Book Title: Agam 26 Chhed 03 Vyavahara Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 247
________________ नवम उद्देशक [427 इन प्रतिमाओं को धारण करने के बाद चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया जाता है, केवल स्वमूत्रपान करना खुला रहता है अर्थात् उन दिनों में जब-जब जितना भी मूत्र आवे, उसे सूत्रोक्त नियमों का पालन करते हुए पी लिया जाता है / नियम इस प्रकार हैं-(१) दिन में पीना, रात्रि में नहीं। (2) कृमि, वीर्य, रज या चिकनाई युक्त हो तो नहीं पीना चाहिए / शुद्ध हो तो पीना चाहिए / प्रतिमाधारी भिक्षु के उक्त रक्त, स्निग्धता आदि विकृतियां किसी रोग के कारण या तपस्या एवं धूप की गर्मी के कारण हो सकती हैं, ऐसा भाष्य में बताया गया है / कभी मूत्रपान से ही शरीर के विकारों की शुद्धि होने के लिए भी ऐसा होता है। ___ यद्यपि इस प्रतिमा वाला चौविहार तपस्या करता है और रात-दिन व्युत्सर्गतप में रहता है, फिर भी वह मूत्र की बाधा होने पर कायोत्सर्ग का त्याग कर मात्रक में प्रस्रवण त्याग करके उसका प्रतिलेखन करके पी लेता है / फिर पुनः कायोत्सर्ग में स्थिर हो जाता है / यह इस प्रतिमा की विधि है / इस प्रतिमा का पालन करने वाला मोक्षमार्ग की आराधना करता है / साथ ही उसके शारीरिक रोग दूर हो जाते हैं और कंचनवर्णी बलवान् शरीर हो जाता है। प्रतिमा-पाराधन के बाद पुनः उपाश्रय में आ जाता है / भाष्य में उसके पारणे में आहारपानी की 49 दिन की क्रमिक विधि बताई गई है। लोक-व्यवहार में मूत्र को एकांत अशुचिमय एवं अपवित्र माना जाता है, किन्तु वैद्यक ग्रन्थों में इसे सर्वोषधि, शिवांबु आदि नामों से कहा गया है और जैनागमों में भिक्षु को "मोयसमायारे" कह कर गृहस्थों को शुचिसमाचारी वाला कहा गया है। अभि. रा. कोश में "निशाकल्प" शब्द में साधु के लिए रात्रि में पानी के स्थान पर इसे प्राचमन करने में उपयोगी होना बताया है / स्वमूत्र का विधिपूर्वक पान करने पर एवं इसका शरीर की त्वचा पर अभ्यंगन करने पर अनेक असाध्य रोग दूर हो जाते हैं। चर्मरोग के लिए या किसी प्रकार को चोट भरोंच आदि के लिए यह एक सफल औषध है / अतः आगमों में मूत्र को एकांत अपवित्र या अशुचिमय नहीं मानकर अपेक्षा से पेय एवं अपेक्षा से अशुचिमय भी माना है। भाष्यकार ने यह भी बताया है कि जनसाधरण शौचवादी होते हैं और मूत्र को एकांत अपवित्र मानते हैं, अतः प्रतिमाधारी भिक्षु चारों ओर प्रतिलेखन करके कोई भी व्यक्ति न देखे, ऐसे विवेक के साथ मूत्र का पान करे / तदनुसार अन्य भिक्षुओं को भी प्रस्रवण संबंधी कोई भी प्रवृत्ति करनी हो तो जनसाधारण से अदृष्ट एवं अज्ञात रखते हुए करने का विवेक रखना चाहिए। __ वर्तमान में भी मूत्रचिकित्सा का महत्त्व बहुत बढ़ा है, इस विषय के स्वतंत्र ग्रन्थ भी प्रकाशित हुए हैं, जिनमें कैंसर, टी. बी. प्रादि असाध्य रोगों के उपशांत होने के उल्लेख भी हैं। दत्ति-प्रमाणनिरूपण 43. संखादत्तियस्स भिक्खुस्स पडिग्गहधारिस्स (गाहावाकुलं पिंडवाय-पडियाए, अणुपविटुस्स) जावइयं-जावइयं केइ अन्तो पडिग्गहंसि उवइत्ता दलएज्जा तावइयाओ ताओ दत्तीनो वत्तम्वं सिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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