________________ 448] [व्यवहारसूत्र दीक्षा, बड़ी दीक्षा या प्रतिबोध दे सकते हैं / उनको इस सूत्र के "आयरिय" शब्द से सूचित किया गया है। इसी तरह शिष्य को भी भिन्न-भिन्न शब्दों से सूचित किया है / ___ एक ही भिक्षु दीक्षादाता आदि पूर्वोक्त पांचों का कार्य सम्पन्न कर सकता है अथवा कोई हीनाधिक कार्यों का कर्ता हो सकता है और कोई भिक्षु पांचों ही अवस्थाओं से रहित भिन्न अवस्था वाला अर्थात् सामान्य भिक्षु भी होता है / उक्त पांचों कार्य सम्पन्न करने वाले साधुनों को प्रथम दो चौभंगियों में "प्रायरिय" शब्द से सूचित किया है और उनके शिष्यों को बाद की दो चोभंगियों से सूचित किया है। इस प्रकार इन चौभंगियों के ये भंग केवल ज्ञेय हैं, अर्थात इन चौभंगियों के किसी भंग को प्रशस्त या अप्रशस्त नहीं कहा जा सकता है। स्थविर के प्रकार 16. तमो थेरभूमीनो पण्णताओ, तं जहा-१. जाइ-थेरे, 2. सूय-थेदे, 3. परियाय-थेरे। 1. सट्टिवासजाए समणे निग्गंथे जाइ-थेरे / 2. ठाण-समवायांगधरे समणे निग्गथे सुय-थेरे। 3. वीसवासपरियाए समणे निग्गंथे परियाय-थेरे। 16. स्थविर तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-१. वय-स्थविर, 2. श्रुत-स्थविर, 3. पर्यायस्थविर / 1. साठ वर्ष की आयु वाले श्रमण-निर्ग्रन्थ वयस्थविर हैं। 2. स्थानांग-समवायांग के धारक श्रमण-निर्ग्रन्थ श्रुतस्थविर हैं। 3. बीस वर्ष की दीक्षा-पर्याय के धारक श्रमण-निर्ग्रन्थ पर्यायस्थविर हैं। विवेचन-"भूमि" शब्द यहां “अवस्था" अर्थ में प्रयुक्त है / जो स्थिर स्वभाव वाले हो जाते हैं वे अपूर्ण या चंचल नहीं होते हैं / अतः वे स्थविर कहे जाते हैं / (1) वयस्थविर--सूत्र में गर्भकाल सहित 60 वर्ष की उम्र वालों को वयस्थविर सूचित किया है और व्यव. भाष्य उद्दे 3 सूत्र 11 में 70 वर्ष की वय वाले को स्थविर कहा है। वहां उसके पूर्व की अवस्था को प्रौढ अवस्था कहा है / ये दोनों कथन सापेक्ष हैं, इनमें विरोध नहीं समझना चाहिए / (2) श्रुतस्थविर-स्थानांग, समवायांगसूत्र को कंठस्थ धारण करनेवाला अर्थात् आचारांगादि चार अंग, चार छेद एवं उत्तराध्ययन, दशवैकालिक और आवश्यक सूत्र को अर्थसहित कण्ठस्थ धारण करने वाला श्रुतज्ञान की अपेक्षा श्रुतस्थविर कहा जाता है। (3) पर्यायस्थविर-संयमपर्याय के बीस वर्ष पूर्ण हो जाने पर भिक्षु “पर्यायस्थविर" कहा जाता है। ये तीनों प्रकार के स्थविरत्व परस्पर निरपेक्ष हैं अर्थात् स्वतंत्र हैं। इस सूत्र में ये तीनों प्रकार के स्थविर साधु-साध्वियों की अपेक्षा से ही कहे गये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org