________________ तीसरा उद्देशक] [333 संयम के त्यागने में परोषह या उपसर्ग आदि कई कारण हो सकते हैं / ब्रह्मचर्य आदि महाव्रत पालन की अक्षमता का भी कारण हो सकता है। किसी भी कारण से संयम त्यागने वाला यदि पुन: दीक्षा ग्रहण करे तो उसे भी तीन वर्ष तक या जीवनपर्यन्त पदवी नहीं देने का वर्णन पूर्व सूत्रपंचक के समान यहां भी समझ लेना चाहिए तथा शब्दार्थ भी उसी के समान समझ लेना चाहिए। अनेक आगमों में संयम त्यागने का एवं परित्यक्त भोगों को पुनः स्वीकार करने का स्पष्ट निषेध किया गया है। दशवैकालिकसूत्र की प्रथम चूलिका में संयम त्यागने पर होने वाले अनेक अपायों (दुखों) का कथन करके संयम में स्थिर रहने की प्रेरणा दी गई है। उस चूलिका का नाम भी "रतिवाक्य" है, जिसका अर्थ है संयम में रुचि पैदा करने वाले शिक्षा-वचन / अतः उस अध्ययन का चिन्तन-मनन करके सदा संयम में चित्त स्थिर रखना चाहिए। पापजीवी बहुश्रुतों को पद देने का निषेध 23. भिक्खु य बहुस्सुए बब्भागमे बहुसो बहु-आगाढा-गाढेसु कारणेसु माई मुसाबाई, असुई, पावजीवी, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 24. गणावच्छेइए य बहुस्सुए बभागमे बहुसो बहु-भागाढा-गाढेसु कारणेसु माई मुसाबाई, असुई, पावजीवी, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ पायरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। ___ 25. पायरिय-उवज्झाए य बहुस्सुए बब्भागमे बहुसो बहु-आगाढा-गाढेसु कारणेसु माई मुसाबाई, असुई, पावजीवी, जावज्जीवाए तस्स तप्पत्तियं नो कप्पइ पायरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा / 26. बहवे भिक्खुणो बहुस्सुया बब्भागमा बहुसो बहु-आगाढा-गाढेसु कारणेसु माई मुसावाई, असुई, पावजीवी, जावज्जीवाए तेसि तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। 27. बहबे गणावच्छेइया बहुस्सुया बभागमा बहुसो बहु-आगाढा-गाढेसु कारणेसु माई मुसावाई, प्रसुई, पावजीवी, जावज्जीवाए तेसि तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए था। 28. बहवे प्रायरिय-उवज्शाया बहुस्सुया बब्भागमा बहुसो बहु-आगाढा-गाढेसु कारणेसु माई मुसावाई, प्रसुई, पावजीवी जावज्जीवाए तेसि तप्पत्तियं नो कप्पइ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org