________________ चौथा उद्देशक [343 __ इसलिए प्रत्येक साधु-साध्वी को आगमोक्त क्रम से श्रुत-अध्ययन का प्रमुख लक्ष्य रखना चाहिए। ग्लान आचार्यादि के द्वारा पद देने का निर्देश 13. आयरिय-उवज्झाए गिलायमाणे अन्नयरं वएज्जा-"प्रज्जो! ममंसि णं कालगयंसि समाणंसि अयं समुक्कसियन्वे / " से य समुक्कसणारिहे समुक्कसियव्वे, से य नो समुक्कसणारिहे नो समुक्कसियग्वे, अस्थि य इत्थ अण्णे केइ समुक्कसणारिहे से समुक्कसियवे / नस्थि य इत्थ अण्णे केइ समुक्कसणारिहे से चेव समुक्कसियब्वे, तंसि च णं समुक्किट्ठसि परो वएज्जा"दुस्समुक्किट्ठ ते अज्जो ! निविखवाहि !" तस्स णं निक्खिवमाणस्स नत्थि केइ छए वा परिहारे वा। जे साहम्मिया प्रहाकप्पेणं नो उट्ठाए विहरंति सम्वेसि तेसि तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा। 13. रोगग्रस्त आचार्य या उपाध्याय किसी प्रमुख साधु से कहे कि- "हे प्रार्य ! मेरे कालगत होने पर अमुक साधु को मेरे पद पर स्थापित करना।" यदि आचार्य द्वारा निर्दिष्ट वह भिक्षु उस पद पर स्थापन करने योग्य हो तो उसे स्थापित करना चाहिए। यदि वह उस पद पर स्थापन करने योग्य न हो तो उसे स्थापित नहीं करना चाहिए। यदि संघ में अन्य कोई साधु उस पद के योग्य हो तो उसे स्थापित करना चाहिए। यदि संघ में अन्य कोई भी साधु उस पद के योग्य न हो तो प्राचार्य-निर्दिष्ट साधु को ही उस पद पर स्थापित करना चाहिए। उसको उस पद पर स्थापित करने के बाद कोई गीतार्थ साधु कहे कि- "हे आर्य ! तुम इस पद के अयोग्य हो अतः इस पद को छोड़ दो" (ऐसा कहने पर) यदि वह उस पद को छोड़ दे तो दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त का पात्र नहीं होता है। जो सार्मिक साधु कल्प के अनुसार उसे प्राचार्यादि पद छोड़ने के लिए न कहे तो वे सभी सार्मिक साधु उक्त कारण से दीक्षाछेद या तप रूप प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। विवेचन-तीसरे उद्देशक में आचार्य-उपाध्याय पद के योग्य भिक्षु के गुणों का विस्तृत कथन किया गया है। यहां पर रुग्ण प्राचार्य-उपाध्याय अपना अन्तिम समय समीप जान कर प्राचार्यउपाध्याय पद के लिए किसी साधु का नाम निर्देश करें तो उस समय स्थविरों का क्या कर्तव्य है, इसका स्पष्टीकरण किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org