________________ चौथा उद्देशक] निशीथ उद्दे. 17 में अपने प्राचार्यत्व के सूचक लक्षणों को प्रकट करने वाले को प्रायश्चित्त का पात्र कहा गया है। अतः संयमसाधना में लीन गुणसंपन्न भिक्षु को यदि प्राचार्य या अन्य गच्छप्रमुख स्थविर ही गच्छभार सम्भालने के लिए कहें या आज्ञा दें तो अपनी क्षमता का एवं अवसर का विचार कर उसे स्वीकार करना चाहिए किन्तु स्वयं ही आचार्यपदप्राप्ति के लिये संकल्पबद्ध होना एवं न मिलने पर गण का त्याग कर देना आदि सर्वथा अनुचित है। __ इस प्रकार इस सूत्र में निर्दिष्ट सम्पूर्ण सूचनाओं को समझ कर सूत्रनिर्दिष्ट विधि से पद प्रदान करना चाहिए और इससे विपरीत अन्य अयोग्य एवं अनुचित मार्ग स्वीकार नहीं करना चाहिए। ___ इस सूत्र से यह भी स्पष्ट होता है कि स्याद्वाद सिद्धांत वाले वीतरागमार्ग में विनयव्यवहार एवं आज्ञापालन में भी अनेकांतिक विधान हैं. अर्थात विनय के नाम से केवल "बा का निर्देश नहीं है। इसी कारण प्राचार्य द्वारा निर्दिष्ट या अनिर्दिष्ट भिक्षु की योग्यता-अयोग्यता की विचारणा एवं नियुक्ति का अधिकार सूचित किया गया है। ऐसे आगमविधानों के होते हुये भी परम्परा के प्राग्रह से या "बाबावाक्यं प्रमाणम्" की उक्ति चरितार्थ कर के आगमविपरीत प्रवृत्ति करना अथवा भद्रिक एवं अकुशल सर्वरत्नाधिक साधुओं को गच्छप्रमुख रूप में स्वीकार कर लेना गच्छ एवं जिनशासन के सर्वतोमुखी पतन का ही मार्ग है / अतः स्याद्वादमार्ग को प्राप्त करके आगमविपरीत परंपरा एवं निर्णय को प्रमुखता न देकर सदा जिनाज्ञा एवं शास्त्राज्ञा को ही प्रमुखता देनी चाहिये। संयम त्याग कर जाने वाले आचार्यादि के द्वारा पद देने का निर्देश 14. आयरिय-उवज्झाए ओहायमाणे अन्नयरं वएज्जा-"अज्जो! ममंसि णं पोहावियंसि समाणसि अयं समुक्कसियब्बे / " से य समुक्कसणारिहे समुक्कसियध्वे, से 4 नो समुक्कसणारिहे नो समुक्कसियन्वे / अस्थि य इत्थ अण्णे केइ समुक्कसणारिहे से समुक्कसियध्वे / तं सि च णं समुक्किट्ठसि परो वएज्जा-"दुस्समुक्किळं ते अज्जो! निविखवाहि।" तस्स णं निक्खिवमाणस्स नत्थि केइ छए वा परिहारे वा। जे साहम्मिया अहाकप्पेणं नो उडाए विहरति / सव्वेसि तेसि तप्पत्तियं छए वा परिहारे वा। 14. संयम का परित्याग करके जाने वाले प्राचार्य या उपाध्याय किसी प्रमुख साधु से कहें कि "हे आर्य मेरे चले जाने पर अमुक साधु को मेरे पद पर स्थापित करना।" तो यदि आचार्यनिर्दिष्ट वह साधु उस पद पर स्थापन करने योग्य हो तो उसे स्थापित करना चाहिये। यदि वह उस पद पर स्थापित करने योग्य न हो तो उसे स्थापित नहीं करना चाहिये। यदि संघ में अन्य कोई साधु उस पद के योग्य हो तो उसे स्थापित करना चाहिये। यदि संघ में अन्य कोई भी साधु उस पद के योग्य न हो तो प्राचार्यनिर्दिष्ट साधु को ही उस पद पर स्थापित करना चाहिये। उस को उस पद पर स्थापित करने के बाद यदि गीतार्थ साधु कहें कि"हे आर्य ! तुम इस पद के अयोग्य हो, अत: इस पद को छोड़ दो" (ऐसा कहने पर) यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org