Book Title: Agam 26 Chhed 03 Vyavahara Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 204
________________ 384] [व्यवहारसूत्र (20) क्रोध के प्रसंग उपस्थित होने पर मौन रखना, आवेशयुक्त न बोलने का अभ्यास करना। (21) यथासमय स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग अवश्य करना। प्रश्नव्याकरणसूत्र में भी इस विषय में निम्न सूचना की गई हैब्रह्मचर्य का अनुपालन करने वाले पुरुष को इन कार्यों का त्याग करना चाहिए विषयराग, स्नेहराग, द्वेष और मोह की वृद्धि करने वाला प्रमाद तथा पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी साधनों का शील-प्राचार, घतादि की मालिश करना, तेल लगाकर स्नान करना, बार-बार बगल, शिर, हाथ-पैर और मुंह धोना, मर्दन करना, पैर आदि दबाना, पगचम्पी करना, परिमर्दन करना, सारे शरीर को मलना, विलेपन करना, सुगन्धित चूर्ण-पाउडर से शरीर को सुवासित करना, अगर आदि का धूप देना, शरीर को सजाना, सुशोभित बनाना, बाकुशिक कर्म करना, नखों, केशों एवं वस्त्रों को संवारना, हंसी-मजाक करना, विकारयुक्त भाषण करना, गीत, वादित्र सुनना, नटों, नत्यकारों, रस्से पर खेल दिखलाने वालों और कुश्तीबाजों का तमाशा देखना तथा इसी प्रकार की अन्य बातें जिनसे तपश्चर्या, संयम एवं ब्रह्मचर्य का आंशिक विनाश या पूर्णतः विनाश होता है, वैसी समस्त प्रवृत्तियों का ब्रह्मचारी पुरुष को सदैव के लिए त्याग कर देना चाहिए। इन त्याज्य व्यवहारों के साथ आगे कहे जाने वाले व्यापारों से अन्तरात्मा को भावित करना चाहिये, यथा-- स्नान नहीं करना, दन्तधावन नहीं करना, जमे हुए या इससे भिन्न मैल को धारण करना, मौनव्रत धारण करना, केशों का लुचन, क्षमा, इन्द्रियनिग्रह, अचेल (वस्त्ररहित) होना अथवा अल्पवस्त्र धारण करना, भूख-प्यास सहना, अल्प उपधि रखना, सर्दी-गर्मी सहना, काष्ठ की शय्या या जमीन पर प्रासन करना, भिक्षादि के लिए गृहस्थ के घर में जाना और प्राप्ति या अप्राप्ति को समभाव से सहना, मान-अपमान-निन्दा को एवं दंशमशक के क्लेश को सहन करना, द्रव्यादि सम्बन्धी अभिग्रह करना, तप तथा मूलगुण आदि एवं विनय प्रवृत्तियों से अन्तःकरण को भावित करना, जिससे ब्रह्मचर्यव्रत अत्यन्त दृढ हो। गच्छगत और एकाकी विहारी सभी तरुण भिक्षुओं को ये सावधानियां रखना अत्यंत हितकर हैं / इन सावधानियों से युक्त जीवन व्यतीत करने पर प्रस्तुत सूत्रोक्त दूषित स्थिति के उत्पन्न होने की प्रायः संभावना नहीं रहती है। सूत्रगत दुषित प्रवृत्ति से भिक्षु का स्वास्थ्य एवं संयम दूषित होता है एवं पुण्य क्षीण होकर सर्वथा दु:खमय जीवन बन जाता है / अतः सूचित सभी सावधानियों के साथ शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। अन्य-गण से आये हुए को गण में सम्मिलित करने का निषेध 10. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा निग्गथि अण्णगणाओ आगयं खुयायारं, सबलायारं, भिन्नायारं, संकिलिट्ठायारं तस्स ठाणस्स अणालोयावेत्ता अपडिक्कमावेत्ता, अनिदावेत्ता, अगरहावेत्ता, अविउट्टावेत्ता, अविसोहावेत्ता, अकरणाए अणभुट्ठावेत्ता, अहारिहं पायच्छित्तं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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