________________ वसवां उद्देशक] इन स्थविरों के प्रति क्या-क्या व्यवहार करना चाहिए, इसका भाष्य में इसप्रकार स्पष्टीकरण किया गया है। (1) जन्मस्थविर को काल-स्वभावानुसार आहार देना, उसके योग्य उपधि, शय्यासंस्तारक देना अर्थात् ऋतु के अनुकूल सवात-निर्वात स्थान और मृदु संस्तारक देना तथा विहार में उसके उपकरण और पानी उठाना इत्यादि अनुकम्पा करनी चाहिए / (2) श्रुतस्थविर का आदर-सत्कार, अभ्युत्थान, कृतिकर्म, आसनप्रदान, पाद-प्रमार्जन करना के प्रत्यक्ष या परोक्ष में गुणकीर्तन-प्रशंसा करना, उनके समक्ष उच्च शय्या आसन से नहीं बैठना, उनके निर्देशानुसार कार्य करना / (3) पर्यायस्थविर का आदर-सत्कार, अभ्युत्थान, वंदन करना, खमासमणा देना, उनका दण्डादि उपकरण ग्रहण करना एवं उचित विनय करना / ये स्थविर गण की ऋद्धिरूप होते हैं। इनका तिरस्कार, अभक्ति आदि करना विराधना का कारण है, ऐसा करने से गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है। बड़ी दीक्षा देने का कालप्रमाण 17. तो सेहभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-१. सत्तराईदिया, 2. चाउम्मासिया, 3. छम्मासिया। छम्मासिया उक्कोसिया। चाउम्मासिया मज्झमिया / सत्तराईदिया जहन्निया 17. नवदीक्षित शिष्य को तीन शैक्ष-भूमियां कही गई हैं, जैसे--१. सप्तरात्रि, 2. चातुर्मासिक, 3. पाण्मासिकी। उत्कृष्ट छह मास से महाव्रत आरोपण करना / मध्यम चार मास से महावत आरोपण करना / जघन्य सात दिन-रात के बाद महाव्रत आरोपण करना। विवेचन-दीक्षा देने के बाद एवं उपस्थापना के पूर्व की मध्यगत अवस्था को यहां शक्ष-भूमि कहा गया है। जघन्य शैक्षकाल सात अहोरात्र का है, इसलिए कम से कम सात रात्रि व्यतीत होने पर अर्थात आठवें दिन बड़ी दीक्षा दी जा सकती है। उपस्थापना संबंधी अन्य विवेचन व्यव. उद्दे. 4 सूत्र 15 में प्रतिक्रमण एवं समाचारी अध्ययन के पूर्ण न होने के कारण मध्यम और उत्कृष्ट शैक्ष-काल हो सकता है, अथवा साथ में दीक्षित होने वाले कोई माननीय पूज्य पुरुष का कारण भी हो सकता है। __ जघन्य शैक्ष-काल तो सभी के लिए आवश्यक ही होता है। इतने समय में कई अंतरंग जानकारियां हो जाती हैं, परीक्षण भी हो जाता है और प्रतिक्रमण एवं समाचारी का ज्ञान भी पूर्ण कराया जा सकता है। किसी अपेक्षा को लेकर सातवें दिन बड़ी दीक्षा देने की परम्परा भी प्रचलित है, किंतु सूत्रानुसार सात रात्रि व्यतीत होने के पूर्व बड़ी दीक्षा देना उचित नहीं है। इस विषयक विशेष विवेचन उ. 4 सू. 15 में देखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org