________________ 442] [व्यवहारसूत्र व्यवहार अनेकों के द्वारा सेवित होने पर भी शुद्धि नहीं कर सकता है, अतः उस से व्यवहार नहीं करना चाहिए। सो जहकालादीणं अपडिकंतस्स निखिगईयंतु / मुहणंतगफिडिय, पाणग असंवरेण, एवमादीसु // 709 // __-व्यव. भाष्य. उद्दे. 10 जो पच्चक्खाणकाल या स्वाध्यायकाल आदि का प्रतिक्रमण नहीं करता है। मुख पर मुखवस्त्रिका के बिना रहता है अथवा बोलता है और पानी को नहीं ढकता है, उसे नीवी का प्रायश्चित्त आता है, यह सब जीतव्यवहार है / गाथा में आए 'मुहणंतगफिडिय' को टीका- "मुखपोतिकाया स्फिटितायां, मुखपोतिकामंतरणेत्यर्थ"। ___ इन पांच व्यवहारियों द्वारा दिया गया प्रायश्चित्त आगमव्यवहार यावत् जीतव्यवहार कहा जाता है। इस सूत्रविधान का प्राशय यह है कि पहले कहा गया व्यवहार और व्यवहारी प्रमुख होता है। उसकी अनुपस्थिति में ही बाद में कहे गए व्यवहार और व्यवहारी को प्रमुखता दी जा सकती है। अर्थात् जिस विषय में श्रुतव्यवहार उपलब्ध हो उस विषय के निर्णय करने में धारणा या जीतव्यवहार को प्रमुख नहीं करना चाहिए। व्युत्क्रम से प्रमुखता देने में स्वार्थभाव या राग-द्वेष आदि होते हैं, निष्पक्षभाव नहीं रहता है। इसी प्राशय को सूचित करने के लिए सूत्र के अंतिम अंश में राग-द्वेष एवं पक्षपातभाव से रहित होकर यथाक्रम व्यवहार करने की प्रेरणा दी गई है, साथ ही सत्रनिदिष्ट क्रम से एवं निष्पक्षभाव से व्यवहार करने वालों को आराधक कहा गया है। अतः पक्षभाव से एवं व्युत्क्रम से व्यवहार करने वाला विराधक होता है, यह स्पष्ट है। व्यवहार शब्द का उपलक्षण से विस्तृत अर्थ करने पर भी फलित होता है कि संयमीजीवन से सम्बन्धित किसी भी व्यवहारिक विषय का निर्णय करना हो या कोई भी पागम से प्ररूपित तत्त्व के सम्बन्ध में उत्पन्न विवाद की स्थिति का निर्णय करना हो तो इसी क्रम से करना चाहिए अर्थात यदि आगमव्यवहारी हो तो उसके निर्णय को स्वीकार करके विवाद को समाप्त करना चाहिए / __ यदि आगमव्यवहारी न हो तो उपलब्ध श्रुत-पागम के आधार से जो निर्णय हो, उसे स्वीकार करना चाहिए / सूत्र का प्रमाण उपलब्ध होने पर प्राज्ञा, धारणा या परम्परा को प्रमुख नहीं मानना चाहिए, क्यों प्राज्ञा, धारणा या परम्परा की अपेक्षा श्रुतव्यवहार प्रमुख है / वर्तमान में सर्वोपरि प्रमुख स्थान आगमों का है, उसके बाद व्याख्याओं एवं ग्रन्थों का स्थान है तत्पश्चात् स्थविरों द्वारा धारित कंठस्थ धारणा या परम्परा का है। व्याख्याओं या ग्रन्थों में भी पूर्व-पूर्व के प्राचार्यों की रचना का प्रमुख स्थान है। अतः वर्तमान में सर्वप्रथम निर्णायक शास्त्र हैं, उससे विपरीत अर्थ को कहने वाले व्याख्या और ग्रन्थ का महत्त्व नहीं है। उसी प्रकार शास्त्रप्रमाण के उपलब्ध होने पर धारणा या परम्परा का भी कोई महत्त्व नहीं है / इसलिए शास्त्र, ग्रन्थ, धारणा और परम्परा को भी यथाक्रम विवेकपूर्वक प्रभु खता देकर किसी भी तत्व का निर्णय करना आराधना का हेतु है और किसी भी पक्षभाव के कारण व्युत्क्रम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org