Book Title: Agam 26 Chhed 03 Vyavahara Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 261
________________ दसवां उद्देशक] [41 उ.-श्रमण-निर्ग्रन्थ आगमन्यवहार की प्रमुखता वाले होते हैं। इन पांच प्रकार के व्यवहारों में से जब-जब, जिस-जिस विषय में जो प्रमुख व्यवहार उपलब्ध हो तब-तब, उस-उस विषय में मध्यस्थ भाव से उस व्यवहार से व्यवहार करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ जिनाज्ञा का पाराधक होता है। विवेचन -सूत्र में "व्यवहार" शब्द प्रायश्चित्त अर्थ में प्रयुक्त है। अन्य आगमों में भी इस अर्थ में प्रयोग हुआ है / यथा--"अहालहुसए नामं ववहारे पट्टवियम्वे सिया"-यथा लघुष्क (अत्यल्प) प्रायश्चित्त की प्रस्थापना करनी चाहिए। -बृहत्कल्प उद्देशक 4 प्रायश्चित्त का निर्णय “पागम" आदि सूत्रोक्तक्रम से ही करना चाहिए। विशेष दोषों को आलोचना पागमव्यवहारी के पास ही करनी चाहिए। यदि वे न हों तो जो उपलब्ध सूत्रों में से अधिकतम सूत्रों को धारण करने वाले हों एवं आलोचना-श्रवण के योग्य हों उनके पास पालोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए। ऐसा न करने पर अर्थात् व्युत्क्रम से करने पर भाष्य में प्रायश्चित्त का कथन किया गया है। सूत्र में प्रायश्चित्त के निर्णायक प्राधार पांच व्यवहार कहे गये हैं। उन्हें धारण करने वाला व्यवहारी कहा जाता है। (1) आगमव्यवहारी-९ पूर्व से लेकर 14 पूर्व के ज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी. ये "प्रागमव्यवहारी" कहे जाते हैं। (2) श्रुतव्यवहारी-जघन्य आचारांग एवं निशीथसूत्र मूल, अर्थ, परमार्थ सहित कण्ठस्थ धारण करने वाले और उत्कृष्ट 9 पूर्व से कम श्रुत को धारण करने वाले "श्रुतव्यवहारी" कहे जाते हैं। (3) आज्ञाव्यवहारी-किसी आगमव्यवहारी या श्रुतव्यवहारी की आज्ञा प्राप्त होने पर उस प्राजा के आधार से प्रायश्चित्त देने वाला "आज्ञाव्यवहारी" कहा जाता है / (4) धारणाव्यवहारी-बहुश्रुतों ने श्रुतानुसारी प्रायश्चित्त की कुछ मर्यादा किसी योग्य भिक्षु को धारण करा दी हो, उनको अच्छी तरह धारण करने वाला "धारणाव्यवहारी" कहा जाता है। (5) जीतव्यवहारी-जिन विषयों में कोई स्पष्ट सूत्र का प्राधार न हो उस विषय में बहुश्रुत भिक्षु सूत्र से अविरुद्ध और संयमपोषक प्रायश्चित्त की मर्यादाएं किसी योग्य भिक्षु को धारण करा दे। उन्हें अच्छी तरह धारण करने वाला "जीतव्यवहारी" कहा जाता है / जंजीयमसोहिकरं, पासस्थ पमत्त संजयाइण्णं / जइ वि महाजणाइण्णं, न तेण जीएण ववहारो॥७२०॥ जं जीयं सोहिकरं, संवेगपरायणेन दंतेण / एगेण वि प्राइन्न, तेण उ जीएण ववहारो / / 721 // -~-व्यव. भाष्य. उद्दे. 10 वैराग्यवान् एक भी दमितेन्द्रिय बहुश्रुत द्वारा जो सेवित हो, वह जीतव्यवहार संयम-शुद्धि करने वाला हो सकता है / किन्तु जो पार्श्वस्थ प्रमत्त एवं अपवादप्राप्त भिक्षु से प्राचीर्ण हो, वह जीत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287