________________ 366] [व्यवहारसूत्र प्रकार करनी चाहिए, यह इन छेदसूत्रों के विवेचन से सरलतापूर्वक जानने एवं पालन करने का प्रयत्न नहीं करते हैं / यह पागमविधानों की उपेक्षा करना है। ___ अत: वर्तमान के पदवीधरों और गच्छप्रमुखों को अवश्य ही इस ओर ध्यान देकर आगम की अध्ययनप्रणाली को अविछिन्न बनाये रखना चाहिए / अर्थात् प्रत्येक नवदीक्षित युवक संत-सती को उचित व्यवस्था के साथ कम से कम तीन या पांच दस वर्ष तक आगम-अध्ययन एवं आत्मजागृतियुक्त संयमपालन में पूर्ण योग्य बनाना चाहिए। यह प्रत्येक पदवीधर का, गच्छप्रमुख का और गुरु का परम कर्तव्य है / ऐसा करने से ही वे शिष्यों के उपकारक हो सकते हैं। दशा. द. 4 में भी प्राचार्यादि के लिये शिष्य के प्रति ऐसे ही कर्तव्यों का कथन करके उनके ऋण से उऋण होना कहा गया है, जिसका विवेचन वहीं पर देखें / वर्तमान में ऐसा न करने वाले ये अनेक पदवीधर क्या अपने कर्तव्यों के प्रति सजग हैं ? एवं जिनशासन के प्रति कृतज्ञ हैं ? अथवा पदों के द्वारा केवल प्रतिष्ठा प्राप्त करके संतुष्टि करने वाले हैं ? इस विषय में गहरा विचार करके जिनशासन के प्रति कर्तव्यनिष्ठा रखने वाले आत्मार्थी साधकों को आगमानुसार अध्ययन-अध्यापन एवं पदप्रदान करने की व्यवस्था करनी चाहिए एवं विकृत परंपरा को आगमानुसारी बनाने में प्रयत्नशील होना चाहिए। वर्तमान में यह मान्यता भी प्रचलित है कि–'प्राचारांग एवं निशीथसूत्र का यदि गुरुमुख से एक बार वाचन-श्रवण कर लिया तो प्रमुख बनकर विचरण या पदवीधारण किया जा सकता है और ऐसा करने पर सूत्राज्ञा का पालन हो जाता है। किन्तु इन दो सूत्रों में किए गए विधानों को गहराई से समझने पर उपर्युक्त धारणा केवल स्वमतिकल्पित कल्पनामात्र सिद्ध होती है। क्योंकि इन सूत्रों में प्राचारप्रकल्प के विस्मृत होने आदि के विधान से प्रत्येक साधु-साध्वी को कंठस्थ धारण करना ही सिद्ध होता है। __ कई प्राचार्यों की यह भी मान्यता है कि—'साध्वी को निशीथसूत्र का अध्ययन-अध्यापन आर्य रक्षित के द्वारा निषिद्ध है', यह भी आगमविपरीत कल्पना है / क्योंकि प्रस्तुत सोलहवें सूत्र में साध्वी को प्राचारप्रकल्प के कण्ठस्थ रखने का स्पष्ट विधान है। प्रागमविधानों से विपरीत प्राज्ञा देकर परंपरा चलाने का अधिकार किसी भी प्राचार्य को नहीं होता है और साढ़े नवपूर्वी आर्यरक्षितस्वामी ऐसी आज्ञा दे भी नहीं सकते हैं, फिर भी इतिहास के नाम से ऐसी कई असंगत कल्पनाएँ प्रचलित हो जाती हैं। अतः कल्पित कल्पनामों से सावधान रहकर सूत्राज्ञा को प्रमुखता देनी चाहये / स्थविर के लिए आचारप्रकल्प के पुनरावर्तन करने का विधान 17. थेराणं थेरभूमिपत्ताणं आयारपकप्पे नाम अज्झयणे परिभट्टे सिया, कप्पइ तेसि संठवेत्ताण वा, असंठवेत्ताण वा प्रायरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 18. थेराणं थेरभूमिपत्ताणं आयारपकप्पे नाम अज्ञयणे परिस्मठे सिया, कप्पइ तेसि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org