवाकार्य नहीं करना चाहिए। आगमोक्त विशेष परिस्थितियों में वे एक दूसरे की सेवापरिचर्या कर सकते हैं। सांप काट जाय तो स्थविरकल्पी भिक्षु को मन्त्रचिकित्सा कराना कल्पता है, किन्तु जिनकल्पी को चिकित्सा करना या कराना नहीं कल्पता है। स्थविरकल्पी को उस चिकित्सा कराने का प्रायश्चित्त भी नहीं है। जिनकल्पी को ऐसा करने पर प्रायश्चित्त आता है। उपसंहार सूत्र 1-10 11-12 13-14 15-18 19-20 इस प्रकार इस उद्देशक मेंप्रवर्तिनी आदि के साथ विचरण करने वाली साध्वियों की संख्या का, प्रमुखा साध्वी के काल करने पर आवश्यक कर्तव्यों का, प्रवतिनो-निर्दिष्ट या अन्य योग्य साध्वी को पद देने का, प्राचारप्रकल्प कण्ठस्थ रखने का, साधु-साध्वी को परस्पर सेवा, मालोचना नहीं करने का, सर्पदंशचिकित्सा का, इत्यादि विषयों का कथन किया गया है। // पांचवां उद्देशक समाप्त // Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक स्वजन-परिजन-गृह में गोचरी जाने का विधि-निषेध . 1. भिक्खु य इच्छेज्जा नायविहिं एत्तए, नो से कप्पइ से थेरे अणापुच्छित्ता नायविहिं एत्तए। कप्पइ से थेरे पापुच्छिता नायविहि एत्तए। थेरा य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ नायविहिं एत्तए। थेरा य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ नायविहिं एत्तए।। जे तत्थ थेरेहि अविइण्णे नायविहिं एइ, से संतरा छए वा परिहारे वा। नो से कप्पइ अप्पसुयस्स अप्पागमस्स एगाणियस्स नायविहिं एत्तए। कप्पइ से जे तत्थ बहुस्सुए बब्भागमे तेण सद्धि नायविहिं एत्तए। तत्थ से पुवागमणेणं पुवाउत्ते चाउलोदणे, पच्छाउत भिलिंगसूवे, कप्पड़ से चाउलोदणे पडिगाहित्तए, नो से कप्पइ भिलिंगसूवे पडिगाहित्तए। तत्थ से पुश्वागमणेणं पुष्पाउत्ते भिलिंगसूवे, पच्छाउत्ते चाउलोदणे, कप्पइ से मिलिंगसूवे पडिगाहित्तए, नो से कप्पइ चाउलोदणे पडिगाहित्तए।। तत्थ से पुवागमणेणं दो वि पुयाउत्ताई कप्पड़ से दोवि पडिगाहित्तए। तत्थ से पुवागमणेणं दो वि पच्छाउत्ताई नो से कप्पइ दो वि पडिगाहित्तए। जे से तत्थ पुवागमणेणं पुवाउत्ते एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए / जे से तत्थ पुवागमणेणं पच्छाउत्ते नो से कप्पइ पडिगाहितए / 1. भिक्षु यदि स्वजनों के घर गोचरी जाना चाहे तो स्थविरों से पूछे बिना स्वजनों के घर जाना नहीं कल्पता है। स्थविरों से पूछकर स्वजनों के घर जाना कल्पता है। स्थविर यदि आज्ञा दे तो स्वजनों के घर जाना कल्पता है। स्थविर यदि आज्ञा न दे तो स्वजनों के घर पर जाना नहीं कल्पता है। स्थविरों की आज्ञा के बिना यदि स्वजनों के घर जाए तो वे दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। ___ अल्पश्रुत और अल्पागमज्ञ अकेले भिक्षु और अकेली भिक्षुणी को स्वजनों के घर जाना नहीं कल्पता है। किन्तु समुदाय में जो बहुश्रुत और बहुअागमज्ञ भिक्षु हों, उनके साथ स्वजनों के घर जाना कल्पता है। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठा उद्देशक] [375 ज्ञातिजन के घर में निम्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के आगमन से पूर्व चावल रंधे हुए हों और दाल पीछे से रंधे तो चावल लेना कल्पता है, किन्तु दाल लेना नहीं कल्पता है। वहां आगमन से पूर्व दाल रंधी हुए हो और चावल पीछे से रंधे तो दाल लेना कल्पता है किन्तु चावल लेना नहीं कल्पता है। वहां प्रागमन से पूर्व दाल और चावल दोनों रंधे हुए हों तो दोनों लेने कल्पते हैं / और दोनों बाद में रंधे हों तो दोनों लेने नहीं कल्पते हैं / इस प्रकार ज्ञातिजन के घर भिक्षु के आगमन से पूर्व जो आहार अग्नि आदि से दूर रखा हुआ हो, वह लेना कल्पता है / जो आगमन के बाद में अग्नि से दूर रखा गया हो, वह लेना नहीं कल्पता है / विवेचन-जिस प्रकार आहार लेने के लिए जाने की सामान्य रूप से गुरु-प्राज्ञा ली जाती है तो भी निशीथ उ. 4 के अनुसार विगययुक्त आहार ग्रहण करने के लिए प्राचार्यादि की विशिष्ट प्राज्ञा लेना आवश्यक होता है। उसी प्रकार प्रस्तुत सूत्र में भिक्षाचरी हेतु सामान्य आज्ञा प्राप्त करने के अतिरिक्त अपने पारिवारिक लोगों के घरों में गोचरी जाने के लिए विशिष्ट प्राज्ञा प्राप्त करने का विधान किया गया है। जो भिक्षु बहुश्रुत है, वह आज्ञा प्राप्त करने के बाद स्वयं की प्रमुखता से ज्ञातिजनों के घरों में भिक्षार्थ जा सकता है। किन्तु जो भिक्षु अबहुश्रुत है एवं अल्प दीक्षापर्याय वाला (तीन वर्ष से कम) है, वह प्राज्ञा प्राप्त करके भी स्वयं की प्रमुखता से नहीं जा सकता, किन्तु किसी बहुश्रुत भिक्षु के साथ ही अपने ज्ञातिजनों के घर जा सकता है / सूत्र में "णायविहि" शब्द का प्रयोग है। उसमें ज्ञातिजनों के घर जाने के सभी प्रयोजन समाविष्ट हैं / अत: गोचरी आदि किसी भी प्रयोजन से जाना हो तो उसके लिए इस सूत्रोक्त विधि का पालन करना आवश्यक है। उक्त विधि को भंग करने पर वह यथायोग्य तप या छेद रूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है। _सूत्र के उत्तरार्ध में भिक्षाचरी सम्बन्धी विवेक निहित है। गवेषणा के 42 दोषों में एवं आचारांगसूत्र और दशवैकालिकसूत्र के पिंडेषणा अध्ययन में सूचित अनेक दोषों में इस प्रकार का विवेक सूचित नहीं किया है। किन्तु ज्ञातिजनों के घर गोचरी जाने के विधान के साथ ही इस का विस्तृत विधान प्रस्तुत सूत्र में एवं दशा. द. 6 और दशा द. 8 में किया गया है। अतः यह एषणा का दोष नहीं है, किन्तु ज्ञातिजनों के घर से सम्बन्धित दोष है। यहां इस सूत्र का प्राशय यह है कि ज्ञातिजनों के घर में भक्ति की अधिकता या अनुराग की अधिकता रहती है। इसी कारण से प्राचा. श्र. 2 अ. 1 उ. 9 में भी इन घरों में गोचरी का समय न हुन्मा हो तो दूसरी बार जाने का निषेध किया है और निशीथ उ. 2 में ज्ञातिजनों के घरों में दुबारा जाने पर प्रायश्चित्त कहा है। किन्तु ज्ञातिजनों के अतिरिक्त अन्य घरों में दुबारा जाए तो यह निषेध एवं प्रायश्चित्त नहीं है, क्योंकि एषणा के सामान्य नियमों में यह नियम नहीं है। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {সাগ __इसके अतिरिक्त जिन घरों में अधिक भक्ति एवं अनुराग हो तो उपलक्षण से वहां भी यह विवेक रखना आवश्यक समझ लेना चाहिए। क्योंकि वहां भी ऐसे दोषों के लगने की सम्भावना तो रहती ही है। इस सूत्रांश में यह बताया गया है कि पारिवारिक लोगों के घर में गोचरी के लिए प्रवेश करने के बाद कोई भी खाद्य पदार्थ निष्पादित हो या चुल्हे पर से चावल दाल या रोटी दूध आदि कोई भी पदार्थ हटाया जाए तो उसे नहीं लेना चाहिए। उस पदार्थ के हटाने में साधु का निमित्त हो या न हो, ज्ञात कुल में ऐसे पदार्थ अग्राह्य है। वहां घर में प्रवेश करने के पहले ही जो पदार्थ निष्पन्न हो या चूल्हे पर से उतरा हुआ हो, वहीं लेना चाहिए। अपरिचित या अल्पपरिचित घरों में उक्त पदार्थ लेने का सूत्र में निषेध नहीं है। _ इसका कारण यह है कि अनुरागी ज्ञातिजन आदि भक्तिवश कभी साधु के निमित्त भी वह प्रवृत्ति कर सकते हैं जिससे अग्निकाय की विराधना होना सम्भव है, किन्तु अल्पपरिचित या अल्पानुरागी घरों में उक्त दोष को सम्भावना नहीं रहती है। अत: उन कुलों में उक्त नियम की उपयोगिता नहीं है। इसीलिए यह विधान आगमों में केवल ज्ञातिजनों के कुल के साथ ही जोड़ा गया है। आचार्य आदि के अतिशय 2. आयरिय-उवज्झायस्स गणंसि पंच अइसेसा पण्णत्ता, तं जहा 1. आयरिय-उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स पाए निगिज्झिय-निगिज्झिय पप्फोडेमाणे वा पमज्जेमाणे वा नाइक्कमइ / 2. आयरिय-उवज्शाए अंतो उवस्सयस्स उच्चार-पासवणं विगिचमाणे वा विसोहेमाणे वा नाइक्कमइ / 3. आयरिय-उवज्झाए पभू वेयावाडियं, इच्छा करेज्जा, इच्छा नो करेज्जा। 4. आयरिय-उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा एगो वसमाणे नाइक्कमइ / 5. आयरिय-उवज्झाए बाहि उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा एगनो वसमाणे नाइक्कमइ। 3. गणावच्छेइयस्स णं गर्णसि दो अइसेसा पण्णत्ता, तं जहा-- 1. गणावच्छेइए अंतो उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा एगओ वसमाणे नाइक्कमइ / 2. गणावच्छेइए बाहिं उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा एगो वसमाणे नाइक्कमइ। गण में प्राचार्य और उपाध्याय के पांच अतिशय कहे गये हैं, यथा 1. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के अन्दर धूल से भरे अपने पैरों से आकर के कपड़े से पोछे या प्रमार्जन करें तो मर्यादा (जिनाज्ञा) का उल्लंघन नहीं होता है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठा उद्देशक] [377 2. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के अन्दर मल-मूत्रादि का त्याग व शुद्धि करें तो मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है। ___3. सशक्त आचार्य या उपाध्याय इच्छा हो तो सेवा के कार्य करें और इच्छा न हो तो न करें, फिर भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है। 4. प्राचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के अन्दर किसी विशेष कारण से यदि एक-दो रात अकेले रहें तो भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है। 5. प्राचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के बाहर किसी विशेष कारण से यदि एक-दो रात अकेले रहें तो भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है। 3. गण में गणावच्छेदक के दो अतिशय कहे गये हैं, यथा 1. गणावच्छेदक उपाश्रय के अन्दर (किसी विशेष कारण से) यदि एक-दो रात अकेले रहें तो मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है। 2. गणावच्छेदक उपाश्रय के बाहर (किसी विशेष कारण से) यदि एक-दो रात अकेले रहें तो मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है। विवेचनाचारकल्प को कुछ विशेषताओं का यहां "अतिशय" शब्द से निर्देश किया गया है। ठाणांगसूत्र के पांचवें और सातवें अध्ययन में भी प्राचार्य-उपाध्याय के पांच और सात अतिशय कहे गये हैं / वहां पांच अतिशय तो प्रस्तुत सूत्र के समान हैं और दो विशेष कहे गये हैं, यथा(१) उपकरणातिशय और (2) भक्तपानातिशय / भाष्य में इन्हीं दो अतिशयों के स्थान पर पांच अतिशय विशेष कहे हैं, यथा भत्ते, पाणे, धुवणे, पसंसणा हत्थपायसोए य। पायरिए अतिसेसा, प्रणातिसेसा अणायरिए // 229 // भाष्य गा. 230 से 246 तक इसका विवेचन किया गया है, उसका सारांश इस प्रकार है(१) क्षेत्र-काल के अनुकूल सर्वदोषमुक्त आहार आचार्य को देना, (2) तिक्त कटुक अम्ल आदि रसों से रहित अचित्त जल आचार्य को देना, (3) प्राचार्य के मनोनुकूल तनोनुकूल एवं जनोनुकूल वस्त्रादि उन्हें देना एवं मलिन हो जाने पर उनके उपकरण यथासमय प्रक्षालन कर शुद्ध करना। (4) गम्भीर, मृदु, क्षमादि गुणों से सम्पन्न, अनेक संयमगुणों को खान, श्रुतवान्, कृतज्ञ, दाता, उच्चकुलोत्पन्न, उपद्रवों से रहित, शांतमूर्ति, बहुश्रुत, तपस्वी इत्यादि गुणों में से वे जिन गुणों से युक्त हों, उन विद्यमान गुणों से उनकी प्रशंसा करना। (5) हाथ, पांव, मुख, नयन का प्रक्षालन कर शुद्ध रखना। भाष्यगाथा 238 से 246 तक दृष्टान्त देकर यह स्पष्ट किया है कि यदि आचार्य दृढ़ देह वाला हो, स्वाभाविक ही निर्मल देह वाला हो, तेजस्वी एवं यशस्वी हो तो उपर्युक्त अतिशय के आचरणों का सेवन उन्हें नहीं करना चाहिए। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378] [व्यवहारसूत्र अन्य साधुओं को सामान्य आहार आदि से जीवन निर्वाह करना चाहिए, किन्तु रोगादि कारणों से सामान्य भिक्षु भी उक्त प्राचरणों को स्वीकार कर सकता है। सूत्रोक्त पांच अतिशयों का तात्पर्य यह है:--- (1) आचार्य आदि उपाश्रय के भीतर भी पांव का प्रमार्जन कर शुद्धि कर सकते हैं। (2) ग्रामादि के बाहर शुद्ध योग्य स्थंडिल के होते हुए भी वे उपाश्रय से संलग्न स्थंडिल में मलत्याग कर सकते हैं। (3) गोचरी आदि अनेक सामूहिक कार्य या वस्त्रप्रक्षालन आदि सेवा के कार्य वे इच्छा हो तो कर सकते हैं अन्यथा शक्ति होते हुए भी अन्य से करवा सकते हैं / (4-5) विद्या मन्त्र आदि के पुनरावर्तन हेतु अथवा अन्य किन्हीं कारणों से वे उपाश्रय के किसी एकान्त भाग में अथवा उपाश्रय से बाहर अकेले एक या दो दिन रह सकते हैं। इन विद्या मन्त्रों का उपयोग गृहस्थ हेतु करने का आगम में निषेध है तथापि साधु साध्वी के लिए वे कभी इनका उपयोग कर सकते हैं। इन अतिशयों का फलितार्थ यह है कि सामान्य भिक्षु उपर्युक्त विषयों में इस प्रकार आचरण करे (1) उपाश्रय में प्रवेश करते समय पांवों का प्रमार्जन यदि आवश्यक हो तो उपाश्रय के बाहर ही कर ले। (2) योग्य स्थंडिल उपलब्ध हो और शारीरिक अनुकूलता हो तो उपाश्रय में मलत्याग न करे / (3) गुरु-प्राज्ञा होने पर या बिना कहे भी उन्हें सदा सेवा के कार्यों को करने में प्रयत्नशील रहना चाहिये। शेष समय में ही स्वाध्याय आदि करना चाहिये / (4-5) रत्नाधिक गुरु के समीप या उनके दृष्टिगत स्थान में ही सदा शयन-प्रासन करना चाहिए / किन्तु गीतार्थ-बहुश्रुत भिक्षु अनुकूलता-अनुसार एवं आज्ञानुसार आचरण कर सकता है / भाष्य में इन विषयों पर विस्तृत विवेचन करते हुए अनेक गुण-दोषों एवं हानि-लाभ का कथन किया है / जिज्ञासु पाठक वहां देखें। सूत्र में प्राचार्य-उपाध्याय दोनों के पांच-पांच अतिशय कहे हैं और गणावच्छेदक के अन्तिम दो अतिशय द्वितीय सूत्र में अलग से कहे गये हैं / इसका तात्पर्य यह है कि प्रथम तीन अतिशय गणावच्छेदक के लिए आवश्यक नहीं होते हैं, क्योंकि गणावच्छेदक-पद ऋद्धिसम्पन्न पद न होकर कार्यवाहक पद है। अतः उनके लिये अन्तिम दो अतिशय ही पर्याप्त हैं / विशेष परिस्थिति में तो कोई भी साधु या गणावच्छेदक उक्त सभी अतिशयों की प्रवृत्तियों का आचरण कर सकते हैं। सामान्यतया प्राचार्य-उपाध्याय को अकेले रहने का निषेध उद्दे. 4 में किया गया है। यहां अतिशय की अपेक्षा विधान है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठा उद्देशक [379 अगीतार्थों के रहने का विधि-निषेध और प्रायश्चित्त 4. से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा (सन्निवेसंसि वा) एगवगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमण-पवेसाए (उवस्सए) नो कप्पइ बहूणं अगडसुयाणं एगयओ वत्थए / अस्थि याई केइ आयारपकप्पधरे, नस्थि णं केइ छए वा परिहारे वा। नस्थि याई णं केइ पायारपकप्पधरे से संतरा छेए वा परिहारे वा। 5. से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा (सग्निवेसंसि वा) अभिनिव्वगडाए अभिनिदुवाराए अभिनिवखमण-पवेसाए (उवस्सए) नो कप्पइ बहूणं अगडसुयाणं एगयनो वत्थए।। अस्थि याई णं केइ आयारपकप्पधरे, जे तत्तियं रणि संवसइ, नत्थि णं केइ छए वा परिहारे वा। __ नत्यि याई णं केइआयारपकप्पधरे जे तत्तियं रणि संवसइ, सब्वेसि तेसि तप्पत्तियं छए वा परिहारे वा। 4. ग्राम यावत् राजधानी में (सन्निवेश में) एक प्राकार वाले, एक द्वार वाले और एक निष्क्रमण-प्रवेश वाले उपाश्रय में अनेक अकृतश्रुत (अल्पज्ञ) भिक्षुत्रों को एक साथ रहना नहीं कल्पता है। यदि उनमें कोई प्राचारप्रकल्पधर हो तो वे दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त के पात्र नहीं होते हैं। यदि उनमें कोई प्राचारप्रकल्पधर न हो तो वे मर्यादा-उल्लंघन के कारण दीक्षाढ़ेद या तप रूप प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं / 5. ग्राम यावत् राजधानी (सन्निवेश) में अनेक प्राकार वाले, अनेक द्वार वाले और अनेक निष्क्रमण-प्रवेश वाले उपाश्रय में अनेक अकृतश्रुत (अल्पज्ञ) भिक्षुओं को एक साथ रहना नहीं कल्पता है। यदि कोई आचारप्रकल्पधर तीसरे दिन उनके साथ रहे तो वे दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्तके पात्र नहीं होते हैं। यदि कोई प्राचार प्रकल्पधर तीसरे दिन भी वहां नहीं रहता हो तो उन सभी को उस मर्यादाउल्लंघन का तप या छेद प्रायश्चित्त पाता है। विवेचन-इन सूत्रों में प्राचारांग एवं निशीथसूत्र अर्थसहित कण्ठस्थ धारण नहीं करने वाले अबहुश्रुत भिक्षुत्रों को "अगडसुय"-प्रकृतश्रुत-कहा गया है / अर्थात् प्रमुख बनकर विचरण करने की योग्यताप्राप्ति के लिए (आवश्यक, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आचारांग और निशीथसूत्र) का अध्ययन एवं कण्ठस्थ धारण नहीं करने वाला भिक्षु प्रागमिक शब्दों में “अगडसुय' कहा गया है। .. ऐसे एक या अनेक भिक्षुओं के विचरण करने का निषेध उद्देशक तीन के प्रथम सूत्र में किया Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380] [व्यवहारसूत्र गया है। प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि किसी ग्रामादि में ऐसे अकृतसूत्री भिक्षुओं को छोड़कर बहुश्रुत भिक्षु विहार कर जाय तो वे अगीतार्थ भिक्षु वहां रह भी नहीं सकते / इसी विषय को उपाश्रय की अवस्थिति के विकल्पों से सूत्र में स्पष्ट किया गया है___ यदि उपाश्रय में निकलने का तथा उसमें प्रवेश करने का मार्ग एक ही हो तो वहां 'अगडसुयो' (अगीतार्थ) को एक दिन भी रहना नहीं कल्पता है / यदि उस उपाश्रय में जाने-माने के अनेक मार्ग हों तो अगीतार्थों को एक या दो दिन रहना कल्पता है। तीसरे दिन रहने पर उन्हें प्रायश्चित्त आता है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक योग्य भिक्षु को यथासमय बहुश्रुत होने योग्य श्रुत का अध्ययन कर एवं उन्हें कण्ठस्थ धारण कर पूर्ण योग्यतासम्पन्न हो जाना चाहिए, जिससे यथावसर विचरण एवं गणधारण आदि किये जा सकें। क्योंकि इन सूत्रों में अनेक अबहुश्रुतों के साथ में रहने एवं विचरण करने का स्पष्टतः निषेध किया गया है और साथ ही इस मर्यादा का भंग करने वालों को प्रायश्चित्त का पात्र कहा गया है। अतः प्रत्येक नवदीक्षित योग्य भिक्षु का एवं उनके गणप्रमुख प्राचार्य-उपाध्याय आदि का यह आवश्यक कर्तव्य है कि वे अन्य रुचियों एवं प्रवृत्तियों को प्रमुखता न देकर आगमोक्त अध्ययन-अध्यापन को प्रमुखता दें एवं संयमविधियों में पूर्ण कुशल बनने व बनाने का ध्यान रखें। प्राचारकुशल एवं श्रुतसंपन्न बने बिना किसी भी भिक्षु को अलग विचरने में या अन्य कार्यों में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए। अध्ययन सम्बन्धी प्रागमसम्मत अनेक प्रकार की जानकारी निशीथ उद्दे. 19 तथा व्यव. उद्दे. 3 एवं उद्दे. 5 के विवेचन में दी गई है। उसका ध्यानपूर्वक अध्ययन मनन कर आगमानुसार श्रुत-अध्ययन करने एवं करवाने का प्रमुख लक्ष्य बनाना चाहिए। ऐसा करने पर ही जिनाज्ञा का यथोक्त पालन हो सकता है तथा साधक आत्माओं का एवं जिनशासन का सर्वतोमुखी विकास हो सकता है। अकेले भिक्षु के रहने का विधि-निषेध 6. से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा (सन्निवेसंसि वा) अभिनिव्वगडाए अभिनिदुबाराए अभिनिक्खमण-पवेसणाए (उवस्सए) नो कप्पइ बहुसुयस्स बन्भागमस्स एगाणियस्स भिक्खस्स वत्थए, किमंग पुण अप्पसुयस्स अप्पागमस्स ? 7. से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा (सग्निवेसंसि वा) एगवगडाए, एगदुवाराए, एगनिक्खमण-पवेसाए (उवस्सए) कप्पइ बहुसुयस्स बब्भागमस्स एगाणियस्स भिक्खुस्स बत्थए, उभयो कालं भिक्खुभावं पडिजागरमाणस्स ! 6. ग्राम यावत् राजधानी (सन्निवेश) में अनेक वगडा वाले, अनेक द्वार वाले और अनेक निष्क्रमण-प्रवेश वाले उपाश्रय में अकेले बहुश्रुत और बहुअागमज्ञ भिक्षु को भी रहना नहीं कल्पता है, अल्पश्रुत और अल्पागमज्ञ अकेले भिक्षु को वसना कैसे कल्प सकता है ? अर्थात् नहीं कल्पता है / Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठा उद्देशक] [381 7. ग्राम यावत् राजधानी (सन्निवेश) में एक वगडा वाले, एक द्वार वाले, एक निष्क्रमणप्रवेश वाले उपाश्रय में अकेले बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ भिक्षु को दोनों समय संयमभाव की जागृति रखते हुए रहना कल्पता है। विवेचन-पूर्व सूत्रद्विक में अकृतसूत्री-अगीतार्थ भिक्षुओं के निवास से सम्बन्धित कथन किया गया है और प्रस्तुत सूत्रद्विक में बहश्रुत-गीतार्थ अकेले भिक्ष को ग्रामादि में किस प्रकार के उपाश्रय में किस प्रकार से रहना या नहीं रहना, यह विधान किया गया है। भाष्य में अगीतार्थ से सम्बन्धित सूत्रों का और इन एकाकी भिक्षुओं से सम्बन्धित सूत्रों का स्पष्टीकरण करते हुए इन्हें गच्छ की निश्रागत होना कहा है और "एगवगडा" आदि विशेषणों को उपाश्रयों से सम्बन्धित करके विस्तृत विवेचन किया है। किन्तु उपलब्ध प्रतियों में 'उवस्सय' शब्द लिपिदोष से छूट गया है, ऐसा प्रतीत होता है / इसीलिए यहां 'उवस्सय' शब्द को रखते हुए अर्थ एवं विवेचन किया है। प्रस्तुत सूत्रद्विक से यह फलित होता है कि 1. बहुश्रुत एकाकी विचरण करने वाले भिक्षु को अनेक द्वार एवं अनेक मार्ग वाले उपाश्रय में निवास नहीं करना चाहिए / 2. किन्तु एक द्वार, एक मार्ग वाले उपाश्रय में बहुश्रुत भिक्षु रह सकता है। 3. एकलविहारी भिक्षु को उभयकाल (सोते और उठते समय अथवा दिन में और रात्रि में) वैराग्य एवं संयमगुणों को पुष्ट करने वाली धर्म-जागरणा से धर्म-भावना की वृद्धि करते हुए रहना चाहिए। 4. अल्पश्रुत अल्प-प्रागमज्ञ-अगीतार्थ भिक्षु को किसी भी प्रकार के उपाश्रय में अकेला नहीं रहना चाहिए। गीतार्थ बहश्रत भिक्ष को अकेला रहना तो इस सत्र से या अन्य भागम-विधानों से स्पष्ट सिद्ध हो जाता है, तथापि किस उपाश्रय में निवास करना या न करना अथवा किस तरह जागरूक रहना, यह विधान करना इन सूत्रों का प्राशय है / विभिन्न प्रकार के उपाश्रयों में गीतार्थ भिक्षु के अकेले रहने पर अथवा अनेक अगीतार्थों के रहने पर किन-किन दोषों की सम्भावना रहती है, यह समझने के लिए जिज्ञासुओं को भाष्य का अवलोकन करना चाहिये। उसी प्राशय का कुछ स्पष्टीकरण आगे के सूत्रों में स्वयं प्रागमकार ने किया है। व्यव. भाष्य में इस उद्देशक का सार गुजराती भाषा में दिया है, उसमें भी इन चारों सूत्रों का अर्थ उपाश्रय से संबंधित किया है। ग्रामादि से संबंधित अर्थ करना संगत भी नहीं होता है, क्योंकि प्रतिमाधारी जिनकल्पी आदि एकलविहार साधना करने वालों के तथा परिस्थितिक एकलविहार करने वालों के विचरण में ऐसे विधान का पालन होना भी अशक्य होता है। अतः भाष्यकारकृत अर्थ विवेचन को प्रामाणिक मानकर उपाश्रय से संबंधित अर्थ करना ही उचित है एवं आगमसम्मत है। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382] [व्यवहारसूत्र शुक्र-पुद्गल निकालने का प्रायश्चित्तसूत्र 8. जत्थ एए बहवे इत्थीओ य पुरिसा य पण्हावेंति, तत्थ से समणे निग्गंथे अन्नयरंसि अचित्तंसि सोयंसि सुक्कपोग्गले निग्घाएमाणे हत्थकम्मपडिसेवणपत्ते आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं / 9. जत्थ एए बहवे इत्थीओ य पुरिसा य पण्हावेंति तत्थ से समणे णिग्गंथे अन्नयरंसि अचित्तंसि सोयंसि सुक्कपोग्गले निग्धाएमाणे मेहुणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं। 8. जहां पर ये अनेक स्त्री-पुरुष मैथुनसेवन करते हैं, वहां जो श्रमण निर्ग्रन्थ हस्तकर्म के संकल्प से किसी प्रचित्त स्रोत में शुक्रपुद्गल निकाले तो उसे अनुद्घातिक मासिक प्रायश्चित्त प्राता है। 9. जहां पर ये अनेक स्त्री-पुरुष मैथुनसेवन करते हैं, वहां जो श्रमण निर्ग्रन्थ मैथनसेवन के संकल्प से किसी अचित्त स्रोत में शुक्र-पुद्गल निकाले तो उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक प्रायश्चित्त प्राता है। विवेचन-एकाकी भिक्षु के रहने के स्थानसंबंधी एवं कल्पसंबंधी विधि-निषेध के अनंतर इन सूत्रों में ब्रह्मचर्य महाव्रत के भंग करने की स्थिति का दो प्रकारों से कथन किया गया है। इस प्रकार की दूषित प्रवृत्ति की संभावना एकांत स्थान में ही अधिक संभव रहती है / यदि अनेक अगीतार्थ भिक्षु गीतार्थ की निश्रा बिना रहते हों तो गीतार्थ का संरक्षण न होने से उनमें भी ऐसी दूषित प्रवृत्ति का होना संभव है तथा गीतार्थ भिक्षु भी यदि अकेला रहे तो एकांत स्थान में सूत्रोक्त दूषित प्रवृत्ति की अधिक संभावना रहती है। इसलिए अगीतार्थ विहार और एकाकी विहार संबंधी सूत्र के अनंतर ही यह प्रायश्चित्त विधायक सूत्र कहा गया है / दशवकालिकसूत्र चूलिका 2 गा. 10 में भी परिस्थितिवश एकलविहार का विधान प्रथमद्वितीय चरण में करने के साथ ही शास्त्रकार ने तृतीय-चतुर्थ चरण में पापों के परित्याग करने की और कामभोगों में आसक्त न होते हुए विचरण करने की शिक्षा दी है / अत: सामान्य तरुण साधकों को और विशेषकर एकाकी भिक्षुत्रों को इस विषय में विशेष सावधान रहना चाहिए / अर्थात् आगमस्वाध्याय आदि के द्वारा संयम भावों की अत्यधिक पुष्टि करते हुए रहना चाहिए। गच्छस्थित साधूत्रों के उक्त प्रवृत्ति करने में गच्छ की या गच्छस्थित साधुओं की लज्जा आदि के कारण भी कुछ सुरक्षा हो जातो है, किन्तु एकाको भिक्षु के लिये उक्त सूत्रगत दूषित प्रवृत्ति के करने में पूर्ण स्वतंत्रता रहती है / दोनों सूत्रों में कही गई प्रवृत्ति को करने में भिक्षु को किसी व्यक्ति या स्त्री की आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि दोनों सूत्रों में अचित्त स्रोत (स्थान) का कथन है। वह अचित्त स्थान कोई भी हो सकता है, किन्तु विचारों की परिणति एवं प्रवृत्ति में हस्तकर्म और मैथुनकर्म के दोष को भिन्नता होने से उसका प्रायश्चित्त अलग-अलग कहा गया है। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठा उद्देशक] [383 उक्त दूषित प्रवृत्ति के संकल्पों से बचने के लिए भिक्षु को निम्न सावधानियां भी रखनी चाहिए (1) दूध-दही, घृत, मिष्टान्न, मावा आदि पौष्टिक पदार्थों का सेवन नहीं करना एवं बादाम पिस्ता प्रादि मेवे के पदार्थों का भी त्याग करना। कभी अत्यावश्यक हो तो इन पदार्थों को अल्पमात्रा में लेना और उनका अनेक दिनों तक निरंतर सेवन नहीं करना। (2) एक महीने में कम से कम चार दिन आयंबिल या उपवासादि तपस्या अवश्य करना / (3) सदा ऊनोदरी करना अर्थात् किसी भी समय परिपूर्ण भोजन नहीं करना। (4) शाम के समय आहार नहीं करना या अत्यल्प करना। (5) स्वास्थ्य अनुकूल हो तो एक बार से अधिक प्राहार नहीं करना अथवा दो बार से अधिक नहीं करना। (6) एक बार के आहार में भी द्रव्यों की अल्पतम मर्यादा करना। (7) आहार में मिर्च-मसालों की मात्रा अत्यल्प लेना, अचार, अथाणा आदि का सेवन नहीं करना। (8) तले हुए खाद्य पदार्थों का सेवन नहीं करना / (9) चूर्ण या खट्टे पदार्थों का सेवन नहीं करना / (10) रासायनिक औषधियों या ऊष्मावर्धक औषधियों का सेवन नहीं करना। संभवतः अन्य औषध का सेवन भी नहीं करना / (11) महिने में कम से कम 10-15 दिन पोरिसी करना एवं कम से कम 15 दिन रूक्ष पाहार या सामान्य पाहार करना अर्थात् विगय का त्याग करना / (12) खाद्य और पेय पदार्थ अत्यंत उष्ण हों तो शीतल करके खाना या पीना, चाय काफी का सेवन नहीं करना। (13) स्त्रियों का निकट संपर्क नहीं करना एवं उनके अंगोपांग और रूप को देखने की रुचि नहीं रखना। (14) दिन को नहीं सोना / (15) भोजन के बाद कमर झुकाकर नहीं बैठना और न ही सोना / (16) विहार या भिक्षाचरी प्रादि श्रम अवश्य करना अथवा तपश्चर्या या खड़े रहने की प्रवृत्ति रखना। (17) उत्तराध्ययनसूत्र, प्राचारांगसूत्र, सूयगडांगसूत्र एवं दशवकालिकसूत्र का स्वाध्याय, वाचना, अनुप्रेक्षा आदि करते रहना / (18) नियमित भक्तामरस्त्रोत या प्रभुभक्ति एवं प्राणायाम अवश्य करना। (19) सोते समय और उठते समय कुछ देर आत्मचिन्तन अवश्य करना / Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384] [व्यवहारसूत्र (20) क्रोध के प्रसंग उपस्थित होने पर मौन रखना, आवेशयुक्त न बोलने का अभ्यास करना। (21) यथासमय स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग अवश्य करना। प्रश्नव्याकरणसूत्र में भी इस विषय में निम्न सूचना की गई हैब्रह्मचर्य का अनुपालन करने वाले पुरुष को इन कार्यों का त्याग करना चाहिए विषयराग, स्नेहराग, द्वेष और मोह की वृद्धि करने वाला प्रमाद तथा पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी साधनों का शील-प्राचार, घतादि की मालिश करना, तेल लगाकर स्नान करना, बार-बार बगल, शिर, हाथ-पैर और मुंह धोना, मर्दन करना, पैर आदि दबाना, पगचम्पी करना, परिमर्दन करना, सारे शरीर को मलना, विलेपन करना, सुगन्धित चूर्ण-पाउडर से शरीर को सुवासित करना, अगर आदि का धूप देना, शरीर को सजाना, सुशोभित बनाना, बाकुशिक कर्म करना, नखों, केशों एवं वस्त्रों को संवारना, हंसी-मजाक करना, विकारयुक्त भाषण करना, गीत, वादित्र सुनना, नटों, नत्यकारों, रस्से पर खेल दिखलाने वालों और कुश्तीबाजों का तमाशा देखना तथा इसी प्रकार की अन्य बातें जिनसे तपश्चर्या, संयम एवं ब्रह्मचर्य का आंशिक विनाश या पूर्णतः विनाश होता है, वैसी समस्त प्रवृत्तियों का ब्रह्मचारी पुरुष को सदैव के लिए त्याग कर देना चाहिए। इन त्याज्य व्यवहारों के साथ आगे कहे जाने वाले व्यापारों से अन्तरात्मा को भावित करना चाहिये, यथा-- स्नान नहीं करना, दन्तधावन नहीं करना, जमे हुए या इससे भिन्न मैल को धारण करना, मौनव्रत धारण करना, केशों का लुचन, क्षमा, इन्द्रियनिग्रह, अचेल (वस्त्ररहित) होना अथवा अल्पवस्त्र धारण करना, भूख-प्यास सहना, अल्प उपधि रखना, सर्दी-गर्मी सहना, काष्ठ की शय्या या जमीन पर प्रासन करना, भिक्षादि के लिए गृहस्थ के घर में जाना और प्राप्ति या अप्राप्ति को समभाव से सहना, मान-अपमान-निन्दा को एवं दंशमशक के क्लेश को सहन करना, द्रव्यादि सम्बन्धी अभिग्रह करना, तप तथा मूलगुण आदि एवं विनय प्रवृत्तियों से अन्तःकरण को भावित करना, जिससे ब्रह्मचर्यव्रत अत्यन्त दृढ हो। गच्छगत और एकाकी विहारी सभी तरुण भिक्षुओं को ये सावधानियां रखना अत्यंत हितकर हैं / इन सावधानियों से युक्त जीवन व्यतीत करने पर प्रस्तुत सूत्रोक्त दूषित स्थिति के उत्पन्न होने की प्रायः संभावना नहीं रहती है। सूत्रगत दुषित प्रवृत्ति से भिक्षु का स्वास्थ्य एवं संयम दूषित होता है एवं पुण्य क्षीण होकर सर्वथा दु:खमय जीवन बन जाता है / अतः सूचित सभी सावधानियों के साथ शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। अन्य-गण से आये हुए को गण में सम्मिलित करने का निषेध 10. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा निग्गथि अण्णगणाओ आगयं खुयायारं, सबलायारं, भिन्नायारं, संकिलिट्ठायारं तस्स ठाणस्स अणालोयावेत्ता अपडिक्कमावेत्ता, अनिदावेत्ता, अगरहावेत्ता, अविउट्टावेत्ता, अविसोहावेत्ता, अकरणाए अणभुट्ठावेत्ता, अहारिहं पायच्छित्तं Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठा उद्देशक] [385 अपडिवज्जावेत्ता उवट्ठावेत्तए वा, सभुजित्तए वा, संवसित्तए वा तीसे इत्तरियं दिसंवा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 11. