________________ 378] [व्यवहारसूत्र अन्य साधुओं को सामान्य आहार आदि से जीवन निर्वाह करना चाहिए, किन्तु रोगादि कारणों से सामान्य भिक्षु भी उक्त प्राचरणों को स्वीकार कर सकता है। सूत्रोक्त पांच अतिशयों का तात्पर्य यह है:--- (1) आचार्य आदि उपाश्रय के भीतर भी पांव का प्रमार्जन कर शुद्धि कर सकते हैं। (2) ग्रामादि के बाहर शुद्ध योग्य स्थंडिल के होते हुए भी वे उपाश्रय से संलग्न स्थंडिल में मलत्याग कर सकते हैं। (3) गोचरी आदि अनेक सामूहिक कार्य या वस्त्रप्रक्षालन आदि सेवा के कार्य वे इच्छा हो तो कर सकते हैं अन्यथा शक्ति होते हुए भी अन्य से करवा सकते हैं / (4-5) विद्या मन्त्र आदि के पुनरावर्तन हेतु अथवा अन्य किन्हीं कारणों से वे उपाश्रय के किसी एकान्त भाग में अथवा उपाश्रय से बाहर अकेले एक या दो दिन रह सकते हैं। इन विद्या मन्त्रों का उपयोग गृहस्थ हेतु करने का आगम में निषेध है तथापि साधु साध्वी के लिए वे कभी इनका उपयोग कर सकते हैं। इन अतिशयों का फलितार्थ यह है कि सामान्य भिक्षु उपर्युक्त विषयों में इस प्रकार आचरण करे (1) उपाश्रय में प्रवेश करते समय पांवों का प्रमार्जन यदि आवश्यक हो तो उपाश्रय के बाहर ही कर ले। (2) योग्य स्थंडिल उपलब्ध हो और शारीरिक अनुकूलता हो तो उपाश्रय में मलत्याग न करे / (3) गुरु-प्राज्ञा होने पर या बिना कहे भी उन्हें सदा सेवा के कार्यों को करने में प्रयत्नशील रहना चाहिये। शेष समय में ही स्वाध्याय आदि करना चाहिये / (4-5) रत्नाधिक गुरु के समीप या उनके दृष्टिगत स्थान में ही सदा शयन-प्रासन करना चाहिए / किन्तु गीतार्थ-बहुश्रुत भिक्षु अनुकूलता-अनुसार एवं आज्ञानुसार आचरण कर सकता है / भाष्य में इन विषयों पर विस्तृत विवेचन करते हुए अनेक गुण-दोषों एवं हानि-लाभ का कथन किया है / जिज्ञासु पाठक वहां देखें। सूत्र में प्राचार्य-उपाध्याय दोनों के पांच-पांच अतिशय कहे हैं और गणावच्छेदक के अन्तिम दो अतिशय द्वितीय सूत्र में अलग से कहे गये हैं / इसका तात्पर्य यह है कि प्रथम तीन अतिशय गणावच्छेदक के लिए आवश्यक नहीं होते हैं, क्योंकि गणावच्छेदक-पद ऋद्धिसम्पन्न पद न होकर कार्यवाहक पद है। अतः उनके लिये अन्तिम दो अतिशय ही पर्याप्त हैं / विशेष परिस्थिति में तो कोई भी साधु या गणावच्छेदक उक्त सभी अतिशयों की प्रवृत्तियों का आचरण कर सकते हैं। सामान्यतया प्राचार्य-उपाध्याय को अकेले रहने का निषेध उद्दे. 4 में किया गया है। यहां अतिशय की अपेक्षा विधान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org