Book Title: Agam 26 Chhed 03 Vyavahara Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 229
________________ सातवां उद्देशक] [409 12. यदि यह जाने कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को यहां प्रातिहारिक शय्या-संस्तारक सुलभ नहीं है तो पहले स्थान या शय्या-संस्तारक ग्रहण करना और बाद में आज्ञा लेना कल्पता है। (किन्तु ऐसा करने पर यदि संयतों के और शय्या-संस्तारक के स्वामी के मध्य किसी प्रकार का कलह हो जाय तो प्राचार्य उन्हें इस प्रकार कहे–'हे आर्यो ! एक ओर तो तुमने इनको वसति ग्रहण की है, दूसरी ओर इनसे कठोर वचन बोल रहे हो") "हे आर्यो ! इस प्रकार तुम्हें इनके साथ ऐसा दुहरा अपराधमय व्यवहार नहीं करना चाहिए।" इस प्रकार अनुकल वचनों से प्राचार्य उस वसति के स्वामी को अनुकूल करे। विवेचन—किसी भी स्थान पर बैठना या ठहरना हो तो भिक्षु को पहले प्राज्ञा लेनी चाहिए, बाद में ही वहां ठहरना चाहिए। इसी प्रकार पाट आदि अथवा तण आदि अन्य कोई भी पदार्थ लेने हों तो उनको पहले प्राज्ञा लेना चाहिए, बाद में ही उसे ग्रहण करना या उपयोग में लेना चाहिए। किसी भी वस्तु की आज्ञा लेने के पहले ग्रहण करना और फिर प्राज्ञा लेना अविधि है / इससे तृतीय महाव्रत दूषित होता है। तथापि सूत्र में मकान की दुर्लभता को लक्ष्य में रखते हुए परिस्थितिवश कभी इस प्रकार प्रविधि से ग्रहण करने की प्रापवादिक छूट दी गई है। विशेष परिस्थिति के अतिरिक्त इस छूट का अति उपयोग या दुरुपयोग नहीं करना चाहिए तथा यह भी ध्यान रखना चाहिए कि प्रापवादिक स्थिति का निर्णय गीतार्थ (बहुश्रुत) भिक्षु ही कर सकते हैं। अल्पज्ञ अबहुश्रुत-अगीतार्थ भिक्षु यदि ऐसा करे तो उसकी यह अनाधिकार चेष्टा है। फिर भी गीतार्थ-बहुश्रुत की निश्रा से वे इस अपवाद का पाचरण कर सकते हैं। इस सूत्र के अन्तिम वाक्य की व्याख्या में बताया गया है कि- "जहां दुर्लभ शय्या हो उस गांव में कुछ साधागे जाएँ और किसी उपयुक्त मकान में आज्ञा लिए बिना मकान का मालिक रुष्ट होकर वाद-विवाद करने लगे। तब पीछे से अन्य भिक्षु या प्राचार्य पहुंच कर उस साधु को आक्रोशपूर्वक कहें कि "अरे आर्य ! तू यह दुगुता अपराध क्यों कर रहा है / एक तो इनके मकान में ठहरा है, दूसरे इन्हीं से वाद-विवाद कर रहा है। चुप रह, शांति रख / " इस प्रकार डांट कर फिर मकान-मालिक को प्रसन्न करते हुए नम्रता से वार्तालाप करके आज्ञा प्राप्त करें। अधिक विवेचन के लिए दशा. द. 2 देखें / पतित या विस्मृत उपकरण की एषणा 13. निग्गंथस्स णं गाहावइकुलं पिण्डवाय पडियाए अणुपविट्ठस्स अण्णयरे अहालहुसए उवगरणजाए परिभठे सिया। तं च केई साहम्मिए पासेज्जा, कप्पइ से सागारकडं गहाय जत्थेव अण्णमण्णं पासेज्जा तत्थेव एवं वएज्जा-- ५०-"इमे भे अज्जो! कि परिणाए ?" उ० से य वएज्जा--"परिणाए" तस्सेव पडिणिज्जाएयव्वे सिया। से य वएज्जा-"नो परिणाए" तं नो अप्पणा परिभुजेज्जा नो अण्णमण्णस्स दावए, एगंते बहुफासुए थण्डिले परिट्टवेयव्वे सिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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