________________ 430] व्यवहारसूत्र हैं। परन्तु कुछ प्राचार्य ऐसा भी कहते हैं कि--अवगृहीत आहार दो प्रकार का कहा गया है, यथा१. परोसने के लिए ग्रहण किया जाता हुआ। 2. बर्तन में परोसा जाता हुआ। विवेचन-पूर्वसूत्र में खाद्यपदार्थ के तीन प्रकार कहे गये हैं और प्रस्तुत सूत्र में दाता के द्वारा आहार को ग्रहण करने की तीन अवस्थाओं का कथन किया गया है (1) जिसमें खाद्यपदार्थ पड़ा है या बनाया गया है, उसमें से निकाल कर अन्य बर्तन में ग्रहण किया जा रहा हो। (2) ग्रहण करके परोसने के लिए ले जाया जा रहा हो। (3) थाली आदि में परोस दिया गया हो, किन्तु खाना प्रारम्भ नहीं किया हो / भाष्यकार ने यहां तीनों अवस्थाओं का छट्ठी पिंडेषणा रूप होने का कहा है। अनेक प्रतियों में तीसरे प्रकार के लिए "प्रासगंसि" शब्द उपलब्ध होता है, जिसके दो अर्थ किए जाते हैं (1) खाने के लिए मुख में डाला जाता हुअा। (2) बर्तन के मुख में डाला जाता हुआ। ये दोनों ही अर्थ यहां प्रसंगसंगत नहीं हैं क्योंकि छट्ठी पिंडेषणा में भोजन करने के लिए ग्रहण की जाने वाली तीन अवस्थाओं (तीन प्रकारों) का क्रमशः तीसरा प्रकार थाली आदि में परोसा जाता हुआ आहार ऐसा अर्थ करना ही उपयुक्त है / जो खाना प्रारम्भ करने के पूर्व की अवस्था होने से कल्पनीय भी है / किन्तु मुख में खाने के लिए डाला जाता हुआ आहार ग्रहण करना तो अनुपयुक्त एवं अव्यवहारिक है और बर्तन के मुख में डाला जाता हुआ पाहार छट्ठी पिंडेषणा रूप नहीं होने से क्रम-प्राप्त प्रासंगिक नहीं है / अतः सम्भावना यह है कि लिपिदोष से 'थासगंसि या थालगंसि' शब्द के स्थान पर कदाचित् 'पासगंसि' शब्द बन गया है। भगवतीसूत्र श. 11 उ. 11 पृ. 1951 (सैलाना से प्रकाशित) में थाल और थासग शब्दों का प्रयोग किया है, जिनका क्रमशः थाली और तस्तरी (प्लेट) अर्थ किया गया है। अत: यहां थासगंसि या थालगंसि शब्द को शुद्ध मान कर अर्थ स्पष्ट किया है। सत्र के द्वितीय विभाग में वैकल्पिक अपेक्षा से भोजन करने हेतु ग्रहण किए हुए आहार के दो प्रकार कहे गये हैं, यथा-मूल बर्तन में से निकालते हुए और थाली आदि में परोसते हुए / इस विकल्प में जहां आहार रखा हो वहीं पर बैठे हुए एक बर्तन में से निकालकर थाली आदि में परोसने की अपेक्षा की गई है किन्तु मार्ग में चलने की या दूर ले जाकर परोसने की विवक्षा इसमें नहीं की गई है। सूत्र में “एगे पुण एवमाहंसु" शब्द का प्रयोग किया गया है। इससे मान्यताभेद की कल्पना उत्पन्न होती है, किंतु यहां दो अपेक्षानों को लेकर सूत्र की रचना-पद्धति है, ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि ऐसी सामान्य बात के लिए पूर्वधरों में मान्यताभेद हो जाना एवं सूत्र में संकलित किया जाना क्लिष्ट कल्पना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org