________________ 354] [व्यवहारसूत्र 32. बहवे भिक्खुणो बहवे गणावच्छेइया, बहवे आयरिय-उवज्शाया एगयओ विहरंति, नो णं कप्पइ अण्णमण्णं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए / कप्पइ णं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए / 26. दो भिक्षु एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ में विचरना नहीं कल्पता है। किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर साथ विचरना कल्पता है / 27. दो गणावच्छेदक एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ में विचरना नहीं कल्पता है। किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर साथ विचरना कल्पता है। 28. दो प्राचार्य या दो उपाध्याय एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ विचरना नहीं कल्पता है। किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर साथ विचरना कल्पता है। 29, बहुत से भिक्षु एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ विचरना नहीं कल्पता है। किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर साथ विचरना कल्पता है। 30. बहुत से गणावच्छेदक एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ विचरना नहीं कल्पता है। किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर साथ विचरना कल्पता है। 31. बहुत से प्राचार्य या उपाध्याय एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ विचरना नहीं कल्पता है। किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर विचरना कल्पता है। 32. बहुत से भिक्षु, बहुत से गणावच्छेदक और बहुत से प्राचार्य या उपाध्याय एक साथ विचरते हों तो उन्हें परस्पर एक दूसरे को समान स्वीकार कर साथ विचरना नहीं कल्पता है। किन्तु रत्नाधिक को अग्रणी स्वीकार कर विचरना कल्पता है। विवेचन-दो या अनेक भिक्षु यदि एक साथ रहें अथवा एक साथ विचरण करें और वे किसी को बड़ा न माने अर्थात् प्राज्ञा लेना, वन्दन करना आदि कोई भी विनय एवं समाचारी का व्यवहार न करें तो उनका इस प्रकार साथ रहना उचित नहीं है। किन्तु उन्हें रत्नाधिक साधु की प्रमुखता स्वीकार करके उनके साथ विनय-व्यवहार रखते हुए रहना चाहिए और प्रत्येक कार्य उनकी आज्ञा लेकर ही करना चाहिए। रत्नाधिक के साथ रहते हुए भी उनका विनय एवं आज्ञापालन न करने से ज्ञान-दर्शन-चारित्र को उन्नति नहीं होती है अपितु स्वच्छन्दता की वृद्धि होकर आत्मा का अधःपतन होता है और संयम को विराधना होती है। जनसाधारण को ज्ञात होने पर जिनशासन की हीलना होती है। अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org