________________ 406] [व्यवहारसूत्र पाट आदि को प्रातिहारिक ही ग्रहण किया जाता है और आवश्यकता होने पर ही ग्रहण किया जाता है / क्योंकि यह साधु की सामान्य उपधि नहीं है / __ भाष्य में अनावश्यक परिस्थिति से हेमन्त ऋतु के पाट आदि के ग्रहण करने का प्रायश्चित्त कहा है और वर्षाकाल में ग्रहण नहीं करने वाले को प्रायश्चित्त का पात्र कहा है। इन भाष्य-विधानों में जीवरक्षा एवं शारीरिक समाधि की मुख्य अपेक्षा दिखाई गई है। अत: उन अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर ही भिक्षु को विवेकपूर्वक पाट आदि के ग्रहण करने या न करने का निर्णय करना चाहिए। ____ इन सूत्रों में यह बताया गया है कि जो भी पाट अादि लावें, वह इतना हल्का होना चाहिए कि एक हाथ से उठाकर लाया जा सके। हेमन्त-ग्रीष्म काल के लिए आवश्यक पाट आदि की गवेषणा तीन दिन तक उसी प्रामादि में की जा सकती है, वर्षावास के लिए उसी प्रामादि में या अन्य निकट के ग्रामादि में तीन दिन तक गवेषणा की जा सकती है और स्थविरवास के लिए पाट आदि की गवेषणा उत्कृष्ट पांच दिन तक उसी ग्रामादि में या दूर के ग्रामादि में भी की जा सकती है / ऐसा इन पृथक्-पृथक् तीन सूत्रों में स्पष्ट किया गया है। __प्रथम सूत्र में "अद्धाणं" शब्द नहीं है, दूसरे सूत्र में "प्रद्धाणं" है और तीसरे सूत्र में 'दूरमवि प्रद्धाणं' शब्द है, इसी से तीनों सूत्रों के अर्थ में कुछ-कुछ अन्तर है। शय्या-संस्तारक का अन्य विवेचन नि. उ. 2 तथा उद्देशक पांच में देखें। एकाकी स्थविर के भण्डोपकरण और गोचरी जाने की विधि 5. थेराणं थेरभूमिपत्ताणं कप्पइ दण्डए वा, भण्डए वा, छत्तए वा, मत्तए वा, लट्ठिया वा, भिसे वा, चेले वा, चेलचिलिमिलि बा, चम्मे वा, चम्मकोसे वा, चम्मपलिच्छेयणए वा अविरहिए ओवासे ठवेत्ता गाहावइकुलं पिण्डवायपडियाए पविसित्तए वा, निक्खमित्तए वा / कप्पइ णं सन्नियट्टचारीणं दोच्चंपि उग्गहं अणुन्नवेत्ता परिहरित्तए / 5. स्थविरत्वप्राप्त (एकाकी) स्थविरों को दण्ड, भाण्ड, छत्र, मात्रक, लाठी, काष्ठ का आसन, वस्त्र, वस्त्र को चिलमिलिका, चर्म, चर्मकोष और चर्मपरिच्छेदनक अविरहित स्थान में रखकर अर्थात् किसी को सम्भलाकर गृहस्थ के घर में आहार के लिए जाना-पाना कल्पता है / भिक्षाचर्या, करके पुनः लौटने पर जिसकी देख-रेख में दण्डादि रखे गये हैं, उससे दूसरी बार आज्ञा लेकर ग्रहण करना कल्पता है। विवेचन इस सूत्र में ऐसे एकाकी विचरण करने वाले भिक्षु का वर्णन है जो प्राचा. श्रु. 1 अ. 6 उ. 2, सूय. श्रु. 1 अ. 10, उत्तरा. अ. 32 गा. 5 तथा दशवं. चू. 2 गा. 10 में निर्दिष्ट सपरिस्थितिक एकलविहारी है। साथ ही शरीर की अपेक्षा वृद्ध या प्रतिवृद्ध है, स्थविरकल्पी सामान्य भिक्षु है और कर्मसंयोग से वृद्धावस्था तक भी वह अकेला रहकर यथाशक्ति संयम पालन कर रहा है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org