________________ सातवां उद्देशक] [391 प्रकार कोई भी गीतार्थ साध्वी किसी भी साधु या साध्वी को दीक्षित कर सकती है। किन्तु उन्हें प्राचार्य की प्राज्ञा लेना आवश्यक होता है / किसी भी साधु को दीक्षित करना हो तो प्राचार्य, उपाध्याय के लिए दीक्षित किया जा सकता है और साध्वी को दो क्षित करना हो तो आचार्य, उपाध्याय या प्रवर्तिनी के लिए दीक्षित किया जा सकता है। किंतु साधु अपने लिए साध्वी को और साध्वी अपने लिये साधु को दीक्षित नहीं कर सकती। ___ भाष्य में बताया गया है कि इस प्रकार से परस्पर एक-दूसरे के लिए दीक्षित करने पर जनसाधारण में अनेक प्रकार को आशंकाएं उत्पन्न हो सकती हैं, जिससे उस साधु-साध्वी की अथवा जिनशासन की हीलना होती है। कठिन-शब्दार्थ "पव्वावेत्तए" = दीक्षित करना / "मुंडावेत्तए" = लुचन करना। "सिक्खावेत्तए" = ग्रहण शिक्षा में दशवकालिकसूत्र पढ़ाना, आसेवन शिक्षा में प्राचारविधि वस्त्र-परिधान आदि कार्यों की विधि बताना / उवदावेत्तए = बड़ी दीक्षा देना। संभु जित्तए = आहारादि देना। संवासित्तए-साथ रखना / "इत्तरियं-अल्पकालीन / "दिसं"= प्राचार्य "अणुदिसं" = उपाध्याय और प्रतिनी / "उद्दिसित्तए = निश्रा का निर्देश करना / धारित्तए = नवदीक्षित भिक्षु के द्वारा अपनी दिशा अनुदिशा का धारण करना / दरस्थ क्षेत्र में रहे हुए गुरु आदि के निर्देश का विधि-निषेध 9. नो कप्पइ निग्गंथीणं विइकिट्ठियं दिसं वा अणुविसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा / 10. कप्पइ निग्गंथाणं विइकिट्ठियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 9. निर्ग्रन्थियों को दूरस्थ प्रतिनी या गुरुणी का उद्देश करना या धारण करना नहीं कल्पता है। 10. निर्ग्रन्थ को दूरस्थ प्राचार्य या गुरु आदि का उद्देश करना या धारण करना कल्पता है / विवेचन-पूर्वसूत्र में अन्य के लिए दीक्षित करने का विधान किया गया है और प्रस्तुत सूत्र में भी उसी विषय का कुछ विशेष विधान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org