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा निग्गंथं अन्नगणाओ आगयं खुयायारं जाव संकिलिट्ठायारं, तस्स ठाणस्स अणालोयावेत्ता जाव अहारिहं पायच्छित्तं अपडिवज्जावेत्ता उवट्ठावेत्तए वा सभुजित्तए वा संवसित्तए वा तस्स इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 10. खण्डित, शबल, भिन्न और संक्लिष्ट आचार वाली अन्य गण से आई हुई निर्ग्रन्थी को सेवित दोष की आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा, व्युत्सर्ग एवं प्रात्म-शुद्धि न करा लें और भविष्य में पुनः पापस्थान सेवन न करने की प्रतिज्ञा कराके दोषानुरूप प्रायश्चित्त स्वीकार न करा लें तब तक निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को उसे पुनः चारित्र में उपस्थापित करना, उसके साथ साम्भोगिक व्यवहार करना और साथ में रखना नहीं कल्पता है तथा उसे अल्पकाल के लिए दिशा या अनुदिशा का निर्देश करना या धारण करना भी नहीं कल्पता है। 11. खण्डित यावत् संक्लिष्ट आचार वाले अन्य गण से आये हुए निर्ग्रन्थ को सेवित दोष की आलोचना यावत् दोषानुरूप प्रायश्चित्त स्वीकार न करा लें तब तक निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को उसे पुनः चारित्र में उपस्थापित करना, उसके साथ साम्भोगिक व्यवहार करना और साथ में रखना नहीं कल्पता है तथा उसे अल्पकाल के लिए दिशा या अनुदिशा का निर्देश करना या धारण करना भी नहीं कल्पता है। विवेचन ब्रह्मचर्यभंग आदि के कारण कोई साधु-साध्वी स्वतः गच्छ छोड़कर किसी के पास आवे अथवा गच्छ वालों के द्वारा गच्छ से निकाल दिये जाने पर आवे तो उसे रखने का विधि-निषेध प्रस्तुत सूत्रों में किया गया है / क्षत-प्राचार आदि शब्दों का स्पष्टार्थ तीसरे उद्देशक में देखें। सूत्र में दुषित प्राचार वाले साधु-साध्वी को उपस्थापित करने का कहा गया है, साथ ही आलोचना, प्रायश्चित्त के द्वारा उसकी शुद्धि करना भी आवश्यक कहा है। इस प्रकार शुद्धि करके उपस्थापना करने के बाद ही उसके साथ आहार सहनिवास आदि किये जा सकते हैं और तभी उसके लिए प्राचार्य, उपाध्याय या गुरु का निर्देश किया जा सकता है / सूत्र में प्राचार्य, उपाध्याय का निर्देश करने के लिए या उनकी निश्रा स्वीकार करने के लिये "दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा" शब्दों का प्रयोग किया गया है। उन शब्दों में क्षताचार वाले भिक्षु को आचार्य आदि पद देने-लेने का अर्थ करना उचित नहीं है। क्योंकि अक्षत-आचार वाले भिक्षु को ही आगम में प्राचार्य आदि पदों के योग्य कहा गया है। अतः दिशा, अनुदिशा का उद्देश करने का तात्पर्य यह समझना चाहिए कि उस उपस्थापित साधु या साध्वी के प्राचार्य, उपाध्याय या प्रवर्तिनी कौन हैं, यह निर्देश करना / भाष्यकार ने भी यही अर्थ इन शब्दों का किया है / Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386] [व्यवहारसूत्र प्रस्तुत सूत्रद्वय के स्थान पर लिपिदोष आदि कारणों से विभिन्न प्रतियों के मूल पाठों में भिन्नता हो गई है। कहीं पर साध्वी के दो सूत्र हैं, कहीं पर साधु-साध्वी के चार सूत्र हैं। किन्तु भाष्यव्याख्या के आधार से प्रथम साध्वी का और द्वितीय साधु का सूत्र रखा गया है। छठे उद्देशक का सारांश सूत्र 1 ज्ञातिजनों के घरों में जाने के लिये प्राचार्यादि की विशिष्ट प्राज्ञा प्राप्त करनी चाहिए। अगीतार्थ या अबहुश्रु त भिक्षु को अकेले नहीं जाना चाहिए, गीतार्थ भिक्षु के साथ में ही जाना चाहिए। वहां घर में पहुंचने के पूर्व बनी हुई वस्तु ही लेनी चाहिए, किन्तु बाद में निष्पन्न हुई वस्तु नहीं लेनी चाहिए। आचार्य-उपाध्याय के आचार सम्बन्धी पांच अतिशय (विशेषताएं) होते हैं और गणावच्छेदक के दो अतिशय होते हैं। अकृतसूत्र (अगीतार्थ) अनेक साधुओं को कहीं निवास करना भी नहीं कल्पता है, किन्तु परिस्थितिवश उपाश्रय में एक-दो रात रह सकते हैं, अधिक रहने पर वे सभी प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। अनेक वगड़, द्वार या मार्ग वाले उपाश्रय में एकाकी भिक्षु को नहीं रहना चाहिए और एक वगड़, द्वार या मार्ग वाले उपाश्रय में भी उभयकाल धर्मजागरणा करते हुए रहना चाहिए। स्त्री के साथ मैथुनसेवन न करते हुए भी हस्तकर्म के परिणामों से और कुशीलसेवन के परिणामों से शुक्रपुद्गलों के निकालने पर भिक्षु को क्रमश : गुरुमासिक या गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है / 10-11 अन्य गच्छ से आये हुए क्षत-पाचार वाले साधु-साध्वी को पूर्ण पालोचना, प्राय श्चित्त कराने के साथ उपस्थापित किया जा सकता है, उसके साथ आहार या निवास किया जा सकता है और उसके प्राचार्य, उपाध्याय, गुरु आदि की निश्रा निश्चित्त की जा सकती है। उपसंहार इस उद्देशक मेंसूत्र 1 ज्ञातकुल में प्रवेश करने का, प्राचार्यादि के अतिशयों का, 4-5 गीतार्थ अगीतार्थ भिक्षुत्रों के निवास का, एकल विहारी भिक्षु के निवास का, 8-9 शुक्रपुद्गल निष्कासन के प्रायश्चित्त का, 10-11 क्षताचार वाले आए हुए साधु-साध्वियों को रखने का, इत्यादि विषयों का कथन किया गया है। // छट्ठा उद्देशक समाप्त // 2-3 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक अन्य-गण से आई साध्वी के रखने में परस्पर पच्छा 1. जे निग्गंथा य निग्गंथीओ य संभोइया सिया, नो कप्पइ निग्गंथीणं निग्गंथे अणापुच्छित्ता निग्गथि अन्नगणाओ प्रागयं खुयायारं जाव संकिलिट्ठायारं तस्स ठाणस्स अणालोयावेत्ता जाव अहारिहं पायच्छित्तं अपडिवज्जावेत्ता पुच्छित्तए वा, वाएत्तए था, उवट्ठावेत्तए वा, संभु जित्तए था, संवसित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा, अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 2. कप्पइ निग्गंथाणं निग्गंथीओ आपुच्छित्ता वा, प्रणापुच्छित्ता वा, निग्गंथीं अन्नगणाओ प्रागयं खुयायारं जाव संकिलिढायारं तस्स ठाणस्स आलोयावेत्ता जाव पायच्छित्तं पडिवज्जावेत्ता पुच्छित्तए वा, वाएत्तए वा, उवट्ठावेत्तए वा, संभु जित्तए वा, संवसित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा, अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा तं च निग्गंथीओ नो इच्छेज्जा, सयमेव नियं ठाणे / 1. जो निर्ग्रन्थ-निर्गन्थियां साम्भोगिक हैं और यदि किसी निम्रन्थ के समीप कोई अन्य गण से खण्डित यावत् संक्लिष्ट प्राचार वाली निर्ग्रन्थी पाए तो निर्ग्रन्थ को पूछे बिना और उसके पूर्वसेवित दोष की आलोचना यावत् दोषानुरूप प्रायश्चित्त स्वीकार कराये बिना उससे प्रश्न पूछना, उसे वाचना देना, चारित्र में पुनः उपस्थापित करना, उसके साथ बैठकर भोजन करना और साथ में रखना नहीं कल्पता है तथा उसे अल्पकाल के लिए दिशा या अनुदिशा का निर्देश करना या धारण करना भी नहीं कल्पता है। 2. निर्ग्रन्थ के समीप यदि कोई अन्य गण से खण्डित यावत् संक्लिष्ट आचार वाली निर्ग्रन्थी आए तो निर्ग्रन्थियों को पूछकर या बिना पूछे भी सेवित दोष की आलोचना यावत् दोषानुरूप प्रायश्चित्त स्वीकार कराके उससे प्रश्न पूछना, उसे वाचना देना, चारित्र में पुनः उपस्थापित करना, उसके साथ बैठकर भोजन करने की और साथ रखने की आज्ञा देना कल्पता है तथा उसे अल्पकाल की दिशा या अनुदिशा का निर्देश करना या धारण करना कल्पता है, किन्तु यदि निर्ग्रन्थियां उसे न रखना चाहें तो उसे चाहिए कि वह पुनः अपने गण में चली जाए / विवेचन–पूर्व उद्देशक में खण्डित प्राचार वाले निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी के अन्य गण से आने पर उसके आलोचना प्रायश्चित्त करने का विधान किया गया है और प्रस्तुत सूत्रद्वय में केवल साध्वी के आने पर साम्भोगिक श्रमण या श्रमणी को पूछने सम्बन्धी विधान किया गया है। यदि निर्ग्रन्थी के पास ऐसी साध्वी आवे तो वह अपने साम्भोगिक साधुओं को अर्थात् प्राचार्यउपाध्याय आदि को पूछकर, उनकी आज्ञा होने पर ही उस साध्वी को रख सकती है, उसे वाचना देना-लेना कर सकती है, उपस्थापित कर सकती है अथवा उसके साथ आहार या साथ में बैठना आदि व्यवहार कर सकती है। किन्तु पूछे बिना, सलाह लिए बिना ऐसी साध्वी के साथ उक्त कार्य करना Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388] [व्यवहारसूत्र या निर्णायक उत्तर देना नहीं कल्पता है। प्राचार्य आदि यदि अन्यत्र हों तो उनकी आज्ञा प्राप्त होने तक प्रतीक्षा करनी चाहिए। ___ यदि निम्रन्थ के पास अर्थात् प्राचार्यादि के पास ऐसी साध्वी आए तो वे उसके लिये साध्वियों को अर्थात् प्रवर्तिनी को पूछकर निर्णय ले सकते हैं अथवा कभी बिना पूछे भी निर्णय कर उस साध्वी को प्रतिनी के सुपुर्द कर सकते हैं और उस साध्वी के इत्वरिक प्राचार्य, उपाध्याय या प्रवर्तिनी का निर्देश भी कर सकते हैं। उसके बाद विषम प्रकृति आदि किसी भी कारण से प्रतिनी उसे न रख सके तो उसे मुक्त कर देना चाहिए, जिससे वह स्वतः अपने पूर्वस्थान में चली जावे / निर्ग्रन्थी के लिए प्राचार्य आदि को पूछना आवश्यक इसलिए है कि वे उसके छल-प्रपंचों को या आने वाले विघ्नों को जान सकते हैं और उस साध्वी के लक्षणों से उसके भविष्य को भी जान सकते हैं। प्राचार्यादि के द्वारा रखी गई साध्वी को यदि प्रतिनी नहीं रखती हो तो उसका कारण यह हो सकता है कि पूर्व प्रवर्तिनी के साथ उनकी मित्रता हो या शत्रुता हो अथवा उस साध्वी से किसी अनिष्ट का भय हो, इत्यादि अनेक कारण भाष्य में विस्तार से बताये गये हैं। सामान्यतया तो प्रवतिनी आदि की सलाह लेकर ही साध्वी को रखना चाहिए। सम्बन्धविच्छेद करने सम्बन्धी विधि-निषेध 3. जे निग्गंथा य निग्गंथीयो य संभोइया सिया, नो णं कप्पइ निग्गंथाणं पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए / कप्पइ णं पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए। ___ जत्थेव अण्णमण्णं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा-~-"अहं णं अज्जो ! तुमए सद्धि इमंमि कारणम्मि पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेमि / " से य पडितप्पेज्जा, एवं से नो कप्पइ पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसभोगं करेत्तए / से य नो पडितप्पेज्जा, एवं से कप्पइ पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए / 4. जे निग्गंथा य निग्गंथीओ य संभोइया सिया, नो णं कप्पइ निग्गंथीणं पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए / कप्पइ णं पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए। जत्थेव ताओ अप्पणो आयरिय-उवज्झाए पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा—“अहं णं भंते ! प्रमुगीए अज्जाए सद्धि इमम्मि कारणम्मि पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेमि / " साय पडितप्पेज्जा, एवं से नो कप्पइ पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए / साय नो पडितप्पेज्जा एवं से कप्पइ पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए / 3. जो निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियां सांभोगिक हैं, उनमें निर्ग्रन्थ को परोक्ष में साम्भोगिक व्यवहार बन्द करके विसम्भोगी करना नहीं कल्पता है, किन्तु प्रत्यक्ष में साम्भोगिक व्यवहार बन्द करके उसे विसम्भोगी करना कल्पता है / Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक] [389 जब एक दूसरे से मिलें तब इस प्रकार कहे कि-'हे प्रार्य ! मैं अमुक कारण से तुम्हारे साथ साम्भोगिक व्यवहार बन्द करके तुम्हें विसम्भोगी करता हूँ।" इस प्रकार कहने पर वह यदि पश्चात्ताप करे तो प्रत्यक्ष में भी उसके साथ साम्भोगिक व्यवहार बन्द करके उसे विसम्भोगी करना नहीं कल्पता है / यदि वह पश्चात्ताप न करे तो प्रत्यक्ष में उसके साथ साम्भोगिक व्यवहार बन्द करके उसे विसम्भोगी करना कल्पता है / 4. जो निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थियां साम्भोगिक हैं, उनमें निम्रन्थी को प्रत्यक्ष में साम्भोगिक व्यवहार बन्द करके विसम्भोगी करना नहीं कल्पता है / किन्तु परोक्ष में साम्भोगिक व्यवहार बन्द करके उसे विसंभोगी करना कल्पता है / जब वे अपने प्राचार्य या उपाध्याय की सेवा में पहुंचे तब उन्हें इस प्रकार कहे कि---“हे भंते! मैं अमुक आर्या के साथ अमुक कारण से परोक्ष रूप में साम्भोगिक व्यवहार बन्द करके उसे विसम्भोगी करना चाहती हूं।" तब वह निर्ग्रन्थी यदि (आचार्य-उपाध्याय के समीप अपने सेवितदोष का) पश्चात्ताप करे तो उसके साथ परोक्ष में भी साम्भोगिक व्यवहार बन्द करना व उसे विसम्भोगी करना नहीं कल्पता है। यदि वह पश्चात्ताप न करे तो परोक्ष में उसके साथ साम्भोगिक व्यवहार बन्द करके उसे विसम्भोगी करना कल्पता है। विवेचन-इन दो सूत्रों में साम्भोगिक व्यवहार के विच्छेद करने की विधि बताई गई है। भिक्षु को यदि भिक्षु के साथ व्यवहार बन्द करना हो तो उसके समक्ष दोषों का स्पष्ट कथन करते हुए वे व्यवहार बन्द करने को कह सकते हैं। सूत्र में प्रयुक्त "भिक्षु" शब्द से यहां "प्राचार्य" समझना चाहिए। क्योंकि प्राचार्य ही गच्छ के अनुशास्ता होते हैं। उन्हें जानकारी दिए बिना किसी भी साधु को अन्य साधु के साथ व्यवहार बन्द करना उचित नहीं है। साध्वियों को साधु के समक्ष अर्थात् प्राचार्यादि के समक्ष निवेदन करना आवश्यक होता है, किन्तु प्राचार्यादि साधु-साध्वियों की सलाह लिये बिना ही किसी भी साधु-साध्वी को असाम्भोगिक कर सकते हैं। भिक्षु विसंभोग किए जाने वाले साधुओं के समक्ष प्राचार्यादि को कहें और साध्वियां विसंभोग की जाने वाली साध्वियों की अनुपस्थिति में प्राचार्यादि से कहें / तब वे उनसे पूछ-ताछ करें, यह दोनों सूत्रों में आये प्रत्यक्ष और परोक्ष-विसंभोग का तात्पर्य है। इस प्रकार निवेदन के पश्चात् सदोष साधु या साध्वी. अपने दोषों का पश्चात्ताप करके सरलता एवं लघुता धारण कर ले तो उसे प्रायश्चित्त देकर उसके साथ संबंध कायम रखा जा सकता है / पश्चात्ताप न करने पर संबंधविच्छेद कर दिया जाता है। ठाणांगसूत्र अ. 3 तथा अ. 9 में संभोगविच्छेद करने के कारण कहे गये हैं और भाष्य में भी ऐसे अनेक कारण कहे हैं। उनका सारांश यह है कि 1. महाव्रत, समिति, गुप्ति एवं समाचारी में उपेक्षापूर्वक चौथी Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390] [व्यवहारसूत्र बार दोष लगाने पर, 2. पावस्थादि के साथ बारम्बार संसर्ग करने पर तथा 3. गुरु ग्रादि के प्रति विरोधभाव रखने पर उस साधु-साध्वी के साथ संबंधविच्छेद कर दिया जाता है। प्रवजित करने आदि के विधि-निषेध 5. नो कप्पड निग्गंथाणं निमगंथी अप्पणो अट्टाए पवावेत्तए वा, मुंडावेत्तए वा, सेहावेत्तए वा, उवट्ठावेत्तए वा, संवसित्तए वा, संभु जित्तए वा, तोसे इत्तरियं दिसं वा, अणुविसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 6. कप्पइ निग्गंथाणं निग्गंथि अन्नेसि अट्टाए पवावेत्तए वा जाव संभुजित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसं वा, अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए बा। 7. नो कप्पइ निग्गंथीणं निग्गंथं अप्पणो अढाए पवावेत्तए वा जाव संभुजित्तए वा, तीसे इत्तरियं दिसंवा अणुविसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 8. कप्पइ निग्गंथीणं निग्गथं अण्णेसि अट्टाए पब्यावेत्तए वा जाव संभ जित्तए वा, तोसे इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 5. निर्ग्रन्थी को अपनी शिष्या बनाने के लिए प्रजित करना, मुडित करना, शिक्षित करना, चारित्र में पुनः उपस्थापित करना, उसके साथ रहना और साथ बैठकर भोजन करने के लिए निर्देश करना निग्रन्थ को नहीं कल्पता है तथा अल्पकाल के लिए उसके दिशा या अनुदिशा का निर्देश करना एवं उसे धारण करना नहीं कल्पता है। 6. अन्य की शिष्या बनाने के लिए किसी निर्ग्रन्थी को प्रव्रजित करना यावत् साथ बैठकर भोजन करने के लिए निर्देश करना निर्ग्रन्थ को कल्पता है तथा अल्पकाल के लिए उसकी दिशा या अनुदिशा का निर्देश करना एवं उसे धारण करना कल्पता है। 7. निर्ग्रन्थ को अपना शिष्य बनाने के लिए प्रवजित करना यावत् साथ बैठकर भोजन करने के लिए निर्देश करना निर्ग्रन्थी को नहीं कल्पता है तथा अल्पकाल के लिए उसकी दिशा या अनुदिशा का निर्देश करना एवं उसे धारण करना नहीं कल्पता है। 8. निर्ग्रन्थ को अन्य का शिष्य बनाने के लिए प्रव्रजित करना, साथ बैठकर भोजन करने के लिए निर्देश करना निर्ग्रन्थी को कल्पता है तथा अल्पकाल के लिए उसकी दिशा या अनुदिशा का निर्देश करना एवं उसे धारण करने के लिए अनुज्ञा देना कल्पता है। विवेचन--सामान्यतया साधु की दीक्षा प्राचार्य, उपाध्याय के द्वारा एवं साध्वी की दीक्षा प्राचार्य, उपाध्याय या प्रवर्तिनी के द्वारा दी जाती है। तथापि कभी कोई गीतार्थ साधु किसी भी साधु या साध्वी को दीक्षित कर सकता है / उसी Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक] [391 प्रकार कोई भी गीतार्थ साध्वी किसी भी साधु या साध्वी को दीक्षित कर सकती है। किन्तु उन्हें प्राचार्य की प्राज्ञा लेना आवश्यक होता है / किसी भी साधु को दीक्षित करना हो तो प्राचार्य, उपाध्याय के लिए दीक्षित किया जा सकता है और साध्वी को दो क्षित करना हो तो आचार्य, उपाध्याय या प्रवर्तिनी के लिए दीक्षित किया जा सकता है। किंतु साधु अपने लिए साध्वी को और साध्वी अपने लिये साधु को दीक्षित नहीं कर सकती। ___ भाष्य में बताया गया है कि इस प्रकार से परस्पर एक-दूसरे के लिए दीक्षित करने पर जनसाधारण में अनेक प्रकार को आशंकाएं उत्पन्न हो सकती हैं, जिससे उस साधु-साध्वी की अथवा जिनशासन की हीलना होती है। कठिन-शब्दार्थ "पव्वावेत्तए" = दीक्षित करना / "मुंडावेत्तए" = लुचन करना। "सिक्खावेत्तए" = ग्रहण शिक्षा में दशवकालिकसूत्र पढ़ाना, आसेवन शिक्षा में प्राचारविधि वस्त्र-परिधान आदि कार्यों की विधि बताना / उवदावेत्तए = बड़ी दीक्षा देना। संभु जित्तए = आहारादि देना। संवासित्तए-साथ रखना / "इत्तरियं-अल्पकालीन / "दिसं"= प्राचार्य "अणुदिसं" = उपाध्याय और प्रतिनी / "उद्दिसित्तए = निश्रा का निर्देश करना / धारित्तए = नवदीक्षित भिक्षु के द्वारा अपनी दिशा अनुदिशा का धारण करना / दरस्थ क्षेत्र में रहे हुए गुरु आदि के निर्देश का विधि-निषेध 9. नो कप्पइ निग्गंथीणं विइकिट्ठियं दिसं वा अणुविसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा / 10. कप्पइ निग्गंथाणं विइकिट्ठियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 9. निर्ग्रन्थियों को दूरस्थ प्रतिनी या गुरुणी का उद्देश करना या धारण करना नहीं कल्पता है। 10. निर्ग्रन्थ को दूरस्थ प्राचार्य या गुरु आदि का उद्देश करना या धारण करना कल्पता है / विवेचन-पूर्वसूत्र में अन्य के लिए दीक्षित करने का विधान किया गया है और प्रस्तुत सूत्र में भी उसी विषय का कुछ विशेष विधान है। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392] [व्यवहारसूत्र किसी भी साध्वी को कहीं पर भी दीक्षित होना हो तो उस क्षेत्र से अत्यन्त दूर रही हुई प्रवतिनी का निर्देश करके किसी के पास दीक्षित होना नहीं कल्पता है, क्योंकि वह स्वयं अकेली जा नहीं सकती, अधिक दूर होने से कोई पहुँचा नहीं सकते। लम्बे समय के अन्तर्गत उसका भाव परिणमन हो जाय, उसकी गरुणी बीमार हो जाय या काल कर जाय इत्यादि स्थितियों में अनेक संकल्प-विकल्प या क्लेश, अशांति उत्पन्न होने की संभावना रहती है, इत्यादि कारणों से अतिदूरस्थ गुरुणी प्रादि का निर्देश कर किसी के पास दीक्षित होना साध्वी के लिए निषेध किया गया है। सामान्य भिक्षु को भी दूरस्थ आचार्य आदि की निश्रा का निर्देश कर किसी के पास दीक्षित होना नहीं कल्पता है, ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि साध्वी के लिए कहे गये दोषों की संभावना साधु के लिए भी हो सकती है। फिर भी द्वितीय सूत्र में जो छूट दी गई है, उसका आशय भाष्य में यह बताया गया है कि यदि दीक्षित होने वाला भिक्षु पूर्ण स्वस्थ एवं ज्ञानी, संविग्न और स्वयं धर्मोपदेशक है तथा उसका प्राचार्य भी ऐसा ही संविग्न है तो दूरस्थ क्षेत्र में किसी के पास दीक्षित हो सकता है। ऐसे भिक्षु के लिए भाष्य में कहा है कि मिच्छत्तादि दोसा, जे वुत्ता ते उ गच्छतो तस्स / एगागिस्सवि न भवे, इति दूरगते वि उद्दिसणा॥ --भा. गा.१४२ उस योग्य गुणसंपन्न भिक्षु के अकेले जाने पर भी पूर्वोक्त मिथ्यात्वादि दोषों की संभावना नहीं रहती है, अत: उसे दूरस्थ प्राचार्य, उपाध्याय का निर्देश करके दीक्षा दी जा सकती है / __यहां 'दिसं-अणुदिसं' के अर्थ-भ्रम के कारण इन सूत्रों का विचरण से संबंधित अर्थ किया जाता है / उसे भ्रांतिपूर्ण अर्थ समझना चाहिए। कलह-उपशमन के विधि-निषेध 11. नो कप्पद निग्गंथाणं विकिट्ठाई पाहुडाई विप्रोसवेत्तए। 12. कप्पइ निग्गंथीणं विइकिट्ठाई पाहुडाई विओसवेत्तए। 11. निर्ग्रन्थों में यदि परस्पर कलह हो जाए तो उन्हें दूर क्षेत्र में रहे हुए ही उपशान्त होना या क्षमायाचना करना नहीं कल्पता है / 12. निर्ग्रन्थियों में यदि परस्पर कलह हो जाए तो उन्हें दूरवर्ती क्षेत्र में रहते हुए भी उपशांत होना या क्षमायाचना करना कल्पता है / विवेचन–साधु-साध्वी को कलह होने के बाद क्षमायाचना किये बिना विहार आदि करने का निषेध बृहत्कल्प उ. 4 में किया गया है / तथापि कभी दोनों में से एक की अनुपशांति के कारण कोई विहार करके दूर देश में चला जाय और बाद में उस अनुपशांत साधु-साध्वी के मन में स्वत: या किसी की प्रेरणा से क्षमायाचना का भाव उत्पन्न हो तो साध्वी को क्षमापणा के लिए अतिदूर क्षेत्र Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक] [393 में नहीं जाना चाहिए किंतु अन्य किसी जाने वाले भिक्षु के साथ क्षमायाचना का सन्देश भेज देना चाहिए, किन्तु भिक्षु को यथास्थान जाकर ही क्षमायाचना करना चाहिए / इस अलग-अलग विधान का कारण पूर्वसूत्र में कहे अनुसार ही समझ लेना चाहिए कि साध्वो का जाना पराधीन है और साधु का अकेला जाना भी संभव है। यदि निकट का क्षेत्र हो तो साध्वी को भी अन्य साध्वियों के साथ वहीं जाकर क्षमापणा करना चाहिए / सूत्रोक्त विधान प्रतिदूरस्थ क्षेत्र की अपेक्षा से है। भाष्य में बताया गया है कि बीच के क्षेत्रों में यदि राजाओं का युद्ध, दुर्भिक्ष आदि कारण उत्पन्न हो गए हों तो भिक्षु को भी अतिदूर क्षेत्र में रहे हुए हो क्षमापणा कर लेना चाहिए। क्षमापणा का धार्मिक जीवन में इतना अधिक महत्त्व है कि यदि किसी के साथ क्षमापणा भाव न आए और ऐसे भावों में कालधर्म प्राप्त हो जाय तो वह विराधक हो जाता है / वह क्षमापण द्रव्य एवं भाव के भेद से दो प्रकार का है—(१) द्रव्य से यदि किसी के प्रति नाराजगी का भाव या रोषभाव हो तो उसे प्रत्यक्ष में कहना कि---"मैं आपको क्षमा करता है और आपके प्रति प्रसन्नभाव धारण करता हूं।" यदि कोई व्यक्ति किसी की भूल के कारण रुष्ट हो तो उससे कहना कि-'मेरी गलती हुई आप क्षमा करें, पुन: ऐसा व्यवहार नहीं करूंगा"। (2) भाव से-शांति सरलता एवं नम्रता से हृदय को पूर्ण पवित्र बना लेना। इस प्रकार के व्यवहार से तथा भावों को शुद्धि-एवं हृदय की पवित्रता के साथ क्षमा करना और क्षमा मांगना यह पूर्ण क्षमापणाविधि है / परिस्थितिवश ऐसा सम्भव न हो तो बृह. उ. 1 सू. 34 के अनुसार स्वयं को पूर्ण उपशांत कर लेने से भी आराधना हो सकती है, किन्तु यदि हृदय में शांति, शुद्धि न हो तो बाह्य विधि से संलेखना, 15 दिन का संथारा और क्षमापणा कर लेने पर भी आराधना नहीं हो सकती है, ऐसा भगवतीसूत्र में आये अभीचिकुमार के वर्णन से स्पष्ट होता है। व्यतिकृष्टकाल में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के लिए स्वाध्याय का विधि-निषेध 13. नो कप्पा निग्गंथाणं विइगिठे काले सज्झायं करेत्तए। 14. कप्पइ निग्गंथोणं विइगिठे काले सज्झायं करेत्तए निग्गंथनिस्साए / 13. निर्ग्रन्थों को व्यतिकृष्ट काल में (उत्कालिक आगम के स्वाध्यायकाल में कालिक आगम का) स्वाध्याय करना नहीं कल्पता है। 14. निर्ग्रन्थ की निश्रा में निर्ग्रन्थियों को व्यतिकृष्टकाल में भो स्वाध्याय करना कल्पता है / विवेचन-जिन आगमों का स्वाध्याय जिस काल में निषिद्ध है, वह काल उन आगमों के लिए व्यतिकृष्ट काल कहा जाता है। साधु-साध्वी को ऐसे समय में स्वाध्याय अर्थात् आगम के मूल पाठ का उच्चारण नहीं करना चाहिए ! वे काल निशीथ उद्देशक 19 में अनेक प्रकार के कहे गए हैं / Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्यवहारसूत्र प्रस्तुत प्रकरण में व्यतिकृष्ट काल से केवल दिन और रात्रि की दूसरी तीसरी पौरिषी समझनी चाहिए अर्थात् इन चारों पौरिषी कालों में कालिकसूत्र का स्वाध्याय करने का निषेध है। नंदीसूत्र में कालिकसूत्रों की संख्या 12+30 = 42 कही है और उत्कालिक सूत्रों की संख्या 29 कही है। अनुयोगद्वारसूत्र में आवश्यकसूत्र को उत्कालिक कहा गया है / इस प्रकार कुल 42+30 =72 आगम श्रुतज्ञान में कहे गए हैं। इनमें से उपलब्ध कालिकसूत्रों का उत्काल में स्वाध्याय करना प्रथम सूत्र में निषिद्ध है, किन्तु दूसरे सूत्र में साध्वी के लिए निर्ग्रन्थों के पास स्वाध्याय करने का प्रापवादिक विधान किया गया है। उसका कारण यह है कि कभी-कभी प्रवर्तिनी या साध्वियों को मूलपाठ उपाध्याय आदि को सुनना आवश्यक हो जाता है, जिससे कि अन्य साधु-साध्वियों में मूलपाठ की परम्परा समान रहे। साधु-साध्वियों के परस्पर आगमों के स्वाध्याय का एवं वाचना का समय दूसरा-तीसरा प्रहर ही योग्य होता है, इसलिए यह छूट दी गई है, ऐसा समझना चाहिए / उत्कालिक सूत्रों का चार संध्याकाल में स्वाध्याय करना भी निषिद्ध है, अतः दशकालिक या नंदीसूत्र का स्वाध्याय संध्याकाल में या दोपहर के समय नहीं किया जा सकता। किसी परम्परा में नंदीसूत्र की पचास गाथा तथा दशवै. की दो चूलिका का स्वाध्याय, अस्वाध्यायकाल के समय भी किया जाता है / इस विषय में ऐसा माना जाता है कि ये रचनाएं मौलिक नहीं हैं। रचनाकार के अतिरिक्त किसी के द्वारा जोड़ी गई हैं। किन्तु यह धारणा भ्रांत एवं अनुचित है, क्योंकि नंदीसूत्र के रचनाकार देववाचक श्री देवद्धिगणि क्षमाश्रमण हैं, यह निर्विवाद है / देववाचक उनका विशेषण है। नंदीसूत्र के चर्णिकार एवं टीकाकार ने देववाचक या देवद्धिगणी को ही नंदीसूत्र का कर्ता स्वीकार किया है। नंदी की 50 गाथाओं में भी अन्त में दूष्यगणी को वंदन करके उनका गुणगान किया हैं। अतः दूष्यगणी के शिष्य देववाचक श्री देवद्धिगणी ही सूत्र के रचनाकार हैं / अन्तिम गाथा के अन्तिम चरण में यह कहा गया है कि "णाणस्स परूवणं वोच्छ" = अब मैं ज्ञान की प्ररूपणा करूगा / इससे भी यह स्पष्ट हो जाता है कि नंदी के कर्ता ही 50 गाथाओं के कर्ता हैं / अतः 50 गाथाओं को सूत्रकार के अतिरिक्त किसी के द्वारा सम्बद्ध मानना प्रमाणसंगत नहीं है तथा नंदीसूत्र का संध्या समय में या अस्वाध्याय समय में उच्चारण नहीं करके उसको 50 गाथाओं का अकाल में स्वाध्याय करना या उच्चारण करना सर्वथा अनुचित्त है। दशवैकालिकसूत्र की चूलिका के विषय में कल्पित कथानक या किंवदन्ती प्रचलित है कि"महाविदेह क्षेत्र से स्थूलिभद्र की बहिन द्वारा ये चूलिकायें लाई गई हैं।" किन्तु इस कथानक की प्रामाणिकता भी संदिग्ध है / क्योंकि किसी ग्रन्थ में दो चूलिकाएं लाने का वर्णन है तो किसी में चार चूलिका लाने का भी वर्णन है। -~-परिशिष्टपर्व, पर्व 9, आव. चू पृ. 188 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक] [395 इन ग्रन्थों से भी दशवैकालिक सूत्र की चूणि प्राचीन है / उसके रचनाकार श्री अगस्त्यसिंहसूरि ने चूलिका की व्याख्या करते हुए स्पष्ट कहा है कि "अब आगे सूत्रकार श्री शय्यंभवाचार्य इस प्रकार कहते हैं।" चूर्णिकार श्री अगस्त्यसिंहसूरि ने दोनों चूलिकाओं की पूर्ण व्याख्या की है और उसमें शय्यभवाचार्य द्वारा रचित होना ही सचित किया है। लेकिन महाविदेह से लाई जाने की बात का कोई कथन उन्होंने नहीं किया। प्रमाण के लिए देखें चूलिका. 2 गा. 14-15 की चूर्णि पृ. 265 / अतः यह किंवदन्ती चूर्णिकार के बाद किसी ने किसी कारण से प्रचारित की है। जो बाद के ग्रन्थों में लिख दी गई है / अतः इन दोनों चूलिकाओं को किसी के द्वारा सम्बद्ध मानकर संध्यासमय में या अस्वाध्यायकाल में इनकी स्वाध्याय करना सर्वथा अनुचित्त है / ऐसा करने से निशीथ उ. 19 के अनुसार प्रायश्चित्त भी आता है। निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी को स्वाध्याय करने का विधि-निषेध 15. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथोण वा असज्झाइए सज्झायं करेत्तए / 16. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सज्माइए सज्झायं करेत्तए / 15. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करना नहीं कल्पता है / 16. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को स्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करना कल्पता है। विवेचन-काल सम्बन्धी अस्वाध्याय 12, प्रौदारिक सम्बन्धी अस्वाध्याय 10 और आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय 10, इस प्रकार कुल 32 अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने का प्रस्तुत सूत्र में निषेध किया गया है और पूर्व सूत्र में कालिक सूत्रों की उत्काल (दूसरे तीसरे प्रहर) के समय स्वाध्याय करने का निषेध किया गया है / अस्वाध्याय सम्बन्धी विस्तृत विवेचन के लिए निशीथ उद्दे, 19 का अध्ययन करना चाहिए। दूसरे सूत्र में यह विधान किया गया है कि यदि किसी प्रकार का अस्वाध्याय न हो तो साधुसाध्वियों को स्वाध्याय करना चाहिए। ज्ञान के अतिचारों के वर्णन से एवं निशीथ उद्दे. 19 सूत्र 13 के प्रायश्चित्त विधान से तथा श्रमणसूत्र के तीसरे पाठ से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वाध्याय के समय निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को अवश्य स्वाध्याय करना चाहिए। इस स्वाध्यायविधान की पूर्ति के लिए किसी परम्परा में प्रतिक्रमण के साथ दशवकालिक की सत्तरह गाथाओं का स्वाध्याय कर लिया जाता है, यह परम्परा अनुचित्त है। क्योंकि प्रतिक्रमण का समय तो अस्वाध्याय का होता है, अतः उसके साथ स्वाध्याय करना श्रागमविरुद्ध भी है तथा आचारांग निशीथसूत्र आदि अनेक कण्ठस्थ किए हुए कालिकवागमों का स्वाध्याय करना भी श्रावश्यक होता है। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 396] [व्यवहारसूत्र अतः सायंकालीन प्रतिक्रमण के पूर्ण हो जाने पर काल का (आकाश का) प्रतिलेखन करने के बाद पूरे प्रहर तक स्वाध्याय करना चाहिए। उसी प्रकार सुबह के प्रतिक्रमण की आज्ञा लेने के पूर्व रात्रि के चौथे प्रहर में स्वाध्याय करने का आगमविधान है, ऐसा समझना चाहिए / किन्तु केवल दशवै. की उन्हीं 17 गाथाओं का अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करके सन्तोष मानना अनुचित परंपरा है। चारों प्रहर में स्वाध्याय न करना यह ज्ञान का अतिचार है एवं लघुचौमासी प्रायश्चित्त का स्थान है / ऐसा जानकर यदि कभी स्वाध्याय न हो तो उसका प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए। किन्तु सेवा या गुरुप्राज्ञा में कहीं समय व्यतीत हुआ हो तो चारों प्रहर में स्वाध्याय न करने पर भी प्रायश्चित्त नहीं आता है / उसी प्रकार रुग्णता आदि अन्य भी आपवादिक कारण समझ लेने चाहिए। अकारण स्वाध्याय की अपेक्षा कर विकथाओं में समय व्यतीत करने पर संयममर्यादा के विपरीत आचरण होता है एवं ज्ञान के अतिचार का सेवन होता है। शारीरिक अस्वाध्याय होने पर स्वाध्याय का विधि-निषेध 17. