________________ 342] [व्यवहारसूत्र मार्ग में उसे विचरने के लक्ष्य से ठहरना नहीं कल्पता है। यदि रोगादि का कारण हो तो अधिक ठहरना कल्पता है। रोगादि के समाप्त होने पर यदि कोई कहे कि~~"हे आर्य ! एक या दो रात ठहरो" तो उसे एक या दो रात और ठहरना कल्पता है / किन्तु एक या दो रात से अधिक ठहरना नहीं कल्पता है / जो भिक्षु एक या दो रात से अधिक ठहरता है, वह मर्यादा-उल्लंघन के कारण दीक्षाछेद या तपरूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है / विवेचन-विचरण या चातुर्मास करने वाले भिक्षुत्रों में एक कल्पाक अर्थात् संघाड़ा-प्रमुख होना आवश्यक है। जिसके लिए उद्देशक 3 सू. 1 में गणधारण करने वाला अर्थात् गणधर कहा है तथा उसे श्रुत एवं दीक्षापर्याय से संपन्न होना आवश्यक कहा गया है / अतः तीन वर्ष की दीक्षापर्याय और आचारांगसूत्र एवं निशीथसूत्र को कण्ठस्थ धारण करने वाला ही गण धारण कर सकता है। शेष भिक्षु उसको प्रमुख मानकर उसकी आज्ञा में रहते हैं / उस प्रमुख के सिवाय उस संघाटक में अन्य भी एक या अनेक संघाड़ा-प्रमुख होने के योग्य हो सकते हैं अर्थात् वे अधिक दीक्षापर्याय एवं पर्याप्त श्रुत धारण करने वाले हो सकते हैं। कभी एक प्रमुख के अतिरिक्त सभी साधु अगीतार्थ या नवदीक्षित ही हो सकते हैं। विचरण या चातुर्मास करने वाले संघाटक का प्रमुख भिक्षु यदि कालधर्म को प्राप्त हो जाय तो शेष साधुनों में से रत्नाधिक भिक्षु प्रमुख पद स्वीकार करे / यदि वह स्वयं श्रुत से संपन्न न हो तो अन्य योग्य को प्रमुख पद पर स्थापित करे / __ यदि शेष रहे साधुओं में एक भी प्रमुख होने योग्य न हो तो उन्हें चातुर्मास में रहना या विचरण करना नहीं कल्पता है, किन्तु जिस दिशा में अन्य योग्य सार्मिक भिक्ष निकट हों, उनके समीप में पहुंच जाना चाहिये / ऐसी स्थिति में चातुर्मास में भी विहार करना आवश्यक हो जाता है तथा हेमंत ग्रीष्म ऋतु में भी अधिक रुकने की स्वीकृति दे दी हो तो भी वहां से विहार करना आवश्यक हो जाता है। जब तक अन्य सामिक भिक्षुत्रों के पास न पहुंचे तब तक मार्ग में एक दिन की विश्रांति लेने के अतिरिक्त कहीं पर भी अधिक रुकना उन्हें नहीं कल्पता है। किसी को कोई शारीरिक व्याधि हो जाय तो उपचार के लिए ठहरा जा सकता है। व्याधि समाप्त होने के बाद वैद्य आदि के कहने से 1-2 दिन और भी ठहर सकता है / स्वस्थ होने के बाद दो दिन से अधिक ठहरने पर यथायोग्य प्रायश्चित्त आता है / इन सूत्रों के प्रतिपाद्य विषय का सार यह है कि योग्य शिष्य को आवश्यकश्रुत-अध्ययन (प्राचारप्रकल्प आदि) शीघ्र अर्थसहित कंठस्थ धारण कर लेना चाहिए, क्योंकि उसके अपूर्ण रहने पर वह भिक्षु गण (संघाटक) का प्रमुख नहीं हो सकता एवं प्रमुख के कालधर्म प्राप्त हो जाने पर चातुर्मास में भी उसे विहार करना आवश्यक हो जाता है और एक भी दिन वह कहीं विचरण के भाव से या किसी की विनती से नहीं रह सकता है। किन्तु यदि उक्त श्रुत पूर्ण कर लिया हो तो वह भिक्षु कभी भी सूत्रोक्त प्रमुख पद धारण कर सकता है / स्वतंत्र विचरण एवं चातुर्मास भी कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org