Book Title: Agam 26 Chhed 03 Vyavahara Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 260
________________ 440] [व्यवहारसूत्र आगे आए "णिज्जुहिता बहवे..." इस सूत्रांश की व्याख्या में स्पष्ट किया है। कतिपय शब्दों का अर्थ इस प्रकार है-व्युत्सृष्टकाय—शरीर की शुश्रूषा एवं औषध का त्याग / चियत्तदेहे-शरीरपरिकर्म (अभ्यंगन, मर्दन) का त्याग करना एवं वध-बन्धन किये जाने पर प्रतीकार या सुरक्षा नहीं करना / पांच प्रकार के व्यवहार 3. पंचविहे ववहारे पण्णते, तं जहा-१. आगमे, 2. सुए, 3. प्राणा, 4. धारणा, 5. जीए / 1. जहा से तत्थ आगमे सिया, आगमेणं ववहारं पट्टवेज्जा। 2. णो से तत्थ आगमे सिया, जहा से तत्थ सुए सिया, सुएणं ववहारं पट्टवेज्जा। 3. णो से तत्थ सुए सिया, जहा से तत्थ आणा सिया, आणाए ववहारं पट्टवेज्जा। 4. णो से तत्थ आणा सिया, जहा से तत्थ धारणा सिया, धारणाए ववहारं पट्टवेज्जा। 5. णो से तत्थ धारणा सिया, जहा से तत्थ जीए सिया, जीएणं ववहारं पट्टवेज्जा। इच्चेएहिं पंचहि ववहारेहि ववहारं पट्टवेज्जा, तं जहा–१. आगमेणं, 2. सुएणं, 3. आणाए, 4. धारणाए, 5. जीएणं / जहा-जहा से आगमे, सुए, प्राणा, धारणा, जीए तहा-तहा बवहारं पट्टवेज्जा। प.--से किमाह भंते ? उ०प्रागमबलिया समणा निग्गंथा। इच्चेयं पंचविहं ववहारं जया-जया, जहि-हि, तया• तया, तहि-तहिं अणिस्सिओवस्सियं ववहारं ववहरमाणे समणे निग्गंथे आणाए आराहए भवइ / 3. व्यवहार पांच प्रकार का कहा गया है, यथा-१. आगम, 2. श्रुत, 3. प्राज्ञा, 4. धारणा, 5. जीत / 1. जहां आगम (केवलज्ञानधारक यावत् नौपूर्वधारक) ज्ञानी हों, वहां उनके निर्देशानुसार व्यवहार करें। 2. जहां प्रागमज्ञानी न हों तो वहां श्रुतज्ञानी (जघन्य अाचारप्रकल्प, उत्कृष्ट नवपूर्व से कुछ कम ज्ञानी) निर्देशानुसार व्यवहार करें। 3. जहां श्रुतज्ञानी न हों, तो वहां गीतार्थ की आज्ञानुसार व्यवहार करें। 4. जहां गीताथे की प्राज्ञा न हो वहां स्थविरों की धारणानुसार व्यवहार करें। 5. जहां स्थविरों की धारणा ज्ञात न हो तो वहां सर्वानुमत परम्परानुसार व्यवहार करें। इन पांच व्यवहारों के अनुसार व्यवहार करें। यथा-१. पागम, 2. श्रुत, 3. आज्ञा, 4. धारणा, 5. जीत / प्रागमज्ञानी, श्रुतज्ञानी, गीतार्थ-प्राज्ञा, स्थविरों की धारणा और परम्परा, इन में से जिस समय जो उपलब्ध हो, उस समय उसी से क्रमश: व्यवहार करें। प्र०-भंते ! ऐसा क्यों कहा? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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