________________ [व्यवहारसूत्र यदि स्थविर साधु अाज्ञा दें तो उन्हें 'अभिनिचारिका' करना कल्पता है। यदि स्थविर साधु आज्ञा न दें तो उन्हें 'अभिनिचारिका' करना नहीं कल्पता है / यदि स्थविरों से आज्ञा प्राप्त किये बिना 'अभिनिचारिका' करे तो वे दीक्षाछेद या परिहारप्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। विवेचन-आचार्य-उपाध्याय जहां मासकल्प ठहरे हों, शिष्यों को सूत्रार्थ की वाचना देते हों, वहां से ग्लान असमर्थ एवं तप से कृश शरीर वाले साधु निकट ही किसी गोपालक बस्ती में दुग्धादि विकृति सेवन के लिए जाएं तो उनकी चर्या को यहां 'अभिनिचारिका गमन' कहा गया है। किसी भी भिक्षु को या अनेक भिक्षुओं को ऐसे दुग्धादि की सुलभता वाले क्षेत्र में जाना हो तो गच्छ-प्रमुख प्राचार्य या स्थविर आदि की आज्ञा लेना आवश्यक होता है। वे आवश्यक लगने पर ही उन्हें अभिनिचारिका में जाने की आज्ञा देते हैं अन्यथा मना कर सकते हैं। नि. उ. 4 में प्राचार्य-उपाध्याय की विशिष्ट प्राज्ञा बिना विकृति सेवन करने का प्रायश्चित्त कहा गया है और यहां पर आज्ञा बिना 'वजिका' में जाने का प्रायश्चित्त कहा गया है / अतः आज्ञा न मिलने पर नहीं जाना चाहिए / भाष्य में बताया गया है कि प्राचार्य-उपाध्याय के पास साधुओं की संख्या अधिक हो, अन्य गच्छ से अध्ययन हेतु आये अनेक प्रतीच्छक साधु हों, पाहुने साधुनों का आवागमन अधिक हो अथवा बद्ध आदि कारुणिक साधु अधिक हों, इत्यादि किसी भी कारण से भिक्षुओं को अध्ययन या तप उपधान के बाद या प्रायश्चित्त वहन करने के बाद आवश्यक विकृतिक पदार्थों के न मिलने पर कृशता अधिक बढ़ती हो तो उन भिक्षुओं को नियत दिन के लिये अर्थात्--५ दिन आदि संख्या का निर्देश कर 'वजिका' में जाने की आज्ञा दी जाती है। उसी अपेक्षा से सूत्र का संपूर्ण विधान है / सामान्य विचरण करने हेतु प्राज्ञा लेने का कथन उद्दे. 3 सूत्र 2 में है। चर्याप्रविष्ट एवं चर्यानिवृत्त भिक्षु के कर्तव्य 20. चरियापविठे भिक्खू जाव चउराय-पंचरायानो थेरे पासेज्जा, सच्चेव आलोयणा, सच्चेव पडिक्कमणा, सच्चेव ओग्गहस्स पुब्वाणुग्णवणा चिट्टइ अहालंदमवि प्रोग्गहे / 21. चरियापविट्ठे भिक्खू परं चउराय-पंचरायाओ थेरे पासेज्जा, पुणो पालोएज्जा, पुणो पडिक्कमेज्जा, पुणो छेयपरिहारस्स उवट्ठाएज्जा। भिक्खुभावस्स अट्ठाए दोच्चंपि ओग्गहे अणुनवयम्वे सिया।। कप्पइ से एवं वदित्तए, 'अणुजाणह भंते ! मिओग्गहं अहालंदं धुवं नितियं वेउट्टियं / ' तओ पच्छा काय-संकासं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org