________________ तीसरा उद्देशक] [319 प्रकल्प नाम का कोई भी सूत्र उस समय प्रसिद्धि में नहीं रहा था फिर भी प्राचारप्रकल्प के नाम से अनेक विधान तो आज तक भी आगमों में उपलब्ध हैं। प्रस्तुत प्रथम सूत्र द्विक में उपाध्याय पद योग्य भिक्षु के लिए इसके अध्ययन करने का और अर्थ सहित कण्ठस्थ धारण करने का विधान है। यह उपाध्याय पद योग्य भिक्षु के लिए आवश्यक जघन्यश्रुत है / इसके कण्ठस्थ न होने पर वह उपाध्याय पद पर स्थापित करने के अयोग्य कहा गया है। दसा-कप्प-ववहारधरे द्वितीय सूत्रद्विक में आचार्य पद के योग्यायोग्य का कथन करते हुए जघन्य पांच वर्ष की दीक्षापर्याय एवं अन्य बहुश्रुत पयंत के सभी गुणों को कह कर कम से कम तीन छेदसूत्रों को धारण करना आवश्यक कहा है। __मूल पाठ में इनके लिए 'छेदसूत्र' शब्द का प्रयोग नहीं है तथा नंदीसूत्र में कही गई सूत्रसूची में भी इन्हें छेदसूत्र नहीं कहा गया है। अन्य आगमों में भी 'छेदसूत्र' शब्द का प्रयोग नहीं है / भाष्य, चूणि आदि व्याख्यानों में 'छेदसूत्र' शब्द का प्रयोग मिलता है। अतः नंदी की रचना के बाद व्याख्याकारों के समय में इन सूत्रों की 'छेदसूत्र' संज्ञा हो गई है / निशीथसूत्र उ. 19 में आये "उत्तम श्रुत' निर्देश की व्याख्या में दृष्टि वाद अथवा छेदसूत्रों को 'उत्तमश्रुत' माना गया है, वहां सूत्र में प्राचारशास्त्र का अध्ययन कराने के पूर्व 'उत्तमश्रुत' का अध्ययन कराने पर प्रायश्चित्त कहा है। यहां 'दसा' शब्द से दशाश्रुतस्कंधसूत्र, 'कप्प' शब्द से बृहत्कल्पसूत्र और 'ववहार' शब्द से व्यवहारसूत्र का कथन किया गया है। ये तीनों सूत्र चौदहपूर्वी प्रथम भद्रबाहुस्वामी द्वारा रचित (नियूंढ) हैं, यह निर्विवाद है। आगमों में एक विशेष प्रकार की शैली उपलब्ध है, जिससे किन्हीं सूत्रों में स्वयं उसी.सूत्र का नाम दिया गया है / यथा-नंदीसूत्र में नंदीसूत्र का नाम, समवायांगसूत्र में समवायांगसूत्र का नाम / इसी प्रकार प्रस्तुत व्यवहारसूत्र में भी व्यवहारसूत्र के अध्ययन का निर्देश दो रथलों में किया गया है-- प्रस्तुत सूत्र 5 में तथा दसवें उद्देशक के अध्ययनक्रम में / विशेष प्रकार की शैली के अतिरिक्त इसमें कोई ऐतिहासिक कारण भी हो सकता है। अन्वेषक बहुश्रुत इस विषय का मनन करके कुछ न कुछ रहस्योद्घाटन करने का प्रयत्न करें। ठाण-समवायधरे--तृतीय सूत्रद्विक में गणावच्छेदक पद के योग्यायोग्य भिक्षु का कथन करते हुए आठ वर्ष की दीक्षापर्याय एवं बहुश्रुत पर्यंत के सभी गुणों को कहकर कम से कम ठाणांगसूत्र और समवायांगसूत्र को कण्ठस्थ धारण करना आवश्यक कहा है / यद्यपि गणावच्छेदक से आचार्य और उपाध्याय के पद का विशेष महत्त्व है तथापि कार्यों की अपेक्षा एवं गण-चिता की अपेक्षा गणावच्छेदक का क्षेत्र विशाल होता है। अतः इनके लिए जघन्य दीक्षापर्याय एवं जघन्यश्रुत भी अधिक कहा गया है। यहां सूत्र में गणावच्छेदक के साथ-साथ अन्य पदवियों का भी संग्रह कई प्रतियों में किया गया है, जिनकी कुल संख्या कुछ प्रतियों में 6 या 7 भी मिलती है / भाष्यादि व्याख्यानन्थों में कहा है कि प्रत्येक विशाल गच्छ में पांच पदवीधरों का होना आवश्यक है। अन्यथा उस गच्छ को साधुनों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org