________________ पांचवां उद्देशक] [373 सूत्र 17-18 पद पर न रखें न ही उसे प्रमुख बन कर विचरण करने की आज्ञा दें। यदि कोई रोगादि के कारण से सूत्र भूल जाय तो स्वस्थ होने पर पुनः कण्ठस्थ करने के बाद पद आदि दिये जा सकते हैं। वद्धावस्था वाले स्थविर के द्वारा ये कण्ठस्थ सूत्र भूल जाना क्षम्य है तथा पुन: याद करते हुए भी याद न होवे तो कोई प्रायश्चित्त नहीं है। वृद्ध भिक्षु कभी लेटे हुए या बैठे हुए सूत्र की पुनरावृत्ति, श्रवण या पृच्छा आदि कर सकते हैं। विशेष परिस्थिति के बिना साधु-साध्वी को परस्पर एक दूसरे के पास आलोचना, प्रायश्चित्त नहीं करना चाहिए। साधु-साध्वी को परस्पर एक दूसरे का कोई भी सेवाकार्य नहीं करना चाहिए। आगमोक्त विशेष परिस्थितियों में वे एक दूसरे की सेवापरिचर्या कर सकते हैं। सांप काट जाय तो स्थविरकल्पी भिक्षु को मन्त्रचिकित्सा कराना कल्पता है, किन्तु जिनकल्पी को चिकित्सा करना या कराना नहीं कल्पता है। स्थविरकल्पी को उस चिकित्सा कराने का प्रायश्चित्त भी नहीं है। जिनकल्पी को ऐसा करने पर प्रायश्चित्त आता है। उपसंहार सूत्र 1-10 11-12 13-14 15-18 19-20 इस प्रकार इस उद्देशक मेंप्रवर्तिनी आदि के साथ विचरण करने वाली साध्वियों की संख्या का, प्रमुखा साध्वी के काल करने पर आवश्यक कर्तव्यों का, प्रवतिनो-निर्दिष्ट या अन्य योग्य साध्वी को पद देने का, प्राचारप्रकल्प कण्ठस्थ रखने का, साधु-साध्वी को परस्पर सेवा, मालोचना नहीं करने का, सर्पदंशचिकित्सा का, इत्यादि विषयों का कथन किया गया है। // पांचवां उद्देशक समाप्त // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org