________________ [ व्यवहारसूत्र तेरस के दिन भोजन और पानी को तीन-तीन दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। चौदस के दिन भोजन और पानी की दो-दो दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। अमावस्या के दिन भोजन और पानी की एक-एक दत्ति ग्रहण करना कल्पता है। शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के दिन भोजन और पानी की दो-दो दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / द्वितीया के दिन भोजन और पानी की तीन-तीन दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। तीज के दिन भोजन और पानी की चार-चार दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। चौथ के दिन भोजन और पानी को पांच-पाँच दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। पांचम के दिन भोजन और पानी की छह-छह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। छठ के दिन भोजन और पानी की सात-सात दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / सातम के दिन भोजन और पानी की आठ-पाठ दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। आठम के दिन भोजन और पानी की नव-नव दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। नवमी के दिन भोजन और पानी की दश-दश दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। दसमी के दिन भोजन और पानी की ग्यारह-ग्यारह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / ग्यारस के दिन भोजन और पानी की बारह-बारह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। बारस के दिन भोजन और पानी की तेरह-तेरह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। तेरस के दिन भोजन और पानी की चौदह-चौदह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है / चौदस के दिन भोजन और पानी की पन्द्रह-पन्द्रह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। पूर्णिमा के दिन वह उपवास करता है। इस प्रकार यह वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा सूत्रानुसार यावत् जिनाज्ञानुसार पालन की जाती है। विवेचन-जिस प्रकार शुक्लपक्ष में चन्द्र की कलाएं बढ़ती हैं और कृष्णपक्ष में घटती हैं, उसी प्रकार इन दोनों प्रतिमाओं में आहार की दत्तियों की संख्या तिथियों के क्रम से घटाई और बढ़ाई जाती हैं / इसलिए इन दोनों प्रतिमाओं को “चन्द्रप्रतिमा" कहा गया है। जिस प्रकार जौ (धान्य) का एक किनारा पतला होता है, फिर मध्य में स्थूल होता है एवं अन्त में पतला होता है, उसी प्रकार जिस प्रतिमा के प्रारम्भ में एक दत्ति, मध्य में पन्द्रह दत्ति, अन्त में एक दत्ती और बाद में उपवास किया जाता है, उसे “यवमध्यचन्द्रप्रतिमा" कहा जाता है। जिस प्रकार वज्ररत्न या डमरू का एक किनारा विस्तृत, मध्यभाग संकुचित और दूसरा किनारा विस्तृत होता है, उसी प्रकार जिस प्रतिमा के प्रारम्भ में पन्द्रह दत्ति, मध्य में एक दत्ति, अन्त में पन्द्रह दत्ति और बाद में उपवास किया जाता है, उसे "वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा" कहा जाता है। ये दोनों प्रतिमाएं विशिष्ट संहनन वाला एवं पूर्वधर भिक्षु ही धारण कर सकता है। इन प्रतिमाओं में प्राहार-पानी की दत्तियां सूत्रनुसार क्रमश: घटाते-बढ़ाते हुए ग्रहण की जाती हैं / आहार पानी की दत्तियों की संख्या के साथ-साथ इन प्रतिमाओं को धारण करने वाले भिक्षु को निम्नलिखित नियमों का पालन करना आवश्यक होता है--- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org