Book Title: Agam 26 Chhed 03 Vyavahara Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 231
________________ आठवां उद्देशक] [411 15. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए निर्ग्रन्थ का कोई उपकरण गिर जाए, उस उपकरण को यदि कोई सार्मिक श्रमण देखे और 'जिसका यह उपकरण है, उसे दे दूंगा' इस भावना से वह उस उपकरण को दूर तक भी लेकर जाए और जहां किसी श्रमण को देखे, वहां इस प्रकार कहे प्र.--'हे आर्य ! इस उपकरण को पहचानते हो?' उ.---वह कहे—'हां पहचानता हूँ तो उस उपकरण को उसे दे दे। यदि वह कहे 'मैं नहीं पहचानता हूँ तो उस उपकरण का न स्वयं उपयोग करे और न अन्य किसी को दे, किन्तु एकान्त प्रासुक भूमि पर उसे परठ दे / विवेचन-गोचरी, विहार आदि के लिए जाते-पाते समय भिक्षु का कोई छोटा-सा उपकरण वस्त्रादि गिर जाय और उसी मार्ग से जाते हुए किसी अन्य भिक्षु को दिख जाय तो उसे उठा लेना चाहिए और यह अनुमान करना चाहिए कि 'यह उपकरण किस का है ?' फिर उन-उन भिक्षुओं को वह उपकरण दिखाकर पूछना चाहिए और जिसका हो उसे दे देना चाहिए। यदि वहां आस-पास उपस्थिति साधूत्रों में से कोई भी उसे स्वीकार न करे तो यदि उपकरण छोटा है या अधिक उपयोगी नहीं है तो उसे परठ देना चाहिए / बड़ा उपकरण रजोहरणादि है तो कुछ दूर तक विहारादि में साथ लेकर जावे और अन्य साधु जहां मिलें, वहां उनसे पूछ लेना चाहिए। यदि उस उपकरण का स्वामी ज्ञात न हो सके और वह उपयोगी उपकरण है एवं उसकी आवश्यकता भी है तो गुरु एवं अन्य गृहस्थ की आज्ञा लेकर अपने उपयोग में लिया जा सकता है / किन्तु अनुमान से पूछताछ या गवेषणा करने के पूर्व एवं प्राज्ञा लेने के पूर्व उपयोग में नहीं लेना चाहिए। कोई वस्त्रादि साधु का मालूम पड़े, परन्तु वह गृहस्थ का भी हो सकता है, अतः पुनः गृहस्थ की भी आज्ञा लेना आवश्यक हो जाता है। सामान्यतया तो ऐसे अज्ञात स्वामी के उपकरण को उपयोग में लेना ही नहीं चाहिए / क्योंकि बाद में उसके स्वामी द्वारा क्लेश आदि उत्पन्न होने की संभावना रहती है। अथवा कभी किसी ने जानबूझ कर मंत्रित करके उस उपकरण को मार्ग में छोड़ा हो तो भी उपयोग में लेने पर अहित हो सकता है / यदि वह प्राप्त उपकरण अच्छी स्थिति में है तो उसे छिन्न-भिन्न करके नहीं परठना चाहिए / किन्तु अखंड ही कहीं योग्य स्थान या योग्य व्यक्ति के पास स्पष्टीकरण करते हुए छोड़ देना चाहिए। अतिरिक्त पात्र लाने का विधान 16. कप्पा निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अइरेगपडिग्गहं अण्णमण्णस्स अट्ठाए दूरमवि अद्धाणं परियहित्तए, 'सो वा गं धारेस्सइ, अहं वा णं धारेस्सामि, अण्णो वा णं धारेस्सइ', नो से कप्पइ ते अणापुच्छिय, अणामंतिय अण्णमणेसि दाउं वा अणुप्पदाउं वा। कप्पइ से ते आपुच्छिय आमंतिय अण्णमोस वाउं वा अणुप्पदाउं वा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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