________________ सातवां उद्देशक] 18-19 20 [403 तीस वर्ष की दीक्षापर्याय तक की साध्वियों को उपाध्याय प्रवर्तिनी के बिना नहीं रहना चाहिए और 60 वर्ष तक की दीक्षापर्याय वाली साध्वियों को बिना आचार्य के नहीं रहना चाहिए। विहार करते हुए मार्ग में साधु का मृतदेह पड़ा हुआ दिख जाय तो उसे योग्य विधि से एवं योग्य स्थान में परठ देना चाहिए। यदि उनके उपयोगी उपकरण हो तो उन्हें ग्रहण कर प्राचार्य की आज्ञा लेकर उपयोग में लिया जा सकता है। शय्यातर मकान को बेचे या किराये पर देवे तो नूतन स्वामी की या पूर्व स्वामी की या दोनों की आज्ञा ली जा सकती है। घर के कोई सदस्य की या जिम्मेदार नौकर की आज्ञा लेकर भी ठहरा जा सकता है / सदा पिता के घर रहने वाली विवाहित बेटी की भी आज्ञा ली जा सकती है। मार्ग में बैठना हो तो भी आज्ञा लेकर ही बैठना चाहिए। राजा या राज्यव्यवस्था परिवर्तित होने पर उस राज्य में विचरण करने के लिए पुनः प्राज्ञा लेना आवश्यक है। यदि उसी राजा के राजकुमार आदि वंशज राजा बनें तो पूर्वाज्ञा से विचरण किया जा सकता है। 21-22 23 24 25-26 उपसंहार सूत्र 1-2 5-8 9-10 11-12 13-17 18-19 20 21-24 25-26 इस उद्देशक मेंअन्य गच्छ से आई साध्वी को गच्छ में लेने का, परस्पर संभोगविच्छेद करने का, परस्पर दीक्षा देने का, दूरस्थ प्राचार्यादि की निश्रा लेने का, दूरस्थ से क्षमापना करने या न करने का, स्वाध्याय करने या न करने का, साध्वी को प्राचार्य उपाध्याय स्वीकार करने का, साधु के मृतशरीर को परठने का, ठहरने के स्थानों की आज्ञा लेने का, राज्य में विचरण की नूतन आज्ञा लेने का, इत्यादि विषयों का वर्णन किया गया है / // सातवां उद्देशक समाप्त / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org