________________ [371 पांचवां उद्देशक] शरीरसंरक्षण आदि नहीं कर सकते हैं तथा अन्य भी अनेक प्रकार की विशिष्ट समाचारी का वे पालन करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि स्थविरकल्पी भिक्षु को सांप काट खाए तो वह मन्त्रवादी से सांप का जहर उतरवा सकता है। रात्रि में भी वह सर्पदंश का उपचार करा सकता है तथा साध्वी, पुरुष से और साधु, स्त्री से भी रात्रि में सर्पदंश का उपचार करा सकता है। कोई स्थविरकल्पी भी दृढ़ मनोबली हो और चिकित्सा न करावे तो यह उसकी इच्छा पर निर्भर है अर्थात् सूत्रों में दी गई छूट या सूत्रों से प्रतिध्वनित होने वाली छूट का सेवन स्थविरकल्पी के लिए सदा ऐच्छिक होता है। जिनकल्पी की साधना में स्वेच्छा का कोई विकल्प नहीं है। उसे तो शरीर-निरपेक्ष होकर ग्रहण की गई प्रतिज्ञायों को जीवनपर्यन्त पालन करना होता है। निर्वद्य अपवाद सेवन से भी इनका जिनकल्प भंग हो जाता है, जिससे वे प्रायश्चित्त के भागी होते हैं / स्थविरकल्पी को परिस्थितिवश निर्वद्य अपवाद सेवन का प्रायश्चित्त नहीं आता है और कभी किसी परिस्थिति में सावध अपवाद सेवन का भी अत्यल्प प्रायश्चित्त ही आता है। किन्तु अकारण मर्यादा का उल्लंघन करने पर उन्हें भी विशेष प्रायश्चित्त आता है / जिनकल्पी को विशिष्ट समाचारी 1. तीसरे प्रहर में ही गोचरी करना एवं विहार भी तीसरे प्रहर में ही करना। 2. रूक्ष एवं लेप रहित पदार्थों का आहार करना, अभिग्रह युक्त गोचरी करना एवं अन्तिम पांच पिंडेषणाओं में से किसी एक पिंडेषणा से आहारादि ग्रहण करना। 3. वस्त्र-पात्र आदि भी तीसरी चौथी वस्त्रैषणा-पात्रैषणा (पडिमा) से ग्रहण करना। 4. औपग्रहिक उपधि नहीं रखना, अतः संस्तारकपट्ट या आसन भी नहीं रखना। 5. तीसरे प्रहर के अतिरिक्त प्रायः सदा कायोत्सर्ग करना या उत्कुटुकासन से समय व्यतीत करना। 6. बिछाए हुए पाट, संस्तारक या पृथ्वीशिला मिल जाय तो ही उपयोग में लेना। 7. संयम पालन योग्य क्षेत्र में पूर्ण मासकल्प रहना और चातुर्मास में किसी भी कारण से विहार नहीं करना। 8. दस प्रकार की समाचारी में से दो समाचारियों का पालन करना। 9. स्थंडिल के 10 दोष-रहित भूमि हो तो ही परठना अन्यथा नहीं परठना। 10. मकान का प्रमार्जन, बिलों को ढकना, बन्द करना आदि नहीं करना, न दरवाजे खोलना, न बन्द करना। 11. गृहस्थ की इच्छा बिना कुछ भी नहीं लेना या उन्हें अप्रीतिकर हो, ऐसा कुछ भी व्यवहार नहीं करना / 12. मकान देते समय कोई पूछे-"तुम कितने साधु हो, कितना ठहरोगे" ऐसे भावों से पूछने पर नहीं ठहरना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org