________________ 314] [व्यवहारसूत्र वाला, अप्रशस्त योग और अप्रशस्त ध्यान अर्थात् आर्त-रौद्र ध्यान का त्याग कर शुभ योग और धर्मशुक्ल ध्यान में लीन रहने वाला, आत्मपरिणामों को सदा विशुद्ध रखने वाला, इहलोकादि आशंका से रहित, ऐसा गुणनिधि भिक्षु "संयमकुशल' है। 3. प्रवचन कुशल-जो जिनवचनों का ज्ञाता एवं कुशल उपदेष्टा हो वह प्रवचनकुशल है, यथा-सूत्र के अनुसार उसका अर्थ, परमार्थ, अन्वय-व्यतिरेक युक्त सूत्राशय को, अनेक अतिशय युक्त अर्थों को एवं आश्चर्यकारी अर्थों को जानने वाला, मूल एवं अर्थ की श्रुतपरम्परा को भी जानने वाला, प्रमाण-नय-निक्षेपों से पदार्थों के स्वरूप को समझने वाला, इस प्रकार श्रुत एवं अर्थ के निर्णायक होने से जो श्रुत रूप रत्नों से पूर्ण है तथा जिसने सम्यक् प्रकार से श्रुत को धारण करके उसका पुनरावर्तन किया है, पूर्वापर सम्बन्ध पूर्वक चिन्तन किया है, उसके निर्दोष होने का निर्णय किया है और उसके अर्थ को बहुश्रुतों के पास चर्चा-वार्ता आदि से विपुल विशुद्ध धारण किया है, ऐसे गुणों को धारण करने वाला और उक्त अध्ययन से अपना हित करने वाला, अन्य को हितावह उपदेश करने वाला एवं प्रवचन का अवर्णवाद बोलने वालों का निग्रह करने में समर्थ ऐसा गुणसम्पन्न भिक्षु "प्रवचनकुशल" है। 4. प्रज्ञप्तिकुशल--लौकिक शास्त्र, वेद, पुराण एवं स्वसिद्धांत का जिसने सम्यग् विनिश्चय कर लिया है, जो धर्म-कथा, अर्थ-कथा आदि का सम्यक्ज्ञाता है तथा जीव-अजीव के स्वरूप एवं भेदों का, कर्म बंध एवं मोक्ष के कारणों का, चारों गति में गमनागमन करने का एवं उनके कारणों का तथा उनसे उत्पन्न दुःख-सुख का, इत्यादि कथन करने में कुशल, परवादियों के कुदर्शन का सम्यक् समाधान करके उनसे कुदर्शन का त्याग कराने में समर्थ एवं स्वसिद्धांतों को समझाने में कुशल भिक्षु "प्रज्ञप्तिकुशल" है। 5. संग्रहकुशल-द्रव्य से उपधि, शिष्यादि का और भाव से श्रुत एवं अर्थ तथा गुणों का आत्मा में संग्रह करने में जो कुशल (दक्ष) होता है तथा क्षेत्र एवं काल के अनुसार विवेक रख कर ग्लान वृद्ध आदि की अनुकम्पापूर्वक वैयावृत्य करने की स्मृति रखने वाला, आचार्यादि की रुग्णावस्था के समय वाचना देने वाला, समाचारी भंग करने वाले या कषाय में प्रवृत्त होने वाले भिक्षुओं को यथायोग्य अनुशासन करके रोकने वाला, आहार विनय आदि के द्वारा गुरुभक्ति करने वाला, गण के अन्तरंग कार्यों को करने वाला अथवा गण से बहिर्भाव वालों को अन्तर्भावी बनाने वाला, आहार, उपधि आदि जिसको जो आवश्यक हो उसकी पूर्ति करने वाला, परस्पर साथ रहने में एवं अन्य को रखने में कुशल, सीवन, लेपन आदि कार्य करने कराने में कुशल, इस प्रकार निःस्वार्थ सहयोग देने के सवभाव वाला गुणनिधि भिक्षु “संग्रहकुशल है। 6. उपग्रहकुशल-बाल, वृद्ध, रोगी, तपस्वी, असमर्थ भिक्षु आदि को शय्या, प्रासन, उपधि, आहार, औषध आदि देता है, दिवाता है तथा इनकी स्वयं सेवा करता है अन्य से करवाता है, गुरु आदि के द्वारा दी गई वस्तु या कही गई वार्ता निर्दिष्ट साधुओं तक पहुंचाता है तथा अन्य भी उनके द्वारा निर्दिष्ट कार्यों को कर देता है अथवा जिनके प्राचार्यादि नहीं हैं, उन्हें आत्मीयता से दिशानिर्देश करता है, वह "उपग्रहकुशल" है / 7. अक्षत-आचार-आधाकर्म आदि दोषों से रहित शुद्ध प्राहार ग्रहण करने वाला एवं परिपूर्ण प्राचार का पालन करने वाला। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org