________________ दसवां उद्देशक] [457 (8) मार्ग-विहार आदि में उपधि वहन आदि उपग्रह करना तथा उनके साथ-साथ चलना आदि। (9) राजद्विष्ट-राजादि के द्वेष का निवारण करना। (10) स्तेन–चोर आदि से रक्षा करना / (11) दंडग्गह-उपाश्रय से बाहर गमनागमन करते समय उनके हाथ में से दंड पात्र आदि ग्रहण करना / अथवा उपाश्रय में आने पर उनके दंड आदि ग्रहण करना। (12) ग्लान-बीमार की अनेक प्रकार से सम्भाल करना, पूछताछ करना / (13) मात्रक-उच्चार, प्रस्रवण, खेल मात्रक की शुद्धि करना अर्थात् उन पदार्थों को एकांत में विसर्जन करना। भाष्यकार ने बताया है कि सूत्र में कहे गये प्राचार्य पद से तीर्थकर का भी ग्रहण समझ लेना चाहिए। क्योंकि गणधर गौतमस्वामी भगवान के लिए "धर्माचार्य" शब्द का निर्देश करते थे। -भग.श.२,उ.१स्कन्धक वर्णन / कुल-एक गुरु की परम्परा कुल है। गण-एक प्रमुख प्राचार्य की परम्परा "गण" है / संघ-सभी गच्छों का समूह "संघ" है। वैयावृत्य सम्बन्धी अन्य वर्णन उद्दे. 5 में किया गया है। सूत्र 1-2 दसवें उद्देशक का सारांश यवमध्यचन्द्रप्रतिमा और वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा का सूत्रोक्त विधि से विशिष्ट संहनन वाले श्रुतसम्पन्न भिक्षु पाराधन कर सकते हैं। ये प्रतिमाएँ एक-एक मास की होती हैं। इनमें आहार-पानी की दत्ति की हानि-वृद्धि की जाती है / साथ ही अन्य अनेक नियम, अभिग्रह किए जाते हैं एवं परीषह उपसर्गों को धैर्य के साथ शरीर के प्रति निरपेक्ष होकर सहन किया जाता है / आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा, जीत इन पांच व्यवहारों में से जिस समय जो उपलब्ध हों, उनका क्रमशः निष्पक्ष भाव से प्रायश्चित्त एवं तत्त्व निर्णय में उपयोग करना चाहिए। स्वार्थ, आग्रह या उपेक्षा भाव के कारण व्युत्क्रम से उपयोग नहीं करना चाहिए अर्थात् केवल धारणा को ही अधिक महत्त्व न देकर आगमों के विधिनिषेध को प्रमुखता देनी चाहिए। सेवाकार्य एवं गणकार्य करने के साथ मान करने या न करने की पांच चौभंगियों का कथन है। धर्म में, प्राचार में और गणसमाचारी में स्थिर रहने वालों या उसका त्याग देने वालों सम्बन्धी दो चौभंगियां हैं। 9-10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org