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अपप्णो असज्झाइए सज्शायं करेत्तए / कप्पइणं अण्णमण्णस्स वायणं दलइत्तए / 17. निर्ग्रन्थों एवं निर्गन्थियों को स्वशरीर सम्बन्धी अस्वाध्याय होने पर स्वाध्याय करना नहीं कल्पता है, किन्तु परस्पर एक दूसरे को वाचना देना कल्पता है / विवेचन-दस औदारिक अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने का सामान्य निषेध सूत्र 16 में किया गया है, तथापि यहां पुन: निषेध करने का कारण यह है कि मासिकधर्म संबंधी या अन्य व्रण संबंधी अपना अस्वाध्याय निरंतर चालू रहता है, उतने समय तक कोई भी सूत्र की वाचना चल रही हो उसे बंद करना या बीच में छोड़ना उपयुक्त नहीं है / अनेक साधु-साध्वियों की सामूहिक वाचना चल रही हो तो कभी किसी के और कभी किसी के अस्वाध्याय का कारण हो तो इस प्रकार अनेक दिन व्यतीत हो सकते हैं और उससे सूत्रों की वाचना में अव्यवस्था हो जाती है / अतः यह सूत्र उक्त मासिकधर्म और अन्य व्रण संबंधी अस्वाध्याय में प्रापवादिक विधान करता है कि रक्त-पीप आदिका उचित विवेक करके साधु या साध्वी परस्पर वाचना का लेन-देन कर सकते हैं। इस प्रकार यहां मासिकधर्म के प्रस्वाध्याय में सूत्रों की वाचना देने-लेने की स्पष्ट छूट दी गई है। किन्तु वाचना के अतिरिक्त स्वत: स्वाध्याय करना या सुनना तो सूत्र के पूर्वाद्ध से निषिद्ध ही है। भाष्यकार और टीकाकार ने इस सूत्र की व्याख्या करते हुए ऋतु-धर्मकाल में एवं व्रण आदि के समय में सूत्रों की वाचना लेने-देने की विधि का विस्तार से स्पष्टीकरण किया है। साथ ही स्वाध्याय करने का तथा प्रविधि से वाचना लेने-देने का प्रायश्चित्त कहा है / अधिक जानकारी के लिए निशीथ. उद्दे. 19 सूत्र 15 का विवेचन देखें। सूत्र में अपने अस्वाध्याय में वाचना देने का विधान है तो भी वाचना देना और लेना दोनों ही समझ लेना चाहिए। क्योंकि वाचना न देने में जो अव्यवस्था संभव रहती है, उससे भी अधिक Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक] [397 अव्यवस्था वाचना न लेने में हो जाती है और अपने अस्वाध्याय में श्रवण करने की अपेक्षा उच्चारण करना अधिक बाधक होता है / अतः वाचना देने की छूट में वाचना लेना तो स्वत: सिद्ध है। फिर भी भाष्योक्त रक्त आदि को शुद्धि करने एवं वस्त्रपट लगाने की विधि के पालन करने का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। निर्ग्रन्थी के लिए आचार्य-उपाध्याय की नियुक्ति की आवश्यकता 18. तिवासपरियाए समणे निग्गंथे तीसं वासपरियाए समणीए निग्गंथीए कप्पड़ उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए। 19. पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे सट्टिवासपरियाए समणीए निग्गंथीए कप्पइ आयरियउवझायत्ताए उद्दिसित्तए / 18. तीस वर्ष की श्रमणपर्याय वाली निर्ग्रन्थी को उपाध्याय के रूप में तीन वर्ष के श्रमणपर्याय वाले निर्ग्रन्थ को स्वीकार करना कल्पता है। 19. साठ वर्ष की श्रमणपर्याय वाली निर्ग्रन्थी को प्राचार्य या उपाध्याय के रूप में पांच वर्ष के श्रमणपर्याय वाले निर्ग्रन्थ को स्वीकार करना कल्पता है। विवेचन-उद्देशक 3 सूत्र 11-12 में साध्वियों को आचार्य, उपाध्याय एवं प्रवर्तिनी इन तीन की निश्रा से रहना आवश्यक कहा है तथा साधुओं को प्राचार्य, उपाध्याय इन दो की निश्रा से रहना आवश्यक कहा है / वह विधान तीन वर्ष की दीक्षापर्याय एवं चालीस वर्ष की उम्र तक के साधुसाध्वियों के लिए किया गया है। प्रस्तुत सूत्रद्विक में तीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाली साध्वी के लिए उपाध्याय की नियुक्ति और साठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाली साध्वी के लिए प्राचार्य की नियुक्ति करना कहा है। इसका तात्पर्य यह है कि तीस वर्ष तक की दीक्षापर्याय वाली साध्वियों को उपाध्याय एवं प्रवर्तिनी के बिना रहना नहीं कल्पता है और साठ वर्ष तक की दीक्षापर्याय वाली साध्वियों को प्राचार्य के बिना रहना नहीं कल्पता है। भाष्य एवं टीका में उक्त वर्षसंख्या में दीक्षा के पूर्व के दस वर्ष और मिलाकर यह बताया है कि 40 वर्ष तक की उम्र वाली साध्वियों को उपाध्याय एवं प्रवर्तिनी की निश्रा बिना नहीं रहना चाहिए और 70 वर्ष तक की उम्र वाली साध्वियों को प्राचार्य की निश्रा बिना नहीं रहना चाहिए / उक्त वर्षसंख्या के बाद यदि पदवीधर कालधर्म को प्राप्त हो जाएँ, या गच्छ छोड़कर शिथिलाचारी बन जाएँ तो ऐसी परिस्थितियों में उन साध्वियों को प्राचार्य आदि की नियुक्ति करना आवश्यक नहीं रहता है।। भाष्य में साध्वियों को 'लता' की उपमा दी है अर्थात् लता जिस तरह वृक्षादि के अवलंबन से ही रहती है उसी प्रकार साध्वियों को भी प्राचार्य के अधीन रहना संयमसमाधि-सुरक्षा के लिए आवश्यक है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398] .[व्यवहारसूत्र बृहत्कल्प उद्दे. 1 में किसी ग्रामादि में ठहरने के लिए भी उन्हें गृहस्वामी आदि की निश्रा से रहने का अर्थात् सुरक्षा सहायता का आश्वासन लेकर ही रहने का विधान किया गया है। आगमकार की दृष्टि से 60 वर्ष की दीक्षापर्याय के बाद प्राचार्य का और तीस वर्ष की दीक्षा के बाद उपाध्याय का होना उन साध्वियों के लिए आवश्यक नहीं है। तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाले भिक्षु की उपाध्याय पद पर नियुक्ति एवं पांच वर्ष की दीक्षापर्याय वाले भिक्षु की प्राचार्य पद पर नियुक्ति संबंधी विस्तृत वर्णन तीसरे उद्देशक से जानना चाहिए। श्रमण के मृतशरीर को परठने की और उपकरणों को ग्रहण करने की विधि ___ 20. गामाणुगामं दूइज्जमाणे भिक्खू य आहच्च वीसुभेज्जा, तं च सरीरगं केइ साहम्मिए पासेज्जा, कप्पइ से तं सरीरगं 'मा सागारिय' ति कटु एगंते अचित्ते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिद्ववेत्तए। अस्थि य इस्थ केइ साहम्मियसंतिए उवगरणजाए परिहरणारिहे, कप्पह से सागारकडं गहाय दोच्चंपि ओग्गहं अणुनवेत्ता परिहारं परिहारित्तए / 20. ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ भिक्षु यदि अकस्मात् मार्ग में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाए और उसके शरीर को कोई श्रमण देखे और यह जान ले कि यहां 'कोई गृहस्थ नहीं है' तो उस मृत श्रवण के शरीर को एकान्त निर्जीव भूमि में प्रतिलेखन व प्रमार्जन करके परठना कल्पता है। यदि उस मृत श्रमण के कोई उपकरण उपयोग में लेने योग्य हों तो उन्हें सागारकृत ग्रहण कर पुन: आचार्यादि की आज्ञा लेकर उपयोग में लेना कल्पता है। विवेचन-बृहत्कल्प उद्देशक 4 में उपाश्रय में कालधर्म को प्राप्त होने वाले साधु को परठने संबंधी विधि कही गई है और प्रस्तुत सूत्र में विहार करते हुए कोई भिक्षु मार्ग में ही कालधर्म को प्राप्त हो जाय तो उसके मृत शरीर को परठने की विधि बताई है। _ विहार में कभी अकेला चलता हुआ भिक्षु कालधर्म को प्राप्त हो जाय और उसके मृतशरीर को कोई एक या अनेक सार्मिक साधु देखें तो उन्हें विधिपूर्वक एकांत में ले जा कर परठ देना चाहिए। 'मा सागारिय'—भिक्षु यह जान ले कि वहां पास-पास में कोई गृहस्थ नहीं है जो (उस शरीर का मृत-संस्कार करे, तब उस स्थिति में साधुनों को उसे उठाकर एकांत अचित्त स्थान में परठ देना। चाहिए। यदि उस मृत भिक्षु के कोई उपकरण उपयोग में आने योग्य हों तो प्राचार्य की आज्ञा का आगार रखते हुए उन्हें ग्रहण कर सकते हैं। फिर जिन उपकरणों को रखने की प्राचार्य आज्ञा दें उन्हें रख सकते हैं और उपयोग में ले सकते हैं। यदि कोई एक या अनेक भिक्षु किसी भी कारण से उस कालधर्मप्राप्त भिक्षु के मृतशरीर को मार्ग में यों ही छोड़कर चले जाएँ तो वे सभी गुरुचौमासी प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं।। . Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक] परिष्ठापन संबंधी अन्य जानकारी बृहत्कल्प उद्दे. 4 में देखें एवं विस्तृत जानकारी के लिए भाष्य का अवलोकन करें। परिहरणीय शय्यातर का निर्णय 21. सागारिए उवस्सयं ववकएणं पउंजेज्जा से य वक्कइयं वएज्जा---'इमम्मिय इमम्मिय प्रोवासे समणा णिग्गंथा परिवसंति / से सागारिए पारिहारिए। से य नो वएज्जा वक्कहए वएज्जा, से सागारिए पारिहारिए / दो वि ते वएज्जा, दो वि सागारिया पारिहारिया / 22. सागारिए उवस्सयं विक्किणेज्जा, से य कइयं वएज्जा'इमम्मि य इमम्मि य प्रोवासे समणा निग्गंथा परिवसंति', से सागारिए पारिहारिए / से य नो वएज्जा, कइए वएज्जा, से सागारिए पारिहारिए / वो वि ते वएज्जा, दो वि सागारिया पारिहारिया। 21. शय्यादाता यदि उपाश्रय किराये पर दे और किराये पर लेने वाले को यह कहे कि-- 'इतने-इतने स्थान में श्रमण निर्ग्रन्थ रह रहे हैं।' इस प्रकार कहने वाला गृहस्वामी सागारिक (शय्यातर) है, अतः उसके घर आहारादि लेना नहीं कल्पता है। यदि शय्यातर कुछ न कहे, किन्तु किराये पर लेने वाला कहे तो वह शय्यातर है, अतः परिहार्य है। यदि किराये पर देने वाला और लेने वाला दोनों कहें तो दोनों शय्यातर हैं, अतः दोनों परिहार्य हैं। 22. शय्यातर यदि उपाश्रय बेचे और खरीदने वाले को यह कहे कि-'इतने-इतने स्थान में श्रमण निर्ग्रन्थ रहते हैं, तो वह शय्यातर है। अतः वह परिहार्य है। ___ यदि उपाश्रय का विक्रेता कुछ न कहें, किन्तु खरीदने वाला कहे तो वह सागारिक है, अतः वह परिहार्य है। यदि विक्रेता और क्रेता दोनों कहे तो दोनों सागारिक हैं, अतः दोनों परिहार्य हैं / विवेचन-भिक्षु जिस मकान में ठहरा हुआ है, उसका मालिक उसे किराये पर देवे या उसे बेच दे तो ऐसी स्थिति में भिक्षु का शय्यातर कौन रहता है, यह प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट किया गया है। यदि खरीदने वाला या किराये पर लेने वाला व्यक्ति भिक्ष को अपने मकान में प्रसन्नतापूर्वक ठहरने की आज्ञा देता हो तो वह शय्यातर कहा जाता है। यदि वह भिक्षु को ठहराने में उपेक्षाभाव रखता है एवं आज्ञा भी नहीं देता है। किन्तु मकान का पूर्व मालिक ही उसे भिक्षु के रहने का Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400] [व्यवहारसूत्र स्पष्टीकरण कर देता है कि "अमुक समय तक भिक्षु रहेंगे, उसके बाद वह स्थान भी तुम्हारा हो जायेगा।" ऐसी स्थिति में पूर्व शय्यादाता ही शय्यातर रहता है। शय्यातर के निर्णय का आशय यह है कि जो शय्यातर होगा उसी के घर का आहार आदि ‘शय्यातरपिंड' कहलाएगा। ____ कभी पूर्व शय्यादाता भी कहे कि "मेरी प्राज्ञा है" और नूतन स्वामी भी कहे कि "मेरी भी अाज्ञा है" तब दोनों को शय्यातर मानना चाहिए। यदि समझाने पर उनके समझ में आ जाय तो किसी एक की ही आज्ञा रखना उचित है। क्योंकि बृहत्कल्प उ. 2 सू. 13 में अनेक स्वामियों वाले मकान में किसी एक स्वामी की आज्ञा लेने का विधान किया गया है। शय्यातर सम्बन्धी एवं शय्यातरपिंड सम्बन्धी विशेष जानकारी निशीथ उ. 2 सू. 46 के विवेचन में देखें। सूत्र में गृहस्थ के घर के लिये उपाश्रय शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका कारण यह है कि जहां भिक्षु ठहरा हुआ हो या जहां उसे ठहरना हो, उन दोनों ही मकानों को आगमकार उपाश्रय शब्द से कहते हैं / इसीलिए बृहत्कल्प उद्दे. 2 सू. 1-10 में पानी के घड़े, सुरा या सौवीर के घड़े और धान्य एवं खाद्यसामग्री रखे गृहस्थ के घर को भी उपाश्रय कहा गया है। संपूर्ण रात-दिन जहां अग्नि अर्थात् भट्टियां जलती हों या दीपक जलते हों, ऐसे गृहस्थ के प्रारम्भजन्य कारखाने आदि स्थान को भी उपाश्रय कहा गया है। उसी पद्धति के कारण यहां भी गृहस्थ के घर में भिक्षु पहले से ठहरा हुआ होने से उसे उपाश्रय कहा है / वर्तमान में प्रचलित सामाजिक उपाश्रय में साधु ठहरा हुआ हो, उसे किसी के द्वारा बेचना या किराये पर देना सम्भव नहीं होता है। अतः यहां उपाश्रय शब्द से गृहस्थ का मकान अर्थ समझना चाहिए। आज्ञाग्रहण करने की विधि 23. विहवधूया नायकुलवासिणी सा वि यावि प्रोग्गहं अणुन्नवेयम्वा, किमंग पुण पिया वा, भाया वा, पुत्ते वा, से वि या वि ओग्गहे प्रोगेव्हियग्वे / 24. पहेवि प्रोग्गहं अणुन्नवेयव्वे / 23. पिता के घर पर जीवन यापन करने वाली विधवा लड़की की भी आज्ञा ली जा सकती है, तब पिता, भाई, पुत्र का तो कहना ही क्या अर्थात् उनको भी आज्ञा ग्रहण की जा सकती है। 24. यदि मार्ग में ठहरना हो तो उस स्थान की भी आज्ञा ग्रहण करनी चाहिए। विवेचन-घर के किन-किन सदस्यों की प्राज्ञा ली जा सकती है, यह प्रथम सूत्र का प्रतिपाद्य विषय है और किसी भी स्थान पर आज्ञा लेकर ही बैठना चाहिए यह दूसरे सूत्र का प्रतिपाद्य विषय है। प्रथम सूत्र में बताया गया है कि पिता, पुत्र, भाई की भी आज्ञा ली जा सकती है अर्थात् संयुक्त परिवार का कोई भी समझदार सदस्य हो, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, उनकी आज्ञा ली जा सकती है। विवाहित लड़की को श्राज्ञा नहीं ली जा सकती। किन्तु जो लड़की किसी भी कारण से सदा पिता Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक] .[401 के घर में ही रहती हो तो उसकी भी आज्ञा ली जा सकती है। इसी प्रकार जो समझदार एवं जिम्मेदार नौकर हो, उसकी भी आज्ञा ली जा सकती है। ___ मकान के बाहर का खुला स्थान (बरामदा) आदि में बैठना हो और मकान-मालिक घर बन्द करके कहीं गया हुआ हो तो किसी राहगीर या पड़ौसी की भी आज्ञा ली जा सकती है। द्वितीय सूत्रानुसार भिक्षु को विहार करते हुए कभी मार्ग में या वृक्ष के नीचे ठहरना हो तो उस स्थान की भी आज्ञा लेनी चाहिए। बिना आज्ञा लिए भिक्षु वहां भी नहीं बैठ सकता है। उस समय यदि कोई भी पथिक उधर से जा रहा हो या कोई व्यक्ति वहां बैठा हो तो उसकी प्राज्ञा ली जा सकती है। यदि कोई भी आज्ञा देने वाला न हो तो उस स्थान में ठहरने के लिए "शकेंद्र की आज्ञा है" ऐसा उच्चारण करके भिक्ष ठहर सकता है। किन्तु किसी भी प्रकार से प्राज्ञा लिए बिना कहीं पर भी नहीं ठहरना चाहिए, यह दूसरे सूत्र का आशय है। यदि प्राज्ञा लेना भूल जाए तो उसकी आलोचना प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। प्रतियों में "पहे वि" और "पहिए वि" ऐसे दो तरह के शब्द मिलते हैं। किन्तु भाष्य के अनुसार यहां “पहे वि" ऐसा पाठ शुद्ध है, जिसका अर्थ है कि पथ में अर्थात् मार्ग में बैठना हो तो उसकी भी आज्ञा लेनी चाहिए / “पहिए वि" प्रयोग को लिपिदोष ही समझना चाहिए। राज्यपरिवर्तन में आज्ञा ग्रहण करने का विधान 25. से रज्जपरियट्टेसु, संथडेसु, अन्वोगडेसु, अन्वोच्छिन्नेसु, अपरपरिग्गहिएसु, सच्चेव ओग्गहस्स पुष्वाणुन्नवणा चिट्ठइ अहालंदमवि प्रोग्गहे / 26. से रज्जपरियटेसु, असंथडेसु, बोगडेसु, वोच्छिन्नेसु, परपरिग्गहिएसु भिक्खुभावस्स अट्ठाए दोच्चपि ओग्गहे अणुनवेयव्वे सिया। 25. राजा की मृत्यु के बाद नये राजा का अभिषेक हो किन्तु अविभक्त एवं शत्रुओं द्वारा अनाक्रान्त रहे, राजवंश अविछिन्न रहे और राज्यव्यवस्था पूर्ववत् रहे तो साधु-साध्वियों के लिए पूर्वगृहीत आज्ञा ही अवस्थित रहती है। 26. राजा की मृत्यु के बाद नये राजा का अभिषेक हो और उस समय राज्य विभक्त हो जाय या शत्रुओं द्वारा आक्रान्त हो जाय, राजवंश विच्छिन्न हो जाय या राज्यव्यवस्था परिवर्तित हो जाय तो साधु-साध्वियों को भिक्षु-भाव अर्थात् (संयम की मर्यादा) की रक्षा के लिए दूसरी बार आज्ञा ले लेनी चाहिए। विवेचन-जिस राज्य में भिक्षुओं को विचरण करना हो उसके स्वामी अर्थात् राजा आदि की आज्ञा ले लेनी चाहिए। आज्ञा लेने के बाद यदि राजा का परिवर्तन हो जाय तब दो प्रकार की स्थिति होती है Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402] [व्यवहारसूत्र (1) पूर्व राजा का राजकुमार या उसके वंशज राजा बने हों अथवा केवल व्यक्ति का परिवर्तन हुआ हो, अन्य राजसत्ता, व्यवस्था और कानूनों का कोई परिवर्तन न हा हो तो पूर्व ग्रहण की हुई आज्ञा से विचरण किया जा सकता है, पुन: आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं रहती है। (2) यदि कोई सर्वथा नया ही राजा बना हो, राज्यव्यवस्था का परिवर्तन हो गया हो तो वहां विचरण करने के लिए पुनः प्राज्ञा लेना आवश्यक हो जाता है। सभी जैन संघों के साधु-साध्वियों के विचरण करने की राजाज्ञा एक प्रमुख व्यक्ति के द्वारा प्राप्त कर ली जाय तो फिर पृथक-पृथक किसी भी संत-सती को आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं रहती है। सूत्र 1-2 3-4 सातवें उद्देशक का सारांश अन्य गच्छ से आई हुई दूषित प्राचार वाली निर्ग्रन्थी को प्रवर्तिनी आदि साध्वियां प्राचार्य आदि से पूछे बिना एवं उसके दोषों की शुद्धि कराये बिना नहीं रख सकतीं, किन्तु प्राचार्य आदि उसके दोषों की शुद्धि करवाकर प्रवर्तिनी आदि साध्वियों को पूछे बिना भी गच्छ में रख सकते हैं। उपेक्षापूर्वक तीन बार से अधिक एषणादोष सेवन या व्यवस्थाभंग आदि करने पर उस साधु-साध्वी के साथ आहार-सम्बन्ध का परित्याग किया जा सकता है। ऐसा करने के लिए साध्वियां प्रत्यक्ष वार्ता नहीं कर सकतीं, किन्तु साधु प्रत्यक्ष वार्ता कर सकते हैं। साधु कभी साध्वी को दीक्षा दे सकता है और साध्वी कभी साधु को दीक्षा दे सकती है, किन्तु वे उसे प्राचार्य आदि की निश्रा में कर सकते हैं, अपनी निश्रा में नहीं। साध्वी अतिदूरस्थ आचार्य या प्रवर्तिनी की निश्रा स्वीकार करके दीक्षा न लेवे, किन्तु सन्निकट प्राचार्य या प्रवर्तिनी की ही निश्रा स्वीकार करे। साधु दूरस्थ प्राचार्य की निश्रा स्वीकार करके भी दीक्षा ले सकता है। अतिदूर गई हुई साध्वी से अन्य साध्वी क्षमायाचना कर सकती है, किन्तु साधु को क्षमापना करने के लिए प्रत्यक्ष मिलना आवश्यक होता है / भाष्य में परिस्थितिवश साधु को भी दूरस्थ क्षमापना करना कहा है। उत्काल में (दूसरे-तीसरे प्रहर में) कालिक सूत्र का स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, किन्तु कभी साध्वी उपाध्याय आदि को स्वाध्याय सुना सकती है। बत्तीस प्रकार के अस्वाध्याय काल हों तब स्वाध्याय नहीं करना और जब अस्वाध्याय न हो तब अवश्य स्वाध्याय करना / अपनी शारीरिक अस्वाध्याय में स्वाध्याय नहीं करना, किन्तु साधु-साध्वी परस्पर सूत्रार्थ वाचना दे सकते हैं। 9-10 11-12 13-14 15-16 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक] 18-19 20 [403 तीस वर्ष की दीक्षापर्याय तक की साध्वियों को उपाध्याय प्रवर्तिनी के बिना नहीं रहना चाहिए और 60 वर्ष तक की दीक्षापर्याय वाली साध्वियों को बिना आचार्य के नहीं रहना चाहिए। विहार करते हुए मार्ग में साधु का मृतदेह पड़ा हुआ दिख जाय तो उसे योग्य विधि से एवं योग्य स्थान में परठ देना चाहिए। यदि उनके उपयोगी उपकरण हो तो उन्हें ग्रहण कर प्राचार्य की आज्ञा लेकर उपयोग में लिया जा सकता है। शय्यातर मकान को बेचे या किराये पर देवे तो नूतन स्वामी की या पूर्व स्वामी की या दोनों की आज्ञा ली जा सकती है। घर के कोई सदस्य की या जिम्मेदार नौकर की आज्ञा लेकर भी ठहरा जा सकता है / सदा पिता के घर रहने वाली विवाहित बेटी की भी आज्ञा ली जा सकती है। मार्ग में बैठना हो तो भी आज्ञा लेकर ही बैठना चाहिए। राजा या राज्यव्यवस्था परिवर्तित होने पर उस राज्य में विचरण करने के लिए पुनः प्राज्ञा लेना आवश्यक है। यदि उसी राजा के राजकुमार आदि वंशज राजा बनें तो पूर्वाज्ञा से विचरण किया जा सकता है। 21-22 23 24 25-26 उपसंहार सूत्र 1-2 5-8 9-10 11-12 13-17 18-19 20 21-24 25-26 इस उद्देशक मेंअन्य गच्छ से आई साध्वी को गच्छ में लेने का, परस्पर संभोगविच्छेद करने का, परस्पर दीक्षा देने का, दूरस्थ प्राचार्यादि की निश्रा लेने का, दूरस्थ से क्षमापना करने या न करने का, स्वाध्याय करने या न करने का, साध्वी को प्राचार्य उपाध्याय स्वीकार करने का, साधु के मृतशरीर को परठने का, ठहरने के स्थानों की आज्ञा लेने का, राज्य में विचरण की नूतन आज्ञा लेने का, इत्यादि विषयों का वर्णन किया गया है / // सातवां उद्देशक समाप्त / Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां उद्देशक शयनस्थान के ग्रहण की विधि 1. गाहा उऊ पज्जोसविए, ताए, गाहाए, ताए पएसाए, ताए उवासंतराए "जमिणं जमिणं सेज्जासंथारगं लभेज्जा तमिणं तमिणं ममेव सिया।" थेरा य से अणुजाणेज्जा, तस्सेव सिया / थेरा य से नो अणुजाणेज्जा नो तस्सेव सिया। एवं से कप्पइ अहाराइणियाए सेज्जासंथारगं पडिग्गाहित्तए / 1. हेमन्त या ग्रीष्म काल में किसी के घर में ठहरने के लिए रहा हो, उस घर के किसी विभाग के स्थानों में "जो-जो अनुकूल स्थान या संस्तारक मिलें वे-वे में ग्रहण करू।" ___इस प्रकार के संकल्प होने पर भी स्थविर यदि उस स्थान के लिये प्राज्ञा दे तो वहां शय्यासंस्तारक करना कल्पता है / यदि स्थविर आज्ञा न दे तो वहां शय्या-संस्तारक ग्रहण करना नहीं कल्पता है। स्थविर के आज्ञा न देने पर यथारत्नाधिक-(दीक्षापर्याय से ज्येष्ठ-कनिष्ठ) क्रम से शय्या स्थान या संस्तारक ग्रहण करना कल्पता है। विवेचन-किसी भी घर या उपाश्रय प्रादि में ठहरने के समय या बाद में अपने बैठने या सोने के स्थान का गुरु या प्रमुख की प्राज्ञा से निर्णय करना चाहिए। जिससे व्यवस्था एवं अनुशासन का सम्यक् पालन होता रहे / आचारांग श्रु. 2 अ. 2 उ. 3 में शयनासन (शय्याभूमि) ग्रहण करने की विधि का कथन करते हुए बताया है कि "प्राचार्य उपाध्याय आदि पदवीधर एवं बाल, वृद्ध, रोगी, नवदीक्षित और आगन्तुक (पाहुणे) साधुनों को ऋतु के अनुकूल एवं इच्छित स्थान यथाक्रम से दिये जाने के बाद ही शेष भिक्षु संयमपर्याय के क्रम से शयनस्थान ग्रहण करें। प्राचार्य आदि का यथोचित क्रम तथा सम-विषम, सवात-निर्वात आदि शय्या की अवस्थाओं का भाष्य में विस्तृत विवेचन किया गया है। प्राचा. श्रु. 2 अ. 2 उ. 3 में अनेक प्रकार की अनुकूल प्रतिकूल शय्याओं में समभावपूर्वक रहने का निर्देश किया गया है और उत्तरा. अ. 2 में शय्यापरीषह के वर्णन में कहा है कि भिक्षु इस प्रकार विचार करे कि एक रात्रि में क्या हो जाएगा, ऐसा सोचकर उस स्थिति को समभाव से सहन करे। बृ. उ. 3 में भी रत्नाधिक के क्रम से शय्या-संस्तारक ग्रहण करने का विधान किया गया है जो उत्सर्गविधान है, क्योंकि रुग्णता आदि में उसका पालन करना आवश्यक नहीं होता है। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां उद्देशक] [405 सूत्र में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ(१) गाहा–गृह, मकान, उपाश्रय / (2) उऊ-हेमन्त-ग्रीष्म ऋतु / (3) पज्जोसविए---गृह या उपाश्रय में पहुंचा हुया या ठहरा हुआ भिक्षु / (4) ताए गाहाए-उस घर में। (5) ताए पएसाए-उस घर के एक विभाग-कमरे आदि में / (6) ताए उवासंतराए-उस कमरे आदि की अमुक सीमित जगह में। शय्यासंस्तारक के लाने की विधि 2. से य अहालहुसगं सेज्जासंथारगं गवेसेज्जा, जं चक्किया एगेण हत्थेण ओगिज्झ जाव एगाहं वा दुयाहुं वा, तियाहं वा परिवहित्तए, “एस मे हेमन्त-गिम्हासु भविस्सइ।" 3. से य अहालहुसगं सेज्जासंथारगं गवेसेज्जा, जं चक्किया एगेणं हत्थेणं ओगिज्झ जाव एगाहं वा, दुयाहं वा, तियाहं वा अद्धाणं परिवहित्तए, “एस मे वासावासासु भविस्सइ।" 4. से य प्रहालहुसगं सेज्जासंथारगं गबेसेज्जा, जं चक्किया एगेणं हत्थेणं ओगिज्म जाव एगाहं वा, दुयाहं वा, तियाहं वा, चउयाहं था, पंचाहं वा, दूरमवि अद्धाणं परिवहितए, "एस मे बुड्डावासासु भविस्सइ / " 2. श्रमण यथासम्भव हल्के शय्या-संस्तारक का अन्वेषण करे, वह इतना हल्का हो कि उसे एक हाथ से ग्रहण करके लाया जा सके / ऐसे शय्या-संस्तारक एक, दो या तीन दिन तक उसी बस्ती से गवेषणा करके लाया जा सकता है, इस प्रयोजन से कि यह शय्यासंस्तारक मेरे हेमन्त या ग्रीष्म ऋतु में काम आएगा। 3. श्रमण यथासम्भव हल्के शय्या-संस्तारक का अन्वेषण करे, वह इतना हल्का हो कि उसे एक हाथ से ग्रहण करके लाया जा सके। ऐसा शय्या-संस्तारक एक दो या तीन दिन तक उसी बस्ती से या निकट की अन्य बस्ती से गवेषणा करके लाया जा सकता है, इस प्रयोजन से कि—यह शय्या संस्तारक मेरे वर्षावास में काम आएगा। 4. श्रमण यथासम्भव हल्के शय्या-संस्तारक की याचना करे, वह इतना हल्का हो कि उसे एक हाथ से उठाकर लाया जा सके। ऐसा शय्या-संस्तारक एक, दो, तीन, चार या पांच दिन तक उसी बस्ती से या अन्य दूर की बस्ती से भी गवेषणा करके लाया जा सकता है, इस प्रयोजन से कि यह शय्यासंस्तारक मेरे वृद्धावास में काम आएगा। विवेचन--पूर्व सूत्र में शय्या-संस्तारक शब्द से स्थान ग्रहण करने की विधि कही है और इन सूत्रों में पाट आदि ग्रहण करने का विधान किया है। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406] [व्यवहारसूत्र पाट आदि को प्रातिहारिक ही ग्रहण किया जाता है और आवश्यकता होने पर ही ग्रहण किया जाता है / क्योंकि यह साधु की सामान्य उपधि नहीं है / __ भाष्य में अनावश्यक परिस्थिति से हेमन्त ऋतु के पाट आदि के ग्रहण करने का प्रायश्चित्त कहा है और वर्षाकाल में ग्रहण नहीं करने वाले को प्रायश्चित्त का पात्र कहा है। इन भाष्य-विधानों में जीवरक्षा एवं शारीरिक समाधि की मुख्य अपेक्षा दिखाई गई है। अत: उन अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर ही भिक्षु को विवेकपूर्वक पाट आदि के ग्रहण करने या न करने का निर्णय करना चाहिए। ____ इन सूत्रों में यह बताया गया है कि जो भी पाट अादि लावें, वह इतना हल्का होना चाहिए कि एक हाथ से उठाकर लाया जा सके। हेमन्त-ग्रीष्म काल के लिए आवश्यक पाट आदि की गवेषणा तीन दिन तक उसी प्रामादि में की जा सकती है, वर्षावास के लिए उसी प्रामादि में या अन्य निकट के ग्रामादि में तीन दिन तक गवेषणा की जा सकती है और स्थविरवास के लिए पाट आदि की गवेषणा उत्कृष्ट पांच दिन तक उसी ग्रामादि में या दूर के ग्रामादि में भी की जा सकती है / ऐसा इन पृथक्-पृथक् तीन सूत्रों में स्पष्ट किया गया है। __प्रथम सूत्र में "अद्धाणं" शब्द नहीं है, दूसरे सूत्र में "प्रद्धाणं" है और तीसरे सूत्र में 'दूरमवि प्रद्धाणं' शब्द है, इसी से तीनों सूत्रों के अर्थ में कुछ-कुछ अन्तर है। शय्या-संस्तारक का अन्य विवेचन नि. उ. 2 तथा उद्देशक पांच में देखें। एकाकी स्थविर के भण्डोपकरण और गोचरी जाने की विधि 5. थेराणं थेरभूमिपत्ताणं कप्पइ दण्डए वा, भण्डए वा, छत्तए वा, मत्तए वा, लट्ठिया वा, भिसे वा, चेले वा, चेलचिलिमिलि बा, चम्मे वा, चम्मकोसे वा, चम्मपलिच्छेयणए वा अविरहिए ओवासे ठवेत्ता गाहावइकुलं पिण्डवायपडियाए पविसित्तए वा, निक्खमित्तए वा / कप्पइ णं सन्नियट्टचारीणं दोच्चंपि उग्गहं अणुन्नवेत्ता परिहरित्तए / 5. स्थविरत्वप्राप्त (एकाकी) स्थविरों को दण्ड, भाण्ड, छत्र, मात्रक, लाठी, काष्ठ का आसन, वस्त्र, वस्त्र को चिलमिलिका, चर्म, चर्मकोष और चर्मपरिच्छेदनक अविरहित स्थान में रखकर अर्थात् किसी को सम्भलाकर गृहस्थ के घर में आहार के लिए जाना-पाना कल्पता है / भिक्षाचर्या, करके पुनः लौटने पर जिसकी देख-रेख में दण्डादि रखे गये हैं, उससे दूसरी बार आज्ञा लेकर ग्रहण करना कल्पता है। विवेचन इस सूत्र में ऐसे एकाकी विचरण करने वाले भिक्षु का वर्णन है जो प्राचा. श्रु. 1 अ. 6 उ. 2, सूय. श्रु. 1 अ. 10, उत्तरा. अ. 32 गा. 5 तथा दशवं. चू. 2 गा. 10 में निर्दिष्ट सपरिस्थितिक एकलविहारी है। साथ ही शरीर की अपेक्षा वृद्ध या प्रतिवृद्ध है, स्थविरकल्पी सामान्य भिक्षु है और कर्मसंयोग से वृद्धावस्था तक भी वह अकेला रहकर यथाशक्ति संयम पालन कर रहा है / Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां उद्देशक [407 शारीरिक कारणों से उसे अनेक औपग्रहिक उपकरण रखने पड़ रहे हैं। उन सभी उपकरणों को साथ लेकर गोचरी आदि के लिए वह नहीं जा सकता है। उसे असुरक्षित स्थान रहने को मिला हो तो वहां उन उपकरणों को छोड़कर जाने पर बच्चे या कुत्ते उन्हें तोड़-फोड़ दें या लेकर चले जाएं अथवा चोर चुरा लें इत्यादि कारणों से सूत्र में यह विधान किया गया है कि वह वृद्ध भिक्षु अपने उपकरणों की सुरक्षा के लिए किसी को नियुक्त करके जाए या पास में ही कोई बैठा हो तो उसे सूचित करके जाए और पुनः आने पर उसे सूचित कर दे कि 'मैं आ गया हूं' उसके बाद ही उन उपकरणों को ग्रहण करे / __ शारीरिक स्थितियों से विवश अकेले वृद्ध भिक्षु के लिए भी इस सूत्र में जो अपवादों का विधान किया गया है, इससे यह स्पष्ट होता है कि सूत्रकार की या जिनशासन की अत्यन्त उदार एवं अनेकांत दृष्टि है। सूत्रोक्त वृद्ध भिक्षु चलते समय सहारे के लिए दण्ड या लाठी रखता है, गर्मी आदि से रक्षा के लिए छत्र रखता है, मल-मत्र-कफ आदि विकारों के कारण अनेक मात्रक रखता है. मिट्टी के घडे आदि भांड भी रखता, अतिरिक्त वस्त्र-पात्र रखता है, मच्छर आदि के कारण मच्छरदा बैठने में सहारे के लिए भूसिका-काष्ठ आसन करता है, चर्मखण्ड, चर्मकोष (उपानह जूता आदि) या चर्मछेदनक भी रखता है अर्थात् अपने आवश्यक उपयोगी कोई भी उपकरण रखता है / उनमें से जिन उपकरणों की गोचरी जाने के समय आवश्यकता न हो उनके लिए सूत्र में यह विधान किया गया है। विशिष्ट साधना वाले पडिमाधारी या जिनकल्पी भिक्षु औपग्रहिक उपकरण रखने आदि के अपवादों का सेवन नहीं करते हैं और गच्छगत भिक्षु की ऐसी सूत्रोक्त परिस्थिति होना सम्भव भी नहीं है। क्योंकि गच्छ में अनेक वैयावृत्य करने वाले होते हैं। अत: परिस्थितिवश सामान्य बहुश्रुत भिक्षु भी जीवनपर्यन्त एकाकी रहकर यथाशक्ति संयममर्यादा का पालन करते हुए विचरण कर सकता, यह इस सूत्र से स्पष्ट होता है। शय्या-संस्तारक के लिए पुनः आज्ञा लेने का विधान 6. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारियं वा, सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं वोच्चपि ओग्गहं अणणुन्नवेत्ता बहिया नीहरित्तए। 7. कप्पइ निगंथाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारियं वा, सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं वोच्चंपि ओग्गहं अणुन्नवेत्ता बहिया नोहरित्तए / 8. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारियं वा, सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं सव्वप्पणा अप्पिणित्ता दोच्च पि ओग्गहं अणणुनवेत्ता अहिद्वित्तए। 9. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारियं वा, सागारियसंतियं वा सज्जासंथारगं सव्वप्पणा अप्पिणित्ता दोच्चं पि ओर Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408] [व्यवहारसूत्र 6. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को बाहर से लाया हुआ प्रातिहारिक शय्या-संस्तारक या शय्यातर का शय्या-संस्तारक दूसरी बार प्राज्ञा लिए बिना अन्यत्र ले जाना नहीं कल्पता है / 7. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को बाहर से लाया हुआ प्रातिहारिक शय्या-संस्तारक या शय्यात्तर का शय्या-संस्तारक दूसरी बार आज्ञा लेकर ही अन्यत्र ले जाना कल्पता है। 8. