________________ छट्ठा उद्देशक] [385 अपडिवज्जावेत्ता उवट्ठावेत्तए वा, सभुजित्तए वा, संवसित्तए वा तीसे इत्तरियं दिसंवा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 11. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा निग्गंथं अन्नगणाओ आगयं खुयायारं जाव संकिलिट्ठायारं, तस्स ठाणस्स अणालोयावेत्ता जाव अहारिहं पायच्छित्तं अपडिवज्जावेत्ता उवट्ठावेत्तए वा सभुजित्तए वा संवसित्तए वा तस्स इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 10. खण्डित, शबल, भिन्न और संक्लिष्ट आचार वाली अन्य गण से आई हुई निर्ग्रन्थी को सेवित दोष की आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा, व्युत्सर्ग एवं प्रात्म-शुद्धि न करा लें और भविष्य में पुनः पापस्थान सेवन न करने की प्रतिज्ञा कराके दोषानुरूप प्रायश्चित्त स्वीकार न करा लें तब तक निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को उसे पुनः चारित्र में उपस्थापित करना, उसके साथ साम्भोगिक व्यवहार करना और साथ में रखना नहीं कल्पता है तथा उसे अल्पकाल के लिए दिशा या अनुदिशा का निर्देश करना या धारण करना भी नहीं कल्पता है। 11. खण्डित यावत् संक्लिष्ट आचार वाले अन्य गण से आये हुए निर्ग्रन्थ को सेवित दोष की आलोचना यावत् दोषानुरूप प्रायश्चित्त स्वीकार न करा लें तब तक निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को उसे पुनः चारित्र में उपस्थापित करना, उसके साथ साम्भोगिक व्यवहार करना और साथ में रखना नहीं कल्पता है तथा उसे अल्पकाल के लिए दिशा या अनुदिशा का निर्देश करना या धारण करना भी नहीं कल्पता है। विवेचन ब्रह्मचर्यभंग आदि के कारण कोई साधु-साध्वी स्वतः गच्छ छोड़कर किसी के पास आवे अथवा गच्छ वालों के द्वारा गच्छ से निकाल दिये जाने पर आवे तो उसे रखने का विधि-निषेध प्रस्तुत सूत्रों में किया गया है / क्षत-प्राचार आदि शब्दों का स्पष्टार्थ तीसरे उद्देशक में देखें। सूत्र में दुषित प्राचार वाले साधु-साध्वी को उपस्थापित करने का कहा गया है, साथ ही आलोचना, प्रायश्चित्त के द्वारा उसकी शुद्धि करना भी आवश्यक कहा है। इस प्रकार शुद्धि करके उपस्थापना करने के बाद ही उसके साथ आहार सहनिवास आदि किये जा सकते हैं और तभी उसके लिए प्राचार्य, उपाध्याय या गुरु का निर्देश किया जा सकता है / सूत्र में प्राचार्य, उपाध्याय का निर्देश करने के लिए या उनकी निश्रा स्वीकार करने के लिये "दिसं वा अणुदिसं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा" शब्दों का प्रयोग किया गया है। उन शब्दों में क्षताचार वाले भिक्षु को आचार्य आदि पद देने-लेने का अर्थ करना उचित नहीं है। क्योंकि अक्षत-आचार वाले भिक्षु को ही आगम में प्राचार्य आदि पदों के योग्य कहा गया है। अतः दिशा, अनुदिशा का उद्देश करने का तात्पर्य यह समझना चाहिए कि उस उपस्थापित साधु या साध्वी के प्राचार्य, उपाध्याय या प्रवर्तिनी कौन हैं, यह निर्देश करना / भाष्यकार ने भी यही अर्थ इन शब्दों का किया है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org