________________ चौथा उद्देशक] [349 प्र०-यदि पुनः पूछे कि-'हे भदन्त ! किस बहुश्रुत की प्रमुखता में रह रहे हो ? उ.-तब उस गण में जो सबसे अधिक बहुश्रुत हो–उसका नाम कहे तथा वे जिनकी आज्ञा में रहने के लिए कहें, उनकी ही आज्ञा एवं उनके समीप में रहकर उनके ही वचनों के निर्देशानुसार मैं रहूँगा ऐसा कहे। विवेचन-प्रत्येक गच्छ में बहुश्रुत आचार्य-उपाध्याय का होना आवश्यक ही होता है। फिर भी उपाध्यायों के क्षयोपशम में और अध्यापन की कुशलता में अंतर होना स्वाभाविक है / किसी गच्छ में बहुश्रुत वृद्ध प्राचार्य का शिष्य प्रखर बुद्धिमान् एवं श्रुतसंपन्न हो सकता है जो प्राचार्य की सभी जिम्मेदारियों को निभा रहा हो अथवा किसी बहुश्रुत प्राचार्य के गुरु या दीक्षित पिता आदि भद्रिक परिणामी अल्पश्रुत हों और वे गच्छ में रत्नाधिक हों तो ऐसे गच्छ में अध्ययन करने के लिये जाने वाले भिक्षु के संबंध में सूत्रकथित विषय समझ लेना चाहिए। कोई अध्ययनशोल भिक्ष किसी भी अन्यगच्छीय भिक्षु की अध्यापन-कुशलता की ख्याति सुन कर या जानकर उस गच्छ में अध्ययन करने के लिए गया हो / वहां विचरण करते हुए कभी कोई पूर्व गच्छ का सार्मिक भिक्षु गोचरी आदि के लिए भ्रमण करते हुए मिल जाए और वह पूछे कि 'हे आर्य ! तुम किस की निश्रा (आज्ञा) में विचरण कर रहे हो ?' तब उत्तर में वहां जो रत्नाधिक आचार्य, गुरु या बहुश्रुत के दीक्षित पिता आदि हों उनका नाम बतावे / किंतु जब प्रश्नकर्ता को संतोष न हो कि इनसे तो अधिक ज्ञानी संत अपने गच्छ में भी हैं, फिर अपना गच्छ छोड़ कर इनके गच्छ में क्यों आया है ? अत: सही जानकारी के लिए पुनः प्रश्न करे कि.-'हे भगवन ! आपका कल्पाक कौन है ? अर्थात् किस प्रमुख की आज्ञा में पाप विचरण एवं अध्ययन आदि कर रहे हो, इस गच्छ में कौन अध्यापन में कुशल है ? इसके उत्तर में जो वहां सबसे अधिक बहश्रत हो अर्थात सभी बहुश्रुतों में भी जो प्रधान हो और गच्छ का प्रमुख हो, उनके नाम का कथन करे और कहे कि 'उनकी निश्रा में गच्छ के सभी साधु रहते हैं एवं अध्ययन करते हैं और मैं भी उनकी आज्ञानुसार विचरण एवं अध्ययन कर रहा हूँ।' अभिनिचारिका में जाने के विधि-निषेध 19. बहवे साहम्मिया इच्छेज्जा एगयओ अभिनिचारियं चारए नो णं कप्पइ थेरे अणापुच्छित्ता एगयओ अभिनिचारियं चारए, कप्पइ णं थेर प्रापुच्छित्ता एगयओ अभिनिचारियं चारए। थेरा य से वियरेज्जा-एवं णं कप्पइ एगयओ अभिनिचारियं चारए। थेरा य से नो वियरेज्जा-एवं नो कप्पइ एगयओ अभिनिचारियं चारए / जे तत्थ थेरेहि अविइण्णे एगयओ अभिनिचारियं चरंति, से सन्तरा छए वा परिहारे वा। 19. अनेक सार्मिक साधु एक साथ 'अभिनिचारिका' करना चाहें तो स्थविर साधुओं को पूछे बिना उन्हें एक साथ 'अभिनिचारिका' करना नहीं कल्पता है, किन्तु स्थविर साधुओं से पूछ लेने पर उन्हें एक साथ 'अभिनिचारिका' करना कल्पता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org