________________ 386] [व्यवहारसूत्र प्रस्तुत सूत्रद्वय के स्थान पर लिपिदोष आदि कारणों से विभिन्न प्रतियों के मूल पाठों में भिन्नता हो गई है। कहीं पर साध्वी के दो सूत्र हैं, कहीं पर साधु-साध्वी के चार सूत्र हैं। किन्तु भाष्यव्याख्या के आधार से प्रथम साध्वी का और द्वितीय साधु का सूत्र रखा गया है। छठे उद्देशक का सारांश सूत्र 1 ज्ञातिजनों के घरों में जाने के लिये प्राचार्यादि की विशिष्ट प्राज्ञा प्राप्त करनी चाहिए। अगीतार्थ या अबहुश्रु त भिक्षु को अकेले नहीं जाना चाहिए, गीतार्थ भिक्षु के साथ में ही जाना चाहिए। वहां घर में पहुंचने के पूर्व बनी हुई वस्तु ही लेनी चाहिए, किन्तु बाद में निष्पन्न हुई वस्तु नहीं लेनी चाहिए। आचार्य-उपाध्याय के आचार सम्बन्धी पांच अतिशय (विशेषताएं) होते हैं और गणावच्छेदक के दो अतिशय होते हैं। अकृतसूत्र (अगीतार्थ) अनेक साधुओं को कहीं निवास करना भी नहीं कल्पता है, किन्तु परिस्थितिवश उपाश्रय में एक-दो रात रह सकते हैं, अधिक रहने पर वे सभी प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। अनेक वगड़, द्वार या मार्ग वाले उपाश्रय में एकाकी भिक्षु को नहीं रहना चाहिए और एक वगड़, द्वार या मार्ग वाले उपाश्रय में भी उभयकाल धर्मजागरणा करते हुए रहना चाहिए। स्त्री के साथ मैथुनसेवन न करते हुए भी हस्तकर्म के परिणामों से और कुशीलसेवन के परिणामों से शुक्रपुद्गलों के निकालने पर भिक्षु को क्रमश : गुरुमासिक या गुरुचौमासी प्रायश्चित्त पाता है / 10-11 अन्य गच्छ से आये हुए क्षत-पाचार वाले साधु-साध्वी को पूर्ण पालोचना, प्राय श्चित्त कराने के साथ उपस्थापित किया जा सकता है, उसके साथ आहार या निवास किया जा सकता है और उसके प्राचार्य, उपाध्याय, गुरु आदि की निश्रा निश्चित्त की जा सकती है। उपसंहार इस उद्देशक मेंसूत्र 1 ज्ञातकुल में प्रवेश करने का, प्राचार्यादि के अतिशयों का, 4-5 गीतार्थ अगीतार्थ भिक्षुत्रों के निवास का, एकल विहारी भिक्षु के निवास का, 8-9 शुक्रपुद्गल निष्कासन के प्रायश्चित्त का, 10-11 क्षताचार वाले आए हुए साधु-साध्वियों को रखने का, इत्यादि विषयों का कथन किया गया है। // छट्ठा उद्देशक समाप्त // 2-3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org