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को बाहर से लाया हा प्रातिहारिक शय्या-संस्तारक या शय्यातर का शय्या-संस्तारक सर्वथा सौंप देने के बाद दूसरी बार आज्ञा लिए बिना काम में लेना नहीं कल्पता है / 9. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को बाहर से लाया हा शय्या-संस्तारक या शय्यातर का शय्यासंस्तारक सर्वथा सौंप देने के बाद दूसरी बार आज्ञा लेकर ही काम में लेना कल्पता है / विवेचन-शय्यातर का या अन्य गहस्थ का शय्या-संस्तारक आदि कोई भी प्रातिहारिक उपकरण जिस मकान में रहते हुए ग्रहण किया गया है, उसको दूसरे मकान में ले जाना आवश्यक हो तो उसके स्वामी से प्राज्ञा प्राप्त करना या उसे सूचना करना आवश्यक है। अधिक जानकारी के लिए नि. उ. 2 सू. 53 का विवेचन देखें। किसी का पाट आदि कोई भी उपकरण लाया गया हो, उसे अल्पकाल के लिए आवश्यक न होने से उपाश्रय में ही अपनी निश्रा से छोड़ा जा सकता है किंतु उसे जब कभी पुनः लेना आवश्यक हो जाय तो दुबारा आज्ञा लेना जरूरी होता है, यह दूसरे सूत्राद्विक का श्राशय है / विशेष जानकारी के लिए नि. उ. 5 सू. 23 का विवेचन देखें। शय्या-संस्तारक ग्रहण करने की विधि 10. नो कप्पा निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुवामेव ओग्गहं ओगिहित्ता तओ पच्छा अणुनवेत्तए। 11. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुयामेव ओग्गहं अणुन्नवेत्ता तनो पच्छा प्रोगिहित्तए। 12. अह पुण एवं जाणेज्जा-इह खलु निम्गंथाण वा निग्गंथीण वा नो सुलभे पाडिहारिए सेज्जा संथारए त्ति कटु एवं णं कप्पइ पुन्वामेव ओग्गहं ओगिण्हित्ता तओ पच्छा अणुन्नवेत्तए। "मा वहउ अज्जो! बिइयं" त्ति वइ अणुलोमेणं अणुलोमेयव्वे सिया। 10. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को पहले शय्या-संस्तारक ग्रहण करना और बाद में उनकी आज्ञा लेना नहीं कल्पता है। 11. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को पहले प्राज्ञा लेना और बाद में शय्या-संस्तारक ग्रहण करना कल्पता है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां उद्देशक] [409 12. यदि यह जाने कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को यहां प्रातिहारिक शय्या-संस्तारक सुलभ नहीं है तो पहले स्थान या शय्या-संस्तारक ग्रहण करना और बाद में आज्ञा लेना कल्पता है। (किन्तु ऐसा करने पर यदि संयतों के और शय्या-संस्तारक के स्वामी के मध्य किसी प्रकार का कलह हो जाय तो प्राचार्य उन्हें इस प्रकार कहे–'हे आर्यो ! एक ओर तो तुमने इनको वसति ग्रहण की है, दूसरी ओर इनसे कठोर वचन बोल रहे हो") "हे आर्यो ! इस प्रकार तुम्हें इनके साथ ऐसा दुहरा अपराधमय व्यवहार नहीं करना चाहिए।" इस प्रकार अनुकल वचनों से प्राचार्य उस वसति के स्वामी को अनुकूल करे। विवेचन—किसी भी स्थान पर बैठना या ठहरना हो तो भिक्षु को पहले प्राज्ञा लेनी चाहिए, बाद में ही वहां ठहरना चाहिए। इसी प्रकार पाट आदि अथवा तण आदि अन्य कोई भी पदार्थ लेने हों तो उनको पहले प्राज्ञा लेना चाहिए, बाद में ही उसे ग्रहण करना या उपयोग में लेना चाहिए। किसी भी वस्तु की आज्ञा लेने के पहले ग्रहण करना और फिर प्राज्ञा लेना अविधि है / इससे तृतीय महाव्रत दूषित होता है। तथापि सूत्र में मकान की दुर्लभता को लक्ष्य में रखते हुए परिस्थितिवश कभी इस प्रकार प्रविधि से ग्रहण करने की प्रापवादिक छूट दी गई है। विशेष परिस्थिति के अतिरिक्त इस छूट का अति उपयोग या दुरुपयोग नहीं करना चाहिए तथा यह भी ध्यान रखना चाहिए कि प्रापवादिक स्थिति का निर्णय गीतार्थ (बहुश्रुत) भिक्षु ही कर सकते हैं। अल्पज्ञ अबहुश्रुत-अगीतार्थ भिक्षु यदि ऐसा करे तो उसकी यह अनाधिकार चेष्टा है। फिर भी गीतार्थ-बहुश्रुत की निश्रा से वे इस अपवाद का पाचरण कर सकते हैं। इस सूत्र के अन्तिम वाक्य की व्याख्या में बताया गया है कि- "जहां दुर्लभ शय्या हो उस गांव में कुछ साधागे जाएँ और किसी उपयुक्त मकान में आज्ञा लिए बिना मकान का मालिक रुष्ट होकर वाद-विवाद करने लगे। तब पीछे से अन्य भिक्षु या प्राचार्य पहुंच कर उस साधु को आक्रोशपूर्वक कहें कि "अरे आर्य ! तू यह दुगुता अपराध क्यों कर रहा है / एक तो इनके मकान में ठहरा है, दूसरे इन्हीं से वाद-विवाद कर रहा है। चुप रह, शांति रख / " इस प्रकार डांट कर फिर मकान-मालिक को प्रसन्न करते हुए नम्रता से वार्तालाप करके आज्ञा प्राप्त करें। अधिक विवेचन के लिए दशा. द. 2 देखें / पतित या विस्मृत उपकरण की एषणा 13. निग्गंथस्स णं गाहावइकुलं पिण्डवाय पडियाए अणुपविट्ठस्स अण्णयरे अहालहुसए उवगरणजाए परिभठे सिया। तं च केई साहम्मिए पासेज्जा, कप्पइ से सागारकडं गहाय जत्थेव अण्णमण्णं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा-- ५०-"इमे भे अज्जो! कि परिणाए ?" उ० से य वएज्जा--"परिणाए" तस्सेव पडिणिज्जाएयव्वे सिया। से य वएज्जा-"नो परिणाए" तं नो अप्पणा परिभुजेज्जा नो अण्णमण्णस्स दावए, एगंते बहुफासुए थण्डिले परिट्टवेयव्वे सिया। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410] [व्यवहारसूत्र 14. निग्गंथस्स गं बहिया वियारभूमि वा, विहारभूमि वा निक्खन्तस्स अण्णयरे अहालहुसए उवगरणजाए परिभट्ठे सिया। तं च केइ साहम्मिए पासेज्जा, कप्पइ से सागारकडं गहाय जत्थेव अण्णमण्णं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा ५०--"इमे भे अज्जो ! कि परिण्णाए ?" उ०-से य वएज्जा-"परिणाए" तस्सव पडिणिज्जाएयव्वे सिया।। से य वएज्जा-"नो परिणाए" तं नो अप्पणा परिभुजेज्जा, नो अण्णमण्णस्स दावए, एगते बहुफासुए थण्डिले परिठेवेयव्वे सिया। 15. निग्गंथस्स णं गामाणुगाम दूइज्जमाणस्स अण्णयरे उवगरणजाए परिम्भलै सिया। तं च केई साहम्मिए पासेज्जा, कप्पइ से सागारकडं गहाय दूरमवि अद्धाण परिवहित्तए, जत्थेव अण्णमण्णं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा प०--"इमे भे अज्जो ! कि परिणाए ?" उ.-से य वएज्जा "परिणाए" तस्सेव पडिणिज्जाएयव्वे सिया। से य वएज्जा-"नो परिणाए" तं नो अप्पणा परिभुजेज्जा, नो अण्णमण्णस्स दावए, एगते बहुफासुए थण्डिले परिवेयब्वे सिया। 13. निर्ग्रन्थ गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रवेश करे और कहीं पर उसका कोई लघु उपकरण गिर जाए, उस उपकरण को यदि कोई सार्मिक श्रमण देखे तो 'जिसका यह उपकरण है उसे दे दूंगा' इस भावना से लेकर जाए और जहां किसी श्रमण को देखे, वहां इस प्रकार कहे-- प्र०–'हे आर्य ! इस उपकरण को पहचानते हो ?' (अर्थात् यह आपका है ?) उ०-वह कहे-'हां पहचानता हूँ' (अर्थात् हां यह मेरा है) तो उस उपकरण को उसे दे दे। यदि वह कहे-'मैं नहीं पहचानता हूँ।' तो उस उपकरण का न स्वयं उपयोग करे और न अन्य किसी को दे किन्तु एकांत प्रासुक (निर्जीव) भूमि पर उसे परठ दे / 14. स्वाध्यायभूमि में या उच्चार-प्रस्रवण-भूमि में जाते-पाते हुए निर्ग्रन्थ का कोई लघु उपकरण गिर जाए, उस उपकरण को यदि कोई सार्मिक श्रमण देखे तो–'जिसका यह उपकरण है, उसे दे दूंगा' इस भावना से लेकर जाए और जहां किसी श्रमण को देखे, वहां इस प्रकार कहे प्र०--'हे आर्य ! इस उपकरण को पहचानते हो ?' उ०-वह कहे-'हां पहचानता हूँ'-तो उस उपकरण को उसे दे दे। यदि वह कहे-'मैं नहीं पहचानता हूं तो उस उपकरण का न स्वयं उपयोग करे और न अन्य किसी को दे किन्तु एकान्त प्रासुक भूमि पर उसे परठ दे। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां उद्देशक] [411 15. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए निर्ग्रन्थ का कोई उपकरण गिर जाए, उस उपकरण को यदि कोई सार्मिक श्रमण देखे और 'जिसका यह उपकरण है, उसे दे दूंगा' इस भावना से वह उस उपकरण को दूर तक भी लेकर जाए और जहां किसी श्रमण को देखे, वहां इस प्रकार कहे प्र.--'हे आर्य ! इस उपकरण को पहचानते हो?' उ.---वह कहे—'हां पहचानता हूँ तो उस उपकरण को उसे दे दे। यदि वह कहे 'मैं नहीं पहचानता हूँ तो उस उपकरण का न स्वयं उपयोग करे और न अन्य किसी को दे, किन्तु एकान्त प्रासुक भूमि पर उसे परठ दे / विवेचन-गोचरी, विहार आदि के लिए जाते-पाते समय भिक्षु का कोई छोटा-सा उपकरण वस्त्रादि गिर जाय और उसी मार्ग से जाते हुए किसी अन्य भिक्षु को दिख जाय तो उसे उठा लेना चाहिए और यह अनुमान करना चाहिए कि 'यह उपकरण किस का है ?' फिर उन-उन भिक्षुओं को वह उपकरण दिखाकर पूछना चाहिए और जिसका हो उसे दे देना चाहिए। यदि वहां आस-पास उपस्थिति साधूत्रों में से कोई भी उसे स्वीकार न करे तो यदि उपकरण छोटा है या अधिक उपयोगी नहीं है तो उसे परठ देना चाहिए / बड़ा उपकरण रजोहरणादि है तो कुछ दूर तक विहारादि में साथ लेकर जावे और अन्य साधु जहां मिलें, वहां उनसे पूछ लेना चाहिए। यदि उस उपकरण का स्वामी ज्ञात न हो सके और वह उपयोगी उपकरण है एवं उसकी आवश्यकता भी है तो गुरु एवं अन्य गृहस्थ की आज्ञा लेकर अपने उपयोग में लिया जा सकता है / किन्तु अनुमान से पूछताछ या गवेषणा करने के पूर्व एवं प्राज्ञा लेने के पूर्व उपयोग में नहीं लेना चाहिए। कोई वस्त्रादि साधु का मालूम पड़े, परन्तु वह गृहस्थ का भी हो सकता है, अतः पुनः गृहस्थ की भी आज्ञा लेना आवश्यक हो जाता है। सामान्यतया तो ऐसे अज्ञात स्वामी के उपकरण को उपयोग में लेना ही नहीं चाहिए / क्योंकि बाद में उसके स्वामी द्वारा क्लेश आदि उत्पन्न होने की संभावना रहती है। अथवा कभी किसी ने जानबूझ कर मंत्रित करके उस उपकरण को मार्ग में छोड़ा हो तो भी उपयोग में लेने पर अहित हो सकता है / यदि वह प्राप्त उपकरण अच्छी स्थिति में है तो उसे छिन्न-भिन्न करके नहीं परठना चाहिए / किन्तु अखंड ही कहीं योग्य स्थान या योग्य व्यक्ति के पास स्पष्टीकरण करते हुए छोड़ देना चाहिए। अतिरिक्त पात्र लाने का विधान 16. कप्पा निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अइरेगपडिग्गहं अण्णमण्णस्स अट्ठाए दूरमवि अद्धाणं परियहित्तए, 'सो वा गं धारेस्सइ, अहं वा णं धारेस्सामि, अण्णो वा णं धारेस्सइ', नो से कप्पइ ते अणापुच्छिय, अणामंतिय अण्णमणेसि दाउं वा अणुप्पदाउं वा। कप्पइ से ते आपुच्छिय आमंतिय अण्णमोस वाउं वा अणुप्पदाउं वा। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 // [व्यवहारसूत्र 16. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को एक-दूसरे के लिए अधिक पात्र बहुत दूर ले जाना कल्पता है / 'वह धारण कर लेगा, मैं रख लूगा अथवा अन्य को आवश्यकता होगी तो उसे दे दूंगा।' इस प्रकार जिनके निमित्त पात्र लिया है, उन्हें लेने के लिए पूछे बिना, निमन्त्रण किये बिना, दूसरे को देना या निमन्त्रण करना नहीं कल्पता है / उन्हें पूछने के निमन्त्रण करने के बाद अन्य किसी को देना या निमन्त्रण करना कल्पता है / विवेचन-भिक्षु की प्रत्येक उपधि की कोई न कोई संख्या एवं माप निश्चित होता है। यदि किसो उपधि का परिमाण आगम में उपलब्ध नहीं होता है तो उसके विषय में गण-समाचारी के अनुसार परिमाण का निर्धारण किया जाता है। पात्र के विषय में संख्या का निर्धारण आगम में स्पष्ट नहीं है। नियुक्ति भाष्यादि में एक पात्र अथवा मात्रक सहित दो पात्र का निर्धारण मिलता है, किन्तु आगम से अनेक पात्र रखना सिद्ध होने से वर्तमान गण-समाचारी अनुसार 4-6 या और अधिक रखने की भिन्न-भिन्न परंपराएं प्रचलित हैं। जिस गण की जो भी मर्यादा है, उससे अतिरिक्त पात्र ग्रहण करने का यहां विधान किया गया है अथवा जहां उपलब्ध हो वहां से अतिरिक्त पात्र मंगाये जाते हैं। ऐसे पात्र ग्रहण करते समय जिस आचार्य-उपाध्याय का या व्यक्ति विशेष का निर्देश गृहस्थ के समक्ष किया हो, उन्हें ही पहले देना एवं निमंत्रण करना चाहिए। बाद में अन्य किसी को दिया जा सकता है / निशीथ उ. 14 सू. 5 में गणी के उद्देश एवं समुद्देश से पात्र ग्रहण करने का वर्णन है और वहीं पर सूत्र 6-7 में असमर्थ को ही अतिरिक्त पात्र देने का विधान है। अतः अतिरिक्त पात्र ग्रहण करके की अनुमति देना प्राचार्यादि गीतार्थों के अधिकार का विषय है। विशेष वर्णन के लिए निशीथ उ. 14 का विवेचन देखें। आहार की ऊनोदरी का परिमाण 17. 1. अट्ठ कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं प्राहारेमाणे अप्पाहारे। 2. दुवालस्स कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे अवड्ढोमोरिया / 3. सोलस कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे दुभागपत्ते, अड्ढोमोयरिया। 4. चउव्वीसं कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं पाहारेमाणे तिभागपत्ते, अंसिया। 5. एगतीसं कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं पाहारेमाणे किंचूणोमोयरिया। 6. बत्तीसं कुक्कुडिअंडगप्पयाणमेत्ते कवले आहारं पाहारेमाणे पमाणपत्ते / 7. एत्तो एकेण वि कवलेण ऊणगं प्राहारं प्राहारेमाणे समणे निग्गंथे नो पकामभोइ त्ति वत्तन्वं सिया। 17. 1. अपने मुखप्रमाण पाठ कवल आहार करने से अल्पाहार कहा जाता है। 2. अपने मुखप्रमाण बारह कवल आहार करने से कुछ अधिक अर्ध ऊनोदरिका कही जाती है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां उद्देशक [413 3. अपने मुखप्रमाण सोलह कवल आहार करने से द्विभागप्राप्त आहार और अर्द्ध ऊनोदरी कही जाती है। 4. अपने मुखप्रमाण चौबीस कवल आहार करने से त्रिभागप्राप्त आहार और एक भाग ऊनोदरिका कही जाती है। 5. अपने मुखप्रमाण एकतीस कवल आहार करने से किंचित् ऊनोदरिका कही जाती है। 6. अपने मुखप्रमाण बत्तीस कवल आहार करने से प्रमाण प्राप्त आहार कहा जाता है। इससे एक भी कवल कम पाहार करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ प्रकामभोजी नहीं कहा जाता है / विवेचन–भगवतीसूत्र शतक 7 तथा श. 25 एवं उववाईसूत्र में भी ऊनोदरी तप के विषय में ऐसा ही कथन है। 'आहारद्रव्य-ऊनोदरी' के स्वरूप के साथ ही वहां उपकरण-ऊनोदरी आदि भेदों का भी स्पष्टीकरण किया गया है / उत्तरा. अ. 30 के तप-वर्णन में आहार-ऊनोदरी का ही कथन किया है। उपकरण-ऊनोदरी आदि भेदों की विवक्षा वहां नहीं की है। वहां पर आहार-ऊनोदरी के 5 भेद कहे हैं-(१) द्रव्य, (2) क्षेत्र, (3) काल, (4) भाव और (5) पर्याय से / (1) द्रव्य से--अपनी पूर्ण खुराक से कम खाना / (2) क्षेत्र से ग्रामादि क्षेत्र संबंधी अभिग्रह करना अथवा भिक्षाचरी में भ्रमण करने के मार्ग का पेटी आदि छ: आकार में अभिग्रह करना / (3) काल से—गोचरी लाने व खाने का प्रहर, घंटा आदि रूप में अभिग्रह करना / (4) भाव से-घर में रहे पदार्थों से या स्त्री पुरुषों के वर्ण, वस्त्र-भाव आदि से अभिग्रह करना / (5) पर्याय से- उपरोक्त द्रव्यादि चार प्रकारों में से एक-एक का अभिग्रह करना उन-उन भेदों में समाविष्ट है और इन चार में से अनेक अभिग्रह एक साथ करना 'पर्याय ऊनोदरी' है। प्रस्तुत सूत्र में इन पांचों में से प्रथम द्रव्य ऊनोदरी का निम्न पांच भेदों द्वारा वर्णन किया है (1) अल्पाहार-एक कवल, दो कवल यावत् पाठ कवल प्रमाण आहार करने पर अल्पाहार ऊनोदरी होती है। (2) अपार्ध-ऊनोदरी–नव से लेकर बारह कवल अथवा पन्द्रह कवल प्रमाण आहार करने पर प्राधी खुराक से कम आहार किया जाता है। उसे "अपार्द्ध ऊनोदरी" कहते हैं, अर्थात् पहली अल्पाहार रूप ऊनोदरी है और दूसरी आधी खुराक से कम आहार करने रूप ऊणोदरी है। (3) द्विभागप्राप्त ऊनोदरी (अर्द्ध ऊनोदरी)-१६ कवल प्रमाण पाहार करने पर अर्द्ध खुराक का आहार किया जाता है जो पूर्ण खुराक के चार भाग विवक्षित करने पर दो भाग रूप होती है, अतः इसे सूत्र में "द्विभागप्राप्त ऊनोदरी" कहा है और दो भाग की ऊनोदरी होने से इसे "अर्द्ध ऊनोदरी" भी कह सकते हैं। (4) त्रिभागप्राप्त-अंसिका ऊनोदरी--२४ कवल (27 से 30 कवल) प्रमाण आहार करने पर त्रिभाग आहार होता है और एक भाग आहार की ऊनोदरी होती है। इसके लिए सूत्र में "अंशिका-ऊनोदरी" शब्द का प्रयोग किया गया है। इसमें आहार के चार भाग में से तीन भाग का पाहार किया जाता है, अतः यह त्रिभागप्राप्त आहाररूप ऊनोदरी है। अथवा इसे 'पाव ऊनोदरी' भी Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414] [व्यवहारसूत्र कह सकते हैं। इस स्थल पर लिपि दोष से प्रतियों के पाठभेद हो गये हैं, अतः यहां अन्य आगमों से पाठ सुधारा गया है / प्रतियों में 'प्रोमोयरिए' 'पत्तोमोयरिए' ऐसे पाठ उपलब्ध होते हैं। (5) किचित्-ऊनोदरी-३१ कवल प्रमाण पाहार करने पर एक कवल की ही ऊनोदरी होती है जो 32 कवल आहार की अपेक्षा अल्प होने से 'किंचित् ऊनोदरी' कहा गया है / सूत्र के अंतिम अंश से यह स्पष्ट किया गया है कि इन पांच में से किसी भी प्रकार की ऊनोदरी करने वाला भिक्षु प्रकामभोजी (भरपेट खाने वाला) नहीं होता। 32 कवल रूप पूर्ण आहार करने वाला प्रमाणप्राप्तभोजी कहा गया है / उसके किंचित् भी ऊनोदरी नहीं होती है। भिक्षु को इन्द्रियसंयम एवं ब्रह्मचर्यसमाधि के लिए सदा ऊनोदरी तप करना आवश्यक है, अथात् उसे कभी भरपेट आहार नहीं करना चाहिए। आचा. श्रु. 1 अ. 9 उ. 4 में भगवान महावीर स्वामी के आहार-विहार का वर्णन करते हुए कहा गया है कि भगवान् स्वस्थ अवस्था में भी सदा ऊनोदरीतप युक्त आहार करते थे / यथा प्रोमोयरियं चाएइ अपुछे वि भगवं रोगेहिं / गा. 1 नीति में भी कहा गया है कि संत सती ने सूरमा, चौथी विधवा नार। ऐता तो भूखा भला धाया करे उत्पात // सूत्र में कवलप्रमाण को स्पष्ट करने के लिए 'कुक्कुटिअंडकप्रमाण' ऐसा विशेषण लगाया गया है। इस विषय में व्याख्याग्रन्थों में इस प्रकार स्पष्टीकरण किये गए हैं-- (1) निजकस्याहारस्य सदा यो द्वात्रिंशत्तमो भागो तत् कुक्कुटीप्रमाणे--अपनी आहार की मात्रा का जो सदा बत्तीसवां भाग होता है, वह कुक्कुटीअंडकप्रमाण प्रर्थात् उस दिन का कवल कहा जाता है (2) कुत्सिता कुटी-कुक्कुटी शरीरमित्यर्थः। तस्याः शरीररूपायाः कुक्कुट्या अंडकमिव अंडकं मुखं अशुचि मय यह शरीर ही कुकुटी है, उसका जो मुख है वह कुकुटी का अंडक कहा गया है। (3) यावत्प्रमाणमात्रेण कवलेन मुखे प्रक्षिप्यमाणेन मुखं न विकृतं भवति तत्स्थलं कुक्कुटअंडक-प्रमाणम्-जितना बड़ा कवल मुख में रखने पर मुख विकृत न दिखे उतने प्रमाण का एक कवल समझना चाहिए / उस कवल के समावेश के लिये जो मुख का भीतरी आकार बनता है, उसे कुक्कुटीअंडकप्रमाण समझना चाहिए / (4) अयमन्यः विकल्पः कुक्कुट अंडकोपमे कवले--अथवा कुकडी के अंडे के प्रमाण जितना कवल, यह भी अर्थ का एक विकल्प है। -'ऊणोयरिया' -अभि. रा. कोष भा. 2, पृ. 1182 उपर्युक्त व्याख्यास्थलों पर विचार करने से यह ज्ञात होता है कि 'कुक्कुडिअडंग' इतना शब्द न होने पर भी सूत्राशय स्पष्ट हो जाता है और यह शब्द भ्रमोत्पादक भी है, अत: यह शब्द कभी Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां उद्देशक] 415 किसी के द्वारा प्रक्षिप्त किया गया हो और व्याख्याकारों ने इसे मौलिक पाठ समझ कर ज्यों-त्यों करके संगति करने की कोशिश की हो। व्याख्या में यह भी कहा गया है कि एक दिन पूर्ण पाहार करने वाला 'प्रकामभोजी' है, अनेक दिन पूर्ण पाहार करने वाला 'निकामभोजी' है और 32 कवल से भी अधिक खाने वाला 'अतिभोजी है। यहां एक प्रश्न उपस्थित होता है कि बत्तीस कवल के प्राहार से जो संपूर्ण माप कहा गया है वह प्रत्येक बार के भोजन की अपेक्षा से है या अनेक बार के भोजन की अपेक्षा से ? तथा दूध, छाछ आदि पेय पदार्थों का समावेश इन 32 कवल में किस प्रकार होता है ? समाधान-प्राचारशास्त्रों के अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि दिन में एक बार भोजन करना ही भिक्षु का शुद्ध उत्सर्ग प्राचार है / आगमों में अनेक जगह अन्य समय में आहार करने का जो विधान है, उसे आपवादिक विधान समझना चाहिए / आपवादिक आचरण को सदा के लिए प्रवृत्ति रूप में स्वीकार कर लेना शिथिलाचार है। अतः कारणवश अनेक बार या सुबह शाम आहार करना ही अपवादमार्ग है। उत्सर्गमार्ग तो एक बार खाने का ही है। अतः प्रागमोक्त एक बार के प्रौत्सर्गिक आहार करने की अपेक्षा यह विधान है। जितने आहार से पेट पूर्ण भर जाय, पूर्ण तृप्ति हो जाय अथवा जिससे भूख रहने का या और कुछ खाने का मन न हो, ऐसी संपूर्ण मात्रा को 32 कवल में विभाजित कर लेना चाहिए / इसमें दूध रोटी फल आदि सभी को समाविष्ट समझना चाहिए। अनुमान से जितने-जितने कवल प्रमाण भूख रखी जाय, उतनी-उतनी ऊनोदरी समझनी चाहिए। समान्यतया उत्सर्गमार्ग से भिक्षु का प्राहार विगयरहित होता है, अतः रोटी आदि की अपेक्षा 32 कवल समझना और भी सरल हो जाता है। इसी के आधार से यह फलित होता है कि कारण से अनेक बार किये जाने वाले आहार का कुल योग 32 कवल होना चाहिए / अतः अनेक बार आहार करना हो तो 32 कवलों को विभाजित करके समझ लेना चाहिए / अनेक दिनों तक एक वक्त विगयरहित सामान्य आहार करके कुल खुराक का माप रोटी की संख्या में कायम किया जा सकता है। सूत्र 1 2-4 ___ आठवें उद्देशक का सारांश स्थविर गुरु आदि की आज्ञा से शयनासनभूमि ग्रहण करना / पाट आदि एक हाथ से उठाकर सरलता से लाया जा सके, वैसा ही लाना / उसकी गवेषणा तीन दिन तक की जा सकती है और स्थविरवास के अनुकूल पाट की गवेषणा पांच दिन तक की जा सकती है एवं अधिक दूर से भी लाया जा सकता है। एकलविहारी वृद्ध भिक्षु के यदि अनेक प्रकार के प्रोपग्रहिक उपकरण हों तो उन्हें भिक्षाचारी यादि जाते समय किसी की देखरेख में छोड़कर जाना एवं पुनः आकर उसे सूचित करके ग्रहण करना / Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416] [व्यवहारसूत्र सूत्र 6.9 किसी गृहस्थ का शय्या-संस्तारक आदि अन्य उपाश्रय (मकान) में ले जाना हो तो उसकी पुन: प्राज्ञा लेना। कभी अल्पकाल के लिए कोई पाट आदि उपाश्रय में ही छोड़ दिया हो तो उसे ग्रहण करने के लिये पुनः आज्ञा लेना, किन्तु बिना प्राज्ञा ग्रहण नहीं करता। क्योंकि उसे अपनी निश्रा से कुछ समय के लिए छोड़ दिया गया है। 10-12 ___ मकान पाट आदि की पहले अाज्ञा लेना बाद में ग्रहण करना / कभी दुर्लभ शय्या की परिस्थिति में विवेकपूर्वक पहले ग्रहण करके फिर आज्ञा ली जा सकती है / 13-15 चलते समय मार्ग में किसी भिक्षु का उपकरण गिर जाय और अन्य भिक्षु को मिल जाय तो पूछताछ कर जिसका हो उसे दे देना / कोई भी उसे स्वीकार न करे तो परठ देना। रजोहरणादि बड़े उपकरण हों, तो अधिक दूर भी ले जाना और पूछताछ करना। अतिरिक्त पात्र प्राचार्यादि के निर्देश से ग्रहण किए हों तो उन्हें ही देना या सुपुर्द करना / जिसे देने की इच्छा हो, उन्हें स्वतः ही नहीं देना / जिसका नाम निर्देश करके लिया हो तो आचार्य की आज्ञा लेकर पहले उसे ही देना। सदा कुछ न कुछ ऊनोदरी तप करना चाहिए। ऊनोदरी करने वाला प्रकामभोजी नहीं कहा जाता हैं। उपसंहार इस उद्देशक मेंसूत्र 1-4, 6-12 शयनासन पाट ग्रादि के ग्रहण करने आदि का, एकाकी वृद्ध स्थविर का, 13-15 खोए गए उपकरणों का, 16 अतिरिक्त पात्र लाने देने का, आहार की ऊनोदरी का, इत्यादि विषयों का कथन किया गया है। // आठवां उद्देशक समाप्त // Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम उद्देशक शय्यातर के पाहुणे, नौकर एवं ज्ञातिजन के निमित्त से बने आहार के लेने का विधि-निषेध 1. सागारियस्स आएसे अन्तो वगडाए भुजए, निट्ठिए निसट्ठे पाडिहारिए, तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 2. सागारियस्स पाएसे अंतो वगडाए भुजए, निट्ठिए निसट्टे अपाडिहारिए, तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 3. सागारियस्स पाएसे बाहिं वगडाए भुजइ, निट्ठिए निसठे पाडिहारिए, तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 4. सागारियस्स पाएसे बाहिं वगडाए भुजइ, निदिए निसट्टे अपाडिहारिए, तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 5. सागारियस्स दासे वा, पेसे वा, भयए वा, भइण्णए वा अंतो वगडाए भुजइ निदिए निसठे पाडिहारिए, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 6. सागारियस्स बासे वा, पेसे वा, भयए वा, भइण्णए वा अन्तो वगडाए भुजइ, निटिए निसट्टे अपाडिहारिए, तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 7. सागारियस्स दासे वा, पेसे वा, भयए वा, भइण्णए वा बाहिं बगडाए भुजइ, निट्ठिए निसट्टे पाडिहारिए, तम्हा वावए नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए / 8. सागारियस्स दासे वा, पेसे वा, भयए वा, भइण्णए वा बाहिं वगडाए भुजइ, निट्ठिए निसट्ठे अपाडिहारिए, तम्हा दावए, एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 9. सागारियस्स णायए सिया सागारियस्स एगवगडाए अंतो सागारियस्स एगपयाए, सागारियं चोवजीवइ, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए / 10. सागारियस्स णायए सिया सागारियस्स एगवगडाए अंतो सागारियस्स अभिनिपयाए सागारियं चोवजीवइ, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए / 11. सागारियस्स णायए सिया सागारियस्स एगवगडाए बाहिं सागारियस्स एगपयाए सागारियं चोवजीवइ, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418] [व्यवहारसूत्र 12. सागारियस्स णायए सिया सागारियस्स एगवगडाए बाहिं सागारियस्स अभिनिपयाए सागारियं चोवजीवइ, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 13. सागारियस्स गायए सिया सागारियस्स अभिनिव्वगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए अंतो सागारियस्स एगपयाए सागारियं चोवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए / 14. सागारियस्स गायए सिया सागारियस्स अभिनिव्वगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए अंतो सागारियस्स अभिनिपयाए सागारियं चोवजीवइ तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 15. सागारियस्स णायए सिया सागारियस्स अभिनिव्वगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए बाहिं सागारियस्स एगपयाए सागारियं चोवजीवइ, तम्हा वावर नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 16. सागारियस्स णायए सिया सागारियस्स अभिनिव्वगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमण-पवेसाए बाहिं सागारियस्स अभिनिपयाए सागारियं चोवजीवइ, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 1. शय्यातर के यहां किसी प्रागन्तुक के लिये पाहार बनाया गया हो, उसे प्रातिहारिक दिया गया हो, वह उसके घर के भीतरी भाग में जीमता हो, उस आहार में से वह आगन्तुक दे तो साधु को लेना नहीं कल्पता है। 2. शय्यातर के यहां किसी आगन्तुक के लिये आहार बनाया गया हो, उसे अप्रातिहरिक दिया गया हो, वह उसके घर के भीतरी भाग में जीमता हो, उस आहार में से वह आगन्तुक दे तो साधु को लेना कल्पता है। 3. शय्यातर के यहां किसी आगन्तुक के लिये आहार बनाया गया हो, उसे खाने के लिए प्रातिहारिक दिया गया हो, वह उसके घर के बाह्यभाग में जीमता हो, उस आहार में से वह आगन्तुक दे तो साधु को लेना नहीं कल्पता है / 4. शय्यातर के यहां किसी आगन्तुक के लिये घर के बाह्यभाग में प्राहार बनाया गया हो, उसे खाने के लिये अप्रातिहारिक दिया गया हो, वह उसके घर के बाह्यभाग में जीमता हो, उस आहार में से वह आगन्तुक दे तो साधु को लेना कल्पता है / 5. शय्यातर के दास, प्रेष्य, भृतक और नौकर के लिए आहार बना हो, उसे प्रातिहारिक दिया गया हो, वह उसके घर के भीतरी भाग में जीमता हो, उस ग्राहार में से वह साधु को दे तो लेना नहीं कल्पता है। 6. शय्यातर के दास, प्रेष्य, भृतक और नौकर के लिए आहार बना हो, उसे अप्रातिहारिक दिया गया हो, वह उसके घर के भीतरी भाग में जीमता हो, उस पाहार में से वह साधु को दे तो लेना कल्पता है। 7. शय्यातर के दास, प्रेष्य, भृतक और नौकर के लिए आहार बना हो, उसे प्रातिहारिक Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम उद्देशक] [419 दिया गया हो, वह घर के बाह्यभाग में जीमता हो, उस आहार में से वह साधु को दे तो लेना नहीं कल्पता है। 8. शय्यातर के दास, प्रेष्य, भतक और नौकर के लिए आहार बना हो, उसे अप्रातिहारिक दिया गया हो, वह घर के बाह्यभाग में जीमता हो, उस आहार में से वह साधु को दे तो लेना कल्पता है। 9. सागारिक (शय्यातर) का स्वजन सागारिक के घर में सागारिक के एक ही चूल्हे पर सागारिक की ही सामग्री से आहार निष्पन्न कर जीवन निर्वाह करता है। यदि वह उस आहार में से निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है। 10. सागारिक का स्वजन यदि सागारिक के घर में ही सागारिक के चूल्हे से भिन्न चूल्हे पर सागारिक की ही सामग्री से आहारादि निष्पन्न कर जीवन निर्वाह करता है। यदि वह उस आहार में से निम्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है / 11. सागारिक का स्वजन सागारिक के घर के बाह्य विभाग में सागारिक के ही चूल्हे पर सागारिक की ही सामग्री से आहार निष्पन्न कर उससे जीवन निर्वाह करता है / यदि वह उस पाहार में से निर्ग्रन्थ-निर्गन्थियों को देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है / 12. सागारिक का स्वजन सागारिक के घर के बाह्यविभाग में सागारिक के चूल्हे से भिन्न चूल्हे पर सागारिक की ही सामग्री से आहार निष्पन्न कर उससे जीवननिर्वाह करता है। यदि वह उस पाहार में से निर्ग्रन्थ-निम्रन्थियों को देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है। 13. सागारिक का स्वजन सागारिक के घर के भिन्न गृहविभाग में तथा एक निष्क्रमण-प्रवेश द्वार वाले गह में सागारिक के ही चूल्हे पर सागारिक की ही सामग्री से आहार निष्पन्न कर उससे जीवन निर्वाह करता है / यदि वह उस आहार में से निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है / 14. सागारिक का स्वजन सागारिक के घर के भिन्न गृहविभाग में तथा एक निष्क्रमण-प्रवेशद्वार वाले गृह में सागारिक के चूल्हे से भिन्न चूल्हे पर सागारिक की ही सामग्री से आहार निष्पन्न कर उससे जीवन निर्वाह करता है। यदि वह उस आहार में से निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को दे तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है। 15. सागारिक का स्वजन सागारिक के गृह के विभिन्नगृहविभाग में तथा एक निष्क्रमणप्रवेश-द्वार वाले गृह के बाह्य भाग में सागारिक के चूल्हे पर सागारिक की ही सामग्री से पाहार निष्पन्न कर उससे जीवननिर्वाह करता है / यदि वह उस आहार में से निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है। 