________________ आठवां उद्देशक शयनस्थान के ग्रहण की विधि 1. गाहा उऊ पज्जोसविए, ताए, गाहाए, ताए पएसाए, ताए उवासंतराए "जमिणं जमिणं सेज्जासंथारगं लभेज्जा तमिणं तमिणं ममेव सिया।" थेरा य से अणुजाणेज्जा, तस्सेव सिया / थेरा य से नो अणुजाणेज्जा नो तस्सेव सिया। एवं से कप्पइ अहाराइणियाए सेज्जासंथारगं पडिग्गाहित्तए / 1. हेमन्त या ग्रीष्म काल में किसी के घर में ठहरने के लिए रहा हो, उस घर के किसी विभाग के स्थानों में "जो-जो अनुकूल स्थान या संस्तारक मिलें वे-वे में ग्रहण करू।" ___इस प्रकार के संकल्प होने पर भी स्थविर यदि उस स्थान के लिये प्राज्ञा दे तो वहां शय्यासंस्तारक करना कल्पता है / यदि स्थविर आज्ञा न दे तो वहां शय्या-संस्तारक ग्रहण करना नहीं कल्पता है। स्थविर के आज्ञा न देने पर यथारत्नाधिक-(दीक्षापर्याय से ज्येष्ठ-कनिष्ठ) क्रम से शय्या स्थान या संस्तारक ग्रहण करना कल्पता है। विवेचन-किसी भी घर या उपाश्रय प्रादि में ठहरने के समय या बाद में अपने बैठने या सोने के स्थान का गुरु या प्रमुख की प्राज्ञा से निर्णय करना चाहिए। जिससे व्यवस्था एवं अनुशासन का सम्यक् पालन होता रहे / आचारांग श्रु. 2 अ. 2 उ. 3 में शयनासन (शय्याभूमि) ग्रहण करने की विधि का कथन करते हुए बताया है कि "प्राचार्य उपाध्याय आदि पदवीधर एवं बाल, वृद्ध, रोगी, नवदीक्षित और आगन्तुक (पाहुणे) साधुनों को ऋतु के अनुकूल एवं इच्छित स्थान यथाक्रम से दिये जाने के बाद ही शेष भिक्षु संयमपर्याय के क्रम से शयनस्थान ग्रहण करें। प्राचार्य आदि का यथोचित क्रम तथा सम-विषम, सवात-निर्वात आदि शय्या की अवस्थाओं का भाष्य में विस्तृत विवेचन किया गया है। प्राचा. श्रु. 2 अ. 2 उ. 3 में अनेक प्रकार की अनुकूल प्रतिकूल शय्याओं में समभावपूर्वक रहने का निर्देश किया गया है और उत्तरा. अ. 2 में शय्यापरीषह के वर्णन में कहा है कि भिक्षु इस प्रकार विचार करे कि एक रात्रि में क्या हो जाएगा, ऐसा सोचकर उस स्थिति को समभाव से सहन करे। बृ. उ. 3 में भी रत्नाधिक के क्रम से शय्या-संस्तारक ग्रहण करने का विधान किया गया है जो उत्सर्गविधान है, क्योंकि रुग्णता आदि में उसका पालन करना आवश्यक नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org