________________ तीसरा उद्देशक [317 तीन विभाग का समावेश करके अट्ठाईस का योग बताया है। प्रस्तुत सूत्र में सोलह बार "प्राचारप्रकल्प" का कथन है और उसके अध्ययन को अत्यधिक महत्त्व दिया है। उससे भी वर्तमान में प्रसिद्ध दोनों ही सूत्रों को समझना उचित प्रतीत होता है। क्योंकि केवल प्राचारांगसूत्र ग्रहण करें तो "प्रकल्प' शब्द निरर्थक हो जाता है और केवल निशीथसूत्र समझे तो आचारांग का अध्ययन किये बिना निशीथसूत्र का अध्ययन करना मानना होगा, जो कि सर्वथा अनुचित है। इसका कारण यह है कि प्रायश्चित्त-विधानों के अध्ययन के पूर्व प्राचार-विधानों का अध्ययन करना आवश्यक होता है / समवायांग और प्रश्नव्याकरणसूत्र में भी सूत्रकार ने प्राचार सम्बंधी पच्चीस अध्ययन के साथ ही प्रायश्चित्त रूप अध्ययन कह कर अट्ठाईस अध्ययन गिनाए हैं। नंदीस्त्र की रचना के समय प्रायश्चित्तविधायक तीन विभागों के बीस उद्देशक प्राचारांगसूत्र से पूर्णतः पृथक् हो चुके थे और उनका नाम "निशीथसूत्र" रख दिया गया था। इसी कारण नंदीसूत्र में "प्रकल्प" या "आचारप्रकल्प" नामक कोई सूत्र नहीं कहा गया है और नंदीसूत्र के पूर्वरचित सूत्रों में अनेक जगह प्राचारप्रकल्प का कथन है किन्तु वहां “निशीथसूत्र" नाम नहीं है। ___ समवायांगसूत्र के उपर्युक्त टीकांश में टीकाकार ने स्पष्ट किया है कि "प्राचार का मतलब प्रथमांग-याचारांगसूत्र और प्रकल्प का मतलब उसका अध्ययन विशेष / जिसका कि प्रसिद्ध दूसरा नाम निशीथसूत्र है", इस प्रकार दोनों सूत्र मिलकर ही सम्पूर्ण प्राचारप्रकल्पसूत्र है। 'प्राचार-प्रकल्प' शब्द के वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार होते हैं१. प्राचार और प्रायश्चित्तों का विधान करने वाला सूत्र निशीथ-अध्ययनयुक्त-प्राचारांग सूत्र। 2. आचारविधानों के प्रायश्चित्त का प्ररूपक सूत्र-निशीथसूत्र / 3. आचारविधानों के बाद तत्संबंधी प्रायश्चित्तों को कहने वाला अध्ययन--प्राचारप्रकल्प अध्ययन-निशीथ अध्ययन / 4. प्राचारांग से पृथक् किया गया खंड या विभाग रूप सूत्र अथवा अध्ययन-प्राचारप्रकल्प अध्ययन-निशोथसूत्र / संख्याप्रधान ठाणांग और समवायांग सूत्र में अनेक अपेक्षाओं से अनेक प्ररूपण किये गये हैं। उसे एकांतअपेक्षा से समझना उचित्त नहीं है। यथा-निशीथसूत्र के 20 उद्देशक हैं किन्तु उन्हें विभिन्न अपेक्षामों से (तीन या पांच) ही गिनाये गये हैं। ठाणांगसूत्र में तीन अनुद्घातिक भी कहे गये हैं और पांच अनुद्घातिक भी कह दिए हैं / इसी प्रकार प्राचारप्रकल्प के पांच विभाग भी कहे गये हैं और अट्ठाईस विभाग भी कहे गये हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, अतः अल्पसंख्या के कथन का आग्रह न रखकर अधिक संख्या अर्थात् अट्ठाईस को पूर्ण मानना चाहिए। सारांश यह है कि संक्षिप्त-अपेक्षा से उपलब्ध निशीथसूत्र को आगम और व्याख्याओं में आचारप्रकल्प कहा गया है और विस्तृत एवं परिपूर्णअपेक्षा से उपलब्ध आचारांग और निशीथसूत्र दोनों को मिलाकर आचारप्रकल्प कहा गया है। अतः निष्कर्ष यह है कि ये दोनों एक ही सूत्र के दो विभाग हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org