________________ नवम उद्देशक] [431 जबकि ऐसे वाक्यप्रयोग जीवाभिगमसूत्र के प्रारम्भ में अनेक आदेशात्मक प्ररूपणा के हैं, वहां अपेक्षा से जीवों के दो, तीन, चार प्रादि भेद कहे हैं। वह कथन भी मान्यताभेद न समझकर विभिन्न अपेक्षा रूप ही समझा जाता है / वहां टीकाकार ने भी वैसा ही स्पष्टीकरण किया है। अत: यहां भी "एगे पुण एवमासु" शब्दों का प्रयोग होते हुए भी मान्यताभेद होना नहीं समझना चाहिए / भाष्यकार ने भी इसे प्रादेश कहकर उसकी यह परिभाषा बताई है कि अनेक बहश्रतों से चली आई भिन्न-भिन्न अपेक्षायों को आदेश कहते हैं। इसलिए प्रस्तुत सूत्र के दोनों विभागों को आदेश ही समझना चाहिए। नवम उद्देशक का सारांश सूत्र 1-8 17-36 37-40 41-42 शय्यातर के नौकर या पाहुणों को पूर्ण रूप से दिये गये आहार में से भिक्षु ले सकता है, यदि प्रातिहारिक दिया हो (शेष आहार लौटाने का हो) तो नहीं लेना चाहिए / शय्यातर के सहयोग से जीवननिर्वाह करने वाले उसके ज्ञातिजन यदि खाना बनावें या खावें तो उनसे लेना नहीं कल्पता है / शय्यातर के भागीदारी (साझेदारी) वाली दुकानों में यदि कोई पदार्थ बिना भागीदारी वाली का हो तो उसके भागीदार से लिए जा सकते हैं / अथवा विभक्त हो जाने पर कोई भी पदार्थ लिए जा सकते हैं। सात-सप्तक, आठ-अष्टक, नव-नवक और दश-दशक में दत्तियों की मर्यादा से भिक्षा ग्रहण करके चार प्रकार की भिक्षु प्रतिमाओं का आराधन साधु-साध्वी कर सकते हैं / स्वमूत्रपान की छोटी व बड़ी प्रतिमा सात एवं आठ दिन में पाराधन की जाती है। इस में पूर्ण शुद्ध एवं सूत्रोक्त प्रस्रवण दिन में ही पिया जाता है, रात्रि में नहीं। एक बार में अखंड धार से साधु के हाथ में या पात्र में दिये जाने वाले आहारादि को एक दत्ति कहा जाता है। तीन प्रकार के खाद्य पदार्थ होते हैं (1) संस्कारित पदार्थ, (2) शुद्ध अलेप्य पदार्थ, (3) शुद्ध सलेप्य पदार्थ / इनमें से कोई भी अभिग्रह धारण किया जा सकता है। "प्रगहीत' नामक छट्ठी पिंडेषणा के योग्य प्राहार की तीन अवस्थाएं होती हैं। (1) बर्तन में से निकालते हुए, (2) परोसने लिये ले जाते हुए, (3) थाली आदि में परोसते हुए / अथवा अपेक्षा से उस आहार की दो अवस्था कही जा सकती हैं(१) बर्तन में से निकालते हुए, (2) थाली आदि में परोसते हुए / 43-44 45 56 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org