________________ 424] [व्यवहारसूत्र भाष्यादि में "मद्यशाला" अर्थ किया है, किन्तु साधु-साध्वियों का मद्य-मांस से कोई सम्पर्क ही नहीं होता है, क्योंकि वे पदार्थ आगम में नरक के कारणभूत कहे गये हैं / अतः उपर्युक्त अर्थ ही संगत है। इस विषय की अधिक जानकारी निशीथ उ. 19 सू. 1 के विवेचन में देखें। सप्तसप्ततिका आदि भिक्षुप्रतिमाएं 37. सत्त-सत्तमिया णं भिक्खुपडिमा एगणपन्नाए राइंदिएहि एगेणं छन्नउएणं भिक्खासएणं अहासुत्तं जाव आणाए अणुपालित्ता भवइ / 38. अट्ठ-अट्ठमिया णं भिक्खुपडिमा चउसट्ठीए राइदिएहिं दोहि य अट्टासिएहि भिक्खासहि अहासुतं जाव आणाए अणपालित्ता भवइ / 39. नव-नवमिया णं भिक्खुपडिमा एगासीए राइविएहि चहि य पंचुत्तहिं भिक्खासएहि अहासुत्तं जाव प्राणाए अणुपालित्ता भवइ / 40. दस-दसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेणं राइंदियसएणं अद्धछोहि य भिक्खासहि जाव आणाए अणुपालित्ता भवइ / 37. सप्तसप्तमिका-सप्त-सप्तदिवसीय भिक्षुप्रतिमा उनचास अहोरात्र में एक सौ छियानवै भिक्षादत्तियों से सूत्रानुसार यावत् जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है / 38, अट्टअट्टमिया-अष्ट-अष्टदिवसीय भिक्षुप्रतिमा चौसठ अहोरात्र में दो सौ अठासी भिक्षादत्तियों से सूत्रानुसार यावत् जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है। 39. नवनवमिया-नौ-नौदिवसीय भिक्षुप्रतिमा इक्यासी अहोरात्र में चार सौ पांच भिक्षादत्तियों से सूत्रानुसार यावत् जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है / 40. दसदसमिया दश-दशदिवसीय भिक्षुप्रतिमा सौ अहोरात्र में पांच सौ पचास भिक्षादत्तियों से सूत्रानुसार यावत् जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है। विवेचन-इन सूत्रों में चार प्रतिमानों का वर्णन किया गया है, जिनकी आराधना साधुसाध्वी दोनों ही कर सकते हैं। अंतगडसूत्र के आठवें वर्ग में सुकृष्णा प्रार्या द्वारा इन भिक्षुप्रतिमानों को आराधना करने का वर्णन है। इन प्रतिमाओं में साध्वी भी स्वयं अपनी गोचरी लाती है, जिसमें निर्धारित दिनों तक भिक्षादत्ति की मर्यादा का पालन किया जाता है। इन प्रतिमाओं में निर्धारित दत्तियों से कम दत्तियां ग्रहण की जा सकती हैं या अनशन तपस्या भी की जा सकती है। किन्तु किसी भी कारण से मर्यादा से अधिक दत्ति ग्रहण नहीं की जा सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org