16. सागारिक का स्वजन सागारिक के गृह के भिन्न गृह विभाग में तथा एक निष्क्रमण-प्रवेशद्वार वाले गृह के बाह्यभाग में सागारिक के चूल्हे से भिन्न चूल्हे पर सागारिक की ही सामग्री से आहार Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420] [व्यवहारसूत्र निष्पन्न कर उससे जोवननिर्वाह करता है। यदि वह उस पाहार में से निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है / विवेचन-शय्यातर का अाहार पाहुणों (मेहमानों) के एवं नौकरों को नियत किये अनुसार परिपूर्ण दे दिया गया हो तो उसमें से भिक्षु ग्रहण कर सकता है / यदि पाहुणों को या नौकरों को थोड़ा-थोड़ा दिया जा रहा है एवं आवश्यकता होने पर वे पुनः ले सकते हैं और अवशेष रहने पर लौटा भी सकते हैं, ऐसा आहार साधु नहीं ले सकता है। शय्यातर के सहयोग से ही जो ज्ञातिजन जीवन व्यतीत करते हों अर्थात् उनका सम्पूर्ण खर्च शय्यातर ही देता हो तो भिक्षु उसके आहार को ग्रहण नहीं कर सकता / यही अर्थ (9 से 16) पाठ सूत्रों में कहा गया है / प्राशय यह है कि वे ज्ञातिजन शय्यातर के घर के अन्दर या बाहर किसी चूल्हे पर भोजन बनावें एवं उसका चौका अलग हो या शामिल हो, किसी भी विकल्प में उसका आहारादि नहीं कल्पता है। - इससे यह तात्पर्य समझना चाहिए कि शय्यातर के ज्ञातिजन या अन्य को मर्यादित खर्च दिया जाता हो और घट-बध का जिम्मेवार वह शय्यातर नहीं हो तो उनका आहारादि ग्रहण किया जा सकता है। शय्यातरपिंड संबंधी अन्य जानकारी निशीथ उ. 2, बृहत्कल्प उ. 2, दशा. द. 2 एवं व्यव. उ. 6 में देखें। शय्यातर के भागीदारी वाली विक्रयशालाओं से आहार लेने का विधि-निषेध 17. सागारियस्स चक्कियासाला साहारणवक्कय-पउत्ता, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 18. सागारियस्स चक्कियासाला निस्साहारण-वक्कय-पउत्ता, तम्हा दावए एवं से नो कप्पड़ पडिग्गाहेत्तए। 19. सागारियस्स गोलियसाला साहारणवक्कय-पउत्ता, तम्हा दावए, नो से कप्पड़ पडिग्गाहेत्तए। 20. सागारियस्स गोलियसाला निस्साहारणवक्कय-पउत्ता, तम्हा दावए, एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 21. सागारियस्स बोधियसाला साहारणवक्कय-पउत्ता, तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 22. सागारियस्स बोधियसाला निस्साहारणवक्कय-पउत्ता, तम्हा दावए एवं से कप्पा पडिग्गाहेत्तए। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम उद्देशक] [421 23. सागारियस्स दोसियसाला साहारणवक्कय-पउत्ता, तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 24. सागारियस्स दोसियसाला निस्साहारणवक्कय-पउत्ता, तम्हा दावए, एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 25. सागारियस्स सोत्तियसाला साहारणवक्कय-पउत्ता, तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 26. सागारियस्स सोत्तियसाला निस्साहारणवक्कय-पउत्ता, तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 27. सागारियस्स बोंडियसाला साहारणवक्कय-पउत्ता, तम्हा दावए, नो से कप्पड़ पडिग्माहेत्तए। 28. सागारियस्स बोंडियसाला निस्साहारणवक्कय-पउत्ता, तम्हा दावए, एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 29. सागारियस्स गंधियसाला साहारणवक्कय-पउत्ता, तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 30. सागारियस्स गंधियसाला निस्साहारणवक्कय-पउत्ता, तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 31. सागारियस्स सोंडियसाला साहारणवक्कय-पउत्ता, तम्हा दावए, नो से कप्पा पडिग्गाहेत्तए। 32. सागारियस्स सोंडियसाला निस्साहारणवक्कय-पउत्ता, तम्हा दावए, एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 33. सागारियस्स ओसहीओ संथडाओ, तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 34. सागारियस्स प्रोसहीनो असंथडाओ, तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 35. सागारियस्स अम्बफला संथडाओ, तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए / 36. सागारियस्स अम्बफला असंथडा, तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए। 17. सागारिक (शय्यातर) की हिस्सेदारी वाली चक्रिकाशाला (तेल की दुकान) में से सागारिक का साझीदार निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को तेल देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422] [व्यवहारसूत्र 18. सागारिक की सीर (हिस्सेदारी) वाली तेल की दुकान में से सागारिक का साझीदार सागरिक के बिना सीर का तेल देता है तो साधु को लेना कल्पता है। 19. सागारिक के सीर वाली गुड़ की दुकान में से सागारिक का साझीदार निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थियों को गुड़ देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है / 20. सागारिक के सीर वाली गुड़ की दुकान में से सागारिक का साझीदार सागारिक के बिना सीर का गुड़ देता है तो साधु को लेना कल्पता है। 21. सागारिक के सीर वाली बोधियशाला (किराणे की दुकान) में से सागारिक का साझीदार निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को किराणे की वस्तु देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है / 22. सागारिक के सीर वाली किराणे की दुकान में से सागारिक का साझीदार सागारिक के बिना सीर की किराणे की वस्तु देता है तो उन्हें लेना कल्पता है। 23. सागारिक के सीर वाली दोसियशाला (कपड़े की दुकान) में से सागारिक का साझीदार निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को वस्त्र देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है। 24. सागारिक के सीर वाली कपड़े की दुकान में से सागारिक का साझीदार सागारिक के बिना सीर का कपड़ा देता है तो साधु को लेना कल्पता है। 25. सागारिक के सीर वाली सूत (धागे) की दुकान में से सागारिक का साझीदार निम्रन्थनिर्ग्रन्थियों को सूत देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है / 26. सागारिक के सीर वाली सूत की दुकान में से सागारिक का साझीदार सागारिक के बिना सीर का सूत देता है तो साधु को लेना कल्पता है। 27. सागारिक के सीर वाली बोडियशाला (रूई की दुकान) में से सागारिक का साझीदार निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को रूई देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है। 28. सागारिक के सीर वाली रूई की दुकान में से सागारिक का साझीदार सागारिक के बिना सीर की रूई देता है तो लेना कल्पता है / 29. सागारिक के सीर वाली गन्धियशाला में से सागारिक का साझीदार निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को सुगन्धित पदार्थ देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है / 30. सागारिक के सीर वाली गन्धियशाला में से सागारिक का साझीदार साग़ारिक के बिना सीर का सुगन्धित पदार्थ देता है तो साधु को लेना कल्पता है। 31. सागारिक के सीर वाली मिष्ठान्नशाला में से सागारिक का साझीदार निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थियों को मिठाई देता है तो लेना नहीं कल्पता है / Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम उद्देशक] 32. सागारिक के सीर वाली मिष्ठान्नशाला में से सागारिक का साझीदार सागारिक के बिना सीर की मिठाई देता है तो उन्हें लेना कल्पता है। 33. सागारिक के सीर वाली भोजनशाला में से सागारिक का साझीदार निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थियों को आहार देता है तो लेना नहीं कल्पता है। 34. सागारिक के सीर वाली भोजनशाला से सागारिक का साझीदार बंटवारे में प्राप्त खाद्य सामग्री में से देता है तो साधु को लेना कल्पता है / 35. सागारिक के सीर वाले अाम्र आदि फलों में से सागारिक का साझीदार निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थियों को अाम्रादि देता है तो उन्हें लेना नहीं कल्पता है / 36. सागारिक के सीर वाले आम्रादि फलों में से सागारिक का साझीदार बंटवारे में प्राप्त आम्र आदि फल यदि निम्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को देता है तो उन्हें लेना कल्पता है / विवेचन-पूर्व सूत्रों में शय्यातरपिंड घरों में से लेने, न लेने का विधान किया गया है और इन सूत्रों में विक्रयशाला अर्थात् दुकानों में से खाद्यपदार्थ या अन्य वस्त्रादि लेने, न लेने का विधान किया गया है। इन सूत्रों का आशय यह है कि शय्यातर एवं अशय्यातर (अन्य गृहस्थ) की सामूहिक विक्रयशाला कभी-कोई विभाजित वस्त में शय्यातर का स्वामित्व न हो या कोई पदार्थ अन्य गृहस्थ के स्वतन्त्र स्वामित्व का हो तो उसे ग्रहण करने पर शय्यातरपिंड का दोष नहीं लगता है। अतः सूत्रोक्त दुकानों से वे पदार्थ गृहस्थ के निमन्त्रण करने पर या आवश्यक होने पर विवेकपूर्वक ग्रहण किये जा सकते हैं। सूत्रगत विक्रयशाला के पदार्थ इस प्रकार हैं (1) तेल आदि, (2) गुड़ आदि, (3) अनाज किराणा के कोई अचित्त पदार्थ, (4) वस्त्र, (5) सूत, (धागे), (6) कपास (रूई), (7) सुगंधित तेल इत्रादि (ग्लान हेतु औषध रूप में), (8) मिष्ठान्न (9) भोजनसामग्री (10) आम्रादि अचित्त फल (उबले हुए या गुठली रहित खण्ड) / इन सूत्रों से यह स्पष्ट हो जाता है कि साधु-साध्वी घरों के अतिरिक्त कभी कहीं दुकान से भी कल्प्यवस्तु ग्रहण कर सकते हैं। दशव. अ. 5 उ.१ गा. 72 में भी रज से युक्त खाद्यपदार्थ हों तो विक्रयशाला से लेने का निषेध किया गया है, अर्थात् रजरहित हों तो वे ग्रहण किए जा सकते हैं। यहां टीकाकार ने स्पष्ट किया है कि क्षेत्र, काल, व्यक्ति एवं जनसाधारण के वातावरण का अवश्य ही विवेक रखना चाहिए / अन्यथा दुकानों से पदार्थ ग्रहण करने में साधु की या जिनशासन की हीलना हो सकती है। "सोडियसाला---"सुखडो" तिप्रसिद्धमिष्ठान्नविक्रयशाला कांदविकापण इत्यर्थः-- कंदोई की दुकान। -नि. भाष्य (घासी.) Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424] [व्यवहारसूत्र भाष्यादि में "मद्यशाला" अर्थ किया है, किन्तु साधु-साध्वियों का मद्य-मांस से कोई सम्पर्क ही नहीं होता है, क्योंकि वे पदार्थ आगम में नरक के कारणभूत कहे गये हैं / अतः उपर्युक्त अर्थ ही संगत है। इस विषय की अधिक जानकारी निशीथ उ. 19 सू. 1 के विवेचन में देखें। सप्तसप्ततिका आदि भिक्षुप्रतिमाएं 37. सत्त-सत्तमिया णं भिक्खुपडिमा एगणपन्नाए राइंदिएहि एगेणं छन्नउएणं भिक्खासएणं अहासुत्तं जाव आणाए अणुपालित्ता भवइ / 38. अट्ठ-अट्ठमिया णं भिक्खुपडिमा चउसट्ठीए राइदिएहिं दोहि य अट्टासिएहि भिक्खासहि अहासुतं जाव आणाए अणपालित्ता भवइ / 39. नव-नवमिया णं भिक्खुपडिमा एगासीए राइविएहि चहि य पंचुत्तहिं भिक्खासएहि अहासुत्तं जाव प्राणाए अणुपालित्ता भवइ / 40. दस-दसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेणं राइंदियसएणं अद्धछोहि य भिक्खासहि जाव आणाए अणुपालित्ता भवइ / 37. सप्तसप्तमिका-सप्त-सप्तदिवसीय भिक्षुप्रतिमा उनचास अहोरात्र में एक सौ छियानवै भिक्षादत्तियों से सूत्रानुसार यावत् जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है / 38, अट्टअट्टमिया-अष्ट-अष्टदिवसीय भिक्षुप्रतिमा चौसठ अहोरात्र में दो सौ अठासी भिक्षादत्तियों से सूत्रानुसार यावत् जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है। 39. नवनवमिया-नौ-नौदिवसीय भिक्षुप्रतिमा इक्यासी अहोरात्र में चार सौ पांच भिक्षादत्तियों से सूत्रानुसार यावत् जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है / 40. दसदसमिया दश-दशदिवसीय भिक्षुप्रतिमा सौ अहोरात्र में पांच सौ पचास भिक्षादत्तियों से सूत्रानुसार यावत् जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है। विवेचन-इन सूत्रों में चार प्रतिमानों का वर्णन किया गया है, जिनकी आराधना साधुसाध्वी दोनों ही कर सकते हैं। अंतगडसूत्र के आठवें वर्ग में सुकृष्णा प्रार्या द्वारा इन भिक्षुप्रतिमानों को आराधना करने का वर्णन है। इन प्रतिमाओं में साध्वी भी स्वयं अपनी गोचरी लाती है, जिसमें निर्धारित दिनों तक भिक्षादत्ति की मर्यादा का पालन किया जाता है। इन प्रतिमाओं में निर्धारित दत्तियों से कम दत्तियां ग्रहण की जा सकती हैं या अनशन तपस्या भी की जा सकती है। किन्तु किसी भी कारण से मर्यादा से अधिक दत्ति ग्रहण नहीं की जा सकती है। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम उद्देशक] [425 इन प्रतिमानों में उपवास आदि तप करना आवश्यक नहीं होता है, स्वाभाविक ही प्रायः सदा ऊनोदरी तप हो जाता है / सप्तसप्ततिका भिक्षप्रतिमा-प्रथम सात दिन तक एक-एक दत्ति, दूसरे सात दिन तक दो-दो दत्ति, यों क्रमशः सातवें सप्तक में सात-सात दत्ति ग्रहण की जाती है / इस प्रकार सात सप्तक के 49 दिन होते हैं और भिक्षादत्ति की कुल अधिकतम संख्या 196 होती है / ये दत्तियां पाहार की अपेक्षा से हैं / पानी की अपेक्षा भी इतनी ही दत्तियां समझ लेनी चाहिए। इसी प्रकार अष्टप्रष्टमिका भिक्षप्रतिमा-पाठ अष्टक से 64 दिनों में पूर्ण की जाती है / जिसमें प्रथम पाठ दिन में एक दत्ति आहार की एवं एक ही दत्ति पानी की ली जाती है / इस प्रकार बढ़ाते हुए पाठवें अष्टक में प्रतिदिन पाठ दत्ति आहार की एवं आठ दत्ति पानी की ली जा सकती है। इस प्रकार कुल 64 दिन और 288 भिक्षादत्ति हो जाती हैं। इसी प्रकार "नवनवमिका" और दसवसमिकाप्रतिमा-के भी सूत्रोक्त दिन और दत्तियों का प्रमाण समझ लेना चाहिए। बृहत्कल्प उ. 5 में साध्वी को अकेले गोचरी जाने का भी निषेध किया है / अतः इन प्रतिमानों में स्वतन्त्र गोचरी लाने वाली साध्वी के साथ अन्य साध्वियों को रखना आवश्यक है, किन्तु गोचरी तो वह स्वयं ही करती है। इन प्रतिमाओं को भी सूत्र में "भिक्षुप्रतिमा" शब्द से ही सूचित किया गया है / फिर भी इनको धारण करने में बारह भिक्षुप्रतिमाओं के समान पूर्वो का ज्ञान या विशिष्ट संहनन की आवश्यकता नहीं होती है। मोक-प्रतिमा-विधान 41. दो पडिमाओ पण्णत्तानो, तं जहा–१. खुड्डिया वा मोयपडिमा, 2. महल्लिया वा मोयपडिमा / खुड्डियं णं मोयपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स कप्पइ पढम-सरय-कालसमयंसि वा चरिमनिदाह-कालसमयंसि वा, बहिया गामस्स वा जाव रायहाणीए वा वर्णसि वा वणदुग्गंसि वा पन्वयंसि वा पव्ययदुग्गंसि वा / भोच्चा आरुभइ, चोइसमेणं पारेइ, अभोच्चा आरुभइ, सोलसमेण पारेइ / जाएजाए मोए आगच्छइ, ताए-ताए आईयव्वे / दिया प्रागच्छइ आईयव्वे, रत्ति प्रागच्छइ नो आईयव्वे / सपाणे मत्ते आगच्छइ नो पाईयग्वे, अपाणे मत्ते आगच्छह आईयब्वे / सबीए मत्ते आगच्छइ नो आईयन्वे, अबीए मत्ते आगच्छइ आईयव्वे / ससणिद्धे भत्ते प्रागच्छद नो आईयव्वे अससणिद्धे मत्ते पागच्छइ आईयट्वे / ससरक्खे मत्ते आगच्छइ नो प्राईयन्वे, अससरक्खे मत्ते आगच्छद आईयग्वे / जावइएजावइए मोए आगच्छइ, तावइए-तावइए सव्वे आईयध्वे, तं जहा--अप्पे वा, बहुए वा / एवं खलु एसा खुड्डिया मोयपडिमा अहासुत्तं जाव आणाए अणुपालित्ता भवइ / 42. महल्लियं णं मोयपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स कप्पइ पढम-सरय-कालसमयंसि वा, चरम-निदाह-कालसमयंसि वा, बहिया गामस्स वा जाव रायहाणिए वा वणंसि वा वणदुग्गसि वा Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्यवहारसूत्र हीं पीना पम्वयंसि वा पन्वयदुर्गसि वा, भोच्चा आरुभइ, सोलसमेणं पारेइ, अभोच्चा प्रारुभइ, अट्ठारसमेणं पारेइ / जाए-जाए मोए प्रागच्छइ, ताए-ताए आईयव्वे / दिया आगच्छइ प्राईयब्वे, रत्ति प्रागच्छइ नो आईयब्वे जाव एवं खलु एसा महल्लिया मोयपडिमा अहासुतं जाव आणाए अणुपालित्ता भवइ / 41. दो प्रतिमाएं कही गई हैं, यथा--१. छोटी प्रस्रवणप्रतिमा, 2. बड़ी प्रस्रवणप्रतिमा / छोटी प्रस्रवणप्रतिमा शरत्काल के प्रारम्भ में अथवा ग्रीष्मकाल के अन्त में ग्राम के बाहर यावत् राजधानी के बाहर वन में या वनदुर्ग में, पर्वत पर या पर्वतदुर्ग में अनगार को धारण करना कल्पता है। यदि वह भोजन करके उस दिन इस प्रतिमा को धारण करता है तो छह उपवास से इसे पूर्ण करता है / यदि भोजन किये बिना अर्थात् उपवास के दिन इस प्रतिमा को धारण करता है तो सात उपवास से इसे पूर्ण करता है / इस प्रतिमा में भिक्षु को जितनी बार मूत्र आवे उतनी बार पी लेना चाहिए। दिन में आवे तो पीना चाहिए, किन्तु रात में आवे तो नहीं पीना डाहिए। कृमियुक्त पावे तो नहीं पीना चाहिए, किन्तु कृमिरहित यावे तो पीना चाहिए / वीर्यसहित पावे ते चाहिए, किन्तु वीर्यरहित आवे तो पीना चाहिए। चिकनाईसहित आवे तो नहीं पीना चाहिए, किन्तु चिकनाईरहित आवे तो पीना चाहिए। रज (रक्तकण) सहित आवे तो नहीं पीना चाहिए, किन्तु रजरहित पावे तो पीना चाहिए। जितना-जितना मूत्र आवे उतना-उतना सब पी लेना चाहिए, वह अल्प हो या अधिक। इस प्रकार यह छोटी प्रस्रवणप्रतिमा सूत्रानुसार यावत् जिनाज्ञानुसार पालन की जाती है। 42. बड़ी प्रस्रवणप्रतिमा शरत्काल के प्रारम्भ में या ग्रीष्मकाल के अन्त में ग्राम के बाहर यावत् राजधानी के बाहर वन में या वनदुर्ग में, पर्वत पर या पर्वतदुर्ग में अनगार को धारण करना कल्पता है / यदि वह भोजन करके उसी दिन इस प्रतिमा को धारण करता है तो सात उपवास से इसे पूर्ण करता है। यदि भोजन किये बिना अर्थात् उपवास के दिन इस प्रतिमा को धारण करता है तो आठ उपवास से इसे पूर्ण करता है। इस प्रतिमा में भिक्षु को जब-जब मूत्र अावे, तब-तब पी लेना चाहिए। यदि दिन में आवे तो पीना चाहिए, किन्तु रात में आवे तो नहीं पीना चाहिए यावत् इस प्रकार यह बड़ी प्रस्रवणप्रतिमा सूत्रानुसार यावत् जिनाज्ञानुसार पालन की जाती है। विवेचन इस सूत्रद्विक में दो भिक्षुप्रतिमाओं का वर्णन किया गया है। इन्हें केवल निर्ग्रन्थ ही स्वीकार कर सकता है। निर्ग्रन्थियां इन प्रतिमाओं को धारण नहीं कर सकतीं। क्योंकि ये प्रतिमाएं ग्रामादि के बाहर अथवा जंगल या पहाड़ों में जाकर सात-आठ दिन तक एकाकी रहकर रात-दिन पालन की जाती है / अतः भाष्य में इसका अधिकारी तीन संहनन वाले पूर्वधारी को ही बताया है। ये प्रतिमाएं प्राषाढ मास या मृगशीर्ष (मिगसर) मास में ही धारण की जाती हैं / दोनों प्रस्रवणप्रतिमाओं में से एक प्रतिमा सात रात्रि कायोत्सर्ग की होती है, उसे छोटी प्रस्रवणप्रतिमा कहा गया है। दूसरी पाठ रात्रि कायोत्सर्ग की होती है, उसे बड़ी प्रस्रवणप्रतिमा कहा है / इन दोनों प्रतिमाओं को प्रथम दिन उपवास तप करके प्रारम्भ किया जा सकता है अथवा एक बार भोजन करके भी प्रारम्भ किया जा सकता है / भोजन करने वाले के एक दिन की तपस्या कम होती है, किन्तु कायोत्सर्ग करने का काल तो सभी के समान ही होता है / Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम उद्देशक [427 इन प्रतिमाओं को धारण करने के बाद चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया जाता है, केवल स्वमूत्रपान करना खुला रहता है अर्थात् उन दिनों में जब-जब जितना भी मूत्र आवे, उसे सूत्रोक्त नियमों का पालन करते हुए पी लिया जाता है / नियम इस प्रकार हैं-(१) दिन में पीना, रात्रि में नहीं। (2) कृमि, वीर्य, रज या चिकनाई युक्त हो तो नहीं पीना चाहिए / शुद्ध हो तो पीना चाहिए / प्रतिमाधारी भिक्षु के उक्त रक्त, स्निग्धता आदि विकृतियां किसी रोग के कारण या तपस्या एवं धूप की गर्मी के कारण हो सकती हैं, ऐसा भाष्य में बताया गया है / कभी मूत्रपान से ही शरीर के विकारों की शुद्धि होने के लिए भी ऐसा होता है। ___ यद्यपि इस प्रतिमा वाला चौविहार तपस्या करता है और रात-दिन व्युत्सर्गतप में रहता है, फिर भी वह मूत्र की बाधा होने पर कायोत्सर्ग का त्याग कर मात्रक में प्रस्रवण त्याग करके उसका प्रतिलेखन करके पी लेता है / फिर पुनः कायोत्सर्ग में स्थिर हो जाता है / यह इस प्रतिमा की विधि है / इस प्रतिमा का पालन करने वाला मोक्षमार्ग की आराधना करता है / साथ ही उसके शारीरिक रोग दूर हो जाते हैं और कंचनवर्णी बलवान् शरीर हो जाता है। प्रतिमा-पाराधन के बाद पुनः उपाश्रय में आ जाता है / भाष्य में उसके पारणे में आहारपानी की 49 दिन की क्रमिक विधि बताई गई है। लोक-व्यवहार में मूत्र को एकांत अशुचिमय एवं अपवित्र माना जाता है, किन्तु वैद्यक ग्रन्थों में इसे सर्वोषधि, शिवांबु आदि नामों से कहा गया है और जैनागमों में भिक्षु को "मोयसमायारे" कह कर गृहस्थों को शुचिसमाचारी वाला कहा गया है। अभि. रा. कोश में "निशाकल्प" शब्द में साधु के लिए रात्रि में पानी के स्थान पर इसे प्राचमन करने में उपयोगी होना बताया है / स्वमूत्र का विधिपूर्वक पान करने पर एवं इसका शरीर की त्वचा पर अभ्यंगन करने पर अनेक असाध्य रोग दूर हो जाते हैं। चर्मरोग के लिए या किसी प्रकार को चोट भरोंच आदि के लिए यह एक सफल औषध है / अतः आगमों में मूत्र को एकांत अपवित्र या अशुचिमय नहीं मानकर अपेक्षा से पेय एवं अपेक्षा से अशुचिमय भी माना है। भाष्यकार ने यह भी बताया है कि जनसाधरण शौचवादी होते हैं और मूत्र को एकांत अपवित्र मानते हैं, अतः प्रतिमाधारी भिक्षु चारों ओर प्रतिलेखन करके कोई भी व्यक्ति न देखे, ऐसे विवेक के साथ मूत्र का पान करे / तदनुसार अन्य भिक्षुओं को भी प्रस्रवण संबंधी कोई भी प्रवृत्ति करनी हो तो जनसाधारण से अदृष्ट एवं अज्ञात रखते हुए करने का विवेक रखना चाहिए। __ वर्तमान में भी मूत्रचिकित्सा का महत्त्व बहुत बढ़ा है, इस विषय के स्वतंत्र ग्रन्थ भी प्रकाशित हुए हैं, जिनमें कैंसर, टी. बी. प्रादि असाध्य रोगों के उपशांत होने के उल्लेख भी हैं। दत्ति-प्रमाणनिरूपण 43. संखादत्तियस्स भिक्खुस्स पडिग्गहधारिस्स (गाहावाकुलं पिंडवाय-पडियाए, अणुपविटुस्स) जावइयं-जावइयं केइ अन्तो पडिग्गहंसि उवइत्ता दलएज्जा तावइयाओ ताओ दत्तीनो वत्तम्वं सिया। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428] বিভাগ तत्थ से केइ छव्वएण वा, दूसएण वा, वालएणं वा अन्तो पडिग्गहंसि उवइत्ता दलएज्जा, सव्वा वि णं सा एगा दत्ती वत्तव्वं सिया / तत्थ से बहवे भुजमाणा सव्वे ते सयं सयं पिण्डं साहणिय अन्तो पडिग्गहंसि उवइत्ता दलएज्जा, सव्वा वि णं सा एगा दत्तो वत्तव्वं सिया। 44. संखादत्तियस्स गं भिक्खुस्स पाणि पडिग्गहियस्स (गाहावइकुलं पिण्डवाय-पडियाए अणुपविट्ठस्स) जावइयं-जावइयं केइ अन्तो पाणिसि उवइत्ता दलएज्जा तावइयानो तातो बत्तीओ पत्तग्वं सिया। तत्थ से केइ छब्बएण वा, दूसएण वा, वालएण वा अन्तो पाणिसि उवइत्ता दलएज्जा, सव्वा वि णं सा एगा दत्ती वत्तव्वं सिया / तत्थ से बहवे भुजमाणा सब्वे ते सयं सयं पिण्डं साहणिय अन्तो पाणिसि उवइत्ता दलएज्जा सव्वा वि णं सा एगा दत्ती वत्तवं सिया। 43. दत्तियों की संख्या का अभिग्रह करने वाला पात्रधारी निर्ग्रन्थ गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रवेश करे, इस समय 1. आहार देने वाला गृहस्थ पात्र में जितनी बार झुकाकर पाहार दे, उतनी ही "दत्तियां" कहनी चाहिए। 2. पाहार देने वाला गृहस्थ यदि छबड़ी से, वस्त्र से या चालनी से बिना रुके पात्र में झुकाकर दे, वह सब “एक दत्ति" कहनी चाहिए। 3. आहार देने वाले गृहस्थ जहां अनेक हों और वे सब अपना-अपना आहार सम्मिलित कर बिना रुके पात्र में झुकाकर दें तो वह सब "एक दत्ति” कहनी चाहिए। 44. दत्तियों की संख्या का अभिग्रह करने वाला करपात्रभोजी निर्ग्रन्थ गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रवेश करे, इस समय 1. आहार देने वाला गृहस्थ जितनी बार झुकाकर भिक्षु के हाथ में आहार दे, उतनी हो 'दत्तियां" कहनी चाहिए। 2. आहार देने वाला गृहस्थ यदि छबड़ी से, वस्त्र से या चालनी से बिना रुके भिक्षु के हाथ में जितना आहार दे वह सब “एक दत्ति” कहनी चाहिए। 3. आहार देने वाले गृहस्थ जहां अनेक हों और वे सब अपना-अपना पाहार सम्मिलित कर बिना रुके भिक्षु के हाथ में झुकाकर दें, वह सब “एक दत्ति' कहनी चाहिए / विवेचन–सप्तसप्ततिका प्रादि भिक्षुप्रतिमाओं में दत्तियों की संख्या से आहार ग्रहण करने का वर्णन किया गया है और इस सूत्रद्विक में दत्ति का स्वरूप बताया गया है। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम उद्देशक] [429 दाता एक ही बार में धार खंडित किये बिना जितना पाहार या पानी साधु के पात्र में दे उसे एक 'दत्ति' प्रमाण आहार या पानी कहा जाता है। वह एक दत्ति आहार-पानी हाथ से दे या किसी बर्तन से दे अथवा किसी सूप, छाबड़ी आदि से दे, अल्पमात्रा में देकर रुक जाय या बिना रुके अधिक मात्रा में दे, वह सब एक बार में दिया गया आहार या पानी एक दत्ति ही कहा जाता है। कभी कोई खाद्य पदार्थ अनेक बर्तनों में या अनेक व्यक्तियों के हाथ में अलग-अलग रखा हो, उसे एक बर्तन में या एक हाथ में इकट्ठा करके एक साथ पात्र में दे दिया जाए तो वह भी एक दत्ति ही समझना चाहिए। पात्र नहीं रखने वाले अर्थात् कर-पात्री भिक्षु के हाथ में उपर्युक्त विधियों से जितना आहार आदि एक साथ दिया जाय, वह उनके लिए एक दत्ति समझना चाहिए। तीन प्रकार का आहार 45. तिविहे उवहडे पण्णते, तं जहा-१. फलिप्रोवहडे, 2. सुद्धोवहडे, 3. संसट्ठोवहडे / 45. खाद्यपदार्थ तीन प्रकार का माना गया है, यथा--१. फलितोपहृत अनेक प्रकार के व्यंजनों से मिश्रित खाद्यपदार्थ / 2. शुद्धोपहृत-व्यंजनरहित शुद्ध अलेप्य खाद्यपदार्थ / 3. संसृष्टोपहत-- व्यंजनरहित सलेप्य खाद्यपदार्थ / विवेचन-भिक्षा में तीन प्रकार के खाद्यपदार्थ ग्रहण किये जाते हैं, जिसमें सभी प्रकार के ग्राह्य पदार्थों का समावेश हो जाता है। (1) अनेक पदार्थों के संयोग से संस्कारित मिष्ठान्न, नमकीन शाक-भाजी आदि को फलितोपहृत कहा है। (2) शुद्ध अलेप्य चने, ममरे, फूली आदि को शुद्धोपहृत कहा है। (3) शुद्ध सलेप्य भात, रोटी, घाट, खिचड़ी ग्रादि प्रसंस्कारित गीले सामान्य पदार्थ को संसृष्टोपहृत कहा है / अभिग्रह धारण करने वाले भिक्षु इनमें से किसी भी प्रकार का अभिग्रह कर सकते हैं। अवगहीत आहार के प्रकार 46. तिविहे प्रोग्गहिए पण्णत्ते, तं जहा-१. जं च प्रोगिण्हइ, 2. जं च साहरइ, 3. जं च आसमंसि (थासगंसि) पक्खिवइ, एगे एवमाहंसु। ___ एगे पुण एवमाहंसु, दुविहे ओग्गहिए पण्णत्ते, तं जहा-१. जं च ओगिण्हइ, 2. जं च आसगंसि (थासगंसि) पक्खिवइ। 46. अवगृहीत पाहार तीन प्रकार का कहा गया है, यथा--१. परोसने के लिए ग्रहण किया हुमा / 2. परोसने के लिए ले जाता हुआ / 3. बर्तन में परोसा जाता हुआ, ऐसा कुछ प्राचार्य कहते Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430] व्यवहारसूत्र हैं। परन्तु कुछ प्राचार्य ऐसा भी कहते हैं कि--अवगृहीत आहार दो प्रकार का कहा गया है, यथा१. परोसने के लिए ग्रहण किया जाता हुआ। 2. बर्तन में परोसा जाता हुआ। विवेचन-पूर्वसूत्र में खाद्यपदार्थ के तीन प्रकार कहे गये हैं और प्रस्तुत सूत्र में दाता के द्वारा आहार को ग्रहण करने की तीन अवस्थाओं का कथन किया गया है (1) जिसमें खाद्यपदार्थ पड़ा है या बनाया गया है, उसमें से निकाल कर अन्य बर्तन में ग्रहण किया जा रहा हो। (2) ग्रहण करके परोसने के लिए ले जाया जा रहा हो। (3) थाली आदि में परोस दिया गया हो, किन्तु खाना प्रारम्भ नहीं किया हो / भाष्यकार ने यहां तीनों अवस्थाओं का छट्ठी पिंडेषणा रूप होने का कहा है। अनेक प्रतियों में तीसरे प्रकार के लिए "प्रासगंसि" शब्द उपलब्ध होता है, जिसके दो अर्थ किए जाते हैं (1) खाने के लिए मुख में डाला जाता हुअा। (2) बर्तन के मुख में डाला जाता हुआ। ये दोनों ही अर्थ यहां प्रसंगसंगत नहीं हैं क्योंकि छट्ठी पिंडेषणा में भोजन करने के लिए ग्रहण की जाने वाली तीन अवस्थाओं (तीन प्रकारों) का क्रमशः तीसरा प्रकार थाली आदि में परोसा जाता हुआ आहार ऐसा अर्थ करना ही उपयुक्त है / जो खाना प्रारम्भ करने के पूर्व की अवस्था होने से कल्पनीय भी है / किन्तु मुख में खाने के लिए डाला जाता हुआ आहार ग्रहण करना तो अनुपयुक्त एवं अव्यवहारिक है और बर्तन के मुख में डाला जाता हुआ पाहार छट्ठी पिंडेषणा रूप नहीं होने से क्रम-प्राप्त प्रासंगिक नहीं है / अतः सम्भावना यह है कि लिपिदोष से 'थासगंसि या थालगंसि' शब्द के स्थान पर कदाचित् 'पासगंसि' शब्द बन गया है। भगवतीसूत्र श. 11 उ. 11 पृ. 1951 (सैलाना से प्रकाशित) में थाल और थासग शब्दों का प्रयोग किया है, जिनका क्रमशः थाली और तस्तरी (प्लेट) अर्थ किया गया है। अत: यहां थासगंसि या थालगंसि शब्द को शुद्ध मान कर अर्थ स्पष्ट किया है। सत्र के द्वितीय विभाग में वैकल्पिक अपेक्षा से भोजन करने हेतु ग्रहण किए हुए आहार के दो प्रकार कहे गये हैं, यथा-मूल बर्तन में से निकालते हुए और थाली आदि में परोसते हुए / इस विकल्प में जहां आहार रखा हो वहीं पर बैठे हुए एक बर्तन में से निकालकर थाली आदि में परोसने की अपेक्षा की गई है किन्तु मार्ग में चलने की या दूर ले जाकर परोसने की विवक्षा इसमें नहीं की गई है। सूत्र में “एगे पुण एवमाहंसु" शब्द का प्रयोग किया गया है। इससे मान्यताभेद की कल्पना उत्पन्न होती है, किंतु यहां दो अपेक्षानों को लेकर सूत्र की रचना-पद्धति है, ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि ऐसी सामान्य बात के लिए पूर्वधरों में मान्यताभेद हो जाना एवं सूत्र में संकलित किया जाना क्लिष्ट कल्पना है। