________________ छट्ठा उद्देशक [379 अगीतार्थों के रहने का विधि-निषेध और प्रायश्चित्त 4. से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा (सन्निवेसंसि वा) एगवगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमण-पवेसाए (उवस्सए) नो कप्पइ बहूणं अगडसुयाणं एगयओ वत्थए / अस्थि याई केइ आयारपकप्पधरे, नस्थि णं केइ छए वा परिहारे वा। नस्थि याई णं केइ पायारपकप्पधरे से संतरा छेए वा परिहारे वा। 5. से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा (सग्निवेसंसि वा) अभिनिव्वगडाए अभिनिदुवाराए अभिनिवखमण-पवेसाए (उवस्सए) नो कप्पइ बहूणं अगडसुयाणं एगयनो वत्थए।। अस्थि याई णं केइ आयारपकप्पधरे, जे तत्तियं रणि संवसइ, नत्थि णं केइ छए वा परिहारे वा। __ नत्यि याई णं केइआयारपकप्पधरे जे तत्तियं रणि संवसइ, सब्वेसि तेसि तप्पत्तियं छए वा परिहारे वा। 4. ग्राम यावत् राजधानी में (सन्निवेश में) एक प्राकार वाले, एक द्वार वाले और एक निष्क्रमण-प्रवेश वाले उपाश्रय में अनेक अकृतश्रुत (अल्पज्ञ) भिक्षुत्रों को एक साथ रहना नहीं कल्पता है। यदि उनमें कोई प्राचारप्रकल्पधर हो तो वे दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त के पात्र नहीं होते हैं। यदि उनमें कोई प्राचारप्रकल्पधर न हो तो वे मर्यादा-उल्लंघन के कारण दीक्षाढ़ेद या तप रूप प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं / 5. ग्राम यावत् राजधानी (सन्निवेश) में अनेक प्राकार वाले, अनेक द्वार वाले और अनेक निष्क्रमण-प्रवेश वाले उपाश्रय में अनेक अकृतश्रुत (अल्पज्ञ) भिक्षुओं को एक साथ रहना नहीं कल्पता है। यदि कोई आचारप्रकल्पधर तीसरे दिन उनके साथ रहे तो वे दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्तके पात्र नहीं होते हैं। यदि कोई प्राचार प्रकल्पधर तीसरे दिन भी वहां नहीं रहता हो तो उन सभी को उस मर्यादाउल्लंघन का तप या छेद प्रायश्चित्त पाता है। विवेचन-इन सूत्रों में प्राचारांग एवं निशीथसूत्र अर्थसहित कण्ठस्थ धारण नहीं करने वाले अबहुश्रुत भिक्षुत्रों को "अगडसुय"-प्रकृतश्रुत-कहा गया है / अर्थात् प्रमुख बनकर विचरण करने की योग्यताप्राप्ति के लिए (आवश्यक, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आचारांग और निशीथसूत्र) का अध्ययन एवं कण्ठस्थ धारण नहीं करने वाला भिक्षु प्रागमिक शब्दों में “अगडसुय' कहा गया है। .. ऐसे एक या अनेक भिक्षुओं के विचरण करने का निषेध उद्देशक तीन के प्रथम सूत्र में किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org