________________ 380] [व्यवहारसूत्र गया है। प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि किसी ग्रामादि में ऐसे अकृतसूत्री भिक्षुओं को छोड़कर बहुश्रुत भिक्षु विहार कर जाय तो वे अगीतार्थ भिक्षु वहां रह भी नहीं सकते / इसी विषय को उपाश्रय की अवस्थिति के विकल्पों से सूत्र में स्पष्ट किया गया है___ यदि उपाश्रय में निकलने का तथा उसमें प्रवेश करने का मार्ग एक ही हो तो वहां 'अगडसुयो' (अगीतार्थ) को एक दिन भी रहना नहीं कल्पता है / यदि उस उपाश्रय में जाने-माने के अनेक मार्ग हों तो अगीतार्थों को एक या दो दिन रहना कल्पता है। तीसरे दिन रहने पर उन्हें प्रायश्चित्त आता है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक योग्य भिक्षु को यथासमय बहुश्रुत होने योग्य श्रुत का अध्ययन कर एवं उन्हें कण्ठस्थ धारण कर पूर्ण योग्यतासम्पन्न हो जाना चाहिए, जिससे यथावसर विचरण एवं गणधारण आदि किये जा सकें। क्योंकि इन सूत्रों में अनेक अबहुश्रुतों के साथ में रहने एवं विचरण करने का स्पष्टतः निषेध किया गया है और साथ ही इस मर्यादा का भंग करने वालों को प्रायश्चित्त का पात्र कहा गया है। अतः प्रत्येक नवदीक्षित योग्य भिक्षु का एवं उनके गणप्रमुख प्राचार्य-उपाध्याय आदि का यह आवश्यक कर्तव्य है कि वे अन्य रुचियों एवं प्रवृत्तियों को प्रमुखता न देकर आगमोक्त अध्ययन-अध्यापन को प्रमुखता दें एवं संयमविधियों में पूर्ण कुशल बनने व बनाने का ध्यान रखें। प्राचारकुशल एवं श्रुतसंपन्न बने बिना किसी भी भिक्षु को अलग विचरने में या अन्य कार्यों में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए। अध्ययन सम्बन्धी प्रागमसम्मत अनेक प्रकार की जानकारी निशीथ उद्दे. 19 तथा व्यव. उद्दे. 3 एवं उद्दे. 5 के विवेचन में दी गई है। उसका ध्यानपूर्वक अध्ययन मनन कर आगमानुसार श्रुत-अध्ययन करने एवं करवाने का प्रमुख लक्ष्य बनाना चाहिए। ऐसा करने पर ही जिनाज्ञा का यथोक्त पालन हो सकता है तथा साधक आत्माओं का एवं जिनशासन का सर्वतोमुखी विकास हो सकता है। अकेले भिक्षु के रहने का विधि-निषेध 6. से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा (सन्निवेसंसि वा) अभिनिव्वगडाए अभिनिदुबाराए अभिनिक्खमण-पवेसणाए (उवस्सए) नो कप्पइ बहुसुयस्स बन्भागमस्स एगाणियस्स भिक्खस्स वत्थए, किमंग पुण अप्पसुयस्स अप्पागमस्स ? 7. से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा (सग्निवेसंसि वा) एगवगडाए, एगदुवाराए, एगनिक्खमण-पवेसाए (उवस्सए) कप्पइ बहुसुयस्स बब्भागमस्स एगाणियस्स भिक्खुस्स बत्थए, उभयो कालं भिक्खुभावं पडिजागरमाणस्स ! 6. ग्राम यावत् राजधानी (सन्निवेश) में अनेक वगडा वाले, अनेक द्वार वाले और अनेक निष्क्रमण-प्रवेश वाले उपाश्रय में अकेले बहुश्रुत और बहुअागमज्ञ भिक्षु को भी रहना नहीं कल्पता है, अल्पश्रुत और अल्पागमज्ञ अकेले भिक्षु को वसना कैसे कल्प सकता है ? अर्थात् नहीं कल्पता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org