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम उद्देशक] [431 जबकि ऐसे वाक्यप्रयोग जीवाभिगमसूत्र के प्रारम्भ में अनेक आदेशात्मक प्ररूपणा के हैं, वहां अपेक्षा से जीवों के दो, तीन, चार प्रादि भेद कहे हैं। वह कथन भी मान्यताभेद न समझकर विभिन्न अपेक्षा रूप ही समझा जाता है / वहां टीकाकार ने भी वैसा ही स्पष्टीकरण किया है। अत: यहां भी "एगे पुण एवमासु" शब्दों का प्रयोग होते हुए भी मान्यताभेद होना नहीं समझना चाहिए / भाष्यकार ने भी इसे प्रादेश कहकर उसकी यह परिभाषा बताई है कि अनेक बहश्रतों से चली आई भिन्न-भिन्न अपेक्षायों को आदेश कहते हैं। इसलिए प्रस्तुत सूत्र के दोनों विभागों को आदेश ही समझना चाहिए। नवम उद्देशक का सारांश सूत्र 1-8 17-36 37-40 41-42 शय्यातर के नौकर या पाहुणों को पूर्ण रूप से दिये गये आहार में से भिक्षु ले सकता है, यदि प्रातिहारिक दिया हो (शेष आहार लौटाने का हो) तो नहीं लेना चाहिए / शय्यातर के सहयोग से जीवननिर्वाह करने वाले उसके ज्ञातिजन यदि खाना बनावें या खावें तो उनसे लेना नहीं कल्पता है / शय्यातर के भागीदारी (साझेदारी) वाली दुकानों में यदि कोई पदार्थ बिना भागीदारी वाली का हो तो उसके भागीदार से लिए जा सकते हैं / अथवा विभक्त हो जाने पर कोई भी पदार्थ लिए जा सकते हैं। सात-सप्तक, आठ-अष्टक, नव-नवक और दश-दशक में दत्तियों की मर्यादा से भिक्षा ग्रहण करके चार प्रकार की भिक्षु प्रतिमाओं का आराधन साधु-साध्वी कर सकते हैं / स्वमूत्रपान की छोटी व बड़ी प्रतिमा सात एवं आठ दिन में पाराधन की जाती है। इस में पूर्ण शुद्ध एवं सूत्रोक्त प्रस्रवण दिन में ही पिया जाता है, रात्रि में नहीं। एक बार में अखंड धार से साधु के हाथ में या पात्र में दिये जाने वाले आहारादि को एक दत्ति कहा जाता है। तीन प्रकार के खाद्य पदार्थ होते हैं (1) संस्कारित पदार्थ, (2) शुद्ध अलेप्य पदार्थ, (3) शुद्ध सलेप्य पदार्थ / इनमें से कोई भी अभिग्रह धारण किया जा सकता है। "प्रगहीत' नामक छट्ठी पिंडेषणा के योग्य प्राहार की तीन अवस्थाएं होती हैं। (1) बर्तन में से निकालते हुए, (2) परोसने लिये ले जाते हुए, (3) थाली आदि में परोसते हुए / अथवा अपेक्षा से उस आहार की दो अवस्था कही जा सकती हैं(१) बर्तन में से निकालते हुए, (2) थाली आदि में परोसते हुए / 43-44 45 56 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432] [व्यवहारसूत्र उपसंहार 37-42 इस उद्देशक मेंशय्यातर के खाद्यपदार्थ के कल्प्याकल्प्य का, दत्ति-परिमाण प्रतिमाओं का एवं प्रश्रवण-पान प्रतिमाओं का, दत्तिस्वरूप का, अभिग्रह योग्य आहार के प्रकारों का, इत्यादि विषयों का कथन किया गया है / // नवम उद्देशक समाप्त // 45-46 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक दो प्रकार की चन्द्रप्रतिमाएं 1. दो पडिमाओ पण्णत्ताओ, तं जहा१. जवमझा य चंदपडिमा, 2. वइरमज्झा य चंदपडिमा / जवमझ णं चंदपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स निच्चं मासं वोसट्टकाए चियत्तदेहे / जे केइ परीसहोवसग्गा समुप्पज्जेज्जा दिव्वा वा, माणुस्सगावा, तिरिक्खजोणिया वा, अणुलोमा वा, पडिलोमा वा, तत्थ अणुलोमा ताव वंदेज्जा वा, नमंसिज्जा वा, सक्कारेज्जा वा, सम्माणेज्जा वा, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेज्जा, पडिलोमा ताव अन्नयरेणं दंडेण वा, अट्ठिणा वा, जोतेण वा, वेत्तेण वा, कसेण वा काए आउटेज्जा, ते सव्वे उप्पन्ने सम्म सहेज्जा, खमेज्जा, तितिक्खेज्जा, अहियासेज्जा। जवमझं गं चंदपडिम पडिकन्नस्स प्रणगारस्स, सुक्कपक्खस्स पाडिवए से कप्पइ एगा दत्ती भोयणस्स पडिगाहेत्तए, एगा पाणस्स, सम्वेहि दुप्पयं चउप्पयाइएहि आहार-कखोहि सत्तेहि पडिणियतेहि, अन्नायउंछं सुद्धोवहडं निज्जूहित्ता बहवे समण जाव वणीमगा। कप्पड से एगस्स भुजमाणस्स पडिग्गाहेत्तए नो दोण्हं, नो तिण्हं, नो चउण्हं, नो पंचण्हं। नो मुग्विणीए, नो बालवच्छाए, नो दारगं पेज्जमाणीए / नो अंतो एलुयस्स दो वि पाए साहटु दलमाणीए नो बाहिं एलुयस्स दो वि पाए साहटु दलमाणीए। अह पुण एवं जाणेज्जा-एगं पायं अंतो किच्चा, एगं पायं बाहिं किच्चा एलुयं विक्खम्भइत्ता दलयइ, एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए। बिइयाए से कप्पइ दोण्णि दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, दोणि पाणस्स / तइयाए से कप्पइ तिणि दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, तिणि पाणस्स / चउत्थीए से कप्पइ चउ दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, चउ पाणस्स / पंचमीए से कप्पइ पंच दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, पंच पाणस्स / छट्ठीए से कप्पइ छ वत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, छ पाणस्स / सत्तमोए मे कप्पा सत्त दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, सत्त पाणस्स / अट्ठमीए से कप्पइ अटु दत्तोपो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, अट्ट पाणस्स / नवमीए से कप्पह नव वत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, नव पाणस्स / दसमीए से कप्पइ वस दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, दस पाणस्स / Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434] [व्यवहारसूत्र एगारसमीए से कप्पड़ एगारस बत्तीपो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, एगारस पाणस्स / बारसमीए से कप्पइ बारस दत्तोओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, बारस पाणस्स / तेरसमीए से कप्पइ तेरस दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, तेरस पाणस्स / चोद्दसमीए से कप्पई चोद्दस दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, चोइस पाणस्स। पन्नरसमीए से कप्पइ पन्नरस वत्तीयो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, पन्नरस पाणस्स / बहुलपक्खस्स पाडिवए से कप्पइ चोइस दत्तीयो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, चोइस पाणस्स / बिइयाए से कप्पइ तेरस दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, तेरस पाणस्स / तइयाए से कप्पइ बारस दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, बारस पाणस्स / चउत्थीए से कप्पइ एक्कारस दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, एक्कारस पाणस्स / पंचमीए से कप्पइ दस दत्तोओ भोयणस्स पड़िगाहेत्तए, दस पाणस्स / छट्ठीए से कप्पइ नव दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, नव पाणस्स / सत्तमीए से कप्पइ अट्ट दत्तोओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, अट्ठ पाणस्स / अट्ठमीए से कप्पइ सत्त दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, सत्त पाणस्त / नवमीए से कप्पइ छ दत्तोओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, छ पाणस्स। दसमीए से कप्पद पंच दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, पंच पाणस्स / एक्कारसमीए से कप्पइ चउ दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, चउ पाणस्स / बारसमीए से कप्पइ तिणि दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, तिपिण पाणस्स / तेरसमीए से कप्पइ दो दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, दो पाणस्स / चउदसमीए से कप्पइ एगा दत्ती भोयणस्स पडिगाहेत्तए, एगा पाणस्स। अमावासाए से य अभत्तठे भवइ / एवं खलु जवमज्झचंदपडिमा प्रहासुत्तं जाव अण्णाए अणुपालिया भवइ / 2. वइरमझ णं चंदपडिम पडिवनस्स अणगारस्स निच्चं मासं वोसटकाए चियत्तदेहे जे केह परीसहोवसग्गा समुप्पज्जेज्जा जाव अहियासेज्जा। वइरमज्झं णं चंदपडिम पडिवनस्स अणगारस्स, बहुलपक्खस्स पाडिवए से कप्पइ पन्नरस दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, पन्नरस पाणस्स जाव एलुयं विवखंभइत्ता दलयइ एवं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए। बिइयाए से कप्पइ चउद्दस दत्तीपो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, चउद्दस पाणस्स / तइयाए से कप्पइ तेरस दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, तेरस पाणस्स। चउत्थीए से कप्पइ बारस दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, बारस पाणस्स / पंचमीए से कप्पइ एगारस दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, एगारस पाणस्स / छट्ठीए से कप्पइ दस दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, दस पाणस्स / Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसवां उद्देशक] [435 सत्तमीए से कप्पइ नव दत्तीयो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, नव पाणस्स / अट्ठमीए से कप्पइ अट्ठ दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, अट्ठ पाणस्स / नवमीए से कप्पइ सत्त दत्तीमो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, सत्त पाणस्स / दसमीए से कप्पइ छ वत्तीयो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, छ पाणस्स / एगारसमीए से कप्पइ पंच दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, पंच पाणस्स / बारसमीए से कप्पइ चउ दत्तीम्रो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, चउ पाणस्स / तेरसमीए से कप्पइ तिन्नि दत्तोपो भोयणस्स पडिगाहेतए, तिन्नि पाणस्स / चउदसमीए से कप्पइ दो दत्तोओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, दो पाणस्स / अमावासाए से कप्पइ एगा दत्तो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, एगा पाणंस्स / सुक्कपक्खस्स पाडियए से कप्पाइ दो बत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, दो पाणस्स / बिइयाए से कप्पइ तिन्नि वत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, तिन्नि पाणस्स / तइयाए से कप्पइ चउ दत्तीपो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, चउ पाणस्स। चउत्थीए से कप्पइ पंच दत्तोपो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, पंच पासस्स / पंचमीए से कप्पइ छ दत्तीसो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, छ पाणस्स / छट्ठीए से कप्पा सत्त दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, सत्त पाणस्स / सत्तमीए से कप्पइ अट्ठ दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, अट्ठ पाणस्स। अट्टमीए से कप्पइ नव दत्तीग्रो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, नव पाणस्स। नवमीए से कप्पइ वस दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, वस पाणस्स / वसमीए से कप्पइ एगारस दत्तोओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, एगारस पाणस्स। एगारसमोए से कप्पइ बारस दत्तोओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, बारस पाणस्स / बारसमीए से कप्पइ तेरस वत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, तेरस पाणस्स। तेरसमीए से कप्पइ चउद्दस दत्तीमो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, चउद्दस पाणस्स / चउद्दसमीए से कप्पद पन्नरस दत्तोओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, पन्नारस पाणस्स / पुण्णिमाए से य प्रभत्तठे भवइ। एवं खलु एसा बहरमज्झा चंदपडिमा अहासुत्तं जाव आणाए अणुपालिया भवइ / 1. दो प्रतिमायें कहो गई हैं, यथा-१. यवमध्यचन्द्रप्रतिमा, 2. वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा। यवमध्यचन्द्रप्रतिमा स्वीकार करने वाला अनगार एक मास तक शरीर के परिकर्म से तथा शरीर के ममत्व से रहित होकर रहे / उस समय जो कोई भी देव, मनुष्य एवं तिर्यंचकृत अनुकूल या प्रतिकूल परीषह एवं उपसर्ग उत्पन्न हों, यथा अनुकूल परीषह एवं उपसर्ग ये हैं--कोई वन्दना नमस्कार करे, सत्कार-सम्मान करे, कल्याणरुप, मंगलरूप, देवरूप और ज्ञानरूप मानकर पर्युपासना करे। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 436 [व्यवहारसूत्र प्रतिकूल परोषह एवं उपसर्ग ये हैं किसी दण्ड, हड्डी, जोत, बेंत अथवा चाबुक से शरीर पर प्रहार करे। वह इन सब अनुकूल-प्रतिकूल उत्पन्न हुए परीषहों एवं उपसगों को प्रसन्न या खिन्न न होकर समभाव से सहन करे, उस व्यक्ति के प्रति क्षमाभाव धारण करे, वीरतापूर्वक सहन करे और शांति से आनन्दानुभाव करते हुए सहन करे।। यवमध्यचन्द्रप्रतिमा के आराधक अणगार को, शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के दिन आहार और पानी की एक-एक दत्ति ग्रहण करना कल्पता है। आहार की आकांक्षा करने वाले सभी द्विपद, चतुष्पद आदि प्राणी आहार लेकर लौट गये हों तब उसे अज्ञात स्थान से शुद्ध अल्पलेप वाला आहार लेना कल्पता है। ____ अनेक श्रमण यावत् भिखारी आहार लेकर लौट गये हों अर्थात् वहां खड़े न हों तो आहार लेना कल्पता है। ___ एक व्यक्ति के भोजन में से आहार लेना कल्पता है, किंतु दो, तीन, चार या पांच व्यक्ति के भोजन में से लेना नहीं कल्पता है / गर्भवती, छोटे बच्चे वाली और बच्चे को दूध पिलाने वाली के हाथ से आहार लेना नहीं कल्पता है। दाता के दोनों पैर देहली के अन्दर हों या बाहर हों तो उससे आहार लेना नहीं कल्पता है / यदि ऐसा जाने कि दाता एक पैर देहली के अन्दर और एक पैर देहली के बाहर रखकर देहली को पैरों के बीच में करके दे रहा है तो उसके हाथ से आहार लेना कल्पता है। शुक्लपक्ष के द्वितीया के दिन प्रतिमाधारी अणगार को भोजन और पानी की दो-दो दत्तियां लेना कल्पता है। तीज के दिन भोजन और पानी की तीन-तीन दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। चौथ के दिन भोजन और पानी की चार-चार दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / पांचम के दिन भोजन और पानी की पांच-पांच दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। छठ के दिन भोजन और पानी की छह-छह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / सातम के दिन भोजन और पानी की सात-सात दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। पाठम के दिन भोजन और पानी की पाठ-आठ दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। नवमी के दिन भोजन और पानी की नव-नव दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / दसमी के दिन भोजन और पानी की दस-दस दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / ग्यारस के दिन भोजन और पानी की ग्यारह-ग्यारह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। बारस के दिन भोजन और पानी की बारह-बारह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। तेरस के दिन भोजन और पानी की तेरह-तेरह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। चौदस के दिन भोजन और पानी की चौदह-चौदह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। पूर्णिमा के दिन भोजन और पानी को पन्द्रह-पन्द्रह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के दिन भोजन और पानी की चौदह-चौदह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक] [437 द्वितीया के दिन भोजन और पानी की तेरह-तेरह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / तीज के दिन भोजन और पानी की बारह-बारह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / चौथ के दिन भोजन और पानी की ग्यारह-ग्यारह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। पांचम के दिन भोजन और पानी की दश-दश दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / छठ के दिन भोजन और पानी की नव-नव दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। सातम के दिन भोजन और पानी की आठ-पाठ दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। आठम के दिन भोजन और पानी की सात-सात दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / नवमी के दिन भोजन और पानी की छह-छह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। दसमी के दिन भोजन और पानी की पांच-पांच दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। ग्यारस के दिन भोजन और पानी की चार-चार दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / बारस के दिन भोजन और पानी की तीन-तीन दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। तेरस के दिन भोजन और पानी की दो-दो दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / चौदस के दिन भोजन और पानी की एक-एक दत्ति ग्रहण करना कल्पना है। अमावस के दिन वह उपवास करता है। इस प्रकार यह यवमध्यचन्द्रप्रतिमा सूत्रानुसार यावत् जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती 2. वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा स्वीकार करने वाला अनगार एक मास तक शरीर के परिकर्म से तथा शरीर के ममत्व से रहित होकर रहे और जो कोई परीषह एवं उपसर्ग हो यावत् उन्हें शांति से सहन करे। वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा स्वीकार करने वाले अणगार को, कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के दिन पन्द्रह-पन्द्रह दत्तियां भोजन और पानी की लेना कल्पता है यावत् देहली को पैरों के बीच में करके दे तो उससे आहार लेना कल्पता है / द्वितीया के दिन भोजन और पानी की चौदह-चौदह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। तीज के दिन भोजन और पानी की तेरह-तेरह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / चौथ के दिन भोजन और पानी की बारह-बारह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / पांचम के दिन भोजन और पानी की ग्यारह-ग्यारह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / छठ के दिन भोजन और पानी की दश-दश दत्तियां ग्रहण करना कल्एता है। सातम के दिन भोजन और पानी की नव-नव दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। आठम के दिन भोजन और पानी की आठ-आठ दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / नवमी के दिन भोजन और पानी की सात-सात दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। दसमी के दिन भोजन और पानी की छह-छह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। ग्यारस के दिन भोजन और पानी की पांच-पांच दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / बारस के दिन भोजन और पानी की चार-चार दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्यवहारसूत्र तेरस के दिन भोजन और पानी को तीन-तीन दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। चौदस के दिन भोजन और पानी की दो-दो दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। अमावस्या के दिन भोजन और पानी की एक-एक दत्ति ग्रहण करना कल्पता है। शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के दिन भोजन और पानी की दो-दो दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / द्वितीया के दिन भोजन और पानी की तीन-तीन दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। तीज के दिन भोजन और पानी की चार-चार दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। चौथ के दिन भोजन और पानी को पांच-पाँच दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। पांचम के दिन भोजन और पानी की छह-छह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। छठ के दिन भोजन और पानी की सात-सात दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / सातम के दिन भोजन और पानी की आठ-पाठ दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। आठम के दिन भोजन और पानी की नव-नव दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। नवमी के दिन भोजन और पानी की दश-दश दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। दसमी के दिन भोजन और पानी की ग्यारह-ग्यारह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / ग्यारस के दिन भोजन और पानी की बारह-बारह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। बारस के दिन भोजन और पानी की तेरह-तेरह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। तेरस के दिन भोजन और पानी की चौदह-चौदह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / चौदस के दिन भोजन और पानी की पन्द्रह-पन्द्रह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। पूर्णिमा के दिन वह उपवास करता है। इस प्रकार यह वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा सूत्रानुसार यावत् जिनाज्ञानुसार पालन की जाती है। विवेचन-जिस प्रकार शुक्लपक्ष में चन्द्र की कलाएं बढ़ती हैं और कृष्णपक्ष में घटती हैं, उसी प्रकार इन दोनों प्रतिमाओं में आहार की दत्तियों की संख्या तिथियों के क्रम से घटाई और बढ़ाई जाती हैं / इसलिए इन दोनों प्रतिमाओं को “चन्द्रप्रतिमा" कहा गया है। जिस प्रकार जौ (धान्य) का एक किनारा पतला होता है, फिर मध्य में स्थूल होता है एवं अन्त में पतला होता है, उसी प्रकार जिस प्रतिमा के प्रारम्भ में एक दत्ति, मध्य में पन्द्रह दत्ति, अन्त में एक दत्ती और बाद में उपवास किया जाता है, उसे “यवमध्यचन्द्रप्रतिमा" कहा जाता है। जिस प्रकार वज्ररत्न या डमरू का एक किनारा विस्तृत, मध्यभाग संकुचित और दूसरा किनारा विस्तृत होता है, उसी प्रकार जिस प्रतिमा के प्रारम्भ में पन्द्रह दत्ति, मध्य में एक दत्ति, अन्त में पन्द्रह दत्ति और बाद में उपवास किया जाता है, उसे "वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा" कहा जाता है। ये दोनों प्रतिमाएं विशिष्ट संहनन वाला एवं पूर्वधर भिक्षु ही धारण कर सकता है। इन प्रतिमाओं में प्राहार-पानी की दत्तियां सूत्रनुसार क्रमश: घटाते-बढ़ाते हुए ग्रहण की जाती हैं / आहार पानी की दत्तियों की संख्या के साथ-साथ इन प्रतिमाओं को धारण करने वाले भिक्षु को निम्नलिखित नियमों का पालन करना आवश्यक होता है--- Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसवां उद्देशक] [439 (1) शारीरिक ममत्व का त्याग करना अर्थात् नियमित परिमित आहार के अतिरिक्त औषधभेषज के सेवन का और सभी प्रकार के शरीरपरिकर्म का त्याग करना। (2) देव, मनुष्य या तिर्यंच द्वारा किए गए उपसर्गों का प्रतिकार न करना और न उनसे बचने का प्रयत्न करना / (3) किसी के वन्दना या आदर-सत्कार किये जाने पर प्रसन्न न होना, अपितु समभाव में लीन रहना। (4) जिस मार्ग में या जिस घर के बाहर पशु या पक्षी हों तो पशुओं के चारा चर लेने के बाद और पक्षियों के चुग्गा चुग लेने के बाद पडिमाधारी को आहार लेने के लिए घर में प्रवेश करना। (5) पडिमाधारी के आने की सूचना या जानकारी न हो या उनकी कोई प्रतीक्षा करता न हो, ऐसे अज्ञात घरों से आहार ग्रहण करना। (6) उंछ-विगयरहित रूक्ष पाहार ग्रहण करना / (7) शुद्धोपहृत-लेप रहित आहारादि ग्रहण करना / (8) अन्य भिक्ष श्रमणादि जहां पर खडे हों, वहां भिक्षा के लिये न जाना। (9) एक व्यक्ति का आहार हो उसमें से लेना, अधिक व्यक्तियों के आहार में से नहीं लेना। (10) किसी भी गर्भवती स्त्री से भिक्षा न लेना। (11) जो छोटे बच्चे को लिए हुए हो, उससे भिक्षा न लेना। (12) जो स्त्री बच्चे को दूध पिला रही हो, उससे भिक्षा न लेना। (13) घर की देहली के अतिरिक्त अन्य कहीं पर भी खड़े हुए से भिक्षा नहीं लेना। (14) देहली के भी एक पांव अन्दर और एक पांव बाहर रख कर बैठे हुए या खड़े हुए दाता से भिक्षा ग्रहण करना। एषणा के 42 दोष एवं अन्य भागमोक्त विधियों का पालन करना तो इन प्रतिमाधारी के लिए भी आवश्यक ही समझना चाहिए। इन दोनों चन्द्रप्रतिमाओं की आराधना एक-एक मास में की जाती है। इन उक्त नियमों के अनुसार यदि अाहार मिले तो ग्रहण करे और न मिले तो ग्रहण न करे अर्थात् उस दिन उपवास करे। प्रतिमाधारी भिक्षु भिक्षा का समय या घर की संख्या निर्धारित कर लेता है और उतने समय तक या उतने ही घरों में भिक्षार्थ भ्रमण करता है / आहारादि के न मिलने पर उत्कृष्ट एक मास की तपश्चर्या भी हो जाती है। किन्तु किसी भी प्रकार का अपवाद सेवन वह नहीं करता है। __ भाष्य में बताया है कि ये दोनों प्रतिमाएं बीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाला, तीन संहनन वाला और नव पूर्व के ज्ञान वाला भिक्षु ही धारण कर सकता है। भाष्य के अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि "सब्वेहि दुप्पय-चउप्पय-माइएहिं आहार कंखीहिं सत्तेहि पडिणियहि" इतना पाठ भाष्यकार के सामने नहीं था / उन्होंने क्रमशः शब्दों की एवं वाक्यों की व्याख्या की है। किन्तु इस वाक्य की व्याख्या नहीं की है और इस वाक्य के भावार्थ को Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440] [व्यवहारसूत्र आगे आए "णिज्जुहिता बहवे..." इस सूत्रांश की व्याख्या में स्पष्ट किया है। कतिपय शब्दों का अर्थ इस प्रकार है-व्युत्सृष्टकाय—शरीर की शुश्रूषा एवं औषध का त्याग / चियत्तदेहे-शरीरपरिकर्म (अभ्यंगन, मर्दन) का त्याग करना एवं वध-बन्धन किये जाने पर प्रतीकार या सुरक्षा नहीं करना / पांच प्रकार के व्यवहार 3. पंचविहे ववहारे पण्णते, तं जहा-१. आगमे, 2. सुए, 3. प्राणा, 4. धारणा, 5. जीए / 1. जहा से तत्थ आगमे सिया, आगमेणं ववहारं पट्टवेज्जा। 2. णो से तत्थ आगमे सिया, जहा से तत्थ सुए सिया, सुएणं ववहारं पट्टवेज्जा। 3. णो से तत्थ सुए सिया, जहा से तत्थ आणा सिया, आणाए ववहारं पट्टवेज्जा। 4. णो से तत्थ आणा सिया, जहा से तत्थ धारणा सिया, धारणाए ववहारं पट्टवेज्जा। 5. णो से तत्थ धारणा सिया, जहा से तत्थ जीए सिया, जीएणं ववहारं पट्टवेज्जा। इच्चेएहिं पंचहि ववहारेहि ववहारं पट्टवेज्जा, तं जहा–१. आगमेणं, 2. सुएणं, 3. आणाए, 4. धारणाए, 5. जीएणं / जहा-जहा से आगमे, सुए, प्राणा, धारणा, जीए तहा-तहा बवहारं पट्टवेज्जा। प.--से किमाह भंते ? उ०प्रागमबलिया समणा निग्गंथा। इच्चेयं पंचविहं ववहारं जया-जया, जहि-हि, तया• तया, तहि-तहिं अणिस्सिओवस्सियं ववहारं ववहरमाणे समणे निग्गंथे आणाए आराहए भवइ / 3. व्यवहार पांच प्रकार का कहा गया है, यथा-१. आगम, 2. श्रुत, 3. प्राज्ञा, 4. धारणा, 5. जीत / 1. जहां आगम (केवलज्ञानधारक यावत् नौपूर्वधारक) ज्ञानी हों, वहां उनके निर्देशानुसार व्यवहार करें। 2. जहां प्रागमज्ञानी न हों तो वहां श्रुतज्ञानी (जघन्य अाचारप्रकल्प, उत्कृष्ट नवपूर्व से कुछ कम ज्ञानी) निर्देशानुसार व्यवहार करें। 3. जहां श्रुतज्ञानी न हों, तो वहां गीतार्थ की आज्ञानुसार व्यवहार करें। 4. जहां गीताथे की प्राज्ञा न हो वहां स्थविरों की धारणानुसार व्यवहार करें। 5. जहां स्थविरों की धारणा ज्ञात न हो तो वहां सर्वानुमत परम्परानुसार व्यवहार करें। इन पांच व्यवहारों के अनुसार व्यवहार करें। यथा-१. पागम, 2. श्रुत, 3. आज्ञा, 4. धारणा, 5. जीत / प्रागमज्ञानी, श्रुतज्ञानी, गीतार्थ-प्राज्ञा, स्थविरों की धारणा और परम्परा, इन में से जिस समय जो उपलब्ध हो, उस समय उसी से क्रमश: व्यवहार करें। प्र०-भंते ! ऐसा क्यों कहा? Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक] [41 उ.-श्रमण-निर्ग्रन्थ आगमन्यवहार की प्रमुखता वाले होते हैं। इन पांच प्रकार के व्यवहारों में से जब-जब, जिस-जिस विषय में जो प्रमुख व्यवहार उपलब्ध हो तब-तब, उस-उस विषय में मध्यस्थ भाव से उस व्यवहार से व्यवहार करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ जिनाज्ञा का पाराधक होता है। विवेचन -सूत्र में "व्यवहार" शब्द प्रायश्चित्त अर्थ में प्रयुक्त है। अन्य आगमों में भी इस अर्थ में प्रयोग हुआ है / यथा--"अहालहुसए नामं ववहारे पट्टवियम्वे सिया"-यथा लघुष्क (अत्यल्प) प्रायश्चित्त की प्रस्थापना करनी चाहिए। -बृहत्कल्प उद्देशक 4 प्रायश्चित्त का निर्णय “पागम" आदि सूत्रोक्तक्रम से ही करना चाहिए। विशेष दोषों को आलोचना पागमव्यवहारी के पास ही करनी चाहिए। यदि वे न हों तो जो उपलब्ध सूत्रों में से अधिकतम सूत्रों को धारण करने वाले हों एवं आलोचना-श्रवण के योग्य हों उनके पास पालोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए। ऐसा न करने पर अर्थात् व्युत्क्रम से करने पर भाष्य में प्रायश्चित्त का कथन किया गया है। सूत्र में प्रायश्चित्त के निर्णायक प्राधार पांच व्यवहार कहे गये हैं। उन्हें धारण करने वाला व्यवहारी कहा जाता है। (1) आगमव्यवहारी-९ पूर्व से लेकर 14 पूर्व के ज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी. ये "प्रागमव्यवहारी" कहे जाते हैं। (2) श्रुतव्यवहारी-जघन्य आचारांग एवं निशीथसूत्र मूल, अर्थ, परमार्थ सहित कण्ठस्थ धारण करने वाले और उत्कृष्ट 9 पूर्व से कम श्रुत को धारण करने वाले "श्रुतव्यवहारी" कहे जाते हैं। (3) आज्ञाव्यवहारी-किसी आगमव्यवहारी या श्रुतव्यवहारी की आज्ञा प्राप्त होने पर उस प्राजा के आधार से प्रायश्चित्त देने वाला "आज्ञाव्यवहारी" कहा जाता है / (4) धारणाव्यवहारी-बहुश्रुतों ने श्रुतानुसारी प्रायश्चित्त की कुछ मर्यादा किसी योग्य भिक्षु को धारण करा दी हो, उनको अच्छी तरह धारण करने वाला "धारणाव्यवहारी" कहा जाता है। (5) जीतव्यवहारी-जिन विषयों में कोई स्पष्ट सूत्र का प्राधार न हो उस विषय में बहुश्रुत भिक्षु सूत्र से अविरुद्ध और संयमपोषक प्रायश्चित्त की मर्यादाएं किसी योग्य भिक्षु को धारण करा दे। उन्हें अच्छी तरह धारण करने वाला "जीतव्यवहारी" कहा जाता है / जंजीयमसोहिकरं, पासस्थ पमत्त संजयाइण्णं / जइ वि महाजणाइण्णं, न तेण जीएण ववहारो॥७२०॥ जं जीयं सोहिकरं, संवेगपरायणेन दंतेण / एगेण वि प्राइन्न, तेण उ जीएण ववहारो / / 721 // -~-व्यव. भाष्य. उद्दे. 10 वैराग्यवान् एक भी दमितेन्द्रिय बहुश्रुत द्वारा जो सेवित हो, वह जीतव्यवहार संयम-शुद्धि करने वाला हो सकता है / किन्तु जो पार्श्वस्थ प्रमत्त एवं अपवादप्राप्त भिक्षु से प्राचीर्ण हो, वह जीत Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442] [व्यवहारसूत्र व्यवहार अनेकों के द्वारा सेवित होने पर भी शुद्धि नहीं कर सकता है, अतः उस से व्यवहार नहीं करना चाहिए। सो जहकालादीणं अपडिकंतस्स निखिगईयंतु / मुहणंतगफिडिय, पाणग असंवरेण, एवमादीसु // 709 // __-व्यव. भाष्य. उद्दे. 10 जो पच्चक्खाणकाल या स्वाध्यायकाल आदि का प्रतिक्रमण नहीं करता है। मुख पर मुखवस्त्रिका के बिना रहता है अथवा बोलता है और पानी को नहीं ढकता है, उसे नीवी का प्रायश्चित्त आता है, यह सब जीतव्यवहार है / गाथा में आए 'मुहणंतगफिडिय' को टीका- "मुखपोतिकाया स्फिटितायां, मुखपोतिकामंतरणेत्यर्थ"। ___ इन पांच व्यवहारियों द्वारा दिया गया प्रायश्चित्त आगमव्यवहार यावत् जीतव्यवहार कहा जाता है। इस सूत्रविधान का प्राशय यह है कि पहले कहा गया व्यवहार और व्यवहारी प्रमुख होता है। उसकी अनुपस्थिति में ही बाद में कहे गए व्यवहार और व्यवहारी को प्रमुखता दी जा सकती है। अर्थात् जिस विषय में श्रुतव्यवहार उपलब्ध हो उस विषय के निर्णय करने में धारणा या जीतव्यवहार को प्रमुख नहीं करना चाहिए। व्युत्क्रम से प्रमुखता देने में स्वार्थभाव या राग-द्वेष आदि होते हैं, निष्पक्षभाव नहीं रहता है। इसी प्राशय को सूचित करने के लिए सूत्र के अंतिम अंश में राग-द्वेष एवं पक्षपातभाव से रहित होकर यथाक्रम व्यवहार करने की प्रेरणा दी गई है, साथ ही सत्रनिदिष्ट क्रम से एवं निष्पक्षभाव से व्यवहार करने वालों को आराधक कहा गया है। अतः पक्षभाव से एवं व्युत्क्रम से व्यवहार करने वाला विराधक होता है, यह स्पष्ट है। व्यवहार शब्द का उपलक्षण से विस्तृत अर्थ करने पर भी फलित होता है कि संयमीजीवन से सम्बन्धित किसी भी व्यवहारिक विषय का निर्णय करना हो या कोई भी पागम से प्ररूपित तत्त्व के सम्बन्ध में उत्पन्न विवाद की स्थिति का निर्णय करना हो तो इसी क्रम से करना चाहिए अर्थात यदि आगमव्यवहारी हो तो उसके निर्णय को स्वीकार करके विवाद को समाप्त करना चाहिए / __ यदि आगमव्यवहारी न हो तो उपलब्ध श्रुत-पागम के आधार से जो निर्णय हो, उसे स्वीकार करना चाहिए / सूत्र का प्रमाण उपलब्ध होने पर प्राज्ञा, धारणा या परम्परा को प्रमुख नहीं मानना चाहिए, क्यों प्राज्ञा, धारणा या परम्परा की अपेक्षा श्रुतव्यवहार प्रमुख है / वर्तमान में सर्वोपरि प्रमुख स्थान आगमों का है, उसके बाद व्याख्याओं एवं ग्रन्थों का स्थान है तत्पश्चात् स्थविरों द्वारा धारित कंठस्थ धारणा या परम्परा का है। व्याख्याओं या ग्रन्थों में भी पूर्व-पूर्व के प्राचार्यों की रचना का प्रमुख स्थान है। अतः वर्तमान में सर्वप्रथम निर्णायक शास्त्र हैं, उससे विपरीत अर्थ को कहने वाले व्याख्या और ग्रन्थ का महत्त्व नहीं है। उसी प्रकार शास्त्रप्रमाण के उपलब्ध होने पर धारणा या परम्परा का भी कोई महत्त्व नहीं है / इसलिए शास्त्र, ग्रन्थ, धारणा और परम्परा को भी यथाक्रम विवेकपूर्वक प्रभु खता देकर किसी भी तत्व का निर्णय करना आराधना का हेतु है और किसी भी पक्षभाव के कारण व्युत्क्रम Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक] .[443 से निर्णय करना विराधना का हेतु है। अतः इस सूत्र के प्राशय को समझ कर निष्पक्षभाव से प्रागम तत्त्वों का निर्णय करना चाहिए / भगवतीसूत्र श. 8 उ. 8 में तथा ठाणांग अ. 5 उ. 2 में भी यह सूत्र है / वहां भी इस विषयक कुछ विवेचन किया गया है / सारांश यह है कि प्रायश्चित्तों का या अन्य तत्वों का निर्णय इन पांच व्यवहारों द्वारा क्रमपूर्वक करना चाहिए, व्युत्क्रम से नहीं। इसलिए किसी विषय में प्रागमपाठ के होते हुए धारणा या परंपरा को प्रमुखता देकर अाग्रह करना सर्वथा अनुचित समझना चाहिए। विविधप्रकार से गण की वैयावृत्य करने वाले 4. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-१. अट्टकरे नाम एगे, नो माणकरे, 2. माणकरे नामं एगे, नो अटुकरे, 3. एगे अटुकरे वि, माणकरे वि, 4. एगे नो अट्ठकरे, नो माणकरे। 5. