Book Title: Agam 26 Chhed 03 Vyavahara Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 249
________________ नवम उद्देशक] [429 दाता एक ही बार में धार खंडित किये बिना जितना पाहार या पानी साधु के पात्र में दे उसे एक 'दत्ति' प्रमाण आहार या पानी कहा जाता है। वह एक दत्ति आहार-पानी हाथ से दे या किसी बर्तन से दे अथवा किसी सूप, छाबड़ी आदि से दे, अल्पमात्रा में देकर रुक जाय या बिना रुके अधिक मात्रा में दे, वह सब एक बार में दिया गया आहार या पानी एक दत्ति ही कहा जाता है। कभी कोई खाद्य पदार्थ अनेक बर्तनों में या अनेक व्यक्तियों के हाथ में अलग-अलग रखा हो, उसे एक बर्तन में या एक हाथ में इकट्ठा करके एक साथ पात्र में दे दिया जाए तो वह भी एक दत्ति ही समझना चाहिए। पात्र नहीं रखने वाले अर्थात् कर-पात्री भिक्षु के हाथ में उपर्युक्त विधियों से जितना आहार आदि एक साथ दिया जाय, वह उनके लिए एक दत्ति समझना चाहिए। तीन प्रकार का आहार 45. तिविहे उवहडे पण्णते, तं जहा-१. फलिप्रोवहडे, 2. सुद्धोवहडे, 3. संसट्ठोवहडे / 45. खाद्यपदार्थ तीन प्रकार का माना गया है, यथा--१. फलितोपहृत अनेक प्रकार के व्यंजनों से मिश्रित खाद्यपदार्थ / 2. शुद्धोपहृत-व्यंजनरहित शुद्ध अलेप्य खाद्यपदार्थ / 3. संसृष्टोपहत-- व्यंजनरहित सलेप्य खाद्यपदार्थ / विवेचन-भिक्षा में तीन प्रकार के खाद्यपदार्थ ग्रहण किये जाते हैं, जिसमें सभी प्रकार के ग्राह्य पदार्थों का समावेश हो जाता है। (1) अनेक पदार्थों के संयोग से संस्कारित मिष्ठान्न, नमकीन शाक-भाजी आदि को फलितोपहृत कहा है। (2) शुद्ध अलेप्य चने, ममरे, फूली आदि को शुद्धोपहृत कहा है। (3) शुद्ध सलेप्य भात, रोटी, घाट, खिचड़ी ग्रादि प्रसंस्कारित गीले सामान्य पदार्थ को संसृष्टोपहृत कहा है / अभिग्रह धारण करने वाले भिक्षु इनमें से किसी भी प्रकार का अभिग्रह कर सकते हैं। अवगहीत आहार के प्रकार 46. तिविहे प्रोग्गहिए पण्णत्ते, तं जहा-१. जं च प्रोगिण्हइ, 2. जं च साहरइ, 3. जं च आसमंसि (थासगंसि) पक्खिवइ, एगे एवमाहंसु। ___ एगे पुण एवमाहंसु, दुविहे ओग्गहिए पण्णत्ते, तं जहा-१. जं च ओगिण्हइ, 2. जं च आसगंसि (थासगंसि) पक्खिवइ। 46. अवगृहीत पाहार तीन प्रकार का कहा गया है, यथा--१. परोसने के लिए ग्रहण किया हुमा / 2. परोसने के लिए ले जाता हुआ / 3. बर्तन में परोसा जाता हुआ, ऐसा कुछ प्राचार्य कहते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287