________________ 444] [व्यवहारसूत्र 7. (पुनः) चार प्रकार के साधु पुरुष कहे गये हैं। जैसे-१. कोई गण की शोभा बढ़ाता है, किन्तु मान नहीं करता है। 2. कोई मान करता है, किन्तु गण की शोभा नहीं बढ़ाता है / 3. कोई गण की शोभा भी बढ़ाता है और मान भी करता है / 4. कोई न गण की शोभा बढ़ाता है और न मान ही करता है। 8. (पुनः) चार प्रकार के साधु पुरुष कहे गये हैं। जैसे-१. कोई गण की शुद्धि करता है, परन्तु मान नहीं करता है / 2. कोई मान करता है, परन्तु गण की शुद्धि नहीं करता है। 3. कोई गण की शुद्धि भी करता है और मान भी करता है / 4. कोई न गण की शुद्धि करता है और न मान ही करता है। विवेचन–प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न-भिन्न गुण होते हैं / अतः यहां भिन्न-भिन्न को लेकर संयमी पुरुषों के लिए पांच चौभंगियां कही हैं, उनमें निम्न विषय है-(१) अट्ट-कुछ भी सेवा कार्य, (2) गण?-गच्छ के व्यवस्था संबंधी कार्य, (3) गणसंग्रह-गण के लिए साधु-साध्वी श्रावक श्राविकाओं की वृद्धि हो, आहार, पानी, वस्त्र, पात्र, शय्या-संस्तारक आदि सुलभ हों, ऐसे क्षेत्रों की वृद्धि करना, लोगों में धार्मिक रुचि एवं दान भावना की वृद्धि करना। (4) गणसोह-तप-संयम, ज्ञान-ध्यान, उपदेश एवं व्यवहारकुशलता से गण की शोभा की वृद्धि करना / (5) गणसोहि साधु-साध्वी या श्रावक-श्राविका के प्राचार-व्यवहार की अशुद्धियों को विवेक से दूर करना / संघव्यवस्था की अव्यवस्था को उचित उपायों द्वारा सुधार कर उत्तम व्यवस्था करना / इन गुणों को और अभिमान को संबंधित करके चौभंगियों का कथन किया गया है / कुछ साधु गण के लिए उक्त कार्य करके भी अभिमान नहीं करते हैं। ऐसे साधु ही सर्वश्रेष्ठ होते हैं। प्रत्येक साधक को इस प्रथम भंग के अनुसार रहने का प्रयत्न करना चाहिए / दूसरा भंग आत्मा के लिए पूरी तरह निकृष्ट एवं हेय है। क्योंकि कार्य तो कुछ करना नहीं और व्यर्थ में घमंड करना सर्वथा अनुचित है / तीसरा भंग मध्यम है अर्थात दुसरे भंग की अपेक्षा तीसरा भंग प्रात्मा का अधिक अहित करने वाला नहीं है तथा छदमस्थ जीवों में ऐसा होना स्वाभाविक है। अध्यात्मसाधना में काम क घमंड करना भी एक अवगुण है / इस से आत्मगुणों का विकास नहीं होता है। चौथा भंग सामान्य साधुनों की अपेक्षा से है। इसमें गुण नहीं है तो अवगुण भी नहीं है, ऐसे भिक्षु संयम में सावधान हों तो अपनी आराधना कर सकते हैं, किंतु वे गणहित के कार्यों में सक्रिय नहीं होते। इस कारण इस भंग वाले अधिक निर्जरा भी नहीं करते तथा उनके विशेष कर्मबंध और पुण्यक्षय भी नहीं होता है। इन भंगों का चिंतन करके प्रात्मपरीक्षा करते हुए शुद्ध से शुद्धतर अवस्था में प्रात्मशक्ति का विकास करना चाहिए। अर्थात् अपने क्षयोपशम के अनुसार गच्छहित एवं जिनशासन की प्रभावना में योगदान देना चाहिए। साथ ही प्रात्मा में लघुता का भाव उपस्थित रखते हुए स्वयं का उत्कर्ष और दूसरों का तिरस्कार-निंदा आदि नहीं करना चाहिए। क्योंकि कषायों की उपशांति और आत्मशांति की प्राप्ति करना ही साधना का प्रमुख लक्ष्य है, उसके विपरीत मानकषाय की वृद्धि होना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org