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा–१. गणटकरे नाम एगे, नो माणकरे, 2. माणकरे नामं एगे, नो गणटुकरे, 3. एगे गणटुकरे वि, माणकरे वि, 4. एगे नो गणट्टकरे, नो माणकरे। 6. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-१. गणसंगहकरे नाम एगे, नो माणकरे, 2. माणकरे नाम एगे, नो गणसंगहकरे, 3. एगे गणसंगहकरे वि, माणकरे वि, 4. एगे नो गणसंगहकरे, नो मागकरे। 7. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-१. गणसोहकरे नाम एगे, नो माणकरे, 2. माणकरे नाम एगे, नो गणसोहकरे, 3. एगे गणसोहकरे वि, माणकरे वि, 4. एगे नो गणसोहकरे, नो माणकरे / 8. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-१. गणसोहिकरे नामं एगे, नो माणकरे, 2. माणकरे नाम एगे, नो गणसोहिकरे, 3. एगे गणसोहिकरे वि, माणकरे वि, 4. एगे नो गणसोहिकरे, नो माणकरे। 4. चार प्रकार के साधु पुरुष कहे गए हैं / जैसे-१. कोई साधु कार्य करता है, किन्तु मान नहीं करता है / 2. कोई मान करता है, किन्तु कार्य नहीं करता है। 3. कोई कार्य भी करता है और मान भी करता है / 4. कोई कार्य भी नहीं करता है और मान भी नहीं करता है। 5. (पुनः) चार प्रकार के साधु पुरुष कहे गये हैं / जैसे—१. कोई गण का काम करता है, परन्तु मान नहीं करता है / 2. कोई मान करता है, परन्तु गण का काम नहीं करता है / 3. कोई गण का काम भी करता है और मान भी करता है। 4. कोई न गण का काम करता है और न मान करता है। 6. (पुनः) चार प्रकार के साधु पुरुष कहे गये हैं। जैसे-१. कोई गण के लिए संग्रह करता है, परन्तु मान नहीं करता है / 2. कोई मान करता है, परन्तु गण के लिए संग्रह नहीं करता है। 3. कोई गण के लिए संग्रह भी करता है और मान भी करता है / 4. कोई न गण के लिए संग्रह करता है और न मान ही करता है। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444] [व्यवहारसूत्र 7. (पुनः) चार प्रकार के साधु पुरुष कहे गये हैं। जैसे-१. कोई गण की शोभा बढ़ाता है, किन्तु मान नहीं करता है। 2. कोई मान करता है, किन्तु गण की शोभा नहीं बढ़ाता है / 3. कोई गण की शोभा भी बढ़ाता है और मान भी करता है / 4. कोई न गण की शोभा बढ़ाता है और न मान ही करता है। 8. (पुनः) चार प्रकार के साधु पुरुष कहे गये हैं। जैसे-१. कोई गण की शुद्धि करता है, परन्तु मान नहीं करता है / 2. कोई मान करता है, परन्तु गण की शुद्धि नहीं करता है। 3. कोई गण की शुद्धि भी करता है और मान भी करता है / 4. कोई न गण की शुद्धि करता है और न मान ही करता है। विवेचन–प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न-भिन्न गुण होते हैं / अतः यहां भिन्न-भिन्न को लेकर संयमी पुरुषों के लिए पांच चौभंगियां कही हैं, उनमें निम्न विषय है-(१) अट्ट-कुछ भी सेवा कार्य, (2) गण?-गच्छ के व्यवस्था संबंधी कार्य, (3) गणसंग्रह-गण के लिए साधु-साध्वी श्रावक श्राविकाओं की वृद्धि हो, आहार, पानी, वस्त्र, पात्र, शय्या-संस्तारक आदि सुलभ हों, ऐसे क्षेत्रों की वृद्धि करना, लोगों में धार्मिक रुचि एवं दान भावना की वृद्धि करना। (4) गणसोह-तप-संयम, ज्ञान-ध्यान, उपदेश एवं व्यवहारकुशलता से गण की शोभा की वृद्धि करना / (5) गणसोहि साधु-साध्वी या श्रावक-श्राविका के प्राचार-व्यवहार की अशुद्धियों को विवेक से दूर करना / संघव्यवस्था की अव्यवस्था को उचित उपायों द्वारा सुधार कर उत्तम व्यवस्था करना / इन गुणों को और अभिमान को संबंधित करके चौभंगियों का कथन किया गया है / कुछ साधु गण के लिए उक्त कार्य करके भी अभिमान नहीं करते हैं। ऐसे साधु ही सर्वश्रेष्ठ होते हैं। प्रत्येक साधक को इस प्रथम भंग के अनुसार रहने का प्रयत्न करना चाहिए / दूसरा भंग आत्मा के लिए पूरी तरह निकृष्ट एवं हेय है। क्योंकि कार्य तो कुछ करना नहीं और व्यर्थ में घमंड करना सर्वथा अनुचित है / तीसरा भंग मध्यम है अर्थात दुसरे भंग की अपेक्षा तीसरा भंग प्रात्मा का अधिक अहित करने वाला नहीं है तथा छदमस्थ जीवों में ऐसा होना स्वाभाविक है। अध्यात्मसाधना में काम क घमंड करना भी एक अवगुण है / इस से आत्मगुणों का विकास नहीं होता है। चौथा भंग सामान्य साधुनों की अपेक्षा से है। इसमें गुण नहीं है तो अवगुण भी नहीं है, ऐसे भिक्षु संयम में सावधान हों तो अपनी आराधना कर सकते हैं, किंतु वे गणहित के कार्यों में सक्रिय नहीं होते। इस कारण इस भंग वाले अधिक निर्जरा भी नहीं करते तथा उनके विशेष कर्मबंध और पुण्यक्षय भी नहीं होता है। इन भंगों का चिंतन करके प्रात्मपरीक्षा करते हुए शुद्ध से शुद्धतर अवस्था में प्रात्मशक्ति का विकास करना चाहिए। अर्थात् अपने क्षयोपशम के अनुसार गच्छहित एवं जिनशासन की प्रभावना में योगदान देना चाहिए। साथ ही प्रात्मा में लघुता का भाव उपस्थित रखते हुए स्वयं का उत्कर्ष और दूसरों का तिरस्कार-निंदा आदि नहीं करना चाहिए। क्योंकि कषायों की उपशांति और आत्मशांति की प्राप्ति करना ही साधना का प्रमुख लक्ष्य है, उसके विपरीत मानकषाय की वृद्धि होना Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसवां उद्देशक [445 किसी भी पुरुषार्थ का अच्छा परिणाम नहीं है, अपितु दुष्परिणाम है। इसलिए इसका विवेक रखना आवश्यक है। धर्मदृढता की चौभंगियां 9. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा–१. रूवं नाममेगे जहइ, नो धम्म, 2. धम्म नाममेगे जहइ, नो रूवं, 3. एगे रूवं वि जहइ, धम्म वि जहइ, 4. एगे नो रूवं जहइ, नो धम्मं जहइ / 10. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा—१. धम्मं नाममेगे जहइ, नो गणसंठिइं, 2. गणसंठिइं नाममेगे जहइ, नो धम्मं, 3. एगे गणसंठिई वि जहइ, धम्म वि जहइ, 4. एगे नो गणसंठिइं जहइ, नो धम्मं जहइ। 11. चत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जहा-१. पियधम्मे नाममेगे, नो ढधम्मे, 2. दढधम्मे नाममेगे, नो पियधम्मे, 3. एगे पियधम्मे वि, दढधम्मे वि, 4. एगे नो पियधम्मे, नो दढधम्मे / 9. चार जाति के पुरुष कहे गये हैं, जैसे-१. कोई रूप (साधुवेष) को छोड़ देता है, पर धर्म को नहीं छोड़ता है / 2. कोई धर्म को छोड़ देता है पर रूप को नहीं छोड़ता है। 3. कोई रूप भी छोड़ देता है और धर्म भी छोड़ देता है / 4. कोई न रूप को छोड़ता है और न धर्म को छोड़ता है। 10. पुन: चार जाति के पुरुष कहे गये हैं / जैसे-१. कोई धर्म को छोड़ता है, पर गण की संस्थिति अर्थात् गणमर्यादा नहीं छोड़ता है / 2. कोई गण की मर्यादा भी छोड़ देता है, पर धर्म को नही छोड़ता है। 3. कोई गण की मर्यादा भी छोड़ देता है और धर्म भी छोड़ देता है। 4. कोई न गण की मर्यादा ही छोड़ता है और न धर्म ही छोड़ता है। 11. पुनः चार जाति के पुरुष कहे गये हैं, जैसे 1. कोई प्रियधर्मा है पर दृढधर्मा नहीं है / 2. कोई दृढधर्मा है, पर प्रियधर्मा नहीं है। 3. कोई प्रियधर्मा भी है और दृढधर्मा भी है। 4. कोई न प्रियधर्मा ही है और न दृढधर्मा ही है। विवेचन--इन चौभंगियों में साधक की धर्मदृढता आदि का कथन किया गया है / जिसमें निम्न विषयों की चर्चा है---- 1. साधुवेश और धर्मभाव, 2. धर्मभाव और गणसमाचारी की परम्परा, 3. धर्मप्रेम और धर्मदृढता / प्रथम चौभंगी में यह बताया गया है कि कई व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में अपने धर्मभाव और साधुवेश दोनों को नहीं छोड़ते और गम्भीरता के साथ विकट परिस्थिति को पार कर लेते हैं। यह साधक आत्माओं की श्रेष्ठ अवस्था है। शेष भंगवर्ती कोई साधक घबराकर बाह्यवेषभूषा का और संयम-प्राचार का परित्याग कर देता है, किन्तु धर्मभावना या सम्यश्रद्धा को कायम रखता है। ऐसा साधक आत्मोन्नति से वंचित रहता है, किन्तु दुर्गति का भागी नहीं होता है। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446] [व्यवहारसूत्र कोई धर्मभाव का परित्याग कर देते हैं अर्थात् संयमाचरण और कषायों की उपशांति को छोड़ देते है, किन्तु साधुवेष नहीं छोड़ते हैं। कई साधक परिस्थिति आने पर दोनों ही छोड़ बैठते हैं। ये तीनों भंग वाले मार्गच्युत होते हैं / फिर भी दूसरे भंग वाला धर्म का आराधक हो सकता है / इस चौभंगी में चौथे भंग वाला साधक सर्वश्रेष्ठ है। द्वितीय चौभंगी के चौथे भंग में बताया है कि कई साधक किसी भी परिस्थिति में प्रागमसमाचारी और गच्छसमाचारी किसी का भी भंग नहीं करते किन्तु दृढता एवं विवेक के साथ सम्पूर्ण समाचारी का पालन करते हैं, वे श्रेष्ठ साधक हैं / शेष तीन भंग में कहे गये साधक अल्प सफलता वाले हैं / वे परिस्थितिवश किसी न किसी समाचारी से च्युत हो जाते हैं। उन भंगों की संयोजना पूर्व चौभंगी के समान समझ लेना चाहिए। तीसरी चौभंगी में धर्माचरणों की दृढता और धर्म के प्रति अन्तरंग प्रेम, इन दो गुणों का कथन है। धर्मदढता स्थिरचित्तता एवं गम्भीरता की सूचक है और धर्मप्रेम प्रगाढ श्रद्धा या भक्ति से सम्बन्धित है। किसी साधक में ये दोनों गुण होते हैं, किसी में कोई एक गुण होता है और किसी में दोनों ही गुणों की मंदता या अभाव होता है। सारांश-प्रथम चौभंगी में चौथा भंग उत्तम है, द्वितीय चौभंगी में भी चौथा भंग उत्तम है और तीसरी चौभंगी में तीसरा भंग उत्तम है। आचार्य एवं शिष्यों के प्रकार 12. चत्तारि आयरिया पण्णता, तं जहा 1. पवावणायरिए नामेगे, नो उवट्ठावणायरिए, 2. उवढावणायरिए नामेगे, नो पवावणायरिए, 3. एगे पव्वावणायरिए वि, उवट्ठावणायरिए वि, 4. एगे नो पन्धावणायरिए, नो उवट्ठावणायरिए-धम्यायरिए। 13. चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, तं जहा 1. उद्देसणायरिए नामेगे, नो वायणायरिए, 2. वायणायरिए नामेगे, नो उद्देसणायरिए। 3. एगे उद्देसणायरिए वि, वायणायरिए वि, 4. एगे नो उद्देसणायरिए, नो वायणायरिए–धम्मायरिए। 14. चत्तारि अंतेवासी पण्णत्ता, तं जहा 1. पम्वावणंतेवासी नामेगे नो उवट्ठावणंतेवासी, 2. उबट्ठावणंतेवासी नामेगे, नो पव्वावणंतेवासी, 3. एगे पव्वावणंतेवासी वि उवट्ठावणंतेवासी वि, 4. एगे नो पन्वावणंतेवासी, नो उवट्ठावणंतेवासी-धम्मंतेवासी। 15. चत्तारि अंतेवासी पण्णता, तं जहा Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक] [447 1. उद्देसणंतेवासी नामेगे, नो वायणंतेवासी, 2. वायणंतेवासी नामेगे, नो उद्देसणंतेवासी, 3. एगे उद्देसणंतेवासो वि वायणंतेवासी वि, 4. एगेनो उद्देसणंतेवासी, नो वायणंतेवासी-धम्मंतेवासी। 12. चार प्रकार के प्राचार्य कहे गये हैं, यथा 1. कोई प्राचार्य (किसी एक शिष्य की अपेक्षा) प्रव्रज्या देने वाले होते हैं, किन्तु महावतों का प्रारोपण करने वाले नही होते हैं / 2. कोई आचार्य महाव्रतों का आरोपण करने वाले होते हैं, किन्तु प्रव्रज्या देने वाले नहीं होते हैं। 3. कोई प्राचार्य प्रव्रज्या देने वाले भी होते हैं और महावतों का आरोपण करने वाले भी होते हैं / 4. कोई प्राचार्य न प्रव्रज्या देने वाले होते हैं और न महाव्रतों का आरोपण करने वाले होते हैं, वे केवल धर्मोपदेश देने वाले होते हैं / 13. चार प्रकार के प्राचार्य कहे गये हैं, यथा---१. कोई प्राचार्य (किसी एक शिष्य की अपेक्षा मलपाठ की वाचना देने वाले होते हैं. किन्त अर्थ की वाचना देने वाले नहीं होते हैं। 2. कोई प्राचार्य अर्थ की वाचना देने वाले होते हैं, किन्तु मूलपाठ की वाचना देने वाले नहीं होते हैं / 3. कोई प्राचार्य मूलपाठ की वाचना देने वाले भी होते हैं और अर्थ की बाचना देने वाले भी होते हैं। 4. कोई प्राचार्य मूलपाठ की वाचना देने वाले भी नहीं होते हैं और अर्थ की वाचना देने वाले भी होते हैं, वे केवल धर्माचार्य होते हैं / 14. अन्तेवासी (शिष्य) चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे-१. कोई प्रव्रज्याशिष्य है, परन्तु उपस्थापनाशिष्य नहीं है। 2. कोई उपस्थापनाशिष्य है, परन्तु प्रव्रज्याशिष्य नहीं / 3. कोई प्रवज्याशिष्य भी है और उपस्थापनाशिष्य भी है / 4. कोई न प्रव्रज्याशिष्य है और न उपस्थापना शिष्य है / किन्तु धर्मोपदेश से प्रतिबोधित शिष्य है। 15. पुनः अन्तेवासी चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे-१. कोई उद्देशन-अन्तेवासी है, परन्तु वाचना-अन्तेवासी नहीं है / 2. कोई वाचना-अन्तेवासी है, परन्तु उद्देशन-अन्तेवासी नहीं है। 3. कोई उद्देशन-अन्तेवासी भी है और वाचना-अन्तेवासी भी है। 4. कोई न उद्देशन-अन्तेवासी है और न वाचना-अन्तेवासी है। किन्तु धर्मोपदेश से प्रतिबोधित शिष्य है / विवेचन-इन चौभंगियों में गुरु और शिष्य से सम्बन्धित निम्नलिखित विषयों का कथन किया गया है 1. दीक्षादाता गुरु और शिष्य / 2. बड़ीदीक्षादाता गुरु और शिष्य / 3. आगम के मूलपाठ की वाचनादाता गुरु और शिष्य / 4. सूत्रार्थ की वाचनादाता गुरु और शिष्य / 5. प्रतिबोध-देने वाला गुरु और शिष्य / किसी भी शिष्य को दीक्षा, बड़ीदीक्षा या प्रतिबोध देने वाले पृथक्-पृथक् प्राचार्य निर्धारित नहीं होते हैं अर्थात् प्राचार्य, उपाध्याय या अन्य कोई भी श्रमण-श्रमणी गुरु की आज्ञा से किसी को भी Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448] [व्यवहारसूत्र दीक्षा, बड़ी दीक्षा या प्रतिबोध दे सकते हैं / उनको इस सूत्र के "आयरिय" शब्द से सूचित किया गया है। इसी तरह शिष्य को भी भिन्न-भिन्न शब्दों से सूचित किया है / ___ एक ही भिक्षु दीक्षादाता आदि पूर्वोक्त पांचों का कार्य सम्पन्न कर सकता है अथवा कोई हीनाधिक कार्यों का कर्ता हो सकता है और कोई भिक्षु पांचों ही अवस्थाओं से रहित भिन्न अवस्था वाला अर्थात् सामान्य भिक्षु भी होता है / उक्त पांचों कार्य सम्पन्न करने वाले साधुनों को प्रथम दो चौभंगियों में "प्रायरिय" शब्द से सूचित किया है और उनके शिष्यों को बाद की दो चोभंगियों से सूचित किया है। इस प्रकार इन चौभंगियों के ये भंग केवल ज्ञेय हैं, अर्थात इन चौभंगियों के किसी भंग को प्रशस्त या अप्रशस्त नहीं कहा जा सकता है। स्थविर के प्रकार 16. तमो थेरभूमीनो पण्णताओ, तं जहा-१. जाइ-थेरे, 2. सूय-थेदे, 3. परियाय-थेरे। 1. सट्टिवासजाए समणे निग्गंथे जाइ-थेरे / 2. ठाण-समवायांगधरे समणे निग्गथे सुय-थेरे। 3. वीसवासपरियाए समणे निग्गंथे परियाय-थेरे। 16. स्थविर तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-१. वय-स्थविर, 2. श्रुत-स्थविर, 3. पर्यायस्थविर / 1. साठ वर्ष की आयु वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ वयस्थविर हैं। 2. स्थानांग-समवायांग के धारक श्रमण-निर्ग्रन्थ श्रुतस्थविर हैं। 3. बीस वर्ष की दीक्षा-पर्याय के धारक श्रमण-निर्ग्रन्थ पर्यायस्थविर हैं। विवेचन-"भूमि" शब्द यहां “अवस्था" अर्थ में प्रयुक्त है / जो स्थिर स्वभाव वाले हो जाते हैं वे अपूर्ण या चंचल नहीं होते हैं / अतः वे स्थविर कहे जाते हैं / (1) वयस्थविर--सूत्र में गर्भकाल सहित 60 वर्ष की उम्र वालों को वयस्थविर सूचित किया है और व्यव. भाष्य उद्दे 3 सूत्र 11 में 70 वर्ष की वय वाले को स्थविर कहा है। वहां उसके पूर्व की अवस्था को प्रौढ अवस्था कहा है / ये दोनों कथन सापेक्ष हैं, इनमें विरोध नहीं समझना चाहिए / (2) श्रुतस्थविर-स्थानांग, समवायांगसूत्र को कंठस्थ धारण करनेवाला अर्थात् आचारांगादि चार अंग, चार छेद एवं उत्तराध्ययन, दशवैकालिक और आवश्यक सूत्र को अर्थसहित कण्ठस्थ धारण करने वाला श्रुतज्ञान की अपेक्षा श्रुतस्थविर कहा जाता है। (3) पर्यायस्थविर-संयमपर्याय के बीस वर्ष पूर्ण हो जाने पर भिक्षु “पर्यायस्थविर" कहा जाता है। ये तीनों प्रकार के स्थविरत्व परस्पर निरपेक्ष हैं अर्थात् स्वतंत्र हैं। इस सूत्र में ये तीनों प्रकार के स्थविर साधु-साध्वियों की अपेक्षा से ही कहे गये हैं। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसवां उद्देशक] इन स्थविरों के प्रति क्या-क्या व्यवहार करना चाहिए, इसका भाष्य में इसप्रकार स्पष्टीकरण किया गया है। (1) जन्मस्थविर को काल-स्वभावानुसार आहार देना, उसके योग्य उपधि, शय्यासंस्तारक देना अर्थात् ऋतु के अनुकूल सवात-निर्वात स्थान और मृदु संस्तारक देना तथा विहार में उसके उपकरण और पानी उठाना इत्यादि अनुकम्पा करनी चाहिए / (2) श्रुतस्थविर का आदर-सत्कार, अभ्युत्थान, कृतिकर्म, आसनप्रदान, पाद-प्रमार्जन करना के प्रत्यक्ष या परोक्ष में गुणकीर्तन-प्रशंसा करना, उनके समक्ष उच्च शय्या आसन से नहीं बैठना, उनके निर्देशानुसार कार्य करना / (3) पर्यायस्थविर का आदर-सत्कार, अभ्युत्थान, वंदन करना, खमासमणा देना, उनका दण्डादि उपकरण ग्रहण करना एवं उचित विनय करना / ये स्थविर गण की ऋद्धिरूप होते हैं। इनका तिरस्कार, अभक्ति आदि करना विराधना का कारण है, ऐसा करने से गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है। बड़ी दीक्षा देने का कालप्रमाण 17. तो सेहभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-१. सत्तराईदिया, 2. चाउम्मासिया, 3. छम्मासिया। छम्मासिया उक्कोसिया। चाउम्मासिया मज्झमिया / सत्तराईदिया जहन्निया 17. नवदीक्षित शिष्य को तीन शैक्ष-भूमियां कही गई हैं, जैसे--१. सप्तरात्रि, 2. चातुर्मासिक, 3. पाण्मासिकी। उत्कृष्ट छह मास से महाव्रत आरोपण करना / मध्यम चार मास से महावत आरोपण करना / जघन्य सात दिन-रात के बाद महाव्रत आरोपण करना। विवेचन-दीक्षा देने के बाद एवं उपस्थापना के पूर्व की मध्यगत अवस्था को यहां शक्ष-भूमि कहा गया है। जघन्य शैक्षकाल सात अहोरात्र का है, इसलिए कम से कम सात रात्रि व्यतीत होने पर अर्थात आठवें दिन बड़ी दीक्षा दी जा सकती है। उपस्थापना संबंधी अन्य विवेचन व्यव. उद्दे. 4 सूत्र 15 में प्रतिक्रमण एवं समाचारी अध्ययन के पूर्ण न होने के कारण मध्यम और उत्कृष्ट शैक्ष-काल हो सकता है, अथवा साथ में दीक्षित होने वाले कोई माननीय पूज्य पुरुष का कारण भी हो सकता है। __ जघन्य शैक्ष-काल तो सभी के लिए आवश्यक ही होता है। इतने समय में कई अंतरंग जानकारियां हो जाती हैं, परीक्षण भी हो जाता है और प्रतिक्रमण एवं समाचारी का ज्ञान भी पूर्ण कराया जा सकता है। किसी अपेक्षा को लेकर सातवें दिन बड़ी दीक्षा देने की परम्परा भी प्रचलित है, किंतु सूत्रानुसार सात रात्रि व्यतीत होने के पूर्व बड़ी दीक्षा देना उचित नहीं है। इस विषयक विशेष विवेचन उ. 4 सू. 15 में देखें। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450] [व्यवहारसूत्र बालक-बालिका को बड़ी दीक्षा देने का विधि-निषेध 18. नो कप्पइ णिग्गंधाण वा णिग्गंथीण वा खुडगं वा खुड्डियं वा ऊणवासजायं उवट्ठावेत्तए वा संभु जित्तए वा। 19. कप्पइ णिग्गंथाण या णिग्गंथीण वा खुड्डगं वा खुड्डियं वा साइरेग अट्ठवासजायं उवट्ठावेत्तए वा संभुजित्तए था। 18. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को अाठ वर्ष से कम उम्र वाले बालक-बालिका को बड़ी दीक्षा देना और उनके साथ आहार करना नहीं कल्पता है। 19. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को आठ वर्ष से अधिक उम्र वाले बालक-बालिका को बड़ी दीक्षा देना और उनके साथ आहार करना कल्पता है। विवेचन-पूर्व सूत्र में शैक्ष-भूमि के कथन से उपस्थापना काल कहा गया है और यहां पर क्षुल्लक-क्षुल्लिका अर्थात् छोटी उम्र के बालक-बालिका की उपस्थापना का कथन किया गया है / यदि माता-पिता आदि के साथ किसी कारण से छोटी उम्र के बालक को दीक्षा दे दी जाय तो कुछ भी अधिक आठ वर्ष अर्थात् गर्भकाल सहित नौ वर्ष के पूर्व बड़ी दीक्षा नहीं देनी चाहिए। इतना समय पूर्ण हो जाने पर बड़ी दीक्षा दी जा सकती है। सामान्यतया तो इस वय के पूर्व दीक्षा भी नहीं देनी चाहिए। अत: यह सूत्रोक्त उपस्थापना का विधान प्रापवादिक परिस्थिति की अपेक्षा से है, ऐसा समझना चाहिए / अथवा उपस्थापना से दीक्षा या बड़ी दीक्षा दोनों ही सूचित है, ऐसा भी समझा जा सकता है। अत्यधिक छोटी उम्र के बालक का अस्थिरचित्त एवं चंचल होना स्वाभाविक है एवं उसका जिद्द करना, रोना, खेलना, अविवेक से टट्टी पेशाब कर देना आदि स्थितियों से संयम की हानि होना संभव रहता है / इसी कारण से नौ वर्ष की उम्र के पूर्व दीक्षा या बड़ी दीक्षा देने का निषेध एवं प्रायश्चित्त विधान है। सूत्र में "संभुजित्तए" क्रिया पद भी है, उसका तात्पर्य यह है कि उपस्थापना के पूर्व नवदीक्षित साधु को एक मांडलिक आहार नहीं कराया जा सकता है। क्योंकि तब तक वह सामायिकचारित्र वाला होता है / बड़ी दीक्षा के बाद वह छेदोपस्थापनीय चारित्र वाला हो जाता है। उसी के साथ एक मांडलिक पाहार करने का विधान है, ऐसा समझना चाहिए। बालक को आचारप्रकल्प के अध्ययन कराने का निषेध 20. नो कप्पड निरगंथाण वा निग्गंथीण वा खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा अवंजणजायस्स प्रायारपकप्पे णामं अज्झयणे उद्दिसित्तए। 21. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा खुड्डगस्स वा खुड्डियाए वा वंजणजायस्स आयारपकप्पे णामं अज्झायणे उद्दिसित्तए / Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसवां उद्देशक] 20. अव्यंजनजात अर्थात् अप्राप्त यौवन वाले बालक भिक्षु या भिक्षुणी को आचारप्रकल्प नामक अध्ययन पढ़ाना निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को नहीं कल्पता है। 21. व्यंजनजात अर्थात् यौवन प्राप्त भिक्षु या भिक्षुणी को प्राचारप्रकल्प नामक अध्ययन पढ़ाना निर्ग्रन्थ और निग्रंन्थियों को कल्पता है। विवेचन-यहां पर आचारांगसूत्र और निशीथसूत्र को आचारप्रकल्प कहा गया है / इसका अध्ययन सोलह वर्ष से कम उम्र वाले साधु-साध्वी को कराने का निषेध किया गया है / इस विषयक संपूर्ण विवेचन निशीथ उद्दे. 19 सूत्र 20 में देखें / दीक्षापर्याय के साथ आगमों का अध्ययनक्रम 22. तिवास-परियायस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ आयारपकप्पे नाम अज्झयणे उद्दिसित्तए। 23. चउवास-परियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ सूयगडे नाम अंगे उद्दिसित्तए / 24. पंचवास-परियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ दसा-कप्प-ववहारे उद्दिसित्तए / 25. अट्ठवास-परियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ ठाण-समवाए उद्दिसित्तए। 26. दसवास-परियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ वियाहे नामं अंगे उद्दिसित्तए। 27. एक्कारसवास-परियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ खुड्डिया विमाणपविभत्ती, महल्लियाविमाणपविभत्ती, अंगचूलिया, वग्गचूलिया, वियाहचूलिया नामं अज्झयणे उद्दिसित्तए। 28. बारसवास-परियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ अरुणोववाए, वरुणोववाए, गरुलोववाए, धरणोक्वाए, वेसमणोववाए, वेलंधरोववाए, नामं अज्मयणे उद्दिसित्तए / 29. तेरसवास-परियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ उट्ठाणसुए, समुट्ठाणसुए, देविवपरियावणिए, नागपरियावणिए नाम अज्झयणे उहिसित्तए / 30. चोदसवास-परियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ सुमिणभावणानाम अज्झयणे उद्दिसित्तए। 31. पन्नरसवास-परियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ चारणभावणानाम अज्झयणे उद्दिसित्तए। 32. सोलसवास-परियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पा तेयणिसग्गे नामं अज्झयणे उद्दिसित्तए। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452] [व्यवहारसूत्र 33. सत्तरसवास-परियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ आसीविसभावणाणामं अज्झयणे उद्दिसित्तए। 34. अट्ठारसवास-परियायस्स समणस्स जिग्गंथस्स कप्पइ दिद्धिविसभावणाणामं अज्मयणे उद्दिसित्तए। 35. एगूणवीसवास-परियायस्स समणस्स णिग्गंथस्स कप्पइ दिट्टिवाय नाम अंगे उद्दिसित्तए / 36. वीसवास-परियाए समणे णिग्गंथे सव्वसुयाणुवाई भवइ / 22. तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाले (योग्य) श्रमण-निर्ग्रन्थ को प्राचारप्रकल्प नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। 23. चार वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को सूत्रकृतांग नामक दूसरा अंग पढ़ाना कल्पता है। 24. पांच वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को दशा, कल्प, व्यवहार सूत्र पढ़ाना कल्पता है। 25. आठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को स्थानांग और समवायांगसूत्र पढ़ाना कल्पता है। 26. दश वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को व्याख्याप्रज्ञप्ति नामक अंग पढ़ाना कल्पता है। 27. ग्यारह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को क्षुल्लिका विमानप्रविभक्ति, महल्लिका विमानप्रविभक्ति, अंगचूलिका, वर्गचूलिका और व्याख्याचूलिका नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। 28. बारह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को अरुणोपपात, वरुणोपपात, गरुडोपपात, धरणोपपात, वैश्रमणोपपात, वेलन्धरोपपात नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। 29. तेरह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को उत्थानश्रुत, समुत्थानश्रुत, देवेन्द्रपरियापनिका और नागपरियापनिका नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है / 30. चौदह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को स्वप्नभावना नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। 31. पन्द्रह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को चारणभावना नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक ] [ 453 32. सोलह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को तेजोनिसर्ग नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। 33. सत्तरह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को आसीविषभावना नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। 34. अठारह वर्ष की दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को दृष्टि विषभावना नामक अध्ययन पढ़ाना कल्पता है। 35. उन्नीस वर्ष को दीक्षापर्याय वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ को दृष्टिवाद नामक बारहवां अंग पढ़ाना कल्पता है। 36. बीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाला श्रमण-निग्रन्थ सर्वश्रुत को धारण करने वाला हो जाता है। विवेचन-इन पन्द्रह सूत्रों में क्रमशः आगमों के अध्ययन का कथन दीक्षापर्याय की अपेक्षा से किया गया है। जिसमें तीन वर्ष से लेकर बीस वर्ष तक का कथन है।। यह अध्ययनक्रम इस सूत्र के रचयिता श्री भद्रबाहुस्वामी के समय उपलब्ध श्रुतों के अनुसार है / उसके बाद में रचित एवं नियूंढ सूत्रों का इस अध्ययनक्रम में उल्लेख नहीं है / अतः उववाई आदि 12 उपांगसत्र एवं मलसत्रों के अध्ययनक्रम की यहां विवक्षा नहीं की गई है। फिर भी प्राचारशास्त्र के अध्ययन कर लेने पर अर्थात् छेदसूत्रों के अध्ययन के बाद और ठाणांग, समवायांग तथा भगवतीसूत्र के अध्ययन के पहले या पीछे कभी भी उन शेष सूत्रों का अध्ययन करना समझ लेना चाहिए। आवश्यकसूत्र का अध्ययन तो उपस्थापना के पूर्व ही किया जाता है तथा भाष्य में प्राचारांग व निशीथ के पूर्व दशवकालिक और उत्तराध्ययनसूत्र के अध्ययन करने का निर्देश किया गया है। उससे सम्बन्धित उद्धरण तीसरे उद्देशक में दे दिये गये हैं तथा निशी. उ. 19 में इस विषय में विनेचन किया है। 1. दशवकालिकसूत्र के विषय में ऐसी धारणा प्रचलित है कि भद्रबाहुस्वामी से पूर्व शय्यंभवस्वामी ने अपने पुत्र "मनक" के लिए इस सूत्र की रचना की थी। फिर संघ के आग्रह से इसे पुनः पूर्वो में विलीन नहीं किया और स्वतंत्र रूप में रहने दिया / 2. उत्तराध्ययनसूत्र के लिए भी ऐसी परम्परा प्रचलित है कि ये 36 अध्ययन भ. महावीर स्वामी ने अंतिम देशना में फरमाये थे / उस समय देशना सुनकर किसी स्थविर ने उनका सूत्र रूप में गुथन किया। किन्तु प्रस्तुत आगमअध्ययनक्रम में भद्रबाहुस्वामी द्वारा इन दोनों सूत्रों को स्थान नहीं दिए जाने के कारण एवं उन ऐतिहासिक कथनों का सूक्ष्मबुद्धि से परिशीलन करने पर सहज ही यह निष्कर्ष निकलता है कि ये दोनों सूत्रों से संबंधित धारणाएं काल्पनिक हैं / वास्तव में ये सूत्र भद्रबाहुस्वामी के बाद में और देवद्धिगणी के समय तक किसी भी काल में संकलित किए गए हैं। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454] [ व्यवहारसूत्र इतिहास के नाम से समय-समय पर ऐसी कई कल्पनाएं प्रचलित हुई हैं या की गई हैं। जैसे कि—नियुक्ति, भाष्य, चूणियां आदि वास्तव में तो नंदीसूत्र की रचना के बाद प्राचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थ हैं। फिर भी इनके विषय में 14 पूर्वी या तीन पूर्वी आदि के द्वारा रचित होने के कल्पित इतिहास प्रसिद्ध किए गए हैं। महाविदेहक्षेत्र से स्थूलिभद्र की बहन के द्वारा दो अथवा चार चूलिका लाने का कथन परिशिष्टपर्व आदि भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में है / वे ग्रन्थ स्थूलिभद्र के समय से 800-900 वर्ष बाद रचे गए हैं। उन ग्रन्थकारों के पूर्व हुए टीकाकार, चूर्णिकार आदि उन चूलिकाओं के लिए महाविदेह से लाने संबंधी कोई कल्पना न करके उन्हें मौलिक रचना होना ही स्वीकार करते हैं। पर्युषणाकल्पसूत्र का १२वीं-तेरहवीं शताब्दी सक नाम भी नहीं था। उसे भी 14 पूर्वी भद्रबाहुस्वामी द्वारा रचित होना प्रचारित कर दिया, देखें दशा. द. 8 का विवेचन / ___ अत: उत्तराध्ययन, दशवकालिक इन दोनों सूत्रों की रचना व्यवहारसूत्र की रचना के बाद मानने में कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु उसके पहले के प्राचार्यों द्वारा रचित मानने पर इस व्यवहारसूत्र के अध्ययनक्रम में इनका निर्देश न होना विचारणीय रहता है एवं इस विषयक प्रचलित इतिहासपरंपराएं भी विचार करने पर तर्कसंगत नहीं होती हैं। इन सूत्रों में जो तीन वर्ष पर्याय आदि का कथन किया गया है, उसका दो तरह से अर्थ किया जा सकता है (1) दीक्षापर्याय के तीन वर्ष पूर्ण होने पर उन आगमों का अध्ययन करना। (2) तीन वर्षों के दीक्षापर्याय में योग्य भिक्षु को कम से कम आगमों का अध्ययन कर लेना या करा देना चाहिए। इन दोनों अर्थों में दूसरा अर्थ आगमानुसारी है, इसका स्पष्टीकरण उ. 3 सू. 