________________ 340] व्यिवहारसूत्र ___ अतः दीक्षा के सात दिन बाद आठवें, नौवें, दसवें, ग्यारहवें या बारहवें दिन तक कभी भी बड़ीदीक्षा दी जा सकती है और उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं पाता है। बारहवीं रात्रि का उल्लंघन करने पर सूत्र 15-16 के अनुसार यथायोग्य तप या दीक्षाछेद रूप प्रायश्चित्त पाता है। जिसका भाष्य में जघन्य प्रायश्चित्त पांच रात्रि का कहा गया है। दीक्षा की सत्त नों रात्रि का उल्लंघन करने पर यथायोग्य तप या छेद प्रायश्चित्त के अतिरिक्त एक वर्ष तक उसे प्रायश्चित्त रूप में प्राचार्य-उपाध्याय पद से मुक्त कर दिया जाता है। __ यहां बड़ीदीक्षा के विधान एवं प्रायश्चित्त में एक छूट और भी कही गई है, वह यह कि उस नवदीक्षित भिक्ष के माता-पिता आदि कोई भी माननीय या उपकारी पुरुष हों और उनके कल्पाक होने में देर हो तो उनके निमित्त से उसको बड़ीदीक्षा देने में छह मास तक की भी प्रतीक्षा की जा सकती है और उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं पाता है। ठाणांगादि आगमों में सात रात्रि का जघन्य शैक्षकाल कहा गया है। अतः योग्य हो तो भी सात रात्रि पूर्ण होने के पूर्व बड़ीदीक्षा नहीं दी जा सकती है, क्योंकि उस समय तक वह शैक्ष एवं अकल्पाक कहा गया है। छह मास का "उत्कृष्ट शैक्षकाल" कहा गया है। अतः माननीय पुरुषों के लिए बड़ीदीक्षा रोकने पर भी छह मास का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। इन सूत्रों में स्मृति रहते हुए एवं विस्मरण से 4-5 दिन की मर्यादा उल्लंघन का प्रायश्चित्त समान कहा गया है। चार-पांच दिन की छूट में शुभ दिन या विहार आदि कारण के अतिरिक्त ऋतुधर्म आदि अस्वाध्याय का भी जो कारण निहित है, उसका निवारण 4-5 दिन की छूट में सरलता से हो सकता है। अन्यगण में गये भिक्षु का विवेक 18. भिक्खू य गणाम्रो प्रवक्कम्म अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, तं च केइ साहम्मिए पासित्ता वएज्जा ५०-कं प्रज्जो ! उवसंपज्जित्ताणं विहरसि ? उ०-जे तत्थ सव्यराइणिए तं वएज्जा / प०-'अह भन्ते ! कस्स कप्पाए ?' उ०-जे तत्थ सव्व-बहुस्सुए तं वएज्जा, जं वा से भगवं वक्खइ तस्स आणा-उववाय-वयणनिद्देसे चिट्ठिस्सामि। 18. विशिष्ट ज्ञानप्राप्ति के लिए यदि कोई भिक्षु अपना गण छोड़कर अन्य गण को स्वीकार कर विचर रहा हो तो उस समय उसे यदि कोई स्वधर्मी भिक्षु मिले और पूछे कि प्र०-'हे आर्य ! तुम किसी की निश्रा में विचर रहे हो? उ०--तब वह उस गण में जो दीक्षा में सबसे बड़ा हो उसका नाम कहे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org