________________ पांचवां उद्देशक] [361 यदि रोगादि का कारण हो तो ठहरना कल्पता है। रोगादि के समाप्त होने पर यदि कोई कहे कि'--'हे आर्य ! एक या दो रात और ठहरो',' तो उसे एक या दो रात और ठहरना कल्पता है। किन्तु एक या दो रात से अधिक ठहरना नहीं कल्पता है। जो साध्वी एक या दो रात से अधिक ठहरती है, वह मर्यादा-उल्लंघन के कारण दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त की पात्र होती है। विवेचन-चौथे उद्देशक के ग्यारहवें बारहवें सूत्र में अग्रणी साधु के कालधर्म-प्राप्त हो जाने का वर्णन है और यहां अग्रणी साध्वी के कालधर्म-प्राप्त हो जाने का वर्णन है। अन्य साध्वी को अग्रणी बनने या बनाने का अथवा विहार करने का विवेचन चौथे उद्देशक के समान समझना चाहिए। सूत्र में"तीसे य अप्पणो कप्पाए" और "वसाहि अज्जे" आदि एकवचन के प्रयोग प्रमुख साध्वी को लक्ष्य करके किये गये हैं और प्रमुख बनने या बनाने का वर्णन होने के कारण अनेक साध्वियों का होना भी सूत्र से ही स्पष्ट हो जाता है। प्रतिनो के द्वारा पद देने का निर्देश 13. पवत्तिणी य गिलायमाणी अन्नयर वएज्जा-"मए णं अज्जे ! कालगयाए समाणीए इयं समुक्कसियवा।" सा य समुक्कसिणारिहा समुक्कसियव्वा, सा य नो समुक्कसिणारिहा नो समुक्कसियन्या / अस्थि य इत्थ अण्णा काइ समुक्कसिणारिहा सा समुक्कसियन्वा / नस्थि य इत्थ अण्णा काइ समुक्कसिणारिहा सा चेव समुक्कसियव्वा / ताए च णं समुक्किट्ठाए परा वएज्जा-- "दुस्समुक्किट्ठ ते अज्जे / निक्खिवाहि" ताए णं निविखक्माणाए नस्थि केइ छए वा परिहारे वा / जामो साहम्मिणीओ अहाकप्पं नो उट्ठाए विहरंति सव्वासि तासि तप्पत्तियं छए वा परिहारे वा। 14, पवत्तिणी य ओहायमाणी अन्नयरं वएज्जा"मए णं अज्जे ! पोहावियाए समाणीए इयं समुक्कसियव्वा / " सा य समुक्कसिणारिहा समुक्कसियव्वा, सा य नो समुक्कसिणारिहा नो समुक्कसियव्वा / अत्थि य इत्थ अण्णा काइ समुक्कसिणारिहा सा समुक्कसियव्वा / नत्थि य इत्थ अण्णा काइ समुक्कसिणारिहा सा चेव समुक्कसियव्या / ताए च णं समुक्किट्ठाए परा वएज्जा-"दुस्समुक्किळं ते प्रज्जे ! निक्खिवाहि / " ताए णं निक्खिवमाणाए नस्थि केइ छए वा परिहारे वा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org