3 के विवेचन में किया गया है / पाठक वहां से समझ लें। दस वर्ष की दीक्षापर्याय के बाद में अध्ययन करने के लिए कहे गए सूत्रों में से प्रायः सभी सूत्र नंदीसूत्र की रचना के समय में कालिक श्रुतरूप में उपलब्ध थे। किन्तु वर्तमान में उनमें से कोई भी सूत्र उपलब्ध नहीं है / केवल 'तेयनिसर्ग' नामक अध्ययन भगवतीसूत्र के पंद्रहवें शतक में उपलब्ध है। ज्ञातासूत्र आदि अंगसूत्रों का प्रस्तुत अध्ययन में निर्देश नहीं किया गया है, इसका कारण यह है कि इन सूत्रों में प्रायः धर्मकथा का वर्णन है, जिनके क्रम की कोई आवश्यकता नहीं रहती है। यथावसर कभी भी इनका अध्ययन किया या कराया जा सकता है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में उपलब्ध आश्रव-संवर का वर्णन गणधररचित नहीं है, किन्तु सूत्र की रचना के बाद में संकलित किया गया है / इन सूत्रों में सूचित किये गये आगमों के नाम इस प्रकार हैं (1-2) प्राचारांगसूत्र एवं निशीथसूत्र, (3) सूयगडांगसूत्र, (4, 5, 6) दशाश्रुतस्कधसूत्र, बृहत्कल्पसूत्र और व्यवहारसूत्र, (7, 8) ठाणांगसूत्र, समवायांगसूत्र, (9) भगवतीसूत्र। (10-14) क्षुल्लिका विमानप्रविभक्ति, महल्लिका विमानप्रविभक्ति, अंगचूलिका, वर्गचूलिका, व्याख्याचूलिका / Jain Education international Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक] [ 455 (15-20) अरुणोपपात, वरुणोपपात, गरुडोपपात, धरणोपपात, वैश्रमणोपपात, वेलन्धरोपपात, (21-24) उत्थानश्रुत, समुत्थानश्रुत, देवेन्द्रपरियापनिका, नागपरियापनिका, (25) स्वप्नभावना अध्ययन, (26) चारणभावना अध्ययन, (27) तेजनिसर्ग अध्ययन, (28) आशीविषभावना अध्ययन, (29) दृष्टिविषभावना अध्ययन, (30) दृष्टिवाद अंग। सूत्रांक 10 से 29 तक के आगम दृष्टिवाद नामक अंग के ही अध्ययन थे अथवा उससे अलग नियूंढ किये गये सूत्र थे। इन सभी का नाम नंदीसूत्र में कालिकश्रुत की सूची में दिया गया है। इन सूत्रों के अंत में यह बताया गया है कि बीस वर्ष की दीक्षापर्याय तक संपूर्णश्रुत का अध्ययन कर लेना चाहिए। तदनुसार वर्तमान में भी प्रत्येक योग्य भिक्षु को उपलब्ध सभी पागमश्रुत का अध्ययन बीस वर्ष में परिपूर्ण कर लेना चाहिए। उसके बाद प्रवचनप्रभावना करनी चाहिए अथवा निवृत्तिमय साधना में रहकर स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग प्रादि में लीन रहते हुए आत्मसाधना करनी चाहिए। उपर्युक्त आगमों की वाचना योग्य शिष्य को यथाक्रम से ही देनी चाहिए, इत्यादि विस्तृत वर्णन निशी. उ. 19 में देखें। वैयावृत्य के प्रकार एवं महानिर्जरा 37. दसविहे वेयावच्चे पण्णत्ते, तं जहा-१. आयरिय-वेयावच्चे, 2. उवमाय-यावच्चे, 3. थेर-वेयावच्चे, 4. तवस्सि-वेयावच्चे, 5. सेह-यावच्चे, 6. गिलाण-वेयावच्चे, 7. साहम्मियबेयावच्चे, 8. कुल-वेयावच्चे, 9. गण-चेयावच्चे, 10. संघ-वेयावच्चे। 1. आयरिय-वेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गथे महानिज्जरे, महापज्जवसाणे भवइ / 2. उवज्झाय-वेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गंथे महानिज्जरे, महापज्जवसाणे भवइ / 3. थेर-बेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गंथे महानिज्जरे, महापज्जवसाणे भवइ / 4. तवस्सि-वेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गंथे महानिज्जरे, महापज्जवसाणे भवइ / 5. सेह-यावच्चं करेमाणे समणे निग्गंथे महानिज्जरे, महापज्जवसाणे भवइ / 6. गिलाण-वेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गथे महानिज्जरे, महापज्जवसाणे भवइ / 7. साहम्मिय-वेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गथे महानिज्जरे, महापज्जवसाणे भवइ। . 8. कुल-यावच्चं करेमाणे समणे निग्गंथे महानिज्जरे, महापज्जवसाणे भवइ / 9. गण-वेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गंथे महानिज्जरे, महापज्जवसाणे भवइ / 10. संघ-वेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गथे महानिज्जरे, महापज्जवसाणे भवइ / 37. वैयावृत्य दस प्रकार का कहा गया है, जैसे-१. प्राचार्य-वैयावृत्य, 2. उपाध्यायवैयावृत्य, 3. स्थविर-वैयावृत्य, 4. तपस्वी-वैयावृत्य, 5. शैक्ष-वैयावृत्य, 6. ग्लान-वैयावृत्य, 7. सार्मिक-वैयावृत्य, 8. कुल-वैयावृत्य, 9. गण-वैयावृत्य, 10. संघ-वैयावृत्य / Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456 ] [ व्यवहारसूत्र - 1. प्राचार्य की वैयावृत्य करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। 2. उपाध्याय की वैयावृत्य करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। 3. स्थविर की वैयावृत्य करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। 4. तपस्वी की वैयावृत्य करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। 5. शैक्ष की वयावृत्य करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। 6. ग्लान की वैयावृत्य करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। 7. सार्मिक की वैयावृत्य करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है 8. कुल की वैयावृत्य करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। 9. गण की बैयावृत्य करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। 10. संघ की वैयावृत्य करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। विवेचन--पूर्वसूत्र में निर्जरा के प्रमुख साधन रूप स्वाध्याय का कथन किया गया है और प्रस्तुत सूत्र में वैयावृत्य से महानिर्जरा एवं महापर्यवसान अर्थात् मोक्षप्राप्ति का कथन किया गया है / __यहां प्राचार्य आदि दसों के कथन में वैयावृत्य के पात्र सभी साधुओं का समावेश कर दिया गया है। यह वैयावृत्य भाष्य में तेरह प्रकार का कहा गया है, यथा(१) आहार-उक्त आचार्य आदि के लिये यथायोग्य आहार लाना व देना आदि / (2) पानी-पानी की गवेषणा करना एवं लाना-देना आदि। (3) शयनासन शयनासन की नियुक्ति करना, संस्तारक बिछाना या गवेषणा करके लाना तथा शय्या भूमि का प्रमार्जन करना। (4) प्रतिलेखन उपकरणों का प्रतिलेखन करना व शुद्धि करना। (5-7) पाए--औषध, भेषज लाना-देना या पादप्रमार्जन करना। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां उद्देशक] [457 (8) मार्ग-विहार आदि में उपधि वहन आदि उपग्रह करना तथा उनके साथ-साथ चलना आदि। (9) राजद्विष्ट-राजादि के द्वेष का निवारण करना। (10) स्तेन–चोर आदि से रक्षा करना / (11) दंडग्गह-उपाश्रय से बाहर गमनागमन करते समय उनके हाथ में से दंड पात्र आदि ग्रहण करना / अथवा उपाश्रय में आने पर उनके दंड आदि ग्रहण करना। (12) ग्लान-बीमार की अनेक प्रकार से सम्भाल करना, पूछताछ करना / (13) मात्रक-उच्चार, प्रस्रवण, खेल मात्रक की शुद्धि करना अर्थात् उन पदार्थों को एकांत में विसर्जन करना। भाष्यकार ने बताया है कि सूत्र में कहे गये प्राचार्य पद से तीर्थकर का भी ग्रहण समझ लेना चाहिए। क्योंकि गणधर गौतमस्वामी भगवान के लिए "धर्माचार्य" शब्द का निर्देश करते थे। -भग.श.२,उ.१स्कन्धक वर्णन / कुल-एक गुरु की परम्परा कुल है। गण-एक प्रमुख प्राचार्य की परम्परा "गण" है / संघ-सभी गच्छों का समूह "संघ" है। वैयावृत्य सम्बन्धी अन्य वर्णन उद्दे. 5 में किया गया है। सूत्र 1-2 दसवें उद्देशक का सारांश यवमध्यचन्द्रप्रतिमा और वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा का सूत्रोक्त विधि से विशिष्ट संहनन वाले श्रुतसम्पन्न भिक्षु पाराधन कर सकते हैं। ये प्रतिमाएँ एक-एक मास की होती हैं। इनमें आहार-पानी की दत्ति की हानि-वृद्धि की जाती है / साथ ही अन्य अनेक नियम, अभिग्रह किए जाते हैं एवं परीषह उपसर्गों को धैर्य के साथ शरीर के प्रति निरपेक्ष होकर सहन किया जाता है / आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा, जीत इन पांच व्यवहारों में से जिस समय जो उपलब्ध हों, उनका क्रमशः निष्पक्ष भाव से प्रायश्चित्त एवं तत्त्व निर्णय में उपयोग करना चाहिए। स्वार्थ, आग्रह या उपेक्षा भाव के कारण व्युत्क्रम से उपयोग नहीं करना चाहिए अर्थात् केवल धारणा को ही अधिक महत्त्व न देकर आगमों के विधिनिषेध को प्रमुखता देनी चाहिए। सेवाकार्य एवं गणकार्य करने के साथ मान करने या न करने की पांच चौभंगियों का कथन है। धर्म में, प्राचार में और गणसमाचारी में स्थिर रहने वालों या उसका त्याग देने वालों सम्बन्धी दो चौभंगियां हैं। 9-10 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 [व्यवहारसूत्र 11 12-15 18-19 दृढधर्मी और प्रियधर्मी सम्बन्धी एक चौभंगी है। दीक्षादाता, बड़ी दीक्षादाता, मूल-पागम के वाचनादाता, अर्थ-आगम के वाचनादाता की एवं इनसे सम्बन्धित शिष्यों की कुल चार चौभंगियां कही गई हैं एवं उनके अन्तिम भंग के साथ धर्माचार्य (प्रतिबोधदाता) आदि का कथन किया गया है। तीन प्रकार के स्थविर होते हैं। शैक्ष को उपस्थापना के पूर्व की तीन अवस्थाएं होती हैं / गर्भकाल सहित 9 वर्ष के पूर्व किसी को दीक्षा नहीं देना / कारणवश दीक्षा दी गई हो तो बड़ी दीक्षा नहीं देना चाहिए। अव्यक्त (16 वर्ष से कम वय वाले) को प्राचारांग-निशीथ की वाचना न देना, अन्य अध्ययन कराना। बीस वर्ष की दीक्षापर्याय तक योग्य शिष्यों को सूत्रोक्त आगमों की वाचना पूर्ण कराना। प्राचार्यादि दश की भावयुक्त वैयावृत्य करना / इनकी वैयावृत्य से महान् कर्मों की निर्जरा एवं मुक्ति की प्राप्ति होती है। 20-21 22-36 उपसंहार 1-2 4-15 इस उद्देशक मेंदो चन्द्रप्रतिमानों का, पांच व्यवहार का, अनेक चौभंगियों का, स्थविर के प्रकारों का, शैक्ष को अवस्थाओं का, बालदीक्षा के विधि-निषेध का, प्रागम-अध्ययनक्रम का, वैयावृत्य का, इत्यादि विषयों का कथन किया गया है / // दसवां उद्देशक समाप्त // 18-19 20-36 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यांयकाल [स्व० आचार्यप्रवर श्री प्रात्मारामजी म० द्वारा सम्पावित नन्दीसूत्र से उद्धृत] स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए / अनध्यायकाल में स्वाध्याय वर्जित है। मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं। इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है। जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इनका भी पागमों में अनध्यायकाल वर्णित किया गया है, जैसे कि दसविधे अंतलिक्खिते असज्झाए पण्णत्ते, तं जहा–उक्कावाते, दिसिदाघे, गज्जिते, निग्धाते, जुवते, जक्खालित्ते, धूमिता, महिता, रयउग्घाते / दसविहे ओरालिते असज्झातिते, तं जहा-अट्ठी, मंसं, सोणित्ते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायवुग्गहे , उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरगे। -स्थानाङ्गसूत्र, स्थान 10 नो कप्पति निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा चउहि महापाडिवएहि सज्झायं करित्तए, तं जहाआसाढपाडिवए, इंदमहापाडिवए, कत्तिअपाडिवए, सुगिम्हपाडिवए / नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, चउहि संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पडिमाते, पच्छिमाते, मझण्हे, अड्ढरत्ते / कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीण वा, चाउक्कालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पुटवण्हे, अवरण्हे, पनोसे, पच्चूसे / -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 4, उद्देश 2 उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार, दस आकाश से सम्बन्धित, दस औदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या इस प्रकार बत्तीस अनध्याय माने गये हैं / जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसेआकाश सम्बन्धी बस अनध्याय 1. उल्कापात-तारापतन यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ____2. दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात् ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग-सी लगी है, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल ३-४.—गजित-विद्युत्-गर्जन और विद्युत प्रायः ऋतु स्वभाव से ही होता है / अतः पार्दा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। 5. निर्धात-बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जन होने पर या बादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो प्रहर तक अस्वाध्यायकाल है। 6. यूपक- शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है / इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 7. यक्षादीप्त-कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है वह यक्षादीप्त कहलाता है / अतः आकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 8. धूमिका कृष्ण-कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है / इसमें धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुध पड़ती है / वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है। जब तक यह घुध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 9. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुन्ध मिहिका कहलाती है। जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है / 10. रज उद्घात–वायु के कारण आकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है। जब तक यह धूलि फैली रहती है , स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। __ उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। औदारिक सम्बन्धी दस अनध्याय 11-12-13. हड्डी मांस और रुधिर-पंचेद्रिय तिर्यच की हड्डी, मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से यह वस्तुएं उठाई न जाएँ जब तक अस्वाध्याय है / वृत्तिकार आस पास के 60 हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं। __इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है / विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सो हाथ तक तथा एक दिन रात का होता है / स्त्री के मासिक धर्म का प्रस्वाध्याय तीन दिन तक / बालक एवं बालिका के जन्म का स्वाध्याय क्रमशः सात एवं पाठ दिन पर्यन्त का माना जाता है / 14. अशुचि-मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। 15. श्मशान-श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है / 16. चन्द्रग्रहण--चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य आठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 17. सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमशः आठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल] 18. पतन-किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्र पुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो तब तक स्वाध्याय न करना चाहिए। अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए। 19. राजव्युद्ग्रह---समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। 20. औदारिक शरीर-उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा 100 हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त 10 कारण प्रौदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। 21.28 चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-अाषाढपूणिमा, आश्विन-पूर्णिमा, कार्तिकपूर्णिमा और चैत्र-पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं। इन पूणिमानों के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं / इसमें स्वाध्याय करने का निषेध है। 29-32. प्रातः सायं मध्याह्न और अर्धरात्रि-प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे / सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे / मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भागमप्रकाशन-समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरड़िया , मद्रास 1. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली 2. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, 2. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली सिकन्दराबाद 3. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता, मेड़ता सिटी 3. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर 4. श्री श० जडावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 4. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरडिया, बैंगलोर बागलकोट 5. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 5. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर 6. श्री एस. किशनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री मोहनलालजी नेमीचन्दजी ललवाणी, 7. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी चांगाटोला 8. श्री सेठ खींवराजजी चोरडिया मद्रास 7. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरडिया, मद्रास 9. श्री गुमानमलजी चोरड़िया, मद्रास 8. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा१०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरडिया, मद्रास टीला 11. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 9. श्रीमती सिरेकुवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगन१२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरडिया, मद्रास चन्दजी झामड़, मदुरान्तकम् 13. श्री जे. अन्नराजजी चोरडिया, मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा 14. श्री एस. सायरचन्दजी चोरडिया, मद्रास (K. G. F.) जाड़न / 15. श्री आर. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी 11. श्री थानचन्दजी मेहता, जोधपुर चोरडिया, मद्रास 12. श्री भैरुदानजी लाभचन्दजी सुराणा, नागौर 16. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 13. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर 17. श्री जे. हुक्मीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 14. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया स्तम्भ सदस्य ब्यावर 1. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपर 15. श्री इन्द्रचन्दजी बैद, राजनांदगांव 2. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर 16. श्री रावतमलजी भीकमचन्दजी पगारिया, 3. श्री तिलोकचंदजी, सागरमलजी संचेती, मद्रास बालाघाट 4. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी 17. श्री गणेशमलजी धर्मीचन्दजी कांकरिया, टंगला 5. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरडिया, मद्रास 18. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 6. श्री दीपचन्दजी चोरडिया, मद्रास 19. श्री हरकचन्दजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 7. श्री मूलचन्दजी चोरडिया, कटंगी 20. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचन्दजी लोढ़ा, 8. श्री वर्द्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर ___ चांगाटोला 9. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग 21. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सदस्य-नामावली 22. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 8. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली 23. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, 9. श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास अहमदाबाद 10. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली 24. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली 11. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर 25. श्री रतनचन्दजी उत्तमचन्दजी मोदी, ब्यावर 12. श्री नथमलजी मोहनलालजी लूणिया, चण्डावल 26. श्री धर्मीचन्दजी भागचन्दजी बोहरा, झठा 13. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, 27. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा डोंडीलोहारा कुशालपुरा 28. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 14. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 29. श्री मूलचन्दजी सुजानमलजी संचेती, जोधपूर 15. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 30. श्री सी० अमरचन्दजी बोथरा, मद्रास 16. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपूर 31. श्री भंवरलालजी मूलचंदजी सुराणा, मद्रास 17. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर 32. श्री बादलचंदजी जुगराजजी मेहता, इन्दौर 18. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 33. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 19. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, अजमेर 20. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी w/o श्री ताराचंदजी 35. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, गोठी, जोधपुर बैंगलोर 21. श्री रायचन्दजी मोहनलालजी, जोधपुर 36. श्री भंवरीमलजी चोरड़िया, मद्रास 22. श्री धेवरचन्दजी रूपराजजी, जोधपुर 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 23. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास / 38. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना. अागरा 24. श्री जवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी. ब्यावर 39. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी 25. श्रा माणकच 25. श्री माणकचन्दजी किशनलालजी, मेड़तासिटी 40. श्री जबरचन्दजी गेलड़ा, मद्रास 26. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 41. श्री जड़ावमलजी सुगनचन्दजी, मद्रास 27. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 28. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर 42. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 43. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास 29. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर 44. श्री लणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास / 30. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 45. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कोप्पल 21 - 31. श्री प्रासूमल एण्ड के०, जोधपुर 32. श्री पुखराजजी लोढा, जोधपुर __ सहयोगी सदस्य 33. श्रीमती सुगनीबाई W/o श्री मिश्रीलालजी 1. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसा, मेड़तासिटी सांड, जोधपुर 2. श्रीमती छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री बच्छराजी सुराणा, जोधपुर 3. श्री पूनमचन्दजी नाहटा, जोधपुर 35. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर 4. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर विल्लीपुरम् 37. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 5. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर जोधपुर 6. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर 38. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर 7. श्री बी. गजराजजी बोकडिया, सेलम 39. श्री मांगीलालजी चोरा Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली 40. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 69. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा, भिलाई 41. श्री प्रोकचंदजी हेमराजजी सोनी, दुर्ग 70. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, 42. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास __ दल्ली-राजहरा 43. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 71. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर 44. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 72. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा जोधपुर 73. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 45. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना 74. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भरट, 46. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, कलकत्ता बैंगलोर 75. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 47. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर 76. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 48. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर बोलारम 49. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, 77. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया मेट्टपालियम 78. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली 50. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली 79. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला 51. श्री आसकरणजी जसराजजी पारख, दुर्ग 80. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढा, ब्यावर 52. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई 81. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गोहाटी 53. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 82. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठ ___ मेड़तासिटी 83. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, 54. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर कुचेरा 55. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 84. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरड़िया, भैरूंद 56. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर 85. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा 57. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 86. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी 58. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता कोठारी, गोठन सिटी 87. श्री सरदारमलजी एण्ड कम्पनी, जोधपुर 59. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 88. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 60. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, मैसूर जोधपुर 61. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां 89. श्री धुखराजजी कटारिया, जोधपुर 62. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर 90. श्री इन्द्रचन्दजी मुकनचन्दजी, इन्दौर 63. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजो मोदी, भिलाई 91. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 64. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा 92. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 65. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 93. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर 66. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी मुलेच्छा, 94. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी, बैंगलोर राजनांदगाँव 65. श्रीमती कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री 67. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई स्व. पारसमलजी ललवाणी, गोठन 68. श्री भंवरलालजी डूंगरमलजी कांकरिया, 96. श्री अखेचंदजी लणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता भिलाई 97. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनांदगांव Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सदस्य-नामावली 98. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर 116. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजो 99. श्री कुशालचंदजी रिखबचन्दजी सुराणा, लोढा, बम्बई बोलारम 117. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर 100. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 118. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कुचेरा 119. श्री भीखमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, 101. श्री गूदडमलजी चम्पालालजी, गोठन (कुडालोर) मद्रास 102. श्री तेजराजजी कोठारी, मांगलियावास 120. श्रीमती अनोपकुंवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी 103. सम्पतराजजी चोरड़िया, मद्रास / संघवी, कुचेरा 104. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी 121. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 105. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास 122. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 106. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 123. श्री भीखमचन्दजी गणेशमलजी चौधरी, 107. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मलादेवी. मद्रास 108. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, 124. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, कुशालपुरा सिकन्दराबाद 109. श्री भंवरलाल जी मांगीलालजी बेताला, डेह 125. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया 110. श्री जीवराजजी भंवरलालजी चोरडिया, सिकन्दराबाद भैरूदा 126. श्री वर्तमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, 111. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, बगड़ीनगर हरसोलाव 127. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, 112. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर बिलाड़ा 113. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 128. श्री टी. पारसमलजी चोरडिया, मद्रास 114. श्री भूरमलजी दुलीचंदजो बोकड़िया, मेड़ता 129. श्री मोतीलालजी आसूलालजी बोहरा सिटी एण्ड कं., बैंगलोर 115. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 130. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ 00 धलिया Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर द्वारा अद्यावधि प्रकाशित आगम-सा अनुवादक-सम्पादक आचारांगसूत्र दो भाग श्रीचन्द सुराना 'सरस' उपासकदशांगसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री (एम.ए., पी-एच. डी.) ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल अन्तकृद्दशांगसूत्र साध्वी दिव्यप्रभा (एम.ए., पी-एच.डी.) अनुत्तरोववाइयसूत्र साध्वी मुक्तिप्रभा (एम.ए., पी-एच.डी.) स्थानांगसूत्र पं. हीरालाल शास्त्री समवायांगसूत्र पं. हीरालाल शास्त्री सूत्रकृतांगसूत्र श्रीचन्द सुराना 'सरस' विपाकसूत्र अनु. पं. रोशनलाल शास्त्री सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल नन्दीसूत्र अनु. साध्वी उमरावकंवर 'अर्चना' सम्पा. कमला जैन 'जीजी' एम. ए. औपपातिकसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [चार भाग] श्री अमरमुनि राजप्रश्नीयसूत्र वाणीभूषण रतनमुनि, सं. देवकुमार जैन प्रज्ञापनासूत्र [तीन भाग] जैनभूषण ज्ञानमुनि प्रश्नव्याकरणसूत्र अनु. मुनि प्रवीणऋषि सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल उत्तराध्ययनसूत्र श्री राजेन्द्रमुनि शास्त्री निरयावलिकासूत्र श्री देवकुमार जैन दशवकालिकसूत्र महासती पुष्पवती आवश्यकसूत्र महासती सुप्रभा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री अनुयोगद्वारसूत्र उपाध्याय श्री केवलमुनि, सं. देवकुमार जैन सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र सम्पा. मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' जीवाजीवाभिगमसूत्र [प्र. भाग] श्री राजेन्द्रमुनि जीवाजीवाभिगमसूत्र द्वि. भा.] निशीथसूत्र मुनिश्री कन्हैयालालजी 'कमल', श्री तिलोकमुनि त्रीणिछेदसूत्राणि विशेष जानकारी के लिये सम्पर्कसूत्र श्री आगम प्रकाशन समिति श्री ब्रज-मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर-३०५९०१ in Education International